नितिन कुमार।
फोटोग्राफी के लिए किसी भी वस्तु का वास्तविक प्रतिबिम्ब कैमरे में बनना आवश्यक होता है | उस प्रतिबिम्ब को इमेज प्रोसेसर के द्वारा डिजिटल डाटा में परिवर्तित कर उसको संरक्षित रखा जाता है | जबकि इससे पहले के कैमरों में यह इमेज रासायनिक पदार्थों (सिल्वर के हैलाइड) में या तो प्लेट पर या रोल पर गुप्त प्रतिबिम्ब के रूप में संरक्षित होती थी, जिससे रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा इसको डेवलप करनें के उपरांत फिक्स करके नेगेटिव तैयार किया जाता था और उस नेगेटिव से बहुत सारे प्रिंट तैयार कर लिए जाते थे |
आइये आज जानते हैं कि यह प्रतिबिम्ब बनता कैसे है ? उससे पहले प्रकाश से सम्बंधित कुछ मूलभूत सिद्धान्तों की जानकारी लेना भी आवश्यक रहेगा, तो पहले उस पर ही चर्चा कर ली जाये
प्रकाश सीधी रेखा में चलता है :-
प्रकाश का पथ सरल रेखीय होता है , इसको सिद्ध करनें के लिए एक प्रयोग करते हैं –
तीन मोटे कार्डबोर्ड या दफ्ती के टुकड़े लेते हैं, इनमें एक ही आकार के गोलाकार छिद्र कर लेते हैं, अब एक अँधेरे कमरे में मोमबत्ती या टॉर्च जलाकर उन तीनो दफ्ती के टुकडों को इस प्रकार व्यवस्थित करते हैं कि तीनों छिद्र एक सीध में रहें, तब देखते हैं कि सामने वाली दीवार पर भी प्रकाश का गोलाकार पुंज दिखाई देता है | अब किसी एक दफ्ती के टुकड़े के छिद्र की स्थिति इस प्रकार परिवर्तित कर देते हैं कि तीनों छिद्र एक सीध में न हों, तब दीवार पर प्रकाश पुंज का दिखाई देना बंद हो जाता है | इससे पता चलता है कि प्रकाश सीधी रेखा में चलता है |
किसी बस्तु को देखनें की प्रक्रिया :-
जब प्रकाश किसी वस्तु पर पड़ता है, तब उसका कुछ हिस्सा वस्तु द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है जिससे वस्तु के तापमान में वृद्धि हो जाती है , कुछ हिस्सा वस्तु से टकराकर वापस उसी माध्यम में चला जाता है यानी कि परावर्तित हो जाता है या फिर कुछ हिस्सा वस्तु से पार हो जाता है जिसे अपवर्तन कहते हैं |
किसी भी वस्तु को देखना प्रकाश के परावर्तन के कारण संभव हो पाता है | जब प्रकाश की किरणें किसी वस्तु पर पड़ती हैं तो उसके प्रत्येक बिंदु से प्रकाश चारों ओर परावर्तित होता है और जब यह परावर्तित प्रकाश मनुष्य की आँखों पर पड़ता है तब आँख की रेटिना पर इसका प्रतिबिम्ब बनता है और वहाँ से संकेत मानव मस्तिष्क को प्रेषित होते हैं | इस प्रकार मस्तिष्क उन संकेतों द्वारा चित्रों की अनुभूति करता है |
विभिन्न रंगों की अनुभूति :-
प्रकाश विद्धुत तरंगों के रूप में संचरित होता है, जिसमें अदृश्य और दृश्य दोनों प्रकार के विकिरण सम्मिलित हैं | दृश्य प्रकाश की तरंग दैधर्य ( वेव लेंग्थ ) लगभग ४००० एन्गस्ट्राम से ७००० एन्गस्ट्राम (4000 A0-7000 A0) के मध्य होती है | जब प्रकाश किसी वस्तु पर पड़ता है तब वह इन दृश्य प्रकाश के अंतर्गत आनें वाली कुछ तरंग दैधर्यों को अवशोषित कर लेता है तथा कुछ को परावर्तित कर देता है | इन परावर्तित किरणों के मिश्रण से उत्पन्न रंगों की अनुभूति हम कर पाते हैं |
यदि दृश्य प्रकाश के मध्य आनें वाली सभी किरणें परावर्तित हो जायें तो सफेद रंग की अनुभूति होती है और यदि पूरा दृश्य प्रकाश अवशोषित कर लिया जाये अर्थात कोई भी किरण परावर्तित न हो तब काले रंग की अनुभूति होती है | अगर कुछ भाग अवशोषित कर लिया जाये तो शेष किरणों के मिश्रण से उत्पन्न रंग की वस्तु दिखाई देगी |
