About
Editorial Board
Contact Us
Friday, June 2, 2023
NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India
No Result
View All Result
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal
No Result
View All Result
NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India
Home Journalism

ब्लॉगिंग : बांटिये अपनी पसंद लोगों में साथ

ब्लॉगिंग : बांटिये अपनी पसंद लोगों में साथ

अशोक पान्डे।

इन्टरनेट पर अपने अनुभव बाकी लोगों के साथ बांटने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक तरह की व्यक्तिगत डिजिटल डायरी के लिए वैब्लॉग शब्द का प्रयोग सबसे पहले 17 दिसम्बर 1997 को जोर्न बार्जर द्वारा किया गया था। बार्जर रोबोट विस्डम नाम की अपनी एक वैबसाइट पर इस तरह के अनुभव बांटा करते थे। अप्रैल-मई 1999 में वैब्लॉग शब्द से यूं ही खेलते हुए अपने ब्लॉग पीटरमी डॉट कॉम इस शब्द को वी ब्लॉग में तोड़कर पहले पहल ब्लॉग शब्द का बाकायदा प्रयोग किया। कुछ ही समय बाद पाइरा लैब्स के इवान विलियम्स ने सबसे पहले ब्लॉग शब्द को बतौर संज्ञा और क्रिया इस्तेमाल किया। यहीं से ब्लॉगर शब्द का भी उद्भव हुआ। इवान विलियम्स ने मेग हॉरीहैन के साथ मिलकर अगस्त 1999 में ब्लॉगर.कॉम लॉन्च किया जिसे फ़रवरी 2003 में गूगल ने खरीद लिया। इसी के आसपास ओपेन डायरी, लाइवजर्नल और पिटास.कॉम जैसे ब्लॉगिंग उपकरण भी अन्य लोगों ने इस्तेमाल किए पर ब्लॉगर.कॉम इन उपकरणों में सबसे सफल और लोकप्रिय हुआ।

बहुत ही कम समय में दुनिया में ब्लॉगिंग करने वालों की संख्या अनुमान से कहीं आगे जा पहुंची। फ़िलहाल कितने लोग इस विधा में सक्रिय रूप से लगे हुए हैं, सही-सही कह पाना मुश्किल होगा। लेकिन अकेले अंग्रेज़ी भाषा में ब्लॉगिंग करने वालों की संख्या कई करोड़ तो होगी ही। एक आधिकारिक ब्लॉग-एग्रीगेटर टैक्नोराटी के मुताबिक 2007 तक दुनिया भर में तकरीबन सौ करोड़ सक्रिय ब्लॉग थे। जाहिर है अकल्पनीय रूप से इतने सारे लोगों द्वारा अपनाई गई इस विधा ने संचार के एकदम नए साधन का रूप हासिल करने में बहुत समय नहीं लिया।

हिन्दी भाषा में ब्लॉगिंग कई कारकों के चलते काफ़ी देरी से पहुंची या यूं कहना चाहिए काफ़ी देरी से लोकप्रियता हासिल कर सकी। आलोक कुमार के ब्लॉग नौ दो ग्यारह (http://9211.blogspot.com/) को हिन्दी का पहला ब्लॉग माना जाता है और यह ब्लॉग 2003 में ही सक्रिय था। आलोक कुमार ने ही ब्लॉग के लिए हिन्दी में चिठ्ठा शब्द का प्रयोग करना शुरू किया। लेकिन हिंदी में टाइप करने में आने वाली तमाम दिक्कतों के चलते ब्लॉगिंग की पहुंच हिन्दी में बहुत ही कम बल्कि नगण्य बनी रही। सन 2007 में इण्डिक यूनीकोड और गूगल इण्डिल ट्रान्सलिटरेटर जैसे उपकरणों के आने से हिन्दी ब्लॉगों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी। इसके अलावा मीडिया की मुख्यधारा ने भी संचार के इस उपकरण को खासी तवज्जो दी। एक अनुमान के मुताबिक फ़िलहाल हिन्दी में ब्लॉगिंग करने वालों की संख्या कोई पच्चीस हज़ार होगी। मानना होगा कि अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं की तुलना में यह संख्या काफ़ी कम है लेकिन कारण कुछ भी हों, चीज़ों को देर से स्वीकार करने का चलन आधुनिक हिन्दी भाषा के स्थाई चरित्र का हिस्सा था और अब तक बना हुआ है।

मुझे यह बात स्वीकार करने में ज़रा भी हिचक नहीं है कि जुलाई 2007 तक हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में मेरी जानकारी शून्य थी। एक परिचित के इसरार पर मैंने 14 जुलाई 2007 को अपने ब्लॉग कबाड़ख़ाना (http://www.kabaadkhaana.blogspot.com/) की औपचारिक शुरूआत केवल इस अर्थहीन से लगने वाले इस वाक्य से की – “कबाड़खाने में सभी का स्वागत है।” इस के दो ढाई महीनों तक मैंने इस ब्लॉग को अनदेखा ही रखा। इसके पीछे भी सम्भवतः चीज़ों को देर से स्वीकार करने की मेरी वही गऊपट्टीवासियों वाली निर्विवाद प्रवृत्ति थी।

यह और बात है कि अपने परिचितों द्वारा नए-नए शुरू किए गए उनके ब्लॉगों और उनके द्वारा सुझाए गए अन्य ठिकानों पर मैंने तांकझांक जारी रखी। मुझे अहसास हुआ कि अधिकांश हिदी ब्लॉग एकांगी थे या बेहद व्यक्तिगत, जबकि अपनी मूल परिभाषा में ब्लॉगिंग जीवन से जुड़े अपने अनुभवों को बांटने का औज़ार बताई गई थी, जो अपरिहार्य रूप से बहुआयामी होते हैं। इस के बावजूद कुछ ब्लॉग मेरा ध्यान खींच पाने में कामयाब हुए जिनमें से अधिकांश मेरे परिचित-मित्रों द्वारा चलाए जा रहे थे। उदाहरण के तौर पर रेडियो पर काम करने वाले मित्र इरफ़ान का ब्लॉग टूटी हुई बिखरी हुई (http://tooteehueebikhreehuee.blogspot.com/), पत्रकार चन्द्रभूषण का पहलू (http://pahalu.blogspot.com/), यूनुस खा़न और विमल वर्मा के संगीतकेन्द्रित ब्लॉग क्रमशः रेडियोवाणी (http://radiovani.blogspot.com/) और ठुमरी (http://thumri.blogspot.com/), इरफ़ान का ही ट्रकछाप शायरी पर केन्द्रित सस्ता शेर (http://ramrotiaaloo.blogspot.com/) और आशुतोष उपाध्याय का बुग्याल (http://bugyaal.blogspot.com/) इत्यादि। इसके अलावा जिन चिठ्ठों ने ध्यान खींचा उनमें गीत चतुर्वेदी का वैतागवाड़ी (http://geetchaturvedi.blogspot.com/), अजित वडनेरकर का शब्दों का सफ़र (http://shabdavali.blogspot.com/), दिलीप मण्डल का रिजेक्ट माल (http://rejectmaal.blogspot.com/), टीवी पत्रकार रवीश कुमार का क़स्बा (http://naisadak.blogspot.com/) और अविवाश दास द्वारा संचालित सामूहिक पत्रकारितापरक ब्लॉग मोहल्ला (http://mohalla.blogspot.com/) प्रमुख थे। और भी कई थे पर उन सब के नाम इस समय याद नहीं आ रहे।

कबाड़ख़ाना की किसी ठोस संरचना ने अभी मन में जगह बनाना शुरू नहीं किया था। शुरूआत में कुछ गप्पों और ताज़ा किए गए कुछ अनुवादों को कबाड़ख़ाना पर पोस्ट करने के बाद मेरे मन में यह विचार आया क्यों न इस ब्लॉग को एक सामूहिक मंच बनाया जाए। पत्रकारिता पर आधारित कुछेक सामूहिक ब्लॉग पहले से ही विद्यमान थे और कुछ ऐसे भी जिनमें बाकायदा हर रोज़ चुनिन्दा हिन्दी चिठ्ठों की पोस्ट्स पर समालोचनात्मक समीक्षाएं प्रकाशित होती थीं। लेकिन कला की तमाम विधाओं, गप्पों, संगीत, फ़िल्मों और समकालीन महत्व के मुद्दों को एक साथ समेटे कोई एक ब्लॉग नज़र नहीं आता था। यदि ऐसे इक्का-दुक्का उदाहरण थे भी तो वे भीषण तरीके से आत्मकेन्द्रित और किंचित बचकाने थे।

कबाड़ख़ाना को सामूहिक ब्लॉग बनाने की शुरूआत काफ़ी उत्साहजनक रही और दो महीने बीतते न बीतते इस ब्लॉग से कोई डेढ़ दर्ज़न भर रचनात्मक मित्र जुड़ गए जिन्हें श्रेष्ठ कबाड़ी के नाम से सम्बोधित गया। इनमें साहित्य अकादेमी पुरुस्कार विजेता वीरेन डंगवाल भी थे, कवि सुन्दर चन्द ठाकुर, सिद्धेश्वर सिंह और शिरीष मौर्य भी, पत्रकारिता से जुड़े आशुतोष उपाध्याय, चन्द्रभूषण, राजेश जोशी और रेडियो से जुड़े इरफ़ान और मुनीष शर्मा भी। 8 अक्टूबर 2007 को एक पोस्ट में आशुतोष उपाध्याय ने कबाड़वाद का मैनिफ़ेस्टो जैसा कुछ यूं लिखा –

