About
Editorial Board
Contact Us
Thursday, July 7, 2022
NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India
No Result
View All Result
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal
No Result
View All Result
NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India
Home Journalism

समकालीन हिन्‍दी मीडिया की चुनौतियां

समकालीन हिन्‍दी मीडिया की चुनौतियां

प्रियदर्शन।

हिन्‍दी और भाषाई मीडिया के लिए यह विडंबना दोहरी है। जो शासक और नीति-नियंता भारत है, वह अंग्रेजी बोलता है। इस अंग्रेजी बोलने वाले समाज के लिए साधनों की कमी नहीं है। वह इस देश की राजनीति चलाता है, वह इस देश में संस्‍कृति और साहित्‍य के मूल्‍य तय करता है, वह इस देश का मीडिया चलाता है। वह हिन्‍दी या दूसरी भारतीय भाषाओं को इसलिए जगह देता है कि उसे बाकी भारत से भी संवाद करना पड़ता है। लेकिन वह इन भाषाओं को हिकारत से भी देखता है

समकालीन हिन्‍दी मीडिया की चुनौतियां पर इतनी बार और इतनी तरह से चर्चा हो चुकी है कि इस पर फिर से बात करना भी एक चुनौती लगता है। सिर्फ इसलिए नहीं कि इस मुद्दे पर नया कुछ कहने को बाकी नहीं है, बल्कि इसलिए भी कि जिन चुनौतियों की हम पहले चर्चा करते रहे हैं, उनका सामना करने की इच्‍छाशक्ति तो दूर, इच्‍छा भी मीडिया नहीं दिखाता। आम तौर पर टीवी चैनलों की चर्चा होते ही एक आत्‍मनिरीक्षण का दौर सा चल पड़ता है। ढेर सारे लोग यह बताने वाले निकल पड़ते हैं कि मीडिया पर पड़ने वाले दबावों से कैसे निबटने की जरूरत है और किस तरह मीडिया का सतहीपन बढ़ रहा है। दिलचस्‍प यह है कि यह बात- जाहिर है, बहुत प्रामाणिकता के साथ- वे लोग बताते हैं जो मीडिया के इस खेल में बहुत भीतर तक उतरे हुए हैं, उसके बनाए नायक हैं। लेकिन इतनी चुनौती-चर्चा, इतने पश्‍चातापी आत्‍मनि‍रीक्षण के बावजूद यह नजर नहीं आता कि कोई बदलने को तैयार है। सपाटपन और सतहीपन के समंदर में कभी-कभार विचार और कल्‍पनाशीलता के एकाध संवेदनशील टापू दिख जाएँ तो मीडिया उन्‍हीं की तरफ इशारा करता हुआ उसे समग्रता के प्रमाण की तरह पेश करने में जुट जाता है।

तो मेरी समझ में समकालीन मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि वह अपनी चुनौतियों से लड़ने की जैसे ताकत खो बैठा है। मीडिया के मालिक या तो खुद सम्‍पादक हैं या फिर ऐसे सम्‍पादक रख रहे हैं जो सिर्फ उनकी सुने। इन नए सम्‍पादकों की योग्‍यता का पैमाना उनका ज्ञान, उनका कौशल नहीं, उनके सम्‍पर्क हैं, उनकी जान-पहचान है, उनकी राजनीतिक ताकत है। आज मीडिया घरानों के भीतर का कोई बड़ा और संवेदनशील पत्रकार अपने सम्‍पादक होने की कल्‍पना नहीं कर सकता, बशर्ते उसकी सिफारिश किसी बड़े और नामी-गिरामी दूसरे सम्‍पादक ने नहीं की हो। जो बाकी पत्रकार हैं, वे नौकरी बजा रहे हैं और उदारीकरण के इस बदले हुए दौर में, छंटनी और बन्‍दी की तलवारों से बचते हुए, खुद को खुशकिस्‍मत मानते हुए, बस अखबार बना रहे हैं, टीवी के बुलेटिन तैयार कर रहे हैं। टीवी चैनलों पर बड़ी हड़बड़ाहट के साथ आने-जाने और बदलने वाली ब्रेकिंग न्‍यूज की पट्टियों के पीछे जिस तरह की ऊब, एकरसता और यांत्रिकता हावी है, उसे वही लोग महसूस करते हैं जो वहाँ काम करते हैं।

