शिवप्रसाद जोशी।
अंतरराष्ट्रीय संचार की मनोवृत्तियों की स्पष्ट झलक देखने और इसे समझने के लिए हाल के वर्षों का सबसे सटीक उदाहरण है वेनेज़ुएला के राष्ट्रपति उगो चावेज़ का निधन। चावेज़ की मौत से जुड़ी ख़बरों से अंतरराष्ट्रीय मीडिया और समाचार एजेंसियों के रुख़ का पता चलता है। इससे उस मीडिया की दबीछिपी बेकली का पता भी चलता है जो पचास के दशक के मध्य से ही चावेज़ पर किसी न किसी रूप में हमलावर रही हैं। 90 के दशक में और उत्तरोत्तर ये हमला और तीव्र होता गया है कॉरपोरेट मीडिया के ज़रिए। ये देखना भी दिलचस्प है कि विकासशील देशों (जिसे तीसरी दुनिया या गुटनिरपेक्ष देश भी कहा जाता है) में इसी मीडिया के कुछ हिस्से और उसके समांतर अन्य मीडिया में चावेज़ से जुड़ी ख़बरें कमोबेश एक वैचारिक अफ़सोस और मार्मिकता के साथ आई हैं (कुछेक अपवाद ज़रूर हैं)। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों में भी आप देखेंगे कि अमेरिका से बाहर कई एजेंसियों ने चावेज़ के न रहने को पूंजीवाद के विरुद्ध वैश्विक अभियान को एक बड़ा झटका बताने में कोई संकोच नहीं किया है। और चावेज़ की बेबाकी और बेलौसपन को याद किया है। (वरना चावेज़ की इस साहसी शख़्सियत को मुंहफट कहकर गिराने वालों की भी कमी नहीं थी)। अमेरिकावादी मीडिया चावेज़ के इस कवरेज से हैरान परेशान रहा है। चावेज़ के बारे में थिंकटैंकवादी लेखकों-पत्रकारों का रवैया रूखा ही रहा है और कोई हैरानी नहीं कि ये जमात उनके जाने को “पीछा छूटा” की बहुत ही संकुचित और ग़ैरवाजिब निगाह से देख रही है। अंतरराष्ट्रीय संचार में इन्हीं मनोवृत्तियों और इनके बनने और जगह बनाने और फैलते जाने की चर्चा हम आगे करेंगे।
सबसे पहले बात अंतरराष्ट्रीय संचार की सामरिकता की। इसका संबंध उन विकसित देशों की कूटनीति से है जो अल्प विकसित और अविकसित या ग़रीब देशों तक अपने तमाम सांस्कृतिक उत्पाद-समाचार और मनोरंजन से लेकर परिधान और फ़ास्ट फ़ूड तक- रवाना करते हैं, इन उत्पादों के ज़रिए अपने मूल्य, नैतिकता, राजनीति भी थोपने की कोशिश की जाती रही है। वॉल्ट डिज़नी का एक कार्टून चरित्र हो या हॉलीवुड की कोई मसाला फ़िल्म या संगीत बाज़ार या समाचार एजेंसी या इंटरनेट, संदेश धारण करने वाला कोई भी साधन हो, इन सबके ज़रिए एक वृहद तस्वीर यह बनाई जाती है कि दुनिया अब सिमट रही है और हम सब एक ग्लोबल गांव के निरंतर आवाजाही में व्यस्त निवासी हैं। राजनैतिक, आर्थिक भूमंडलीकरण के अलावा सांस्कृतिक भूमंडलीकरण भी है जो अंतरराष्ट्रीय संचार के नए अध्ययनों में शामिल है और अब बहसें मार्शल मैक्लूहान की अवधारणाओं से कहीं आगे उत्तर आधुनिकता, उत्तर औपनिवेशिकता, उत्तर इतिहास, उत्तर मार्क्सवाद और उत्तर पूंजीवाद की घुमावदार और जटिल परतों वाले गलियारों में चक्कर काट रही हैं।