“दुनिया के सबसे खादू और बरबादू देश अमेरिका की कोख से जन्मा है कबाड़वाद (फ्रीगानिज्म) और बनाना चाहता है इस दुनिया को सबके जीने लायक और लंबा टिकने लायक। कबाड़वादी मौजूदा वैश्विक अर्थव्यवस्था में उत्पादित चीजों को कम से कम इस्तेमाल करना चाहते हैं। फर्स्ट हैण्ड तो बिल्कुल नहीं। ये लोग प्राकृतिक संसाधनों से उतना भर लेना चाहते हैं, जितना कुदरत ने उनके लिए तय किया है। कबाड़वाद के अनुयायी वर्तमान व्यवस्था की उपभोक्तावाद, व्यक्तिवाद, प्रतिद्वंद्विता और लालच जैसी वृत्तियों के बरक्स समुदाय, भलाई, सामाजिक सरोकार, स्वतंत्रता, साझेदारी और मिल बांटकर रहने जैसी बातों में विश्वास करते हैं। दरअसल कबाड़वाद मुनाफे की अर्थव्यवस्था का निषेध करता है और कहता है इस धरती में हर जीव को अपने हिस्से का भोजन पाने का हक है। इसलिए कबाड़वादी खाने-पीने, ओढ़ने बिछाने, पढ़ने-लिखने सहित अपनी सारी जरूरतें कबाड़ से निकाल कर पूरी करते हैं।

मैं समझता हूं हम कबाड़खाने के कबाडियों में भी ऐसा कोई नहीं, जो कबाड़वाद की भावना की इज्जत न करता हो। कबाड़वादी बनना आसान नहीं लेकिन हम सब उसकी इसपिरिट के मुताबिक `बड़ा´ बनने की लंगड़ीमार दौड़ से बाहर रहने के हिमायती रहे हैं।

तो हे कबाडियो। आज कसम खाएं, कबाड़खाने में सहृदयता के बिरवे को हरा-भरा रखने के लिए अपनी आंखों की नमी को सूखने नहीं देंगे। आमीन।”

शुरू में कबाड़ख़ाना पर बड़े हिन्दी कवियों की कविताएं या विश्व साहित्य से कविताओं और महत्वपूर्ण गद्य के टुकड़ों के अनुवाद पोस्ट किए जाते रहे पर जल्द ही इतिहास, यात्रावृत्तान्त और सूचनापरक चीज़ों ने अपनी जगह बनानी शुरू की। उस समय हिन्दी में दो महत्वपूर्ण ब्लॉग एग्रीगेटर सक्रिय थे, जिनमें दुनिया में कहीं से भी ताज़ा प्रकाशित किसी भी ब्लॉग-पोस्ट को कुछेक सेकेण्डों के भीतर दिखाई देना शुरू हो जाती थीं और नई-नई आक्सीजन पाई हिन्दी ब्लॉगिंग के लिए ये एग्रीगेटर बहुत काम के साबित हुए। इन के नाम थे ब्लॉगवाणी (http://www.blogvani.com) और चिठ्ठाजगत(chitthajagat.in)। इन एग्रीगेटरों ने कबाड़ख़ाना का नोटिस लिया और देश-विदेश से नए-नए पाठक कबाड़ख़ाना से जुड़ने लगे और यह जुड़ाव खासा आत्मीय बनने लगा – यह भी गऊपट्टी की निर्विवाद विशेषताओं में एक है। इस के अलावा पोस्टों पर आने वाली टिप्पणियों की संख्या भी बढ़ती गई। यह सब बहुत सुनिश्चित करने वाला था।

अक्टूबर के महीने से ही कबाड़ख़ाना में पॉडकास्टिंग की शुरूआत हुई। पॉडकास्टिंग माने ऑडियो ब्लॉगिंग – इस क्रम में हमने सबसे पहले ख्यात अंग्रेज़ी ग्रुप बीटल्स के मुख्य गायक जॉर्ज हैरिसन द्वारा गाए गए दुर्लभ गीत ’देहरादून’ (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2007/10/blog-post_19.html) को पोस्ट किया। इस पर मिली प्रतिक्रियाएं हमारे बहुत काम की थीं। इन प्रतिक्रियाओं ने हमें बताया कि हिन्दी भाषी क्षेत्र का पाठक या श्रोता उतना भी गया बीता नहीं है जितना आम तौर पर समझा जाता रहा है। तो कबाड़ख़ाना में महान मानवतावादी अश्वेत गायक पॉल रॉब्सन से लेकर हंगेरियाई और स्कैण्डिनेयावियाई लोकसंगीत, और कैरिबियाई चटनी संगीत से लेकर अल्लाह जिलाई बाई की ठेठ शास्त्रीय लहज़े वाली राजस्थानी रचनाएं तक लगाने का साहस हमने किया और ये प्रयास सफल रहे। ज़ाहिर है अपनी समृद्ध शास्त्रीय हिन्दुस्तानी संगीत की परम्परा से भी कई नग़ीने हमने इस ब्लॉग पर प्रस्तुत किए – उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां, उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ां, उस्ताद अमीर खां, उस्ताद फ़तेह अली ख़ां, पंडित कुमार गन्धर्व, पंडित भीमसेन जोशी की शास्त्रीय रचनाएं भी पोस्ट की गईं तो युवतर पीढ़ी के उसताद राशिद ख़ान, अश्विनी भेंडे, अजय पोहनकर और शुभा मुद्गल की भी। लोकप्रिय भारतीय और पाश्चात्य संगीत भी कबाड़ख़ाने में इफ़रात में पाया जा सकता है। और संगीत पर आधारित इन पोस्ट्स में हमने श्रोता को उतनी ही आवश्यक जानकारी देने की कोशिश की जितने की ब्लॉग का “अटैन्शन स्पैन” अनुमति देता है। मिसाल के तौर पर उस्ताद अमीर ख़ां साहेब पर अपनी पोस्ट में कबाड़ख़ाना से नए-नए जुड़े इन्दौरवासी सुशोभित सक्तावत ने गद्य की एक शानदार बानगी पेश करते हुए लिखा:

“उस्ताद अमीर ख़ां साहब के बारे में सोचते हुए मुझे और कुछ नहीं सूझता सिवाय इसके कि उन्हें एक गाता हुआ पहाड़ कहूं। मेरू पहाड़। आज उनके वक्त से 35 बरस बाद टेप-कैसेट पर उनकी आवाज़ सुनकर हम बस अंदाज़ा ही लगा सकते हैं उन्हें सामने बैठकर सुनना कैसा लगता होगा।

इसी इंदौर शहर में उस्ताद अमीर ख़ां रहे थे। यहां हम आज भी उनके अंतिम राग के अंतिम षड्ज की अनुगूंज छूकर देख सकते हैं. हमारे लिए इंदौर एक शहर नहीं, एक घराना है।

मुझे नहीं मालूम उत्तरप्रदेश के कैराना और इंदौर के बीच की दूरी कितनी है। शायद सैकड़ों किलोमीटर होगी, लेकिन संगीत की सरहद में सांसें लेने वालों के लिए इन दो शहरों की दूरी तानपूरे के दो तारों जितनीभर है- षड्ज और पंचम-कुल जमा इतनी ही। जैसे स्पेस की छाती में अंकित दो वादी और सम्वादी सुर। कैराना गाँव में ही उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां और उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ां (बेहरे ख़ां) जन्मे और जवान हुए। उन्हीं के साथ परवान चढ़ा गायकी का वह अंदाज़, जिसे किराना घराने की गायकी कहा जाता है। कोमल स्वराघात और धीमी बढ़त वाला शरीफ़ ख़्याल गायन। इन दोनों उस्तादों के बाद इस घराने में सवाई गंधर्व, गंगूबाई हंगल, पं. भीमसेन जोशी, हीराबाई बड़ोदेकर जैसे गाने वाले हुए। उस्ताद अमीर ख़ां देवास वाले उस्ताद रज्जब अली ख़ां साहब की परंपरा से इंदौर घराने में आते हैं, लेकिन सच तो यह है किराना घराने वाले उन्हें अपना सगा मानते हैं। आप बात शुरू करें और कोई भी किराना घराने वाला कह देगा- ग़ौर से सुनिए, क्या गायकी की यह ख़रज और गढ़न हूबहू हमारे बेहरे ख़ां साहब जैसी नहीं है….

लेकिन सबसे बड़ी चीज़ है वह पुकार, वह आह्लाद, वह बेचैनी और वह अधूरापन, जो संगीत की बड़ी से बड़ी सभा के बाद पीछे छूट जाता है। न जाने क्यों, मैं यह मानने को मजबूर हूं कि महानतम कला वही है, जो हमें हमारे उस अपूर्ण आह्लाद पर स्थानांतरित कर दे। बोर्खेस के लफ़्ज़ों में ‘साक्षात की तात्कालिक संभावना’… एक अजब-सी सुसाइडल और ट्रांसेंडेंटल शै, जो सदियों से इंसानी रूह को रूई की मानिंद धुनती रही है। मैं लिखकर बता नहीं सकता अमीर ख़ां के तोड़ी में ‘काजो रे मोहम्मद शाह’ पर पड़ने वाली पहली सम क्या बला है और मालकौंस के पुकारते हुए आलाप के हमारी जिंदगी और हमारे वजूद के लिए क्या मायने हैं। ….