सवाल है, ऐसा क्‍यों हो रहा है? मीडिया का चरित्र अचानक इस तरह क्‍यों बदल गया है? इस सवाल का जवाब मीडिया के भीतर नहीं, मीडिया से बाहर उस समाज के भीतर खोजना होगा जिसके बीच मीडिया बनता है। बीती सदी के आखिरी दशक में आए और इक्‍कीसवीं सदी में हर तरफ छा और छितरा गए आर्थिक उदारीकरण की बहुत सारी सौगातें मॉल, मल्‍टीप्‍लेक्‍स, विदेशी ब्रांड्स और नए शोरूम की शक्‍ल में हमारे सामने हैं और इस उदारीकरण ने इनके उपभोग के लिए हर महीने लाखों कमाने वाला बीस-पच्‍चीस करोड़ का एक उच्‍च मध्‍यवर्गीय भारत भी पैदा कर दिया है। यह नया भारत- जो यह कल्‍पना करता है कि आने वाले दशकों में वह एक विश्‍व‍शक्ति होगा- इस उदारीकरण का इंजन भी बना हुआ है और इसकी अलग-अलग बोगियों में बैठा भी हुआ है। हमारे अखबार, हमारे टीवी चैनल, हमारे पत्रकार और हमारे सम्‍पादक इन दिनों इसी वर्ग से आ रहे हैं और इसी वर्ग के लिए समर्पित हैं। जो अभी तक इसके दायरे से बाहर हैं, उनके भीतर भी यही कामना है कि वे इसमें किसी-न-किसी तरह शामिल हो जाएँ। इस नए भारत को सूचना प्रौद्योगिकी के इस विराट दौर में सबकुछ अपनी उंगलियों पर, अपने मोबाइल पर, अपने ऐप्‍स की शक्‍ल में चाहिए। उसे 24 घंटे मनोरंजन चाहिए, खाने-पीने-घूमने का बेरोक-टोक इंतजाम चाहिए, चिकनी-फिसलती सड़कें चाहिए, बड़ी चमचमाती गा‍डियां चाहिए और ऐसी चटपटी खबरें चाहिए जिन्‍हें पढ़ते-देखते हुए वह या तो अपने भारत पर गर्व कर सके या फिर दूसरे भारत को हिकारत से देख सके- यह सोचते हुए कि अच्‍छा हुआ कि उसका पीछा इस गंदी-गंधाती-बजबजाती दुनिया से छूटा।

इस नए भारत में 24 घंटे खबरें बेचने निकला मीडिया, खबरों का चयन भी अपनी प्राथमिकता के हिसाब से करता है और उनकी प्रस्‍तुति में भी वह हल्‍का-फुल्‍कापन बनाए रखता है जो उसके पहले से तनावग्रस्‍त तबके का तनाव न बढ़ाए। उसके सरोकारों के दायरे में दिल्‍ली या दिल्‍ली जैसे महनगरीय चरित्र वाले दूसरे शहरों के बाशिंदे आते हैं, उनके साथ हुई नाइंसाफी की खबर उसे चुभती है, उसके हाथ से छीन लिये जाने वाले मौके उसे सालते हैं, लेकिन उसके दायरे से बाहर जो बहुत विशाल भारत है, उसकी चीखें वह नहीं सुनता, उसकी रूलाइयाँ वह नहीं देखता, उसी खबर वह नहीं लेता। दिल्‍ली के एक मॉल से फिल्‍म देखकर निकल रही एक लड़की के साथ हुआ सामूहिक बलात्‍कार इसीलिए राष्‍ट्रीय शर्म और उत्‍तेजना का विषय बन जाता है, जबकि इसी दिल्‍ली की झुग्गियों में छोटी बच्चियों के साथ जो कुछ होता है, वह आई-गई खबर की तरह ले लिया जाता है। जब मणिपुर और छत्‍तीसगढ़ में औरतें सताई जाती हैं तो वह उसकी खबर टाल कर आगे बढ़ जाता है।

खबरों का चयन ही नहीं, उनका परिप्रेक्ष्‍य भी इसी वर्गीय चेतना से तय होता है। अब पानी बरसने की खबर मीडिया के लिए दिल्‍ली में जाम लगने की खबर होती है, मौसम की फसल के लिए फायदे या नुकसान की नहीं। फेसबुक और ट्विटर पर लगी पाबन्‍दी अभिव्‍यक्ति की आतादी का हनन बन जाती है (जो बेशक वह है), लेकिन प्रतिरोध के दूसरे आन्‍दोलनों की पीठ पर पड़ती लाठी और सीने पर पड़ती गोलियां लोकतन्‍त्र पर खतरे की वह गूंज पैदा नहीं करतीं। राजनीतिक भ्रष्‍टाचार बड़ी सुर्खी बनता है, जबकि दफ्तरों, कच‍हरियों और निजी कम्‍पनियों की ठेका लूट का भ्रष्‍टाचार किनारे कर दिया जाता है। दिल्‍ली के जंतर-मंतर पर अण्‍णा हजारे का आन्‍दोलन बड़ा हो जाता है, मणिपुर में शर्मिला इरोम के अनशन पर नजर नहीं पड़ती। लेकिन जब दुनिया ऐसी है और मीडिया ऐसा है तो उसकी चुनौती कैसी और उस पर सवाल क्‍यों? अगर वह निजी पूँजी का मुनाफा देने वाला उद्यम है और ऐसी ही खबरों से उसका काम चल रहा है तो किसी और को उस पर एतराज करने का हक क्‍या है?

