अकबर रिज़वी |
भाषा सिर्फ हिन्दी, अँग्रेज़ी, उर्दू आदि ही नहीं होती, बल्कि हाव-भाव भी एक भाषा ही है। भाषा का कोई स्थाई मानक नहीं होता। ख़ास-तौर से जनभाषा न तो विशुद्ध साहित्यिक हो सकती है और न ही व्याकरण के कठोर नियमों से बांधी जा सकती है। जन-साधारण में बोली जाने वाली भाषा का निर्धारण न तो सरकारी राजभाषा विभाग और न ही साहित्य के आलोचक कर सकते हैं। मीडिया भी न तो टकसाली परंपरा की पोषक है और न ही अकादमिक संस्कृति की वाहक। मीडिया का लक्ष्य अपने पाठकों-दर्शकों तक सूचना-सम्प्रेषण है
भारत में भाषा का टंटा नया नहीं है। प्राचीन-काल से उठा-पटक चली आ रही है। देव-भाषा के साथ लोक-भाषा की रस्साकशी के फ़साने बहुत हैं, लेकिन हमें विश्वास है कि आप बेवजह भाषा का इतिहास खंगालने या उसमें होते रहे परिवर्तनों की कथा सुनने के मूड में नहीं होंगे। हमें भी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं। लिहाजा भूमिका का क्षेत्रफल कम रहे तो कोई दिक्कत नहीं। हम भाषा पर बात तो करना चाहते हैं, लेकिन हमारे हाथ में शास्त्रीयता का लौहदंड नहीं है। हमारा विमर्श व्याकरण की पटरी पर सरपट दौड़ने का हामी भी नहीं है। भाषा की ज़रूरत और अनिवार्यता को चुनौती देना या व्याकरण के ख़िलाफ़ विद्रोह का झंडा बुलंद करने में भी हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। बल्कि हमारा मक़सद यह पड़ताल है कि क्या वाकई भाषा(भारतीय संदर्भ में) की शुद्धता इतनी अहम है कि उसकी क़ीमत सम्प्रेषण में व्यवधान से चुकाई जाए? क्या समय के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक बदलाव और ज़रूरतों के हिसाब से भाषा में बदलाव नहीं होने चाहिए? माध्यम के अनुरूप भाषा में बदलाव मान्य नहीं होना चाहिए? ऐसे और भी सवाल हैं, जो आप अपनी तरफ से जोड़ सकते हैं।
मीडिया की भाषा (प्रिंट, वेब और टेलीविज़न), विशेष रूप से हिन्दी को लेकर विद्वजनों की चिंता का ग्राफ़, लगातार पारे की तरह ऊपर ही चढ़ता रहा है। इस पर बहसों का सिलसिला अंतहीन है। इसको लेकर मीडिया को आलोचना का अक्सर शिकार भी होना पड़ा या पड़ता है। ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो इस बदलाव को न सिर्फ जायज़ ठहराते हैं, बल्कि बदलाव की वक़ालत भी करते हैं। ऐसे लोग भी कम नहीं हैं, जो अँग्रेज़ी या अन्य भाषाओं से शब्दों के निर्बाध और निस्संकोच आयात से हमेशा चिंतित रहते हैं और आपत्तियाँ भी दर्ज़ कराते रहते हैं। इनकी आशंका ये है कि अगर अँग्रेज़ी शब्दों के हिन्दी में समायोजन की यही गति रही तो ‘हिन्दी’ भाषा के रूप में अपना अस्तित्व खो देगी। हालांकि हमारी निगाह में ये महज स्यापा है, जिसका सच्चाई से कोई वास्ता नहीं।