उस्ताद को सुनते हुए मैं अक्सर सोचा करता था कि क्या इस शख़्स के सामने वक़्त जैसी कोई दीवार खड़ी है या नहीं। टाइम और स्पेस आदमियत के दु:ख के दो छोर हैं- ऐसा मैंने हमेशा माना है- और उस्ताद को सुनते हुए हमेशा मैंने हैरानी के साथ ये महसूस किया है कि ज़मानों और इलाक़ों के परे चले जाना क्या होता है… जहाँ मौत एक मामूली-सा मज़ाक़ बनकर रह जाती है। उस्ताद की भरावेदार आवाज़ ने कई स्तरों पर हमारी जिंदगी को एक कभी न ख़त्म होने वाली सभा बना दिया है।

और तब मैं एक फ़ंतासी में दाखि़ल हो जाता हूं, जहाँ झूमरा ताल की बेहद धीमी लय सरकती रहती है… तानपूरे की नदी ‘सा’ और ‘पा’ के अपने दोनों किनारे तोड़ रही होती है… लय द्रुत होती चली जाती है और मात्राएँ तबले से फिसलकर गिरने लगती हैं… सन् 74 का साल आता है और कलकत्ते के क़रीब एक मोटरकार दुर्घटनाग्रस्त होकर चकनाचूर हो जाती है… कार में से एक लहीम-शहीम मुर्दा देह ज़ब्त होती है, लेकिन बैकग्राउंड में बड़े ख़्याल की गायकी बंद नहीं होती…वह आवाज़ बुलंद से बुलंदतर होती चली जाती है और तमाम मर्सियों के कंधों पर चढ़कर गहरी-अंधेरी खोहों के भीतर सबसे ऊँचे पहाड़ झाँकते रहते हैं…गाते हुए पहाड़, धीरे-धीरे पिघलते-से… जैसे वजूद की बर्फ गल रही हो।

उस्ताद को याद करते ये शहर एक घराना है… उस्ताद को सुनते ये सुबह एक नींद।” (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2009/07/blog-post_24.html)

इसी के बरअक्स भारतीय उपमहाद्वीप में पॉप संगीत के लिए नए आयाम खोलने वाली नाज़िया हसन, जिसे लोग आज भी एक अल्हड़ किशोरी के तौर पर याद करते हैं को पुनर्परिचित कराते हुए जब यह पोस्ट लगी तो मेरे लिए यह अजूबे सरीखी घटना थी कि सूचना क्रान्ति के इस तथाकथित दौर में कई लोगों को यह तक पता नहीं था कि नाज़िया हसन अब इस संसार में नहीं हैं –

“उन्नीस सौ अस्सी का साल था। मेरी उम्र थी कुल चौदह बरस और हॉस्टल में सीनियर्स की डॉर्मेट्री में रखे और उन्हीं के अधिकारक्षेत्र में आने वाले रेकॉर्ड प्लेयर पर बहुत ही मुलायम आवाज़ में लगातार एक गीत बजा करने लगा था। इस डॉर्मेट्री से कभी तो बोनी एम या फ़ंकी टाउन जैसे गीतों की आवाज़ आया करती थी या सदाबहार मोहम्मद रफ़ी और किशोर कुमार, पर इधर “आप जैसा कोई मेरी ज़िन्दगी में आए” ने बाक़ी सारे संगीत को हाशिये में डाल दिया था।

लन्दन में रहने वाले संगीत निर्देशक बिद्दू ने यह गीत जब रेकॉर्ड किया था, नाज़िया हसन पन्द्रह साल की थीं। बाद में यह फ़ीरोज़ ख़ान की फ़िल्म ‘क़ुर्बानी’ के सुपरहिट होने की वजह बना। लता-किशोर-रफ़ी-मुकेश के एकाधिकार में जैसे अचानक इस किशोरी ने सेंध लगाई और समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के पॉप संगीत परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया।

इस गीत की सफलता से उत्साहित होकर बिद्दू ने नाज़िया के भाई ज़ोहेब हसन के साथ ‘डिस्को दीवाने’ अल्बम निकाला। इस अल्बम ने तो नाज़िया हसन को रातोंरात बहुत बड़ा स्टार बना दिया। भारत-पाकिस्तान में तो इस रेकॉर्ड की ज़बरदस्त बिक्री हुई ही, लैटिन अमरीकी देशो ख़ास तौर पर ब्राज़ील में यह अल्बम पहले नम्बर तक भी पहुंचा। डेविड सोल से लेकर ज़िया मोहिउद्दीन जैसे लोगों ने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के लिए ज़ोहेब-नाज़िया के इन्टरव्यू लिये।

भारत में बिनाका गीतमाला में चौदह हफ़्ते टॉप पर रहने के बाद “आप जैसा कोई” अन्ततः चौथे नम्बर पर रहा।

नाज़िया अगले कई सालों तक संगीत की दुनिया के अलावा ग़रीब बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में लम्बे समय काम करती रहीं अलबत्ता इस बारे में बहुत ज़्यादा सूचनाएं हमारे यहां नहीं पहुंचीं। पाकिस्तान में रहते हुए नाज़िया हसन ने राजस्थान के ग़रीब बच्चों के लिए धन जुटाने में मशक्कत की। संगीत नाज़िया का शौक भर था। लोकप्रियता के क्षेत्र में झण्डा गाड़ चुकने के बाद उसने इंग्लैंड से कानून की पढ़ाई समाप्त की और संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिए काम किया।

30 मार्च 1995 को नाज़िया का विवाह मिर्ज़ा इश्तियाक़ बेग से हुआ। यह एक त्रासकारी संबंध था और 3 अगस्त 2000 को कानूनी तौर पर घोषित तलाक के साथ समाप्त हुआ। दस दिन बाद यानी 13 अगस्त को फेफड़े के कैंसर के कारण उसकी मृत्यु हो गई।

हो सकता है संगीत के मर्मज्ञ इसे बचकाना कहें पर मेरा ठोस यक़ीन है कि नाज़िया हसन के बाद भारतीय फ़िल्म और पॉप संगीत का चेहरा पूरी तरह बदल गया था। आज के लोकप्रिय संगीत की सतह को ध्यान से खुरचा जाए को आप पाएंगे कि नाक से गाने वाली इस सुन्दर, दुबली-पतली किशोरी ने साल – दो साल में जो कुछ किया उसने आने वाले समय में अलीशा चिनॉय, लकी अली, इंडियन ओशन जैसे अनगिन नामों के लिए मजबूत बुनियाद तैयार कर दी थी।” (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_18.html)

कहने का अभिप्राय यह है कि ब्लॉग पर आप अपनी पसन्द लोगों के साथ बांट सकते हैं और कई सारी ऐसी ज़रूरी सूचनाएं भी उन तक पहुंचा सकते हैं जो आपकी निगाह में महत्वपूर्ण हों। यानी करीब एक वर्ष तक कबाड़ख़ाना के संचालन के बाद एक बात इस ब्लॉग के सभी साथियों की समझ में आ गई थी कि अच्छी स्तरीय चीज़ें (जिनकी दुनिया में कोई कमी नहीं है) को लोगों के साथ शेयर करने के उद्देश्य से ब्लॉग एक मज़बूत प्लेटफ़ॉर्म उपलब्ध करा सकता है।

इस समझ का परिणाम यह निकला कि कबाड़ख़ाना के सदस्यों ने दुनिया भर के संगीत को पोस्ट करना शुरू किया। कई बार तो यह भी हुआ कि पढ़ने सुनने वालों की मांग पर दुनिया के किसी कोने का कोई संगीत पोस्ट करना पड़ा। एक उदाहरण याद आता है। 2 अप्रैल 2008 को 1970 के दशक में खासे मशहूर हुए डिस्को ग्रुप बोनी एम का परिचय देते हुए एक गीत “मा बेकर” पोस्ट किया गया (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_02.html) तो एक श्रोता की तुरन्त मांग आई कि इसी ग्रुप का रास्पुटिन भी सुनवाया जाए। ऐसा किया भी गया (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_1889.html)। अंग्रेज़ी गीतों को नापसन्द करने वाले हिन्दी भाषी लोगों का तर्क यह होता था कि इन गीतों के बोल समझ में नहीं आते हैं। इस के लिए हमने यह किया कि ग्रुप या गायक के विस्तृत परिचय के साथ-साथ पोस्ट किए जा रहे गीत के बोल और यथासम्भव उनके अनुवाद भी उपलब्ध कराए। महान अश्वेत गायक पॉल रोब्सन के अमर गीतों को जिस तरह हमारे श्रोताओं ने हाथोंहाथ लिया वह हिन्दी-बहुल क्षेत्रवासियों की संगीत-सम्बन्धी रुचियों के बारे में बहुत सारे नए आयाम खोलने वाला अनुभव था।

हिन्दी के अलावा विश्व की अनेक भाषाओं में लिखी जा रही और लिखी जा चुकी कविताओं के अनुवाद पाठकों के सम्मुख रखने के लिए कबाड़ख़ाना के पास कुछ सदस्यों के रूप में स्तरीय अनुवादक उपलब्ध थे। कोरियाई कवि कू सेंग, जापानी कवयित्री माची तवारा से लेकर पाब्लो नेरूदा (चीले), अन्ना अख़्मातोवा (रूस), मारीना स्वेतायेवा (रूस), मायकोव्स्की (रूस), विस्वावा शिम्बोर्स्का (पोलैण्ड), तादयूश रूज़ेविच (पोलैण्ड), निज़ार कब्बानी (सीरिया), सादी यूसुफ़ (ईराक), शीमा कल्बाशी (ईरान), हाना कान(अमेरिका), फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का(स्पेन), वास्को पोपा (युगोस्लाविया), माया एन्जेलू (अमेरिका), शुन्तारो तानीकावा (जापान), येहूदा आमीखाई (इज़राइल), हालीना पोस्वियातोव्स्का (चेकोस्लोवाकिया), राफ़ाल वोयात्चेक (पोलैण्ड), मार्सिम स्विएतलिकी (पोलैण्ड) और अनेकों बड़े कवियों की कविताएं हमने पाठकों के साथ बांटीं और उन्हें खासा पसन्द भी किया गया। नोबेल पुरुस्कार प्राप्त पोलिश कवयित्री विस्वावा शिम्बोर्स्का की एक कम-प्रसिद्ध कविता हिटलर का पहला फ़ोटोग्राफ़ अपनी सर्वकालीन अपील के चलते काफ़ी पसन्द की गई –

