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संपादन कला (प्रिंट माध्यम के संदर्भ में)

हिंदी पत्रकारिता की सदाबहार गलतियां

आलोक श्रीवास्तव
संपादक‚ अहा जिंदगी व दैनिक भास्कर मैगजीन डिवीजन.

संपादन एक व्यापक शब्द है। अकसर हम संपादन का अर्थ समाचारों के संपादन से लेते हैं। पर संपादन अपने संपूर्ण अर्थों में पत्रकारिता के उस काम का सम्मिलित नाम है‚ जिसकी लंबी प्रक्रिया के बाद कोई समाचार‚ लेख‚ फीचर‚ साक्षात्कार आदि प्रकाशन और प्रसारण की स्थिति में पहुंचते हैं। संपादन कला को ठीक से समझने के लिए जरूरी है कि यह जान लिया जाए कि यह क्या नहीं है:

1. लिखित कॉपी को काट-छांट कर छोटा कर देना

2. लिखित कॉपी की भाषा बदल देना

3. लिखित कॉपी को संपूर्णतः रूपांतरित कर देना

4. लिखित कॉपी को हेडिंग व सबहेडिंग से सुसज्जित कर देना

5. लिखित कॉपी को अलंकृत कर देना

6. लिखित कॉपी को सरल बना देना या उसे कोई खास स्वरूप दे देना

7. लिखित कॉपी में तथ्यों को ठीक करना या तथ्यों का मूल्यांकन कर उन्हें घटा-बढ़ा देना

8. लिखित कॉपी को पाठकों के बौद्धिक या समझ के स्तर के अनुरूप बना देना

अब इस बिंदु पर यह बता देना जरूरी है कि किसी भी कॉपी के संपादन में यह सब किया जाता है। पर हर कॉपी में यह सब करने की गुंजाइश अलग होती है। उपरोक्त काम हर कॉपी में एक समान रूप से नहीं किया जा सकता‚ यदि ऐसा किया गया तो वह एक गलत संपादन का उदाहरण होगा। अच्छे संपादन के लिए चार बातों की परख बहुत जरूरी है:

1. दी गई कॉपी बिना किसी परिवर्तन के ज्यों की त्यों मुद्रण के लिए अग्रसारित हो। यह जरूरत तब पड़ती है, जब कोई कॉपी भाषा‚ विचार‚ तथ्य हर दृष्टि से मुकम्मल हो। परंतु होता यह है कि संपादन करने का अनुभव पा चुका व्यक्ति हर कॉपी को तब्दील करने और सुधारने के मोह से खुद को मुक्त नहीं कर पाता। यदि वह किसी कॉपी को बिना कोई निशान लगाए अग्रसारित करने का विवेक विकसित कर लेता है तो यह संपादन कला का एक बेहतर उदाहरण होगा। यहां यह बता देना जरूरी है कि ऐसी कॉपियां कम ही होती हैं। यह ठीक ऐसा ही है कि क्रिकेट में ऑफ स्टंप के बिल्कुल पास से निकलती अच्छी लेंथ और अच्छी लंबाई की बेहतरीन गेंद को छोड़ देने का कौशल अर्जित करना। बड़े से बड़े खिलाड़ी इसमें पूर्ण कुशल नहीं हो पाते। सुनील गावस्कर इस कला में अप्रतिम थे।

2. कॉपी में मामूली फेरबदल और सुधार कर उसे लगभग मुकम्मल बना देना।

3. कॉपी में बहुत अधिक परिर्वतन करना।

4. कॉपी को लगभग पूरी तरह से री-राइट करना।

इन चारों बातों को ठीक से समझ लेना जरूरी है। किसी भी अखबार या पत्रिका के पास बहुत सारे स्रोतों से लिखित कॉपी आती है। इनका अलग अलग स्तर होता है। उस स्तर और गुणवत्ता की ठीक पहचान कर पाना और उसके अनुरूप उस कॉपी के साथ ट्रीटमेंट करने का कौशल विकसित कर पाना ही बेहतर संपादन की ओर ले जाएगा। यह सब तो वे बातें हुईं जो संपादन को संभव बनाती हैं या उसे बेहतर बनाती हैं। पर यह करने के लिए जो तैयारी चाहिए वह महत्वपूर्ण है। इस तैयारी को भी समझने के लिए इन बिंदुओं में बांटा जा सकता है:

