भूपेन सिंह।
हाल के दिनों में नेट न्यूट्रेलिटी को लेकर काफी हंगामा रहा है। नेट न्यूट्रैलिटी की मांग सड़क से लेकर संसद तक उठी है। दिल्ली, चैन्नई और बेंगलौर में नेट न्यूट्रैलिटी लागू करने के लिए प्रदर्शन हुए हैं तो संसद में भी इस मामले में सवाल-जवाब हुए हैं। मुनाफा कमाने की होड़ में शामिल कॉरपोरेट, इंटरनेट पर जनता के अधिकार को ख़त्म करने पर आमादा हैं। फिलहाल टेलीकॉम रेग्यूलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (ट्राई) इस पर विचार कर रही है।
नेट न्यूट्रेलिटी का रिश्ता इंटरनेट कनेक्शन और उसके इस्तेमाल से जुड़ा है। भारत में इंटरनेट की सुविधा ज़्यादातर सरकार से लाइसेंस प्राप्त निजी कंपनियां देती हैं। अब तक यह कंपनियां व्यक्तियों या संस्थाओं को इंटरनेट कनेक्शन मुहैया कराती रही हैं। यह विवाद नहीं था कि कौन इंटरनेट का किस तरह इस्तेमाल करता है। नए दौर में तकनीकी विकास की वजह से इंटरनेट पर व्यवसाय करने वाली कई नई कंपनियां सक्रिय हुई हैं। यह इंटरनेट का इस्तेमाल कर मुनाफा कमाने लगी तो कनेक्शन देने वाली टेलीकॉम कंपनियां सावधान हो गई और वे कहने लगीं कि वह इंटरनेट पर व्यवसाय करने वाली कंपनियों से अतिरिक्त पैसा लेंगी और या फिर ख़ुद ही इंटरनेट पर अपनी सामग्री या ऐप्लिकेशंस लेकर आएंगी। विवाद यहीं से पैदा होना शुरू हुआ।
आलोचकों का कहना है कि अगर टेलीकॉम कंपनियों ने ऐसा किया तो इससे नेट न्यूट्रेलिटी या इंटरनेट पर सबके समान अधिकार को बरकरार रख पाना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि टेलीकॉम कंपनियां कुछ साइट्स और ऐप्लिकेशंस को ही प्रमोट करने लगेंगी। उन्हें अच्छी स्पीड देंगी। छोटी कंपनियों को इंटरनेट पर अच्छी स्पीड नहीं मिल पाएगी। फिलहाल भारत में नेट न्यूट्रेलिटी की गारंटी करने वाला कोई कानून नहीं है।
ताज़ा विवाद तब पैदा हुआ जब दिसंबर 2014 में टेलीफोन कंपनी एयरटेल ने व्हट्स ऐप और स्काइप जैसी सुविधाओं के इस्तेमाल पर अलग से पैसा वसूलने की बात कही। व्हट्स ऐप से साधारण इंटरनेट कनेक्शन के ज़रिए देश-दुनिया में कहीं भी फोन से मैसेज किया जा सकता है तो स्काइप नाम के ऐप्लिकेशन या ऐप के माध्यम से दो लोग बात करते हुए स्क्रीन पर एक-दूसरे को देख और सुन सकते हैं। इन ऐप्लिकेशंस के लिए उपभोक्ता को अलग से पैसा नहीं चुकाना होता है। सिर्फ इंटरनेट कनेक्शन होने से इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। व्हट्स ऐप आने के बाद मोबाइल कंपनियों के एसएमएस के धंधे पर काफी फर्क पड़ा है। लोग अब मोबाइल फोन पर एसएमएस करने के बजाय व्हट्स ऐप करने लगे हैं। जिसके पास भी स्मार्ट फोन और इंटरनेट कनेक्शन है वह व्हट्स ऐप का इस्तेमाल कर सकता है। आने वाले दिनों में स्मार्ट फोन आम मोबाइल फोन की जगह ले लेंगे। आज न्यूनतम तीन हज़ार रुपए कीमत के फोन पर व्हट्स ऐप का इस्तेमाल किया जा सकता है।
नेट न्यूट्लिटी की अवधारणा में इस बात की गारंटी रहती है कि इंटरनेट प्रोवाइडर सबको समान सुविधा देगा और कनेक्शन के अलावा दूसरी किसी सुविधा का पैसा नहीं लेगा। वह किसी उपभोक्ता को कम या ज़्यादा स्पीड देने का भेदभाव भी नहीं करेगा। अभी सर्विस प्रोवाइडर कंपनियां तय करती हैं कि उनके कनेक्शन के बदले आप उन्हें कितना पैसा देंगे। आपके इंटरनेट की स्पीड कितनी होगी। अब यह इंटरनेट पर उपलब्ध सेवाओं को भी नियंत्रित करना चाहती हैं।