हिटलर का पहला फ़ोटोग्राफ़

और कौन है ये बच्चा – इत्ती सी पोशाक में?
अडोल्फ़ नाम है इस नन्हे बालक का –
हिटलर दम्पत्ति का छोटा बेटा।
वकील बनेगा बड़ा होकर?
या वियेना के ऑपेरा हाउस में कोई गायक?
ये बित्ते से हाथ किसके हैं, किसके ये नन्हे कान, आंखें
और नाक?
हम नहीं जानते दूध से भरा किसका पेट है यह।
-छापाख़ाना चलाने वाले का, डाक्टर का, व्यापारी का
या किसी पादरी का?
किस तरफ़ निकल पड़ेगा यह मुन्ना?
बग़ीचे, स्कूल, दफ़्तर या किसी दुल्हन की तरफ़?
या शायद पहुंच जाएगा मेयर की बेटी के पास?
बेशकीमती फ़रिश्ता, मां की आंखों का तारा,
शहदभरी डबलरोटी सरीखा।
साल भर पहले जब वह जन्म ले रहा था
धरती और आसमान में कोई कमी नहीं थी शुभसंकेतों की –
वसन्त का सूरज, खिड़कियों पर जिरेनियम,
अहाते में ऑर्गन वादक का संगीत
गुलाबी काग़ज़ में तहा कर रखा हुआ सौभाग्य
सपने में देखा गया
कबूतर अच्छी ख़बर ले कर आता है –
अगर वह पकड़ लिया जाए तो कोई बहुप्रतीक्षित अतिथि
घर आता है,
खट् खट्
कौन है
अडोल्फ़ का नन्हा हृदय दस्तक दे रहा है।
बच्चे को शान्त कराने को चीज़ें, लंगोटी, खिलौना,
हमारा तन्दुरुस्त बच्चा, भगवान का शुक्र करो, भला है
हमारा बच्चा, अपने लोगों जैसा
टोकरी में सोये बिल्ली के बच्चे सरीखा
श्श्श. रोओ मत मिठ्ठू।
अभी क्लिक करेगा कैमरा काले हुड के नीचे से –
क्लिंगर का स्टूडियो, ग्राबेनस्ट्रासे, ब्राउनेन।
छोटा मगर बढ़िया शहर है ब्राउनेन –
ईमानदार व्यापारी, मदद करने वाले पड़ोसी।
ख़मीर चढ़े आटे की महक, सलेटी साबुन की महक,

भाग्य की पदचाप पर भौंकते कुत्तों को कोई नहीं सुनता
अपना कॉलर ढीला करके
इतिहास का एक अध्यापक जम्हाई लेता है
और झुकता है होमवर्क जांचने को। (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2009/03/blog-post_5070.html)

और सीरियाई कवि निज़ार कब्बानी की प्रेम-कविताएं भी –

जबसे पड़ा हूँ मैं प्रेम में
बदल – सा गया है
ऊपर वाले का साम्राज्य।

संध्या शयन करती है
मेरे कोट के भीतर
और पश्चिम दिशा से उदित होता है सूर्य। (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2010/08/blog-post_10.html)

अनुवादों के अलावा हिन्दी के कुछ बड़े कवियों यथा लीलाधर जगूड़ी, वीरेन डंगवाल और आलोक धन्वा इत्यादि ने अपनी अप्रकाशित कविताएं इस ब्लॉग पर प्रकाशित करने को दीं जिसने कबाड़ख़ाना के रचनापटल को और विस्तार दिया। समय समय पर सद्यःप्रकाशित कविता-संग्रहों की समीक्षा करने और हिन्दी कविता के समकालीन रचनाकारों से अपने पाठकों को परिचित कराने का विचार भी जल्दी कार्यान्वित कर लिया गया। सुन्दर चन्द ठाकुर, विजयशंकर चतुर्वेदी, हरीश चन्द्र पाण्डे, हेमन्त कुकरेती इत्यादि के संग्रहों पर बाकायदा लम्बी पोस्ट्स लगीं और हिट रहीं।

कहना न होगा हिन्दी साहित्य विशेषतः कविता के पाठकों की संख्या में पिछले कुछ दशकों में बहुत गिरावट आई है। नई कविता को तीन-चार दशक पुराने आलोचकों द्वारा बहुत ज़्यादा पसन्द न किए जाने की वजह से हिन्दी भाषी इलाके के बहुसंख्य पाठकों का कविता-ज्ञान कोर्स में लगने वाली छन्दबद्ध कविताओं तक सीमित रह गया था या यदा-कदा आयोजित होने वाले हुल्लड़भरे मंचीय कवि-सम्मेलनों तक। मेरा मानना है कि इन्टरनेट के प्रसार और उसके बाद हिन्दी-ब्लॉगिंग की बढ़ती लोकप्रियता ने हिन्दी भाषा को काफ़ी हद तक सही मायनों में पाठकों की भाषा बनाने का बड़ा काम कर दिखाया है। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में नितान्त पेशेवर प्रकाशकों की सतत घुसपैठ ने लेखक को उसके पाठकों से दूर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यही कारण था कि पढ़ने वालों को दर असल यह पता ही न्हीं चला कि लघु पत्रिकाओं में सिमट चुकी हिन्दी कविता में कैसे कैसे प्रयोग किए जा रहे थे। मिसाल के तौर पर जहां सुन्दर चन्द ठाकुर के कविता संग्रह ’एक दुनिया है असंख्य’ की भाषा और विषयवस्तु ने पाठकों को खासा चमत्कृत और प्रभावित किया –

मां का सपूत

जैसे मई के सूने आकाश में
कहीं से प्रकट होता है
पानी से भरा एक बादल
और उम्मीद बनकर छा जाता है

ढलती दुपहर में
आवाज लगाता दौड़ा आ रहा है
पहाड़ की ढलान पर
स्कूल से लौटता

घसियारन मां का सपूत (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_07.html)

और उस पर काफ़ी टिप्पणियां पढ़ने को मिलीं वहीं हरीश चन्द्र पाण्डे के संग्रह ’भूमिकाएं ख़त्म नहीं होतीं’ ने भी बड़ी संख्या में पाठकों की जिज्ञासा को बढ़ाया –

बुद्ध मुस्कराये हैं

लाल इमली कहते ही इमली नहीं कौंधी दिमाग़ में
जीभ में पानी नहीं आया
‘यंग इण्डिया’ कहने पर हिन्दुस्तान का बिम्ब नहीं बना

जैसे महासागर कहने पर सागर उभरता है आँखों में
जैसे स्नेहलता में जुड़ा है स्नेह और हिमाचल में हिम
कम से कमतर होता जा रहा है ऐसा

इतने निरपेक्ष विपर्यस्त और विद्रूप कभी नहीं थे हमारे बिम्ब
कि पृथिवी पर हो सबसे संहारक पल का रिहर्सल
और कहा जाए
बुद्ध मुस्कराये हैं (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/07/blog-post_18.html)।

साहित्य से कबाड़खाना का सरोकार सिर्फ़ कविताओं और अनुवादों तक ही रहा हो ऐसा नहीं है। विविधताभरे बेहतरीन यात्रावृत्त भी यहां काफ़ी पाए जा सकते हैं। मैं पत्रकार-कहानीकार अनिल यादव के एक यात्रावृत्त के अंश को यहां लगाना चाहूंगा –

चोप्ता का मौसम, बंबई का फैशन

एक चिड़िया है, जिसे मैं नहीं देख पाया। सुबह से शाम तक लगातार कोमल सुर में मुझी से कहती है- तुई…तुइतुइ…तुई….तुइतुइ। इतना अंतरंग बोलती थी कि किसी अपरिचित से नाम पूछने का मन नहीं हुआ।

फिर ठिठुरती चांदनी में केदार के ऊपर सूनी सफेदी याद आती है और अदहन के उबाल खाने के पहले की सनसनाहट जो हर दोपहर ढलने के साथ कनपटी पर महसूस होती थी….यानि अब बारिश होने वाली है। …और जंगल जहां अब भी तनों पर लाइकेन का मखमल बचा हुआ है। हरा अंधेरा है जिसके निर्जनपन में भय और शांति एक दूसरे के कंधों पर हाथ डाले हर दिन लकड़ी बीनने या घास काटने के लिए जाते हैं।

सेत्ताराम…अगड़धत्त भोले ने बुलाया है। ढेरों साधु थे, किसिम-किसिम के जो बताते थे बेरोजगारी और पारिवारिक कलह समकालीन अध्यात्म की दो सबसे बड़ी मल्टीनेशनल फैक्ट्रियां है। किसी वरदान की आशा में उन्हें बूटी का पता बताते इंटर पास नौजवान थे जो एक सिगरेट की साझेदारी के तुरंत बाद यह पूछ कर असहाय कर देते थे कि सर उधर नीचे मुझे कोई जॉब मिल सकता है क्या?