अब देखिए ना! भाषा और लिपि दोनों अलग-अलग मसले हैं। लेकिन भाषा की बात करते वक़्त लोग न जाने क्यों दोनों को गड्डमड्ड कर देते हैं और हमारे जैसे लोग भ्रम के शिकार हो, यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि ये जो महाशय हैं, वो भाषा की बात कर रहे हैं या लिपि की? मुझे यक़ीन है कि आप इसको लेकर कन्फ़्यूज़ नहीं होंगे। फिर भी महज गंभीर-अध्ययेता वाली अपनी भंगिमा को बनाए रखने की ख़ातिर, हम कहना चाहते हैं कि हिन्दी भाषा है और इसकी लिपि देवनागरी है। ठीक वैसे ही जैसे उर्दू भाषा है और लिपि फारसी, या फिर अँग्रेज़ी भाषा है और लिपि रोमन। देवनागरी अथवा नागरी मूलतः संस्कृत बोलने वाले सांभ्रांत लोगों की लिपि थी। देव यानी समाज का सुसभ्य-सांभ्रांत तबका और नागरी अथवा नगर का रहवासी। यानी नगर का साभ्रांत वर्ग अभिव्यक्ति के लिए जिस लिपि का उपयोग करता था, उसे ही देवनागरी लिपि कहा जाता है। देवनागरी से पहले ब्राह्मी को यह सम्मान प्राप्त था। देवनागरी लिपि को लेकर अनेक कथाएँ हैं। विस्तार की आवश्यकता नहीं।
सम्प्रेषण के लिए भाषा और लिपि दोनों आवश्यक हैं। भाषा जहाँ बोलने(भाषण अथवा संवाद) के संदर्भ में आती है, वहीं लिपि का संबंध लेखन से है। भाषा विचारों की ध्वन्यात्मक(वोकल अथवा फोनेटिक) अभिव्यक्ति के लिए ज़रूरी है तो ‘लिपि’ इंस्ट्रूमेंटल अथवा प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य। वैसे भाषा की अनगिनत परिभाषाएँ हैं और तमाम परिभाषाओं का इस लेख में औचित्य नहीं है। इसलिए प्लेटो, स्वीट, ब्लाक, ट्रेगर अथवा किसी अन्य के कथनों पर बारी-बारी से विचार की बनिस्बत इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में दर्ज भाषा की परिभाषा ही काफ़ी होगी। यानी भाषा ऐच्छिक, अव्यवस्थित, बेतरतीब अथवा रैंडम भाष्-प्रतीकों का तंत्र है, जिसकी मदद से मनुष्यों के किसी सामाजिक समूह का कोई सदस्य, समूह के दूसरे सदस्यों के साथ सम्पर्क एवं संदेश-सम्प्रेषण में सक्षम होता है।
‘भाषा’ शब्द का मूल, संस्कृत का ‘भाष्’ धातु है, जिसका अर्थ है- बोलना अथवा कहना। जब हम भाषा को ऐच्छिक भाष् प्रतीकों का तंत्र कहते हैं तो यह स्वीकार कर रहे होते हैं कि किसी ध्वनि का किसी विशेष अर्थ से कोई मौलिक संबंध नहीं होता, बल्कि ध्वनि विशेष को अर्थ-विशेष का वाचक मान लिया जाता है। और यही कालांतर में उसके लिए रूढ़ हो जाता है। ध्वनि सिम्बॉलिक होती है और ‘भाषा’ इसकी पद्धति अथवा सिस्टम। जब हमें इन ध्वनि-संकेतों को लिखित रूप में सम्प्रेषित करना होता है तो हम लिपि की मदद लेते हैं। यानी लिपि वह पद्धति है, जिसकी मदद से हम किसी भाषा के ध्वनियों की, लिखित अथवा मुद्रित रूप में शिनाख्त करते हैं और फिर उन्हें पढ़ते-समझते हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि भाषा वस्तुतः मानव-निर्मित एक ऐसा व्यवस्थित साधन है, जो ध्वनियों और परंपरागत प्रतीकों की मदद से संवाद-सम्प्रेषण को संभव बनाती है। यह लिखित अथवा वाचिक हो सकती है और संरचनात्मक स्तर पर इसमें परंपरागत तरीके से शब्दों का इस्तेमाल अनिवार्य है। वैसे एक ऐसी भी भाषा है जो पूरी दुनिया में बोली-समझी तो जाती है लेकिन जिसको बोलने-समझने के लिए न तो ध्वनि-संकेतों और न ही किसी लिपि की ज़रूरत होती है। इसको सम्प्रेषण का ‘ननवर्बल’ तरीक़ा कहते हैं। इसमें न तो ज़ुबान को कष्ट देना होता है, न ही हाथ को क़लम या की-बोर्ड की ज़रूरत पड़ती है। बल्कि हाव-भाव और आँखें ही काफ़ी होती हैं। इसको समझने के लिए मेरे ख़्याल से ये शेर काफ़ी है- ‘आँखों-आँखों में हुई बातें, ज़ुबाँ ख़ामोश थीं। दो दिलों की गुफ़्तगू में ख़ामोशी अच्छी लगी।’ तो जब हम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संदर्भ में भाषा की बात करते हैं तो उसमें भाषा की नन-वर्बल पद्धति भी जुड़ जाती है। अगर हम इस पक्ष का ध्यान नहीं रखेंगे तो ग़लतफ़हमी के शिकार हो जाएँगे।