सर्विस प्रोवाइडर कंपनियों ने जब इन ऐप्स से पैसा वसूलने की सोची तो इंटरनेट पर सुविधा मुहैया कराने वाली या ऐप चलाने वाली कई कंपनियों ने हो-हल्ला मचाना शुरू कर दिया और नेट न्यूट्रेलिटी की बहस सतह पर आ गई। फिलहाल सवा अरब की जनसंख्या वाले देश में क़रीब पच्चीस करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। इनमें से क़रीब साढ़े सत्रह करोड़ लोग मोबाइल फोन पर इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं।
नेट न्यूट्लिटी की अवधारणा में इस बात की गारंटी रहती है कि इंटरनेट प्रोवाइडर सबको समान सुविधा देगा और कनेक्शन के अलावा दूसरी किसी सुविधा का पैसा नहीं लेगा। वह किसी उपभोक्ता को कम या ज़्यादा स्पीड देने का भेदभाव भी नहीं करेगा। नेट न्यूट्रेलिटी पर विवाद को देखते हुए मार्च 2015 में टेलिकॉम रेग्यूलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (ट्राई) ने नेट न्यूट्रेलिटी पर आम जनता से सुझाव आमंत्रित करते हुए एक कंसल्टेशन पेपर सामने रखा है। ट्राई को इंटरनेट प्रोवाइडर कंपनियों, इंटरनेट पर सुविधा देने वाली कंपनियों और आम जनता की तरफ से लाखों सुझाव मिल चुके हैं। लेकिन मुख्य तौर पर दो तरह की कॉरपोरेट कंपनियों के बीच ही ध्रुवीकरण देखने को मिल रहा है। एक तरफ सर्विस प्रोवाइडर कंपनियां हैं तो दूसरी तरफ इंटरनेट पर सेवा देने वाली कंपनियां। ट्राई भारत सरकार के अधीन एक स्वायत्त संस्था है जो टेलीकम्यूनिकेशन से जुड़ी प्रक्रियाओं के नियमन पर विचार करती हैं। इसके सुझावों को लागू करने का अंतिम अधिकार सरकार के पास होता है।
आज की दुनिया में इंटरनेट संचार प्रक्रियाओं में गुणात्मक बदलाव लाया है। इसकी बदौलत ही सूचनाओं को पलक झपकते ही दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने में पहुंचाना संभव हो पाया है। इंटरनेट एक ऐसा दूर संचार नेटवर्क है जिसमें दो मशीनें (कम्प्यूटर आदि) आपस में डेटा (सूचनाओं) का आदान-प्रदान करती हैं। इस प्रक्रिया में कुछ खास नियमों यानी इंटरनेट प्रोटोकॉल (आइपी) का पालन किया जाता है। इंटरनेट अलग-अलग आइपी एड्रेस के बीच संपर्क स्थापित करता है। इंटरनेट का इस्तेमाल करने के लिए एक इंटरनेट कनेक्शन होना ज़रूरी है जिसे टेलीकॉम कंपनी या इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर (आइएसपी) मुहैया कराती हैं। इंटरनेट प्रोटोकॉल के प्रणेताओं ने इसे इस तरह बनाया है कि जिसमें नेट न्यूट्रेलेटी संभव हो सके।
यह बात सही है कि इंटरनेट ऐप्लीकेशन बनाने वाली कंपनियां भी अपना मुनाफा कमा रही हैं। यह कंपनियां तर्क दे रही हैं कि सर्विस प्रोवाइडर कंपनी को सिर्फ अपने कनेक्शन का पैसा लेना चाहिए, उन्हें इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि कोई व्यक्ति या कंपनी उस कनेक्शन का कैसा इस्तेमाल कर रही हैं। यह एक जटिल स्थिति है। जिस पर नेट न्यूट्रेलिटी की पूरी बहस को केंद्रित करने की कोशिश की जा रही है। दोनों तरफ की कंपनियां अपने-अपने पक्ष में तर्क रख रही हैं। ट्राई के निदेशक राहुल खुल्लर इसीलिए इसे कॉरपोरेट वॉर की संज्ञा दे रहे हैं।