उनकी ज्यादातर बातें भैणचो के कसैलेपन या अविश्वास के खूंट में बंधी मां कसम से शुरू या खत्म होती थीं…वे बुग्यालों में कुदरत के नखरों पर ध्यान दिए बगैर अपनी गाय, भैंसों के पीछे कोई पचास मीटर ऊपर चढ़ते थे और सुस्ताने के लिए लद्द से ढह पड़ते थे। नीचे सड़क पर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, जयपुर, अहमदाबाद के नंबर प्लेटों वाली प्राइवेट गाड़ियां थीं जिनसे निकले देसी टूरिस्ट बाबू अपने अकड़े पैरों को सीधा करते हुए कांखते थे- वाऊ यहां क्या लाइफ है।

मैं पिछले दस दिन वहीं था। चोप्ता घाटी के दुगलभिट्टा की एक कोठरी में। लिमड़े की सब्जी जिंदगी में पहली बार खाई। देखने में चौलाई और भिंडी जैसा स्वाद। चूल्हे की राख का भभूत पोते मड़ुए की रोटी कोई पंद्रह साल बाद।

मैं अब भी वहीं हूं। जहां मक्कू और ताला के लड़के लड़कियां हाइस्कूल में थर्ड डिवीजन पास होने की खुशी में बधाई देने पर थैंक खू कह कर शरमाए जा रहे हैं। कुछ और देर वहीं रहना चाहता था लेकिन कबाड़खाने के संचालक अशोक ने आज शाम काफी खतरनाक अंदाज में धमकाया इसलिए यह सब लिखना पड़ रहा है।

हां, पूरे दिन में एक बार धारी माता की विनती करती एक बस आती जिस पर लिखा होता था न्यूनतम किराया- पांच रूपए और आपका व्यवहार ही आपका परिचय है। उसमें एक गाना बजता था जिसमें दिल्ली में नई सरकार के गठन का रहस्य छिपा हुआ था-

हाथ न पिलाइ हुसुकि, फूल न पिलाइ रम।
हाथ प्याग निर्दली दिदौन, कच्ची में टरकाया हम। (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_09.html)

देश-विदेश के अनेक यात्रावृत्त कबाड़ख़ाना में प्रकाशित हुए और पर्याप्त लोकप्रियता दर्ज़ करने में सफल भी रहे। विश्व साहित्य से गाब्रीएल गार्सिया मारकेज़, फ़्रान्ज़ काफ़्का, अल्बैर कामू, मैक्सिम गोर्की, तॉल्स्तॉय और अर्नेस्ट हैमिंग्वे जैसे महारथी लेखकों के गद्य की झलक देने के साथ साथ चित्रकला और कार्टून इत्यादि पर कुछ उल्लेखनीय पोस्ट्स आईं जैसे चित्रकार रवीन्द्र व्यास की यह पोस्ट –

क्या कहता है पिकासो का बुल

खबर है कि पिकासो म्यूजियम पेरिस से पिकासो की एक स्कैचबुक चोरी हो गई है। जाहिर है इसकी कीमत करोड़ों में हैं। यहां पिकासो की बुल श्रृंखला की ग्यारह कलाकृतियां दी जा रही हैं। इसकी खूबसूरती यह है कि कैसे इस महान चित्रकार ने एक ठोस और जीवंत बुल को एक रचनात्मक प्रक्रिया में कितना अमूर्तन करके उसे एक नया रूप दे दिया है। यह उनकी रचनात्मकता और कल्पनाशीलता का एक अद्भुत और बेमिसाल खेल है। शुरूआत में एक ठोस, खुरदुरा और आक्रामक बैल है। आप गौर करेंगे इसे पहले ब्रश के सधे ट्रीटमेंट से टोनल इफेक्ट दिया है ताकि उसे ठोस और उसकी त्वचा को खुरदुरापन दिया जा सके। और इसके बाद वे धीरे धीरे अपनी अचूक निगाह से उसे, सधी रेखाओं से, रूप के स्तर पर प्रयोग करते हुए। संतुलन साधते हुए लगातार नया रूप देते चलते हैं। वे उसके शुरुआती आकारों में से कुछ चीजें मिटाते चलते हैं धीरे धीरे जैसे जैसे यह प्रक्रिया आगे बढ़ती है वे नई चीजें जोड़ते चले जाते हैं। मुंह से लेकर सींग, धड़ से लेकर पीछे के हिस्से और पैर से लेकर पूँछ तक वे नए नए आकार गढ़ते हैं और ठोस और जीवंत प्राणी को ऐसा अनोखा रूप देते हैं जो अपने में अमूर्त है लेकिन बावजूद इसके अपने कुछ बुनियादी तत्वों के साथ वह कितना कलात्मक है।

पिकासो ने अपने कई चित्रों में बैल को रूपक की तरह इस्तेमाल किया है। इस श्रृंखला के बारे में भी कहा जाता है कि उन्होने इसके जरिये फासिज्म और बर्बरता पर टिपप्णी की है तो यह भी कहा जाता है कि यह आक्रामकता की अभिव्यक्ति है। कहा तो यह भी जाता है कि यह उनकी सेल्फ इमेज है। यह गौर करने लायक यह बात है कि वे बैल के जननांगों को काले रंग से हाईलाइट कर उसके जेंडर पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करते हैं। वे बैल की मांसपेशियों को रिड्यूस करते हैं, मुंह को और सिर को भी। सींग में बदलाव देखा जा सकता है औऱ पूंछ में भी। इन दोनों में एक तरह की लयात्मकता है, लगभग लिरिकल। फिर आप यहां रेखाओं का इतना कल्पनाशील इस्तेमाल भी देखा जा सकता है जिसकी बदौलत यह प्राणी कई टुकड़ों में बंटा दिखाई देता है लेकिन साथ ही आकार में एकता है। वे लगातार इस आकार को सरल करते जाते हैं और आखिर में वह आकार इतना सरल हो जाता है कि सिर्फ रेखाओं में स्पंदित रहता है और उसकी खूशबू बरकरार रहती है।

आप इस महान चित्रकार की ताकत, उसकी यौनिकता, उसके रूपक, उसकी निगाह, उसकी प्रयोगधर्मिता, और रेखाओं के जादू का मजा लें और यह भी सोचें कि क्या कहता है पिकासो का यह बुल। (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_9365.html)

महान कार्टूनिस्ट गैरी लार्सन के कार्टूनों की श्रृंखला ने भी काफ़ी प्रभाव छोड़ा।

जब-जब किताबों से मन उचाट हो जाता है, कुछ करने की इच्छा नहीं होती तो मैं सम्हाल कर छिपा रखी (ताकि कोई उन्हें पार न कर ले जाए) गैरी लार्सन के कार्टूनों की किताबें निकाल लेता हूं। कभी कभी तो रात के तीन-साढ़े तीन बजे होते हैं जब मेरे कमरे में सोया-जागा मेरा पुरातन कुत्ता टफ़ी मुझे ठहाके मारते हंसता देख मेरे मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चिन्तित नज़र आने लगता है।

लार्सन के कार्टूनों में प्रयोग होने वाली इमेजेज़ में गायें, डायनासोर, अमीबा, बिल्लियां, मेंढक और न जाने कैसे कैसे पशु और तमाम तरह के वैज्ञानिक, कलाकार, मनोरोगी इत्यादि होते हैं। विश्लेषक लार्सन के ह्यूमर को ‘साइंटिफ़िक ह्यूमर’ कह कर परिभाषित करने की कोशिश करते हैं। (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2009/05/blog-post_19.html)

इन तमाम कला-सम्बन्धी पोस्ट्स के अलावा ज्वलन्त सामाजिक समस्याओं को विषय बना कर कई अर्थवान और विचारोत्तेजक पोस्ट्स लिखी गईं। पत्रकार पंकज श्रीवास्तव द्वारा लिखी गई ऐसी ही एक पोस्ट को यहां उद्धृत करना प्रासंगिक होगा –

ले तो आए गांधी का कटोरा, भरोगे क्या..?

देश ने राहत की सांस ली। जीवन भर शराब के खिलाफ उपदेश देने वाले बापू की निजी चीजें एक शराब कारोबारी के जरिये देश को वापस मिल रही हैं। उनका चश्मा, उनकी घड़ी, चप्पल और थाली-कटोरा देश में वापस आ जाएंगे। ये अलग बात है कि किसी को ठीक-ठाक पता नहीं कि ये चीजें देश से बाहर कब गईं और कैसे गईं। ऐसी तमाम चीजें भारत के संग्रहालयों में पहले से हैं, और उनसे देश या देशवासी कैसे प्रेरणा ले रहे हैं, ये शोध का विषय है।

फिर इतना हो-हल्ला क्यों मचा। क्या गांधी के चश्मे से दुनिया देखने की कोई ललक है। क्या उनकी चप्पल में पांव डालकर कोई राजनेता गांव-गांव घूमना चाहता है। या उनकी ठहरी हुई घड़ी में किसी को चाबी भरने की बेकरारी है..या उनके खाली कटोरे को देखकर किसी को ये याद आ गया है कि देश में करोड़ो लोग आज भी दो जून की रोटी से मोहताज हैं। जाहिर है, ऐसा कुछ भी नहीं है। सच्चाई ये है कि आजाद भारत ने अगर सबसे ज्यादा किसी को दगा दिया है तो वो मोहनदास कर्मचंद गांधी हैं। जिन्हें राष्ट्रपिता तो घोषित किया गया पर आजादी मिलते ही उन्हें दरकिनार कर दिया गया। उनकी हत्या के बाद उन्हें एक भारतीय ब्रैंड बतौर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने के चाहे जितने प्रयास हुए हों, उनके रास्ते पर चलने की कोशिश एक दिन भी नहीं की गई।