भाषा सिर्फ हिन्दी, अँग्रेज़ी, उर्दू आदि ही नहीं होती, बल्कि हाव-भाव भी एक भाषा ही है। भाषा का कोई स्थाई मानक नहीं होता। ख़ास-तौर से जनभाषा न तो विशुद्ध साहित्यिक हो सकती है और न ही व्याकरण के कठोर नियमों से बांधी जा सकती है। जन-साधारण में बोली जाने वाली भाषा का निर्धारण न तो सरकारी राजभाषा विभाग और न ही साहित्य के आलोचक कर सकते हैं। मीडिया भी न तो टकसाली परंपरा की पोषक है और न ही अकादमिक संस्कृति की वाहक। मीडिया का लक्ष्य अपने पाठकों-दर्शकों तक सूचना-सम्प्रेषण है। प्रिंट में तो फिर भी परंपरागत भाषा रूढ़ियों का ख़्याल रखा जा सकता है, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नहीं। वैसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी जन-भाषा में गहरे नहीं उतरती, लेकिन कोशिश यही होती है कि भाषा ऐसी हो कि आम-आदमी की समझ में आ सके। इसलिए वह संस्कृत-सम्मत तत्सम शब्दों की जगह लोक-प्रचलित हिन्दी-उर्दू एवं अँग्रेज़ी शब्दों को तरजीह देती है। यानी यहाँ भाषा की सहजता पर ज़ोर होता है, शुद्धता पर नहीं। ख़ैर, मीडिया की भाषा और हिन्दी के तथाकथित अस्तित्व संकट पर लौटने से पहले भाषा, समाज और संस्कृति के अंतर्संबंधों पर रोशनी ज़रुरी है।
बकौल रामविलास शर्मा ‘किसी भी देश में उसकी भाषा या भाषाओं की स्थिति विशुद्ध भाषा-विज्ञान के नियमों से समझ में नहीं आ सकती। वह देश की आंतरिक और बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर है।’ मतलब साफ़ है कि भाषा कोई स्थिर या जड़ सिस्टम नहीं है। यह समय और परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तित हो सकती है, या होती रहती है। मीडिया की भाषा पर यह बात बिल्कुल सटीक बैठती है। ‘भाषा’ सिर्फ शब्दों का उच्छृंखल समुच्चय नहीं होती, यह सार्थक शब्द संयोजन और वाक्य-विन्यास से अपना वास्तविक रूप ग्रहण करती है। अर्थात ‘वाक्य-संरचना’, शब्द के बाद भाषा का दूसरा महत्वपूर्ण घटक है। इस पर विचार इसलिए भी ज़रूरी है कि गाहे-बगाहे यह बात भी कही जाती रही है कि अँग्रेज़ी के बढ़ते दबाव के कारण हिन्दी की वाक्य-संरचना का परंपरागत रूप विकृत हो रहा है। इस मसले पर अपनी बात रखने से पहले एक बार फिर रामविलास शर्मा के लेख ‘संस्कृति और भाषा’ से एक उद्धरण आवश्यक है। ‘भाषा को आप चाहे संस्कृति का ही अंग मानें चाहे उससे भिन्न, दोनों के घनिष्ठ संबंध को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वाक्य-रचना की पद्धति हमारी चिंतन-पद्धति पर निर्भर होती है। आप अपनी भाषा में कर्म को क्रिया के पहले बिठाते हैं या बाद में, यह आपकी परंपरागत जातीय चिंतन-प्रक्रिया पर निर्भर है। आप अपनी भाषा में किस तरह के विदेशी शब्द, कितने परिमाण में ग्रहण करते हैं, यह आपके जातीय चरित्र पर निर्भर है।’ अब ये ‘जातीय चरित्र’ क्या है? पहले इसको समझना ज़रूरी है।
