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मीडिया  का व्यापारीकरण: पाठक-दर्शक बने सिर्फ उपभोक्ता

मीडिया  का व्यापारीकरण: पाठक-दर्शक बने सिर्फ उपभोक्ता

कपिल शर्मा |

बात साल 2007 में दिल्ली के दरियागंज के सर्वोदय राजकीय विधालय में सेक्स रैकेट चलाने के झूठे स्ट्रींग ऑपरेशन से प्रेसमीडिया ट्रायल की शिकार महिला शिक्षिका की हो या 2011-12 में नीरा राडिया टेप के खुलासों के बाद बड़े प्रेस मीडिया घरानों की विश्वसनीयता पर खड़े हुए सवालों की। एक बात तो साफ है कि पिछले एक दशक में मीडिया के चरित्र में तेजी से परिवर्तन हुआ है।

आज प्रेस मीडिया का एक बड़ा दायरा है, खबरों और सूचनाओं को प्राप्त करने के लिए टीवी, अखबार, रेडियो, इंटरनेट एंव मोबाइल प्रचलित साधन है। जिनका अपना एक बाजार है। बड़े- बड़े मीडिया घरानों ने जन्म ले लिया है। जो खबर पढ़ने वाले को पाठक या दर्शक नहीं बल्कि उपभोक्ता मानकर चल रहे है। यही नहीं इनकी भूमिका में विशेष राजनैतिक विचारधाराओं के लिए जनमत निर्माण और प्रोपेगेंडा आधारित मीडिया कंवरिग भी शामिल है। साल 2013 में ढोंगी बाबाओं के खिलाफ चलाए गये मीडिया ट्रायल में इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया ने जहां एक ही समय में इन बाबाओं को कठघरे में खड़ा किया था, वहीं उसी समय इन बाबाओं के गुणगान करते ढेरों विज्ञापनों को भी अपने माध्यम से प्रचारित किया था। ऐसे में यहां सवाल मीडिया की नैतिकता और आचार संहिता का उठता है। आम आदमी को परोसी जा रही सूचनाओं में वस्तुनिष्टता और सत्यता का उठता है। गांधी जी ने 24.08.1935 को प्रकाशित हरिजन के अंक में लिखा था कि किसी अखबार या किताब में लिखे शब्दों पर विश्वास करने के लिए लोग आदतन होते है। इसलिए खबरें छापने के पहले विशेष  सावधानी बरती जानी चाहिए क्योंकि गलत खबरें एक कुव्यवस्था को जन्म देती है। लेकिन मीडिया कारोबार में मुनाफे और टीआरपी की प्रतिस्पर्धा ऐसी नैतिकताओं से अपने आपको परे मानती है। चुनावों के दौरान पेड न्यूज की समस्या, खबरों के रुप में कार्पोरेट कंपनियों की भलमनसाहत का झूठा प्रचार कई बार लोगों के सामने असत्य या अर्द्वसत्य को परोसता है। लेकिन आम लोग शब्दों के इस मायाजाल को समझे बिना इन सूचनाओं पर विश्वास करते है।

स्वतन्त्रता के पूर्व जहां अखबारों का मिशन आजादी जैसे मुद्दे थे, वहीं आजादी के बाद बदले हालातों ने अखबारों और अन्य प्रेस मीडिया माध्यमों को लक्ष्यहीन कर दिया है। कुछेक अखबार विकास के मुददों के उपर लगातार खबरें कर रहे हैं लेकिन वहां भी उनकी वस्तुनिष्ठता का सवाल लगातार खड़ा हो रहा है और कई बार ऐसा हुआ है जब प्रेसमीडिया किसी खास मुद्दे में दो धड़ों में बंटा नजर आया है। टिहरी बांध मामले में ही प्रेस मीडिया का एक पक्ष जहां सरकार की इस योजना को विकास के लिए आवश्यक बताता रहा है तो वहीं दूसरा पक्ष इस योजना के कारण विस्थापित होने वाले लोगों की समस्या को मुख्य एंजेडा बनाकर टिहरी बांध के विरोध में चल रहें आदोंलन को प्रमुखता देता रहा है। ऐसी स्थिति में जनमत निर्माण एक असंमजस की स्थिति में है। गांधी जी ने प्रेस के संबंध में लिखा है कि यह एक ऐसा पेशा है जिसमें आत्मनियंत्रण अनिवार्य पहलू है।  दिनांक 12.05.1920 को यंग इंडिया में प्रकाशित लेख में गांधी जी ने स्पष्ट किया है कि खबरों के पक्षपातपूर्ण, सतही और गलत होने की प्रवृत्ति ने आम आदमी को ईमानदारी से न्याय पाने के रास्ते से दूर किया है। अब सवाल यही उठता है कि मीडिया की आचार संहिता कैसी हो। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया जैसे संगठन जहां शुरू से ही प्रेस मीडिया पर आत्म नियंत्रण की बात करते आये है लेकिन एक प्रभावी आत्म नियंत्रण तंत्र को जामा पहनाने में असफल रहे है। वहीं 2008 में मुंबई हमलों के दौरान राष्ट्रीय  सुरक्षा को ताक पर रखकर की गई मीडिया कवरेज की घटनाओं ने सरकारी नियंत्रण को भी वैकल्पिक बनने के लिए प्रेरित किया है, जो कि एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए निश्चित तौर पर अच्छा संकेत नहीं है। गांधी जी ने 28.05.31 को यंग इंडिया में प्रकाशित अपने लेख में कहा था कि एक स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए जरुरी है कि खबरों के माध्यम से झूठ और जहर घोलने वाले अखबारों को संरक्षण देना बंद कर दिया जाए साथ ही यह अच्छा कदम होगा कि हमारे पत्रकार संगठन आगे आकर एक विभाग या सार्वजनिक मंच बनाए और उन अखबारों व  लेखों की सार्वजनिक तौर पर आलोचना करें जो गैर वस्तुनिष्ठ तरीके से पक्षपातपूर्ण, झूठी सूचनायें जनमत निर्माण के लिए देते है। निश्चित तौर पर नब्बे के दशक में लागू हुई उदारवादी आर्थिक नीतियों और साल 2000 के बाद भारत में आई सूचना क्रांति के बाद पनपी विविधता भरी बाजारी प्रतिस्पर्धा भले ही गांधी जी की कल्पनाओं में न रही हो, लेकिन खबरों के प्रवाह के लिए गांधी जी ने प्रेस मीडिया के लिए आचार संहिता की जिस मूल भावना को चिन्हित किया है, वो आज भी प्रांसगिक है। सूचना के इस युग में यह बहुत आवश्यक है कि बड़े प्रेसमीडिया घराने अपने कारोबारी फायदे से इतर आत्मनियंत्रण की इस प्रणाली का स्वैच्छिक और प्रभावी मैकेनिज्म तैयार करें वहीं क्षेत्रीय स्तर पर काम कर रहे छोटे अखबारों, पत्रिकाओं, इलेक्ट्रानिक रेडियों व टीवी चैनलों को भी इस दायरे में आकर अपनी सामाजिक सरोकार पर केन्द्रित, वस्तुनिष्ठता एंव सत्यता पर आधारित भूमिका को प्रभावी तरीके से सुनिश्चित  करना चाहिए, न कि किसी खास दल या विचारधारा का प्रवक्ता बने रहना चाहिए।

 

कपिल शर्मा भारतीय जनसंचार संस्थान एंव बिजनेस स्टैंडर्ड हिन्दी से जुड़ाव रहा है, वर्तमान में निर्वाचन एंव प्रशासनिक सुधारों से जुड़े विषयों पर कार्यरत है।

 

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