प्रकाश के विभिन्न रंगों को देखनें के लिए प्रिज्म से जब प्रकाश को गुजारते हैं तो वह दृश्य प्रकाश के विभिन्न किरणों के मिश्रण के रूप में दिखाई देते हैं |
परछाईं का बनना :
परछाई अपारदर्शी वस्तु की बनती है, अल्पपारदर्शी वस्तु की भी परछाईं बन सकती है लेकिन स्पष्ट नहीं बनती |
जैसा कि विदित है कि प्रकाश सीधी रेखा में चलता है , यदि उसके मध्य कोई ऐसी वस्तु आ जाये जिससे हो कर प्रकाश पार नहीं हो सकता तब प्रकाश उस वस्तु से आगे नहीं जा पायेगा और जितना क्षेत्रफल उस वस्तु का है उससे होकर पकाश नहीं गुजर सकता |
इसका अर्थ हुआ कि उस वस्तु की आउटलाइन ( वाह्य रेखा ) के द्वारा निर्मित वस्तु के समरूपीय एक ऐसा क्षेत्र सामने की दीवार या अन्य अपारदर्शी परदे पर निर्मित हो जायेगा, जहां तक प्रकाश नहीं पहुँच पाया, यही क्षेत्र परछाईं कहलाता है | चूंकि दीवार के इस हिस्से से कोई प्रकाश परावर्तित नहीं हो रहा होता, अत: परछाईं काले रंग की होती है | यह वस्तु से छोटी या बड़ी हो सकती है तथा विकृत रूप में भी बन सकती है | अल्पपारदर्शी वस्तुओँ से कुछ प्रकाश उस परछाईं में मिश्रित हो जाता है जिसके कारण काले रंग में सफेद रंग मिश्रित हो जानें के कारण परछाईं ग्रे रंग की बन जाती है और उसकी स्पष्टता कुछ कम हो जाती है |
प्रतिबिम्ब (इमेज) :
यह किसी वस्तु की द्वीविमीय (टू डाइमेंशियल) प्रतिकृति होती है | यह आभासी तथा वास्तविक दोनों प्रकार के होते हैं | आभासी प्रतिबिम्ब को देख तो सकते हैं परन्तु उनको किसी परदे पर नहीं ले सकते और ना ही इनको संरक्षित कर सकते हैं, जैसे : आईने (मिरर) में प्रतिबिम्ब का बनना | जबकि वास्तविक प्रतिबिम्ब को परदे पर न केवल देख सकते हैं बल्कि यदि चाहें तो इनको संरक्षित भी कर सकते हैं, जैसे: प्रोजेक्टर से प्रतिबिम्ब का बनना |
प्रतिबिम्ब में वस्तु की प्रत्येक डिटेल होती है, तथा यह वस्तु के संगत रंगों से परिपूर्ण होती है | जबकि परछाईं में रंग और डिटेल्स नहीं होती हैं केवल वस्तु की आउट लाइन होती है |
फोटोग्राफी में वास्तविक प्रतिबिम्ब को ही सेंसर के द्वारा रिकॉर्ड किया जाता है | यह प्रतिबिम्ब वस्तु से छोटा तथा उल्टा बनता है | प्रतिबिम्ब वस्तु से बड़ा भी बन सकता है , जैसे: सिने प्रोजेक्टर के द्वारा चित्रों को बड़ा करके पिक्चर हॉल के परदे पर दिखाया जाता है |
पिन होल सिद्धांत :
यदि किसी बंद बॉक्स या कमरे की एक दीवार पर सूक्ष्म (बहुत छोटा) छिद्र कर दिया जाए , तब उस छिद्र के सामनें वाली दीवार पर बाहर की वस्तुओं का प्रतिबिम्ब बन जाता है | इस प्रकार प्रतिबिम्ब बननें का सिद्धांत ‘पिन होल सिद्धांत कहलाता है |
फोटोग्राफी से पहले भी इसी सिद्धांत का उपयोग कर कैमरा ओब्सक्यूरा के द्वारा पेंटिंग की आउटलाइन्स तैयार की जाती थीं | कैमरा ओब्सक्यूरा कक्ष के आकर का बड़ा बॉक्स होता था जिस की एक दीवार में छोटा छिद्र कर देते थे,उसके सामनें व्यक्ति को खड़ा कर के उसके प्रतिबिम्ब की आउटलाइन खींच कर उसमें रंग भर देते थे |
बिना पिनहोल के प्रतिबिम्ब क्यों नहीं बनता ?
मष्तिष्क में प्रश्न यह आता है कि बिना पिनहोल के सीधे ही दीवार पर जब परछाई बन जाती है तो प्रतिबिम्ब क्यों नहीं ?