भाषा और समाज एक-दूसरे से अलगा-कर नहीं देखे जा सकते। भाषा सम्प्रेषण का माध्यम है, इसमें दो मत नहीं। यही वह व्यवस्था है, जिसके सहारे विचारों का संकेतों में रूपांतरण होता है और फिर समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सम्प्रेषण। विचार-विनिमय की यह परिपाटी उतनी ही पुरानी है, जितनी कि मानव-सभ्यता। अभिव्यक्ति मानव की मौलिक परिकल्पना नहीं है। यह प्राणी-मात्र का प्राकृति-प्रदत्त गुण है। यह हमारी अपनी सीमा है कि हम कुछ संकेतों को पकड़-समझ पाते हैं, तो कुछ को नहीं। जिस भाषा-समाज में हमारा जन्म होता है, हम उसके सम्प्रेषण संकेतों को आसानी से आत्मसात कर लेते हैं, यह नैसर्गिक है। यही हमारे सांस्कृतिक परिवेश का निर्माण भी करते हैं। हम जैसे-जैसे परिपक्वता की ओर बढ़ते हैं, ज़रूरत के हिसाब से न सिर्फ नई भाषाएँ सीखते हैं, बल्कि उस भाषिक-समाज के आकर्षक गुणों को भी आत्मसात करते चलते हैं। अगर हम अपने भाषिक-परिवेश से लंबे अरसे तक अलग रहते हैं तो ऐसी स्थिति में विस्मृति का शिकार हो जाना, सामान्य घटना है। इस विस्मृति से एक नई भाषिक-संरचना के निर्मित एवं विकसित होने की राह आसान हो जाती है। इस तरह जो नई भाषिक-संरचना बनती है, वह अपने मूल से अलग होती है। परिवर्तन इतना ‘स्लो’ और सहज होता है कि अहसास भी नहीं होता और हम इस ग़लतफ़हमी के शिकार हो जाते हैं कि हम अपने मूल भाषिक-समाज का अंग अब भी बने ही हुए हैं। जबकि वास्तव में हमारा नया भाषिक-समाज बन चुका होता है, जो अपने मूल से उतना ही अलग होता है, जितना कि वर्तमान भाषिक-परिवेश से, जिसमें कि हम रह रहे होते हैं। मतलब ये कि ‘जातीय चरित्र’ भी परिवर्तित होता रहता है। यह कोई जड़ अवस्था नहीं है।
साफ़ है कि हम अब तक जिन चीज़ों को भाषा में विचलन या अनावश्यक जोड़-घटाव मानते रहे हैं, वह दरअसल भाषा का नैसर्गिक विकास है। इसके लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं। हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। सूफी काव्य की रचना ब्रज अथवा अवधी में हुई, लेकिन उसकी लिपि फ़ारसी थी। जायसी इसके उदाहरण हैं। इसी तरह खड़ी-बोली में रचना करने का श्रेय अमीर खुसरो के नाम है, लेकिन उनकी लिपि भी फ़ारसी ही थी। अब अगर लिपि ही भाषा होती तो ये साहित्य फ़ारसी-साहित्य की श्रेणी में आता। लेकिन इसे हम हिन्दी साहित्य की श्रेणी में रखते हैं। सूफी-काव्य के मर्मज्ञ डॉ. मुजीब रिज़वी का दावा तो यहाँ तक है कि सूफ़ी ही नहीं, बल्कि कई अन्य भक्त कवियों ने ‘भाखा’ में रचना करने के बावजूद वाक्य-संरचना के मामले में फ़ारसी का अनुसरण किया है। मतलब ये कि जातीय-चिंतन प्रक्रिया के अनुरूप कर्म-क्रिया का क्रम-निर्धारण की थ्योरी बिल्कुल सही है। वैसे भी भक्ति-रीति काल के बाद भारतेंदु और फिर द्विवेदी युग में हिन्दी की स्थिति, उसके शैलीगत बदलाव और व्याकरणिक-परिवर्तनों को आसानी से अलगाया जा सकता है। आप ही बताइए, हिन्दी भाषा के रूप में स्थिर कब रही है? आज की हिन्दी छायावादी या प्रगतिवादी-प्रयोगवादी दौर की हिन्दी से बहुत अलग है। भाषा के दूषित होने या अस्तित्व-संकट