बात जबकि सीधी सी है लेकिन उसे या तो सरलीकृत किया जा रहा है या जटिल बनाया जा रहा है। जीवन की जटिलता से उनका संबंध होता तो भी कोई बात थी लेकिन ये उस इंटेलिजेंसिया की बनाई जटिलता है जहां तमाम उपक्रमों का एक ही लक्ष्य नज़र आता है वो है आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को पश्चिमी सत्ता मूल्यों और विचारों और उपभोक्तावाद के दायरे में ढालना। अंतरराष्ट्रीय संचार के रास्ते हम मनुष्य जाति के आधुनिकीकरण की पॉलिटिक्स को भी समझ सकते हैं और उसकी पॉलिटिक्ल इकोनमी को भी। यहां इंटेलिजेंसिया से हमारा आशय उस बौद्धिक जमात से है जो बड़े देशों की विदेश नीति का किसी न किसी रूप में हिस्सा बने हुए हैं और विधि और राजनय में न सिर्फ़ दख़ल रखते हैं बल्कि अपने सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए उन्हें पॉलिटिक्ल एस्टेब्लिशमैंट को मुहैया कराते हैं, वे आमतौर पर विभागीय कर्मचारी जैसे हैं- बाज़ दफ़ा पे रोल्स पर। उन्हें थिंक टैंक भी कहा जाता है। ये त्रिस्तरीय बिरादरी संस्थाओं, फ़ाउंडेशनों और स्वतंत्र निकायों में भी काम करती है। इसमें राजनीति से लेकर संस्कृति तक के जानकार शामिल हैं। इस बिरादरी का एक हिस्सा सॉफ़्ट बौद्धिकों से भी बनता है जो थिंक टैंक की परिधि में तो नहीं आते लेकिन छवि के सहारे विदेश नीति और पब्लिक डिप्लोमेसी में मददगार बनते हैं।
नव साम्राज्यवाद, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद, नव पूंजीवाद और भूमंडलीकरण और कॉरपोरेटीकरण के ऐसे दौर में जब शासन तंत्रों और देशों की घरेलू राजनीतियों में विधि और राजनय के नये स्वरूप देखे जा रहे हैं, पब्लिक डिप्लोमेसी एक नए कॉरपोरेट मिज़ाज के साथ सामने आ रही है और देश के सैन्य भूगोल के बरक्स नव उदारवादी सीमाहीनता है यानी सैटेलाइट टीवी, इंटरनेट, सिनेमा, और पत्र पत्रिकाओं ने एक नया मायाजाल बना दिया है जहां लगता है भूगोल की लकीरें मिट रही हैं और ऐसा आभास दिया जा रहा है कि सब कुछ एक जगह आ गया है, आ रहा है, आवाजाही सघन है और लगता है कि लोग एक दूसरे के पास आते जा रहे हैं, वे अपने संकोचों को तोड़ चुके हैं और विभिन्न संस्कृतियों का वरण करने को पहले से कहीं ज़्यादा तत्पर और उन्मुख हुए हैं- ऐसे दौर में अंतरराष्ट्रीय संचार की बारीकियों और उसके आशयों और उसकी पॉलिटिक्स को समझने का काम और भी ज़रूरी हो जाता है। अंतरराष्ट्रीय संचार के पर्यावरण और विश्व आर्थिकी में अंतर्संबंध को समझने के लिए उन ऐतिहासिक घटनाओं, गतिविधियों को भी देखना होगा जिनसे दोनों जुड़ते हैं।