देश का शायद ही कोई शहर हो जहां महात्मा गांधी के नाम पर सड़क न हो लेकिन उन पर चलकर कोई गांधी तक नहीं पहुंच सकता। उनके नाम पर स्कूल हैं पर वहां गांधी का पाठ नहीं होता और गांधी नामधारी तमाम संस्थाओं की रुचि हरे-हरे नोटों पर मुस्कराते गांधी की तस्वीरों में कहीं ज्यादा है। गांधी की पूरी शख्सियत 2 अक्टूबर के इर्द-गिर्द समेट दी गई। इस दिन राजघाट पर रामधुन बजाकर और चौराहों पर खड़ी प्रतिमाओं पर माला चढ़ाकर पूरा देश गांधी से छुट्टी पा लेता है।

दरअसल, गांधी पिछले दो हजार साल में पैदा होने वाले एकमात्र भारतीय हैं जिन्होंने अपने अजब-गजब विचारों से पूरी दुनिया को प्रभावित किया। महायुद्धों के बीच फंसी दुनिया में गांधी जी ने आजादी के लिए जो अंहिसक सत्याग्रह छेड़ा था, उसने बड़े-बड़े विचारकों को चौंका दिया था। गांधी के रास्ते का मजाक उड़ाने वालों ने भी देखा कि करोड़ों भारतवासी, जो सिर उठाकर चलना भी भूल गए थे, उन्होंने गांधी के एक इशारे पर सरकार और उसकी ताकत के हर प्रतीक को बेमानी बना दिया तो अगले ही पल आंदोलन वापस लेकर चरखा कातने में जुट गए। गांधी जी ने बड़ी लकीर खींचकर जाति, धर्म, संप्रदाय के फर्क को काफी हद तक धुंधला कर दिया।

गांधी जी के विचारों और तरीकों को लेकर तमाम मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इसमें शक नहीं कि वे एक ज्यादा सभ्य दुनिया चाहते थे। इसलिए वे बार-बार कहते थे कि वे बहुजन नहीं सर्वजन का हित चाहते हैं ताकि लोकतंत्र के नाम पर 51 फीसदी लोग 49 फीसदी लोगों की इच्छा का गला न घोंट सकें। उन्होंने चेतावनी दी थी कि धरती पर हर मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने की शक्ति है लेकिन किसी एक का भी लालच वो पूरा नहीं कर सकती। और हकीकत सामने है। लालच और हवस को तरक्की का मंत्र बताने वाली सभ्यता ने धरती तो छोड़िये, हवा- पानी को भी इस कदर जहरीला बना दिया है कि इस खूबसूरत ग्रह के भविष्य को लेकर शंका होती है।

गांधी जी का मंत्र बड़ा सादा था। उन्होंने भारत के भावी रचनाकारों के सामने बस एक कसौटी रखी थी। कहा था कि कोई भी फैसला करते वक्त सिर्फ ये सोचो कि इसका समाज के सबसे अंतिम आदमी पर क्या असर पड़ेगा। देखने में ये एक सरल बात लगती है लेकिन दरअसल इसके लिए जिस साहस और दृष्टि की जरूरत थी वो ना पं. नेहरू के जमाने में मौजूद थी और न अब है, जब बागडोर सरदार मनमोहन सिंह के हाथ है। नेहरू ने अगर गांधी के ग्राम स्वराज की अवधारणा को अव्यवहारिक मानते हुए भारी उद्योगों, बड़े बांधों और महानगरीय जीवन को महत्व दिया तो मनमोहन सिंह के नेतृत्व में पिछले बीस सालों में विकसित अर्थशास्त्र ने ‘संतोष’ त्यागकर ‘लिप्सा’ अपनाने को तरक्की का मूलाधार घोषित किया। यानी औकात से ज्यादा खर्च करो, कमाना सीख जाओगे। इस प्रक्रिया में मनुष्य, मनुष्य न रहे तो क्या!

गांधी जी की विरासत की नीलीमी को लेकर जो लोग राष्ट्रीय शर्म की चीज बता रहे थे, जरा उन्हें बापू की आखिरी वसीयत भी पढ़नी चाहिए। इसमें उन्होंने अपने सपनों के भारत के बारे में लिखा था-” मेरे सपनों का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वही उन्हें भी सुलभ होनी चाहिए, इसमें फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता। वह स्वराज्य सबके लिए, सबके कल्याण के लिए होगा। सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं, लूले, लंगड़े, अंधे और भूख से मरने वाले लाखों-करोड़ों मेहनतकश भी अवश्य आते हैं। ”

इस वसीयत की रोशनी में जरा कुछ तथ्यों पर गौर फरमाइए। भारत सरकार की आधिकारिक रिपोर्ट के मुताबिक देश की 78 फीसदी आबादी रोजाना 20 रुपये पर गुजर करती है। और स्विस बैंकिंग एसोसिएशन की 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक स्विस बैंकों में भारतीयों का 1456 अरब डालर जमा है। करीब 25 हजार ऐसे भारतीय हैं जो इसी लेन-देन के मकसद से नियमित स्विटरलैंड जाते हैं। उधर, ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट है कि 2007 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले भारतीयों को 900 करोड़ रुपये सरकारी तंत्र को बतौर घूस देना पड़ा। और भ्रष्टाचार के मामले में जारी 180 देशों की सूची में भारत 74वें स्थान पर है। तो ये है वो स्वराज की तस्वीर जो नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के दौर तक बनाई गई।

ऐसे में गांधी जी के सामान की नीलामी पर हल्ला मचाना दोगलेपन के अलावा कुछ नहीं। सच्चाई ये है कि गांधी से किसी को कोई लेना देना नहीं। न समाज को न सरकार को। आखिर समाज गांधी जी को मजबूरी का दूसरा नाम बताता है और उपभोक्तावाद को अर्थतंत्र का ईंधन बताने वाले मनमोहन सिंह (या भारत में बनने वाली किसी भी रंग की सरकार) को गांधी जी के ग्राम स्वराज की अवधारणा से कोई लेना देना नहीं। ये संयोग नहीं कि आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी जाकर मनमोहन सिंह अंग्रेजों को इस बात का धन्यवाद भी दे आए कि उन्होंने भारतीयों को अंग्रेजी सिखाई। वे भूल गए कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ अलख जगाते गुजराती भाषी गांधी ने हिंदी को राष्ट्रीय चेतना का महत्वपूर्ण हथियार माना था। बाद में तो यहां तक तक एलान कर दिया था- दुनिया को कह दो कि गांधी को अंग्रेजी नहीं आती। लेकिन साम्राज्यवाद से लड़ने के बजाय सटने में भलाई समझने वाले नए भारत के नियंताओं गांधी की ये बात कैसे याद रहेगी।

इस सबके बीच, आजकल टी.वी स्क्रीन पर छाए एक मोबाइल कंपनी के विज्ञापन पर नजर डालिए जिसमें एक गुंडे से परेशान लड़की मोबाइल एसएमएस के जरिए सर्वे कराती है। सवाल है-गांधी या कमांडो? समाज सर्वसम्मति से तय करता है-कमांडो। इस विज्ञापन को बनाने वालों की साफगोई को सलाम करना चाहिए। उसने समाज के उस भाव को स्वर दिया है जिसके लिए गांधी बेकार हो चुके हैं। जो हर क्षण, हर तरफ कमांडो देखकर ही सुरक्षित महसूस करता है और गाहे-बगाहे लोकतंत्र की जगह सैनिक शासन की वकालत करता है।

पर भारत सरकार इतनी साफगो कहां। वो गांधी की तस्वीर, उनकी चीजों, उनके नाम को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से जोड़ती है लेकिन उनके रास्ते पर चलने को मूर्खता समझती है। यही वजह है कि गांधी जी की चीजों को देश वापस लाने के लिए वो सरकारी खजाने से साढ़े दस करोड़ रुपये खर्च करने को भी तैयार नहीं हुई। ये महान काम किया सुंदरियों से सजे अपने सालाना कैलेंडरों के लिए मशहूर शराब निर्माता विजय माल्या ने। पूरा भारत उनकी देशभक्ति पर निहाल है। वे सच्चे गांधीभक्त निकले। गांधीवादी और उनके नाम पर सजी संस्थाएँ माल्या की जय बोल रही हैं। देश उनकी ये अहसान कभी नहीं उतार पाएगा। सरकार को उन्हें भारतरत्न देने पर विचार करना चाहिए….व्हाट एन आइडिया सर जी! (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2009/03/blog-post_7666.html)

——–

ऐसा नहीं है कि कबाड़खाना नामक इस ब्लॉग का सफ़र बिना किसी रुकावट के चलता रहा हो। चूंकि ब्लॉगिंग में पढ़नेवालों को यह सुविधा रहती है कि वे पोस्ट पर अपने विचार और प्रतिक्रियाएं लिख सकें, इस सुविधा ने हमारा परिचय एक नए आयाम से कराया। कबाड़खाना शुरू होने के दो-तीन महीनों बाद ही एक विचित्र समस्या आ खड़ी हुई। चौबीस दिसम्बर 2007 को स्वर्गीय मोहम्मद रफ़ी के जमदिन के अवसर पर मैंने एक पोस्ट लिखी, जिसका शीर्षक आम बोलचाल की भाषा का लिहाज़ करते हुए “हैप्पी बर्थडे रफ़ी साहब” रखा गया (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2007/12/blog-post_24.html)। प्रत्यक्ष रूप से निरीह सी दिखने वाला यह शीर्षक किन्ही बेनामी साहब को इस कदर नागवार गुज़रा कि उन्होंने भाषा की श्लीलता लांघते हुए काफ़ी अपमानजनक प्रतिक्रिया प्रेषित की। इस पर प्रतिक्रियाओं के वाद-विवाद का ग़ैरज़रूरी सिलसिला चल निकला। जिस माध्यम को मैं अब तक इस कदर पॉज़िटिव मानता आया था, उस पर इस तरह के मरहले का आना मेरे लिए कतई अप्रत्याशित था। एक संवेदनशील व्यक्ति होने के नाते जब मैं इस विवाद से आजिज़ आ गया तो मैंने एकबारगी कबाड़खाना को बन्द कर देने का मन बना लिया था। इसका बहुत विरोध हुआ। लेकिन बाद में यह बात अलबत्ता मेरी समझ आ गई कि तिल को ताड़ बनाना कोई अक्लमन्दी का काम नहीं माना जा सकता।