वाली बात बिल्कुल बेमानी है। संस्कृत की अलोकप्रियता की वजह सिर्फ सत्ता-संस्थानों से उसकी बेदखली नहीं थी। बल्कि शास्त्रीयता के प्रति अनावश्यक मोह और इससे उपजी जड़ता और क्लिष्टता, इसका बड़ा कारण था। भाषा का मानक होना चाहिए, लेकिन मानक को युग-परिवेश के हिसाब से बदलना भी चाहिए। ऐसा नहीं होने पर जड़ता आने लगती है और उसका क्षेत्र सिकुड़ने लगता है। संचार क्रांति के साथ ही भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के कारण हिन्दी का विस्तार हुआ है। अँग्रेज़ी पढ़ा-लिखा तबका भी रोज़गार के दबाव में ही सही, हिन्दी को अपनाने को बाध्य है और इस मामले में मीडिया की भूमिका सबसे अहम है।
भाषा की सहजता, भाषिक समाज को विस्तार देती है। देश के अलग-अलग हिस्सों या यूँ कह लें कि अलग-अलग भाषा-समाज से पलायन कर नगरों-महानगरों में आए लोग अनजाने में ही सही, एक नई भाषिक संरचना को जन्म देते हैं। जिसमें दो भाषिक-समाजों का सम्मिश्रण होता है और वह बिल्कुल अलग लुक में हमारी ज़ुबान पर चढ़ने लगती है। ग्रामीण और नगरीय भाषा में फ़र्क़ का मूल कारण यही है। आम शहरी या आम ग्रामीण जो हिन्दी बोलता है, वह किसी यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग या रेलवे जैसे सरकारी उपक्रमों में इस्तेमाल होने वाली भाषा नहीं होती। हिन्दी साहित्य का आज का छात्र क्या द्विवेदी युगीन या छायावादी काव्य को आसानी से समझ लेता है? क्या आज के साहित्य की भाषा, छायावादी युग की भाषा से मेल खाती है? आलोचक नामवर सिंह की लोकप्रियता का राज़ भी तो स्थापनाओं से अधिक भाषा की सहजता में ही छुपा है। फिर मीडिया पर ही मानकीकरण का दबाव क्यों? मीडिया का काम सूचना सम्प्रेषण है, भाषा-शिक्षण नहीं। इसलिए मीडिया तो वही भाषा इस्तेमाल करेगी, जो कम्यूनिकेटिव हो। आधुनिक मीडिया सिर्फ अँग्रेज़ी के शब्दों का ही इस्तेमाल नहीं करती। आप ग़ौर करेंगे तो पाएँगे कि बहुत से ऐसे शब्द भी मीडिया के कारण आम-फ़हम हो गए हैं, जिन्हें साहित्य के अध्येयता भदेस कहकर अब तक किनारे रखते रहे हैं। अगर बहुभाषी देश-समाज में मीडिया ने अलगाववादी दृष्टिकोण की बजाय सर्वसमावेशी और सर्वग्राही दृष्टिकोण अपनाया है, तो यह भाषा के हित में है। यह भारतीय सांस्कृतिक-वैविध्य के बरक्स हिन्दी को सर्वस्वीकार की तरफ़ ले जाने वाला दृष्टिकोण है। इसलिए ओमप्रकाश केजरीवाल के इस कथन से पूर्णतः तो नहीं पर आंशिक रूप से सहमत ज़रूर हुआ जा सकता है कि ‘आज की परिस्थितियों में मीडिया ही भाषा की जननी है।’ गढ़े गए पारिभाषिक या मानक शब्दों या तत्सम शब्दावलियों के गुंजलक में, मीडिया अगर उलझेगी तो न सिर्फ मीडिया का, बल्कि भाषा के रूप में हिन्दी का भी, नुकसान ही होगा। जिस तरह सभ्यता सतत विकसित होती रहती है, उसी तरह भाषा का विकास भी निरंतर चलता है। न समय को, न सभ्यता को और न ही भाषा को स्थिर रखा या यू-टर्न को विवश किया जा सकता है। ऐसी कोई भी कोशिश प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी ही मानी जाएगी।
अकबर रिज़वी, संपादक, मीडिया का वर्तमान, अनन्य प्रकशन
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