अंतरराष्ट्रीय संचार का एक वह स्वरूप है जो हमारे सामने अमेरिका और उसके सहयोगी देश प्रस्तुत करते हैं-“इलेक्ट्रॉनिक कलोनिएलिज़्म” की थ्यरी और “वर्ल्ड सिस्टम थ्यरी”- जहां सूचना और संचार का प्रवाह इन देशों से अर्ध परिधि और परिधि या “परिधि के बाहर” के देशों की ओर रवाना किया जाता है, दूसरा स्वरूप उन तमाम प्रतिरोधों और सबॉल्टर्न विचारधाराओं से बनता है जहां एक आम विश्व नागरिक के नज़रिए और मुश्किल को तवज्जो दी जाती है। इसी स्वरूप के ज़रिए सांस्कृतिक वर्चस्व के सामने विलक्षण और असाधारण चुनौतियां रखने वाली जन प्रवृत्तियां हैं जिसे यहां मास टेंडेंसीज़ कहने की हड़बड़ी नहीं की जा सकती है। मास मीडिया और मास कल्चर और मास सोसायटी की नव उदारवादी बनावट की टोह लेते हुए हमें अंततः पीपुल्स मीडिया, पीपुल्स कल्चर और पीपुल्स सोसायटी की बनती बिगड़ती फिर बनती बुनावट में झांकने की कोशिश करनी चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय संचार के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करते हुए विश्व राजनीति के शीत युद्ध पश्चात के दौर के साए में सूचना के प्रवाह की निर्णायक और अनिर्णीत बहसों पर ध्यान जाना लाज़िमी है। वहां संयुक्त राष्ट्र की कोशिशें हैं और उन कोशिशों पर अमेरिका और उसके मित्रों का कुठाराघात है। यूनेस्कों के सौजन्य से बने एनवाइको, NWICO, न्यू वर्ल्ड इंफ़ोर्मेशन एंड कम्यूनिकेशन ऑर्डर और उसकी पैरवी करने वाले मैकब्राइड कमीशन के सुझाव हैं, उनका हश्र है और उनका सूचना के मुक्त प्रवाह में बह जाना है। आख़िर इस मुक्त प्रवाह में एक विराट मुनाफ़े के अलावा क्या क्या तत्व सम्मिलित हैं। 19वीं सदी के क़रीब क़रीब मध्य से अस्तित्व में आईं विश्व समाचार एजेंसियों, अंतरराष्ट्रीय टेलीविज़न नेटवर्कों, रेडियो स्टेशनों के अनेकानेक वर्चस्वों की इस लड़ाई में अब इंटरनेट भी शामिल है। जहां कथित रूप से एक अनूठा लोकतंत्र क़ायम हुआ है, यह वास्तव में कितना लोकतंत्र और कितना जनोन्मुख है और कितना बाज़ार के हवाले से आता है, अंतरराष्ट्रीय संचार की ताज़ा बहसें इस विषय के बिना अधूरी हैं। अंतरराष्ट्रीय संचार का समकालीन यथार्थ जिन घटनाक्रमों, प्रविधियों, उत्पादों और संसाधनों से निर्मित होता है और एनवाइको से लेकर बीबीसी और सीएनएन तक और उससे आगे इंटरनेट टीवी इंटरनेट रेडियो और इंटरनेट में सक्रिय एक प्रतिरोधी सूचना समाचार बिरादरी के कामकाज और स्वरूप को समझते हुए ही अंतरराष्ट्रीय संचार के प्रकट और अप्रकट शेड्स को समझा जा सकता है। विश्व संचार में राजनैतिक, तकनीकी, सांस्कृतिक और व्यापारिक वाणिज्यिक वजहों से जो भी निरंतर और त्वरित बदलाव आते जा रहे है, ऐसी इस नित नई और टकराती और उलझती और मिटती बनती दुनिया में संचार की अंतरराष्ट्रीयता और कूटनीति और सामरिक जटिलता को समझना अनिवार्य हो चला है।