ब्लॉगिंग में अगर कमेन्ट करने सुविधा दी गई है तो ब्लॉग के संचालक को भी यह अधिकार दिया गया है कि वह आपत्तिजनक कमेन्ट्स को प्रकाशित न करे। इस सुविधा को कमेन्ट मॉडरेशन कहा जाता है और अपने ब्लॉग पर कभी भी इसे लागू किया जा सकता है। यह अलग बात है कि मैंने अब भी कबाड़खाना पर कमेन्ट मॉडरेशन चालू नहीं किया। बस इतना परिवर्तन अवश्य किया कि बेनामी टिप्पणियों को प्रकाशित करना पूरी तरह बन्द कर दिया।

इस प्रकरण से एक बात समझ में आना शुरू हुई कि ब्लॉगिंग का एक विशेष पाठकवर्ग उतना सहिष्णु और निराग्रही नहीं है जितना समझने की गलती हम कर रहे थे। चूंकि बेहतर चीज़ों को पाठकों के साथ बांटने को हमने कबाड़खाना का मुख्य उद्देश्य मान लिया था और अपनी टीम के किसी भी सदस्य की योग्यता को लेकर हमें कोई सन्देह नहीं था, भलाई इसी में समझी गई कि बड़े पाठकवर्ग को ध्यान में रखते हुए अपनी राह पर चलते जाया जाए।

समय के साथ साथ कबाड़ख़ाना में कई अन्य साथी जुड़ते गए जिनमें से देश के कुछ स्थापित नाम भी थे।

अलबत्ता ब्लॉगवाणी और चिठ्ठाजगत (दुर्भाग्यवश ये दोनों एग्रीगेटर आज निष्क्रिय हो चुके हैं – और इस निष्क्रियता के पीछे के प्रत्यक्ष और परोक्ष कारण आगे भी गिनाए जा रहे हैं) के माध्यम से अन्य ब्लॉगों के बारे में जानना बहुत ज़्यादा उत्साहवर्धन करनेवाला नहीं था। अब भी स्तरीयता की कसौटी पर खरे उतरने वाले बहुत कम ब्लॉग हिन्दी में कार्यशील थे। ज़्यादातर में आत्म मोह और संकरेपन का भीषण घालमेल था और उन तक जाना और लौट कर आना बहुत कष्टकारी अनुभव हुआ करता था। स्थिति में अब भी कोई बहुत सुधार नहीं आया है पर इतने समय बाद आप जानते हैं कि किस ब्लॉग पर आप को क्या मिलेगा।

धार्मिक असहिष्णुता एक खास किस्म से हिन्दी ब्लॉगिंग के खासे-बड़े तबके पर हावी है और शुरुआत में ठीकठाक सोच वाले लोगों ने इसी वजह से इस माध्यम से दूरी बनाए रखना उचित समझा। हां पिछले साल भर में कुछ युवा, जागरूक और रचनाशील ब्लॉगरों ने उम्दा ठिकाने चालू किए हैं जिनसे हिन्दी पाठक के सामने रचनात्मकता के कई नए आयाम उद्घाटित हुए हैं।

——-

हिन्दी-साहित्य की दृष्टि से कहें तो इस समय को विमर्शों का समय माना जाना चाहिए। कभी दलित विमर्श होता है, कभी स्त्री विमर्श। कभी अल्पसंख्यक विमर्श तो कभी आदिवासी विमर्श। कभी बहसें उत्तर आधुनिकता के गिर्द कलाबाज़ियां खाती नज़र आती हैं कभी सांस्कृतिक पुनर्जागरण का फ़िकरा देर तक आसमान में गोता लगाता दीखता है। मंचों, सभागारों में सिमटे इन विमर्शादि ने भाषा का कितना नुकसान किया है, किसी को भी नज़र आ सकता है।

अगर मोहम्मद रफ़ी वाली पोस्ट से उपजा प्रकरण आंखे खोलने को लेकर पर्याप्त नहीं था तो 2009 की जुलाई में हमने अपने ही ब्लॉग के एक नामचीन्ह लेखक/सदस्य को एक विवादित व्यक्ति के हाथों उनके द्वारा लिए गए पुरुस्कार की वजह से कटघरे में खड़ा करने का साहस क्या दिखाया (http://kabaadkhaana.blogspot.com/2009/07/blog-post_9792.html) सारी औपचारिकताएं जैसे भड़भड़ा कर टूट पड़ीं और भाषाई संयम को ताक पर रख कर ऐसे-ऐसे बहस-मुबाहिसे चालू हुए कि अख़बार-पत्रिकाएं तक रस ले-ले कर इस प्रकरण को कई दिनों तक पकाती रहीं। इस दौरान मुझे करीब तीन सौ अवांछित और अश्लील कमेन्ट छांटने पड़े। यानी इस पोस्ट के बाद दुर्भाग्यवश कबाड़खाना पर कमेन्ट मॉडरेशन बाकायदा चालू हो गया। कबाड़खाना के पक्ष को सही ठहराते हुए उक्त नामचीन्ह लेखक/सदस्य के उक्त कृत्य की भर्त्सना करते हुए देश के करीब सौ स्थापित लेखक/कवियों द्वारा एक विरोधपत्र प्रकाशित किया गया। करीब दो हफ़्तों तक चली इस विकट बहस के बीच अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए रवीन्द्र व्यास ने रघुवीर सहाय की कविता हमारी हिंदी पोस्ट करते हुए सब को चेताया भी –

हमारी हिंदी

हमारी हिंदी एक दुहाजू की नयी बीबी है
बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली

गहने मढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ

वह मुटाती जाये
पसीने से गन्धाती जाये घर का माल मैके पहुंचाती जाये

पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े

घर से तो खैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है

एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आंगन कई कमरे कुठरिया एक के अंदर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिये कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फर्श पर ढंनगते गिलास
खूंटियों पर कुचैली चादरें जो कुएं पर ले जाकर फींची जायेंगी

घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अंदर की कोठरी में पांच सेर सोना भी
और संतान भी जिसका जिगर बढ़ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और जमीन भी जिस पर हिंदी भवन बनेगा

कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे।

——-

कबाड़खाना के संचालक की हैसियत से मैंने यह पाया कि पाठकों की सबसे ज़्यादा प्रतिक्रियाएं या तो संस्मरणों पर आती हैं या यात्रावृत्तान्तों पर। साहित्य अकादेमी पुरुस्कार से सम्मानित कवि वीरेन डंगवाल द्वारा खासतौर पर कबाडखाना के लिए कवि वेणुगोपाल की स्मृति में लिखा गया यह बेमिसाल संस्मरण इस लिहाज़ से उल्लेखनीय माना जाना चाहिए –

तुम तो निखालिस प्रकाश थे साथी!

इस तरह 4 नवम्बर 2006 की देर शाम पुराने हैदराबाद के किशनबाग चौराहे पर इन्डिया होटल के सामने सड़क पार एक दुबके हुए से मन्दिर के छोटे से मुख्य द्वार पर खड़े वेणुगोपाल से मेरी वह तीसरी मुलाकात हुई। बत्तियां जल चुकी थीं। महानगर के पुराने मोहल्ले की बोसीदा बत्तियां और एक ज़माने में हिन्दी कविता को झकझोर कर विक्षिप्त अराजकता की राह से विचार, सेनिटी और मनुष्यता की तरफ़ घसीटकर लाने की जद्दोजहद करने वाले समूह का कार्यकर्ता वह कवि, अपनी बांह के नीचे बैसाखी दबाए खड़ा था। सांवले चेहरे पर वही चौड़ी-दोस्ताना मुस्कान थी और लम्बी प्रतीक्षा की खीझ। हल्की बढ़ी खूंटी सफ़ेद दाढ़ी। और लम्बे समय बाद मुलाकात की उत्कंठा। और इस सब से भी ऊपर एक बात थी उस चेहरे पर – इस समग्र तथा आसन्न दृश्यावली और संवाद की नाटकीयता से पहले से ही अभिभूत होने का एक भाव। गोया पर्दा बस खिंचा ही जाता है और देखो एक विलक्षण नाटक शुरू होने को है।