1. व्यापक अध्ययन व अभिरुचि: राजनीति‚ समाज‚ इतिहास‚ संस्कृति‚ सिनेमा‚ खेल‚ साहित्य आदि जीवन और समाज से जुड़ी ढेरों चीजों का अध्ययन करना और उनमें रुचि लेना ही बेहतर संपादन के लिए तैयार कर सकता है‚ यही वह कच्चा माल है‚ जिससे संपादन के कौशल को विकसित किया जाता है। इसे और सरल ढंग से समझ लें। कोई भी कॉपी किसी न किसी विषय से संबंधित होती है‚ वह कॉपी समाचार के रूप में हो या फीचर के रूप में आलेख के रूप में हो या साक्षात्मकार के रूप में। उस विषय की जानकारी ही यह बता पाएगी कि तथ्य कितने सही हैं‚ उनका विश्लेषण या प्रस्तुतीकरण कितना संगत है।

2. भाषा का समुचित ज्ञान: जिस भाषा में संपादन किया जाना है‚ उसके समुचित ज्ञान का मतलब है कि उसके विराम चिंहों‚ व्याकरण‚ वाक्यरचना‚ मुहावरों‚ शब्द-संपदा‚ अभिव्यक्ति शैली तथा भाषा व संप्रेषण के विविध रूपों व स्तरों का ठीक ज्ञान‚ अनुभव और अभ्यास ही वह दक्षता विकसित कर सकता है कि अच्छा संपादन किया जा सके

3. विधा की समझ: समाचार‚ फीचर‚ आलेख‚ इंटरव्यू ऐसी ही अनेक विधाएं या रूप हैं जिनमें पत्रकारिता संबंधी लेखन होता है‚ हर विधा की अपनी विशिष्टता है। कोई समाचार आलेख की तरह नहीं लिखा जा सकता‚ न ही कोई फीचर समाचार की शैली में लिखा जा सकता है। विधा की जरूरत के अनुसार कॉपी होनी चाहिए। यदि नहीं है तो कितने और किस तरह के परिवर्तन से वह वैसी हो सकती है‚ यह समझ होनी चाहिए।