लेकिन यह हक है, क्‍योंकि मीडिया का दावा तो सबकी नुमाइंदगी का है। इसी दावे पर वह खुद को अखिल भारतीय बताता है, जनपक्षीय बताता है, सबकी खबर लेने-देने वाला, सबसे तेज, सबसे आगे बनता है। लोगों को वादा करता है कि वह सूचनाओं में उनको सबसे आगे रखेगा। हालांकि यहां से देखें तो यह सिर्फ दावा नहीं, एक दुविधा भी है। मीडिया का वर्तमान जो भी हो, इस देश में मीडिया की विरासत बहुत बड़ी रही है। भारतीय पत्रकारिता अंग्रेजों के साथ लोहा लेती हुइ्र जेलखानों में पैदा हुई और पली-बढ़ी। देश और समाज को समझने और सिरजने का जज्‍बा उसके भीतर इसी गुणसूत्र से आया है। इसी जीन ने मीडिया के भीतर यह ताकत पैदा की कि वह भारतीय लोकतन्‍त्र का चौथा खंभा बने और जब बाकी खंभे भरोसा खो रहे हों तो भी वह अपना भरोसा बनाए रखे। अपनी सारी मुश्किलों, नाकामियों, अपने सारे बेतुकेपन के बावजूद भारतीय लोकतन्‍त्र का जो एक आजाद, खुला मिजाज है, वह बहुत कुछ इस मीडिया की वजह से भी है। आज भी इस मीडिया में प्रतिरोध की बहुत सारी आवाजें हैं जो लगातार इस बात की तरफ ध्‍यान खींच रही हैं कि नए दौर की यह बाजार-व्‍यवस्‍था अपने चरित्र में सामुदायिकता विरोधी है, समता विरोधी है और अन्‍तत: लोकतन्‍त्र विरोधी है। यह दुनिया को लूटने निकली है और इस लूट के विरूद्ध उठने वाली, इसका पर्दाफाश करने वाली हर आवाज को कुचलना, अवश्विसनीय बनाना, और अपनी जरूरतों के हिसाब से ढालना भी उसका लक्ष्‍य है।

दरअसल इस मोड़ पर आकर मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती को पहचान सकते हैं। लेख के शुरू में जो सवाल था कि हम अपनी चुनौतियों को पचचानते हुए भी उनसे मुठभेड क्‍यों नहीं कर पा रहे, उसका एक जवाब यहाँ छुपा है। नए जमाने की पूँजी और सत्‍ताएँ आवाजों को दबाने के सौ तरीके जानती हैं। उन्‍हें मालूम है कि लोगों को जेल में डालना, पत्रकारों पर सीधी रोक लगाना, मीडिया की बांहें उमेठना उन्‍हें ज्‍यादा भरोसा दिलाना है, उनकी बात को सही साबित करना है। उनको रोकने का ज्‍यादा सही तरीका यह है कि उन्‍हें इस व्‍यवस्‍था का पुर्जा बना लिया जाए। थोड़ी सी आजादी के भरम और बहुत अच्‍छी सैलरी की हकीकत के बीच फंसा पत्रकार धीरे-धीरे अपना वर्ग चरित्र भी भूलने लगता है और नए माहौल में ढलने लगता है। अचानक नयी कारों पर लगने वाला टैक्‍स, घरों के कर्ज में मिलने वाली राहत या नए बनते फ्लाईओवर उसके लिए बड़ी और जरूरी खबरों में बदल जाते हैं। उसे अमेरिका की मंदी की फिक्र ज्‍यादा सताती है, विदर्भ की भुखमरी कम परेशान करती है। वह 20-25 करोड़ के एक छोटे से भारत का प्रतिनिधि हो जाता है जिसके लिए 80 करोड़ का एक विशाल भारत बस एक उपनिवेश भर है। कहते हैं, यूरोप की समृद्धि के पीछे 200 साल तक एशिया और अफ्रीका में चली औपनिवेशिक लूट का भी हाथ रहा है। हम यूरोप की टक्‍कर का एक भारत बनाना चाहते हैं और इसलिए भारत के ही एक हिस्‍से को उपनिवेश की तरह देख रहे हैं।