आख़िर इस समूचे सूचना प्रवाह परिदृश्य में भारत की क्या स्थिति है, वह कहां खड़ा है और समाचार और मनोरंजन का उसके अपने साम्राज्य का स्वरूप कैसा है। वह किन आकांक्षाओं को दबाकर खड़ा किया गया है और आख़िर उसका मक़ाम क्या है। क्रॉस ओनरशिप और विदेशी निवेश ने भारत के सूचना माहौल में क्या बदलाव ला दिए हैं, कितना उसका चेहरा बना है या बिगड़ा है और कितना वह भी मुनाफ़े की अंतरराष्ट्रीय होड़ में कूदा हुआ है। भारत में इंटरनेट कितना आज़ाद और कितना लोकतांत्रिक भावनाओं के इज़हार का मंच बन पाया है, वर्चुअल स्पेस में वाकई कोई जगह आम जन के लिए है या नहीं, या शहरी मध्यवर्ग तक ही ये सीमित रहेगा। अंतिम आदमी तक सूचना के प्रवाह और पहुंच के जो आदर्शवादी और मानवीय इरादे किए जाते रहे हैं क्या वे इरादे ज़मीनी हक़ीक़त में बदल पाएंगें, भारत के संदर्भ में ये सवाल मौजूं हैं।
और भारत से आगे हमें विश्व के उन भूले बिसरे उपेक्षित अमानवीयता हिंसा और ग़रीबी के शिकार देशों और समाजों और समुदायों के बीच भी जाना चाहिए (ये भारत के ही अपने हिस्से हो सकते हैं या एशिया और लातिन अमेरिका के दूसरे बदहाल मुल्क और बदहाली का पर्याय माना जा चुका अफ़्रीका महाद्वीप)। अंतरराष्ट्रीय संचार के कथित वैविध्य, बहुलतावाद और चमकदार विमर्श में उनके साथ हो रही नाइंसाफ़ियों के बारे में क्या कोई तर्क, जवाब और समाधान हैं या नहीं। आख़िर भारतीय मिथक, परंपरा और दर्शन से निकली वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा से लेकर मार्शल मैक्लूहान के ग्लोबल विलेज और उससे आगे वर्चुअल स्पेस, मास सोसायटी, इंफ़ोर्मेशन सोसायटी और नेटवर्क सोसायटी तक- वंचितो, उत्पीड़ितों और विस्थापितों की क्या जगह और क्या भूमिका है। या ये शब्दावलियां विश्व की समृद्ध और साधन संपन्न बिरादरी का चमकीला एकजुटतावाद है। या और स्पष्ट कहें कि ये सिर्फ़ मुनाफ़ों और अवसरों और वर्चस्वों का एकजुटतावाद है। 90 के दशक के बाद की समाजवादी सॉलिडैरिटी के सामने ये बुराइयों का और कड़े अंदाज़ में इकट्ठा हो जाना है। इसीलिए मार्क्सवाद के उपायों से ही लालच के इस ढेर को छिन्नभिन्न किया जा सकता है। वे उपाय भी नए ही होंगे। वह उत्तर मार्क्सवाद न होकर नव मार्क्सवाद होगा।
संदर्भः
इंटरनेशनल कम्यूनिकेशन- अ रीडर- संपादन- दया किशन थुस्सू, रुटलेज
ग्लोबल इंफ़ोर्मेशन एंड वर्ल्ड कम्यूनिकेशन, हामिद मौलाना, सेज पब्लिकेशन्स
कम्यूनिकेटिंग डेवलेपमेंट इन द न्यू वर्ल्ड ऑर्डर, दीपांकर सिन्हा, कनिष्क पब्लिशर्स
इंटनरेशनल कम्यूनिकेशन एंड ग्लोब्लाइज़ेशन, संपादन- अली मोहम्मदी, सेज पब्लिकेशन्स
ग्लोबल कम्यूनिकेशन, थ्योरीज़, स्टेकहोल्डर्स एंड ट्रेंडस- टॉमस एल मेकफ़ैल-वाइली ब्लैकवेल
द इंफ़ोर्मेशन सोसायटी-आर्मांड मैतलार, सेज
शिव प्रसाद जोशी का ब्रॉडकास्ट जर्नलिज्म में लम्बा अनुभव है। वे बीबीसी, जर्मनी के रेडियो डॉयचे वैल्ली में काम कर चुके हैं। ज़ी टीवी में भी उन्होंने काफी समय काम किया। इसके आलावा कई अन्य टीवी चैनलों से भी जुड़े रहे हैं।