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सूचना के इस युग में कितने सूचित हैं लोग ?

सूचना के इस युग में कितने सूचित हैं लोग ?

नाजिया नाज़
आज पत्रकारिता एक कठिन दौर से गुजर रही है. लोकत्रंत्र और समाज में इसकी जिस भूमिका के अपेक्षा की गयी थी वह धूमिल से हो गयी है. आम नागरिक के लिए ये पता करना मुशिकल हो गया है की क्या सच है और क्या झूठ? सवाल उठ रहे हैं की सूचना के इस युग में लोग किस हद तक सूचित हैं? किस हद तक जानकर हैं और इस सब में मीडिया क्या भूमिका अदा कर रहा है ?

फर्जी खबरें नए खतरे के रूप में सामने आई हैं जिनके स्रोत अनेक हैं. पर चिंता तब अधिक होती है जब पत्रकार बिरादरी के ही कुछ लोग इसमें शामिल दिखतें हैं. आज की मुख्यधारा मीडिया में आम लोगों से जुड़े असली सामाजिक और आर्थिक मुद्दे हासिए पर चले गयें हैं और सतही मुद्दे हावी हो गए हैं.

मीडिया के व्यापारीकरण के उपरांत मीडिया और पत्रकारिता में बुनियादी परिवर्तन आयें हैं. TRP के चक्कर मे वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहित करने में मदद के बजाय कुछ पत्रकार रेटिंग पाने और ध्यान खींचने के लिए अतार्किक तरीके से काम करते हैं। ‘‘ब्रेकिंग न्यूज सिंड्रोम’’ के शोरशराबे में संयम और जिम्मेदारी के मूलभूत सिद्धांत की अनदेखी की जा रही है। परम्परागत पत्रकारिता में ‘फाइव डब्ल्यू एंड एच’ (व्हाट (क्या), व्हेन (कब), व्हाई (क्यों), व्हेयर(कहां), हू (कौन) और हाउ (कैसे) के मूलभूत सिद्धांतों का पनाल लिया जाता था , जिनका जवाब देना किसी सूचना के खबर की परिभाषा में आने के लिये अनिवार्य था। वस्तुपरिकता, निष्पक्षता, संतुलन और तथ्यपरकता जैसे मूलभूत सिद्धातों का लगभग परित्याग सा हो गया है. तथ्यों के खिलवाड़ आम हो गया है . Fact और fiction का अंतर धूमिल हो गया है.

सूचनाओं का महासागर पैदा हो गया है पर इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता की इन सूचनाओं का स्रोत क्या है और ये कितने विश्वसनीय है . लेकिन आज पत्रकारिता ने इन तत्वों को हद तक दरकिनार कर दिया है. हालाँकि आज ख़बरों के अनेक प्लेटफार्म हैं और अच्छा-बुरा सब उपलब्ध है पर मुख्यधारा मीडिया आज वह भूमिका अदा नहीं कर रहा है जिसकी इससे अपेक्षा की जाती है . आखिर देश और समाज का एजेंडा सेट करने में तो मुख्यधारा मीडिया की ही अहम् भूमिका होती है . मुख्यधारा मीडिया ही उन मुद्दों को तय करता है जिन पर लोग विचार- विमर्श करतें हैं और अपनी राय विकसित करतें हैं. जनता की यही राय लोकतंत्र की बुनियाद है.

पत्रकारिता आज जिस दिशा में बढ़ रही है उसमें ‘फर्जी खबरें” नए खतरे के रूप में उभरी हैं. मीडिया और पत्रकारों का इस हिस्सा इसमें शामिल है. Media Trial भी जोर पकडती जा रही है. यह भी सच है कि पत्रकारों को अपने कर्तव्य के निर्वहन के दौरान कई भूमिकाएं निभानी पड़ती हैं. इस प्रक्रिया में कई बार वे जांचकर्ता, अभियोजक और न्यायाधीश की भूमिका निभाते नज़र आते हैं. लेकिन जब मीडिया बार-बार इस तरह की भूमिका निभाता है तो लोकतान्त्रिक पक्रिया कमजोर होती है और अनेक ethical सवाल पैदा होतें हैं. इन सब कारणों के चलते इसमें कोई शक नहीं है कि पत्रकारिता एक कठिन दौर से गुजर रही है और इसके भविष्य को लेकर कुछ भी कहाँ असम्भय सा लगता है .

सच तक पहुंचने के लिए एक समय में कई भूमिका निभाने की खातिर पत्रकारों को काफी आंतरिक शक्ति और अविश्वसनीय जुनून की आवश्यकता होती है। ऐसे में उनकी बहुमुखी प्रतिभा का होना लाजिमी है.

लोकतंत्र, तथ्यों के उजागर होने और उन पर बहस करने की इच्छा पर निर्भर करता है। ‘‘लोकतंत्र तभी सार्थक है, जब नागरिक अच्छी तरह से जानकार हो।’’
( नाजिया नाज़ ने भारतीय जन संचार संस्थान से पत्रकारिता से प्रशिक्षण प्राप्त किया है और वे ऑनलाइन पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत हैं )

I you don’t read the newspaper you are uninformed, if you read the newspaper you are misinformed- Mark Twain

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