हिन्‍दी और भाषाई मीडिया के लिए यह विडंबना दोहरी है। जो शासक और नीति-नियंता भारत है, वह अंग्रेजी बोलता है। इस अंग्रेजी बोलने वाले समाज के लिए साधनों की कमी नहीं है। वह इस देश की राजनीति चलाता है, वह इस देश में संस्‍कृति और साहित्‍य के मूल्‍य तय करता है, वह इस देश का मीडिया चलाता है। वह हिन्‍दी या दूसरी भारतीय भाषाओं को इसलिए जगह देता है कि उसे बाकी भारत से भी संवाद करना पड़ता है। लेकिन वह इन भाषाओं को हिकारत से भी देखता है, इन्‍हें बोलने वालों का संस्‍कार करना चाहता है, उन्‍हें अपनी तरह से बदलना चाहता है। साधनों से विपन्‍न गैर-अंग्रेजी-भाषी समाज भी इस अंग्रेजी का बड़ी तेजी से अनुकरण करता है। अचानक हम पाते हैं कि वह अपनी मौलिकता, अपने मुहावरे खो रहा है, एक अनजान, अखबारी, स्‍मृतिविहीन, संवेदनारहित भाषा बोल रहा है। इसकी भरपाई वह सनसनी से, बड़बोलेपन से, शोर-शराबे से और इन सबके बीच मुमकिन हो सकने वाली एक स्‍मार्ट-सी भाषा से करना चाहता है। हिन्‍दी मीडिया के इकहरेपन की एक बारीक वजह यह भी है कि इसे अंग्रेजी वाले अंग्रेजी की तरह से ही चला रहे हैं। उन्‍हें लगता है कि हिन्‍दी ऑटो ड्राइवरों, रेहड़ी लगाने वालों, उनके दफ्तर के बाहर खड़े नीली-पीली वर्दी वाले संतरियों, दिहाड़ी के मजदूरों और ऐसे ही उन बहुत सारे लोगों की भाषा है जो पढ़े-लिखे नहीं हैं, जो सूक्ष्‍म संवेदना से अनजान हैं। इनके बची हिन्‍दी चैनल अपराध और सनसनी, अंधविश्‍वास और चुटकुले बेच कर ही चल सकते हैं।

बदकिस्‍मती से अपनी जमीन और जड़ों से उखड़ा, अपने अभावों का मारा जो गरीब हिंदुस्‍तान महानगरों की कच्‍ची-पक्‍की, वैध-अवैध झुग्‍गी-झोप‍डीनुमा बस्तियों में रहता है और स्‍मृतिवंचित है, वह इस प्रभु वर्ग की धारणा की पुष्टि का आधार भी बन जाता है। इसके अलावा इस नए जमाने के साथ कदम को मिलाने को बेताब और अपने घर-परिवार से बाहर निकल कर सिर्फ पैसा कमाने वाली नौकरी को ही सबकुछ मान बैठने वाला, और बड़ी तेजी से अपनी भाषा छोड़कर अंग्रेजी के ग्‍लोबल संसार से जुड़ने को उत्‍सुक जो एक और तबका है, वह भी मीडिया के इस मिथक को मजबूत करता है कि हिन्‍दी के लोग पढ़ते-लिखते नहीं, गम्‍भीर चीजों में रूचि नहीं लेते और उन्‍हें बहुत सतही किस्‍म की सूचनाएँ चाहिए। लेकिन दरअसल यह वह खुराक नहीं है जो हिन्‍दीवाला मांग रहा है, यह वह खुराक है जिसका उसे आदी बनाया जा रहा है।

इस नितांत जटिल परिदृश्‍य में क्‍या कहीं कोई उम्‍मीद की किरण है? क्‍या इन हालात में हम ऐसा ही मीडिया भुगतने को अभिशप्‍त हैं? इस सवाल के जवाब कई हैं। मेरे भीतर जो बात भरोसा पैदा करती है, वह यह है कि हिन्‍दी धीरे-धीरे सवर्णों की भाषा नहीं रह जा रही है। वे अंग्रेजी की तरफ मुड़ते जा रहे हैं। लेकिन इस देश के करोड़ों, पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों की भाषा अब भी हिन्‍दी है जिनके घर बिल्‍कुल पहली सीढ़ी में स्‍लेट, कलम, कागज या कम्‍प्‍यूटर का प्रवेश हो रहा है। ये वे लोग हैं जिनकी आवाज धीरे-धीरे मुख्‍यधारा के मीडिया में आ रही है। इसके अलावा नए माध्‍यमों की जो दुनिया है, वहाँ भी इनकी पहुँच बनी है, इनका दखल बढ़ा है।