किसी भी आकृति को बननें के लिए प्रकाश की तीव्रता और प्रकृति अथवा कंट्रास्ट का अंतर होना अनिवार्य है अन्यथा केवल एक प्रकाशिक पुंज अथवा सामान रंग का आधार ही दिखाई पड़ेगा |
परछाई में दीवार पर जिस हिस्से पर प्रकाश नहीं पड़ता वहाँ से कोई प्रकाश परावर्तित नहीं होता, दीवार के बाकी हिस्से से प्रकाश परावर्तित हो जाता है, इस प्रकार कंट्रास्ट उत्पन्न होता है, और परछाई को देख पाते हैं | परन्तु परछाई के अन्दर का प्रत्येक हिस्सा काला ही होता है इसलिए उसमें कोई भी डिटेल्स नहीं दिखाई देतीं |
जबकि प्रतिबिम्ब में प्रत्येक डिटेल दिखाई पड़ती है, इसका अर्थ हुआ कि इसके प्रत्येक बिंदु (हिस्से) पर अलग अलग तीव्रता और प्रकृति का प्रकाश विद्धमान है |
बिना पिनहोल के प्रतिबिम्ब नहीं बनने का कारण जाननें के लिए रेखाचित्र की सहायता से समझानें का प्रयास किया है-
मान लीजिये एक वस्तु दीवार के सामने है जिस पर प्रकाश पड़ रहा है, उसके प्रत्येक बिंदु से प्रकाश की किरणें हर दिशा में परावर्तित हो रही होंगी | अगर दीवार पर प्रतिबिम्ब बनता तो उन किरणों के कारण बनता जो दीवार तक पहुँची |
वस्तु के किन्ही दो बिंदु ‘अ’ और ‘ब’ को सन्दर्भ के रूप में लेते हैं | बिंदु ‘अ’ से परावर्तित हो कर प्रकाश दीवार के प्रत्येक बिंदु तक पहुंचेगा, उसी प्रकार बिंदु ‘ब’ से परावर्तित हो कर प्रकाश दीवार के प्रत्येक बिंदु तक पहुंचेगा | अतः दीवार के प्रत्येक बिंदु पर प्रकाश की तीव्रता या प्रकृति ‘अ’ और ‘ब’ के कुल योग के बराबर होगी | इसी प्रकार वस्तु के अन्य बिंदु स,द, य, र…….. आदि को भी यदि समाहित कर लिया जाये तब भी दीवार के प्रत्येक बिंदु पर प्रकाश की तीव्रता और प्रकृति एक जैसी ही रहेगी |
यदि प्रकाश की तीव्रता और प्रकृति दीवार के प्रत्येक हिस्से में एक सामान हैं, तब कोई भी आकृति नहीं बन सकती, इसीलिये प्रतिबिम्ब बनना भी असंभव है |
पिनहोल के द्वारा प्रतिबिम्ब का बनना :-
अब उसी प्रकार की दूसरी स्थिति की कल्पना करते हैं,जिसमें एक वस्तु दीवार के सामनें है, उस पर प्रकाश पड़ रहा है, परन्तु उस वस्तु और दीवार के मध्य एक अपारदर्शी पर्दा या अन्य दीवार है, जिसमें एक छोटा सा छिद्र है | उस वस्तु के शीर्ष के किसी बिंदु ‘अ’ के सन्दर्भ में यदि देखा जाये तो उस पर पड़ने वाला प्रकाश प्रत्येक दिशा में परावर्तित होगा, परन्तु प्रकाश केवल सूक्ष्म छिद्र से होकर ही पार हो पायेगा, बाकी सब प्रकाश अपारदर्शी दीवार आगे नहीं जाने देगी | इस प्रकार बिंदु ‘अ’ से चलनें वाली किरणें दीवार पर एक छोटे से प्रकाश वृत्त ‘अ1’ के रूप में दिखाई देंगी | इस प्रकार के वृत्त को ‘सर्किल ऑफ़ कन्फ्यूजन’ (Circles of confusion) कहते हैं | ठीक उसी प्रकार बिंदु ‘ब’ से चलनें वाली किरणें दीवार पर वृत्त ‘ब1’ के रूप में दिखाई देती हैं |
इसी तरह वस्तु के अन्य बिन्दुओं स, द, य, ……. आदि के सन्दर्भ में देखें तो उनके अनुरूप स1, द1, य1, …….आदि ‘सर्किल ऑफ़ कन्फ्यूजन्स’ दीवार पर बनेंगे, जिसके द्वारा प्रतिबिम्ब का निर्माण दीवार पर होगा | यदि किसी बिंदु से कम तीव्रता का प्रकाश परावर्तित हो रहा है तो उसके सर्किल ऑफ़ कन्फ्यूजन की तीव्रता भी कम होगी और यदि किसी बिंदु से ज्यादा तीव्रता का प्रकाश परावर्तित हो रहा है तो उसके ‘सर्किल ऑफ़ कन्फ्यूजन’ की तीव्रता भी ज्त्यादा होगी | उसी प्रकार जिस प्रकृति (तरंग दैधर्य ) का प्रकाश किसी बिंदु से परावर्तित हो रहा है, उसी तरह की किरणों से ही ‘सर्किल ऑफ़ कन्फ्यूजन’ का निर्माण होता है | इसी कारण प्रतिबिम्ब में रंग तथा डिटेल्स दोनों होती हैं |