4. प्रस्तुति का विवेक: इसमें हेडिंग‚ सबहेडिंग लगाना‚ पैराग्राफस में कॉपी को बांटना‚ कौन सा पैरा पहले आना चाहिए कौन सा बाद में‚ कौन से वाक्य पहले आने चाहिए कौन से बाद में‚ शब्दों‚ वाक्यों‚ पैरा का परस्पर संबद्ध होना। इंट्रो‚ हाइलाइटर‚ कैप्शन आदि से कॉपी को सज्जित करना‚ और आकर्षक बनाना यह आज बहुत महत्व रखता है। यह सारा काम भी विधा के अनुरूप होना चाहिए‚ यानी समाचार‚ फीचर‚ आलेख…. आदि की प्रस्तुति में भिन्नता होगी‚ फिर यह प्रस्तुति अखबार‚ पत्रिका आदि के अपने विशिष्ट स्वरूप और पाठक वर्ग के अनुसार होगी। संपादन के लिए सबसे जरूरी चीज है – अभिरुचि का विकास। यह अभिरुचि भाषा, कंटेंट‚ विचार‚ समाज‚ पत्रकारिता के विविध माध्यम और विधा के अनेक रूपों में में गतिशील होनी चाहिए। अखबारों‚ पत्रिकाओं आदि का अपना एक इतिहास है‚ इसी प्रकार पाठक वर्ग का भी अपना एक इतिहास है यह इतिहास विकास के अनेक दौरों से गुजरा है‚ जिसने आज के पत्रकारिता माध्यमों और पाठक वर्ग को इनका वर्तमान स्वरूप दिया है। इस विकास की समझ संपादन कौशल को परिमार्जित और अपडेट करती है। साफ है कि आज के किसी अखबार के समाचार की भाषा और प्रस्तुति देखें तो यह 30-40 पहले की भाषा और प्रस्तुति से बिल्कुल अलग होगी। इसी प्रकार यह भी पता चलता है कि आज समाचारों का दायरा बढ़ा है। ढेरों नए विषय और नए क्षेत्र पैदा हुए हैं। पाठकों की अभिरुचि और जागरूकता का स्तर भी बढ़ा है। उनका एक्सपोजर बढ़ा है। रेडियो‚ टीवी‚ इंटरनेट‚ साप्ताहिक‚ मासिक‚ दैनिक विविध तरह के माध्यम और उनकी पहुंच बढ़ी है। अब ऐसा नहीं हो सकता है कि सुबह के अखबार में ही जो समाचार छपा है‚ वह अगले दिन के बुलेटिन में रेडियो पर पढ़ा जाए‚ जबकि ऐसा बरसों पहले यदाकदा होता ही था। यानी समय‚ माध्यम‚ पाठक इनकी गहरी समझ ही सामग्री चयन को अपडेट रखने‚ उसका उचित संयोजन करने और उसे बेहतर ढंग से सुसंपादित रूप में प्रस्तुत करने में मदद कर सकती है। आज कॉपी के साथ‚ ग्रॉफिक्स‚ डाटा‚ विजुअल‚ चार्ट आदि का महत्व बहुत बढ़ा है। संपादन में इनका बेहतर इस्तेमाल अखबारों-पत्रिकाओं को ज्यादा आकर्षक और उपयोगी बनाता है।

संपादन के निम्नलिखित चरण माने जा सकते हैं –

1. सामग्री चयन व सामग्री विश्लेषण

2. सामग्री का भाषा संपादन

3. प्रस्तुतिकरण

ये तीनों काम परस्पर संबद्ध हैं‚ और इनमें बेहतर तालमेल से ही बेहतर संपादन कार्य किया जा सकता है। एक अन्य बात जो गुजारे जमाने की पत्रकारिता में महत्वपूर्ण मानी जाती थी‚ परंतु अब इसका चलन कम हो गया है‚ वह है वैचारिक रुझान। संपादन का यह जरूरी हिस्सा हुआ करता था। अब पत्रकारिता के बदले दौर में यह माना जाता है कि बेहतर अखबार या पत्रिका के लिए वैचारिक रुझान बाधक है। हालांकि इसका असर यह पड़ा है कि वैचारिक रुझान से रहित संपादन में भी अदृश्य और बारी वैचारिक रुझान होते ही हैं। ये वैचारिक रुझान प्रभुत्वशाली विचारधाराओं से बने वर्तमान के सामूहिक अवचेतन के रूप में होते हैं। कुल मिलाकर हुआ यह है कि सजग वैचारिकता अब नेपथ्य में है। इसका परिणाम वर्तमान पत्रकारिता के शिल्प और प्रस्तुतिकरण को निखारने और उसे विचाररहित बनाने की ओर बढ़ा है। कंटेंट के स्तर पर यह अच्छे संपादन में मदद नहीं करता। अच्छे संपादन के लिए यह कौशल भी बहुत जरूरी है कि अपने विचारों‚ उनके स्रोतों और उनके निर्माण की प्रक्रिया के बारे में सजगता हो।

Tags: Art of editingआलोक श्रीवास्तवसंपादन कला
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Comments 3

  1. arvind kumar shukla says:
    8 years ago

    शानदार आलोक सर

    Reply
  2. kumar bhawesh says:
    8 years ago

    संग्रहित करने योग्य पाठ्य सामग्री

    Reply
  3. Akhil mittal says:
    8 years ago

    इस विषय पर आलोक जी से दक्ष गुरु कौन हो सकता है.गागर में सागर है.अवश्य उपयोगी होगा.

    Reply

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