सवाल है, क्‍या ये लोग कभी इस हैसियत या हालत में होंगे कि मीडिया के मौजूदा परिदृश्‍य को बदल सकें? कहीं ऐसा तो नहीं कि यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते ये खुद बदल जाएँगे, जैसे अपने समाज में हम बहुत सारे लोगों को बदलता देख रहे हैं? इसका भी कोई इकहरा जवाब नहीं हो सकता। यहाँ आकर हमारा वह संसदीय लोकतन्‍त्र हमारे भीतर कुछ उम्‍मीद पैदा करता है जिसे हम खूब गालियाँ देते हैं। यह सच है कि सत्‍ता और बाजार के मौजूदा गठजोड़ के बावजूद अबाध मुनाफाखोरी का जाल अगर कहीं टूटता है, कॉरपोरेट मंसूबे अगर कहीं नाकाम होते हैं तो इसके पीछे चुनावी राजनीति का ही बल है। यह राजनीति न होती तो दलितों, आदिवासियों की दुनिया कुछ ज्‍यादा बेनूर, बदरंग और विस्‍थापित होती। इस राजनीति ने उनको जो कुछ ताकत और पहचान दी है, उसी से उम्‍मीद बन्‍धती है कि वे कभी मीडिया की मुख्‍यधारा का हिस्‍सा होंगे और इसे अपने ढंग से बदलेंगे। (साभार: मीडिया का वर्तमान -संपादक अकबर रिज़वी, अनन्य प्रकशन)

Tags: Challenges of Hindi MediaPriyadarshanप्रियदर्शनमीडियासमकालीन हिन्‍दी
Previous Post

नए दौर की पत्रकारिता?

Next Post

वर्किंग जर्नलिस्टर ऐक्ट  के दायरे में  कब आयेंगे टीवी पत्रकार ?

Next Post
वर्किंग जर्नलिस्टर ऐक्ट  के दायरे में  कब आयेंगे टीवी पत्रकार ?

वर्किंग जर्नलिस्टर ऐक्ट  के दायरे में  कब आयेंगे टीवी पत्रकार ?

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

No Result
View All Result

Recent News

सिर्फ ‘डिजिटल-डिजिटल’ मत कीजिए, डिजिटल मीडिया को समझिए

July 6, 2022

The Age of Fractured Truth

July 3, 2022

Growing Trend of Loss of Public Trust in Journalism

July 3, 2022

SCAN NOW FOR DONATIONS

NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India

यह वेबसाइट एक सामूहिक, स्वयंसेवी पहल है जिसका उद्देश्य छात्रों और प्रोफेशनलों को पत्रकारिता, संचार माध्यमों तथा सामयिक विषयों से सम्बंधित उच्चस्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाना है. हमारा कंटेंट पत्रकारीय लेखन के शिल्प और सूचना के मूल्यांकन हेतु बौद्धिक कौशल के विकास पर केन्द्रित रहेगा. हमारा प्रयास यह भी है कि डिजिटल क्रान्ति के परिप्रेक्ष्य में मीडिया और संचार से सम्बंधित समकालीन मुद्दों पर समालोचनात्मक विचार की सर्जना की जाय.

Popular Post

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता

समाचार: सिद्धांत और अवधारणा – समाचार लेखन के सिद्धांत

टेलीविज़न पत्रकारिता

समाचार, सिद्धांत और अवधारणा: समाचार क्‍या है?

समाचार : अवधारणा और मूल्य

Rural Reporting

Recent Post

सिर्फ ‘डिजिटल-डिजिटल’ मत कीजिए, डिजिटल मीडिया को समझिए

The Age of Fractured Truth

Growing Trend of Loss of Public Trust in Journalism

How to Curb Misleading Advertising?

Camera Circus Blows Up Diplomatic Row: Why channels should not be held responsible as well?

The Art of Editing: Enhancing Quality of the Content

  • About
  • Editorial Board
  • Contact Us

© 2022 News Writers. All Rights Reserved.

No Result
View All Result
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal

© 2022 News Writers. All Rights Reserved.