जैसा कि रेखाचित्र से स्पष्ट है कि नीचे वाले बिंदु के वृत्त ऊपर और ऊपर वाले बिंदु के वृत्त नीचे बनेंगे, उसी प्रकार दाहिनी ओर के बिन्दुओं के वृत्त बायीं ओर और बायीं ओर के बिन्दुओं के वृत्त दायीं ओर बनेंगे | इसी लिये प्रतिबिम्ब पार्श्वीय (लेटरल) प्रकृति का होता है |
अगर होल बड़ा होगा तो ‘सर्किल ऑफ़ कन्फ्यूजन’ भी बड़े होंगे जिसके कारण प्रतिबिम्ब ज्यादा स्पष्ट नहीं बन पायेगा , छोटा होल होने से ‘सर्किल ऑफ़ कन्फ्यूजन’ भी छोटे बनेंगे जिससे प्रतिबिम्ब में स्पष्टता आ जायेगी परन्तु प्रकाश की मात्रा कम पहुंचेगी, अतः प्रतिबिम्ब की तीव्रता कम हो जायेगी |
यदि होल काफी बड़ा हो जायेगा तो ‘सर्किल ऑफ़ कन्फ्यूजन’ भी बहुत बड़े बनेंगे, फलस्वरूप दीवार के प्रत्येक बिंदु पर लगभग एक सामान तीव्रता और प्रकृति का प्रकाश दिखाई पड़ेगा, जिसके कारण प्रतिबिम्ब का दिखाई देना ख़त्म हो जायेगा |
प्रतिबिम्ब बननें में लेंस की भूमिका :-
उत्तल लेंस की प्रकृति होती है कि वो अपने क्षेत्रफल पर पड़नें वाली प्रकाश की किरणों को केन्द्रित कर देता है | जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है कि पिनहोल से प्रतिबिम्ब को स्पष्ट तथा तीव्र दोनों गुणों के साथ प्राप्त करना संभव नहीं है | लेंस वस्तु के किसी बिंदु से परावर्तित होकर जाने वाली सभी किरणों को जो कि उसके क्षेत्रफल पर पड़ती हैं, पुनः एक बिंदु पर केन्द्रित कर देता है | जिसके कारण सर्किल ऑफ़ कन्फ्यूजन का आकर जहां बहुत छोटा (बिंदु के बराबर) हो जाता है और स्पष्टता बनी रहती है | साथ ही साथ उसके क्षेत्रफल पर आपतित पूरा प्रकाश एक ही बिंदु पर केन्द्रित हो जाता है जो कि उसकी तीव्रता को बढ़ा देता है | इस प्रकार लेंस के द्वारा बननें वाला प्रतिबिम्ब स्पष्ट तथा तीव्र दोनों गुणों को धारण किये होता है |
इस पाठ को पढनें के उपरान्त उम्मीद की जाती है कि आप प्रतिबिम्ब बननें की प्रक्रिया की मूलभूत जानकारी से परिचित हो गए होंगे | इस बात से भी अवगत हो गए होंगे कि प्रतिबिम्ब बननें के लिए लेंस का होना आवश्यक नहीं है, बल्कि पिन होल सिद्धांत के द्वारा प्रतिबिम्ब बनाया जा सकता है |
प्रतिबिम्ब में डिटेल्स क्यों होती हैं ? और ये परछाईं से कैसे अलग होती हैं ? इस बात की भी जानकारी हो गयी होगी, साथ ही साथ लेंस की आवश्यकता से भी परिचित हो गए होंगे |
प्रतिबिम्ब फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी या सिनेमा के लिए मूलभूत इकाई है, अतैव इसके बारे में जानकारी होना अत्यंत आवश्यक है | आगे के पाठों में हम प्रतिबिम्ब को नियंत्रित करनें वाली युक्तियों के बारे में जानेंगे |
नितिन कुमार दून विश्वविद्यालय, देहरादून में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत है. उच्च शिक्षा में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अध्यापन के क्षेत्र में इनका १२ साल का अनुभव है. मो०- 9719126552, ईमेल- nksdoon@gmail.com