वह शाम भी जैसे बीते हुए जमाने की एक श्वेत-श्याम, बेतरतीब और दारुण फ़िल्म थी जिसकी सघनता और भाव-बहुल सांद्रता अत्यंत विचलित करने वाली थी। और फ़िल्म भी अंधेरे, अवसाद, गरीबी, प्रेम, मैत्री, हताशा, छटपटाहट, क्रोध, गीली मिट्टी-कीचड़ और मंदिर के फूलों की उस विलक्षण गंध को कहां बता सकती है। वह एक कच्चा कमरा था, शायद सातेक फ़ुट ऊंचा। दीवार से सटकर वेणुगोपाल का जांघ तक का पैर रखा था (‘पूना में बना। ज़्यादा पहनने पर दर्द होता है’- उसने बताया था।) खाट पर किताबें थीं और कुछ अलमारी में भी। और एक काई लगी सुराही थी। चालीस वाट की रोशनी में हम तीन लोग बैठे थे। मैंने उसके उन दिनों छप रहे संस्मरणों की तारीफ़ की तो वह एक दोस्त की तरह पुलकित हुआ और फिर लगातार बातें करने लगा। अपनी सतत बेरोजगारी के बारे में। अपनी बिना पूर्व चेतावनी गैंगरीन से कटी हुई टांग और उसमें बाद तक होने वाली भीषण परिकल्पित पीड़ा – ‘फ़ैन्टम पेन’ के बारे में। अपने उस पुश्तैनी हनुमान मंदिर के बारे में जहां वह पहली पत्नी और बेटी के साथ रह रहा था। दूसरी पत्नी कवयित्री वीरा और उससे हुई प्रतिभावान नर्तकी पुत्री के बारे में – जो शहर के दूसरे हिस्से में रहते थे। मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र पर अपनी पीएचडी के बारे में। उन अखबारों के मूर्ख संपादकों के बारे में, जिनमें उसने रह-रहकर छिटपुट काम किया। उन दगाबाज ताकतवर लोगों के बारे में जिन्होंने योगयता के बावजूद और वायदे करके भी उसे नियमित नौकरी के लिए हिंदी विभागों में प्रवेश नहीं करने दिया। अपने मूल निवास के बारे में जो शायद महाराष्ट्र में कहीं था – कोंकण में।

बातों के बीच में एक बार उसकी सुदर्शन और शर्मीली युवा पहली बेटी दबे-पांव चाय के तीन गिलास रख गई। दरवाजे के कच्चे गलियारे के उधर, उस छोटे मंदिर के परे एक और स्त्रीमूर्ति बीच-बीच में सर झुकाए दीखती थी – कुछ न करती, या करती या बस जानबूझकर हिलती-डुलती। उस चाय में किसी अद्भुत मसाले का रहस्यमय स्वाद था जिसमें गुजरी हुई सदियां भरी थीं। बमुश्किल घंटा भर साथ रहे होंगे हम – सन 78 के बाद पहली बार। सन अठहत्तर में वह एक दिन के लिए, कहीं से होता हुआ इलाहाबाद आया था और हम साइकिल पर डबल सवारी हांफते हुए लूकरगंज से सात किलोमीटर विश्वविद्यालय के स्टेट बैंक तक गए थे -पचास रुपये निकालने। तब हम युवा थे। हमारे फेफड़ों और दिलो-दिमाग में ज़्यादा दम था। पर इस बार का वह घंटा एक जीवनाख्यान था जिसमें सब कुछ उलट-पुलट हो चुका था। यह वेणु भी कोई और ही था। अलबत्ता एक बदहवास जिजीविषा से पूर्ववत भरा।

फिर वेणु हमें छोड़ने सड़क तक आया। उस्मानिया विश्वविद्यालय में आधुनिक हिंदी कविता पर शोध कर रही एक लड़की, जिसे वह अपनी छात्रा बता रहा था – को भी इस दौरान उसने बुला लिया था। उसी ने हमारे लिए औटो ठहरा दिया। हसीगुडा जहां हम रुके थे वहां से कम से कम एक घंटे की दूरी पर रहा होगा, लेकिन हम पूरे रास्ते चुप रहे। रीता जो बत्तीस बरस से मेरी पत्नी है और हर तरह की ऊंच-नीच इस बीच देख चुकी है, तो बिल्कुल हतवाक थी। हमें विदा करते हुए बैसाखी पर एक तरफ़ झुका वेणु उस अजीब से उजाले में अपनी चौड़ी मुस्कुराहट के साथ अपना हाथ हमारी तरफ़ हिला रहा था। गोया एक नाटक का वह अंतिम दृश्य था। एक सपाटे से उसी की एक कविता की स्मृति ऑटो के भीतर की स्तब्धता और शोर में मुझे हो आई। उसके मरने के बाद फिर मैंने तलाशा, वह कविता ठीक-ठीक यों है :

कभी
अपने नवजात पंखों को देखता हूं
कभी आकाश को
उड़ते हुए
लेकिन ऋणी
मैं फिर भी ज़मीन का हूं
जहां तब भी था जब पंखहीन था
तब भी रहूंगा
जब पंख झर जाएंगे।
——-

हिन्दी ब्लॉगिंग के बड़े हिस्से में जैसा मैंने पहले कहा आत्ममोह बहुत गहरे व्यापा हुआ है। पढ़ने की प्रवॄत्ति हमारे यहां अब भी उतनी महत्वपूर्ण नहीं मानी जाती सो अपने लिखे को महानतम लेखन मान लेने वाला एक औसत हिन्दी ब्लॉगर अब भी वह नहीं कर रहा जिसकी उस से अपेक्षा की जाती है। यह अलग बात है कि हिन्दी ब्लॉगिंग के प्रभाव को लेकर अब मीडिया भी सचेत है और स्वयं ब्लॉगर्स भी अपनी ताकत का परीक्षण करने के लिए ब्लॉगर्स-मीट जैसे आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इन आयोजनों की सफलता/ असफलता को लेकर मेरे मन में अब तक कोई ठोस छवि नहीं बन सकी है। ऐसा शायद इस लिए है कि हिन्दी ब्लॉगिंग अभी भी अपनी शैशवावस्था से बाहर निकल पाने का जतन कर रही है।

ब्लॉगिंग खासतौर पर हिन्दी की ब्लॉगिंग एक बनती हुई विधा है और नए ज़माने के मीडिया में एक प्रभावकारी भूमिका निभा पाने में सक्षम है। इस के लिए अभी बहुत ज़्यादा मेहनत और स्पष्ट दृष्टि की आवश्यकता हर समय बनी रहेगी।

अशोक पान्डे लेखक और पत्रकार। वे देश के एक प्रमुख ब्लॉगर हैं और उनका ब्लॉग http://kabaadkhaana.blogspot.com बहुत लोकप्रिय है और साहित्य , कला और संस्कृति के व्यापक दायरे को कवर करता है। अशोक ने विश्व साहित्य की 50 से अधिक पुस्तकों का अनुवाद और प्रकाशन किया है। वे अनेक विभिन्न अख़बारों और पत्रिकाओं में कॉलम भी लिखतें हैं।

Tags: Ashok PandeyBlogBloggingBroadcast JournalismCorporate JournalismEconomic JournalismEnglish MediaFacebookHindi MediaInternet JournalismJournalisnNew MediaNews HeadlineNews writersOnline JournalismPRPrint JournalismPrint NewsPublic RelationSenior JournalistSharingsocial mediaSports JournalismtranslationTV JournalistTV NewsTwitterWeb Journalismweb newsyellow-journalismअंग्रेजी मीडियाअशोक पान्डेआर्थिक पत्रकारिताइंटरनेट जर्नलिज्मकॉर्पोरेट पत्रकारिताखेल पत्रकारिताजन संपर्कटीवी मीडियाट्रांसलेशनट्विटरन्यू मीडियान्यूज राइटर्सन्यूड हेडलाइनपत्रकारपब्लिक रिलेशनपीआरपीत पत्रकारिताप्रिंट मीडियाफेसबुकब्लॉगब्लॉगिंगवेब न्यूजवेब मीडियाशेयरसीनियर जर्नलिस्टसोशल माडियास्पोर्ट्स जर्नलिज्महिन्दी मीडिया
Previous Post

पत्रकारिता के विविध आयाम

Next Post

...सवाल ये कि हम पत्रकार बनें ही क्यों?

Next Post
…सवाल ये कि हम पत्रकार बनें ही क्यों?

...सवाल ये कि हम पत्रकार बनें ही क्यों?

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

No Result
View All Result

Recent News

Lebanese Digital Platform ‘Daraj’

June 1, 2023

How AI-generated images are complicating efforts to combat disinformation

May 30, 2023

Environmental Journalism:  Are we all climate reporters now?

May 30, 2023

SCAN NOW FOR DONATIONS

NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India

यह वेबसाइट एक सामूहिक, स्वयंसेवी पहल है जिसका उद्देश्य छात्रों और प्रोफेशनलों को पत्रकारिता, संचार माध्यमों तथा सामयिक विषयों से सम्बंधित उच्चस्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाना है. हमारा कंटेंट पत्रकारीय लेखन के शिल्प और सूचना के मूल्यांकन हेतु बौद्धिक कौशल के विकास पर केन्द्रित रहेगा. हमारा प्रयास यह भी है कि डिजिटल क्रान्ति के परिप्रेक्ष्य में मीडिया और संचार से सम्बंधित समकालीन मुद्दों पर समालोचनात्मक विचार की सर्जना की जाय.

Popular Post

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता

टेलीविज़न पत्रकारिता

समाचार: सिद्धांत और अवधारणा – समाचार लेखन के सिद्धांत

Evolution of PR in India and its present status

आदिवासी क्षेत्र की समस्याएं और मीडिया

संचार मॉडल: अरस्तू का सिद्धांत

Recent Post

Lebanese Digital Platform ‘Daraj’

How AI-generated images are complicating efforts to combat disinformation

Environmental Journalism:  Are we all climate reporters now?

Artificial Intelligence: The Trending Magic in Media

Tips for Journalism Students- 10 Ways to Earn While You Learn

FICCI M & E Report: Indian Media and Entertainment Industry on Rise

  • About
  • Editorial Board
  • Contact Us

© 2022 News Writers. All Rights Reserved.

No Result
View All Result
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal

© 2022 News Writers. All Rights Reserved.