सर्विस प्रोवाइडर कंपनियां यह भी तय करती हैं कि उनके कनेक्शन के बदले आप उन्हें कितना पैसा देंगे। आपके इंटरनेट की स्पीड कितनी होगी। अब यह इंटरनेट पर उपलब्ध सेवाओं को भी नियंत्रित करना चाहती हैं। टेलीकॉम कंपनी भारती एयरटेल के प्रबंध निदेशक गोपाल विट्टल ने चेतावनी दी है कि अगर नेट पर आधारित सेवाओं के लिए नियम नहीं बनाए जाते हैं तो उन्हें इंटरनेट कनेक्शन का शुल्क बढ़ाना पढ़ेगा जो क़रीब वर्तमान रेट से छह गुना ज़्यादा हो सकता है। इस तरह टलीकॉम कंपनियां हर तरह के हथकंडे अपनाकर दबाव बना रही हैं।
ट्राई ने इस पूरे मामले में रेग्यूलेटरी फ्रेमवर्क फॉर ओवर द टॉप सर्विसेज (ओटीटी) नाम से एक परामर्श पत्र (कंसल्टेशन पेपर) जारी किया है। यह पेपर ट्राई की साइट पर मौजूद है। इंटरनेट सर्विस/ऐप्स/ओटीटी और टेलीकॉम कंपनियों के बीच मुख्यतौर पर दो बातों का झगड़ा है। पहला झगड़ा रियल टाइम सर्विसेज को लेकर है और दूसरा झगड़ा उन सुविधाओं के लिए है जो सीधे टेलिकॉम लाइसेंसिंग फ्रेमवर्क के अंदर नहीं आती हैं, जैसे-ऐप और कंटेंट।
ओटीटी यानी ओवर द टॉप का मतलब उन एप्लिकेशंस और सर्विसेज से है जो टेलीकॉम ऑपरेटर नेटवर्क के माध्यम से दी जाती हैं। ये तीन तरह की हैं। मैसेजिंग और वॉइस सर्विस- यह मोबाइल और एसएमएस रेवेन्यू में सेंध लगाती हैं। मैसेजिंग में व्हट्स ऐप, आइ मैसेज, वीचैट, लाइन। वॉइस-स्काइप और वाइबर जैसी सुविधाएं आती हैं जिनके इंटरनेट पर आने से टेलीकॉम कंपनियों के मैसेजिंग और वाइस सर्विस के धंधे पर असर पड़ा है। ऐसा नहीं कि टेलीकॉम कंपनियां नुकसान में चली गई है, हां, उऩका मुनाफ़ा ज़रूर कुछ कम हो गया है।
दूसरा है, ऐप्लिकेशन ईको सिस्टम (इसमें संचार की प्रक्रिया मुख्य तौर पर वास्तविक समय में नहीं चलती)। फेसबुक, लिंक्डइन, ट्विटर, इंस्टाग्राम, वीचैट, ई कॉमर्स ऐप्प-ऐमेज़ोन, फ्लिपकार्ट, स्नैपडील और अलिबाबा इसके उदाहरण हैं।
तीसरा है, वीडियो-ऑडियो कंटेंट। यू ट्यूब, डेलीमोशन, विमेओ, नेटफ्लिक्स और हॉटस्टार जैसी कंपनियां ये सुविधाएं देती हैं।
नेट न्यूट्रेलिटी का मतलब है, इंटरनेट पर सभी साइट्स और ऐप्स एक समान तौर पर इस्तेमाल किये जा सकें। सभी साइट्स और ऐप्स एक समान स्पीड पर मिले। सभी साइट्स एक समान कीमत पर इस्तेमाल की जा सकें। किसी साइट के लिए अधिक स्पीड और किसी के लिए कम स्पीड नहीं हो। कुछ साइट्स मुफ्त और कुछ पेड नहीं हों। इंटरनेट डॉट ऑर्ग और एयरटेल जैसी कंपनियां इसके ख़िलाफ़ खड़ी हैं। नेट न्यूट्रेलिटी का पालन न करने का मतलब एक तरह से इंटरनेट को डायरेक्ट टू होम (डीटीएच) नेटवर्क में बदल देना है जहां लोग विभन्न टीवी चैनलों के लिए अलग-अलग पेमेंट करते हैं। नेट न्यूट्रेलिटी न होने पर इंटरनेट पर भी लोगों को अलग-अलग साइट के लिए अलग से पैसा चुकाना पड़ेगा। नेट न्यूट्रेलिटी न रहने पर कोई टेलीकॉम कंपनी अगर वीडियो स्ट्रीमिंग भी करती है तो वह अपनी इस सेवा को देखने वालों को कम कीमत पर कुछ और सुविधाएं ऑफर कर सकती है। यही कंपनी अपने नेटवर्क पर यूट्यूब जैसी सुविधाओं के लिए पैसा ले सकती है या उसकी स्पीड कम कर सकती है।
नेट न्यूट्रेलिटी की बहस सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में चल रही है। इस बहस में कई बार बड़ी कंपनियां इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर और ऐप्स या साइट्स का भेद भुलाकर एक साथ आ रही हैं। जैसे इंटरनेट पर नेटवर्किंग साइट की सुविधा देने वाली फेसबुक जैसी बड़ी कंपनी ने 2013 में इंटरनेटडॉटऑर्ग नाम से एक नई सुविधा शुरू की। इसमें दुनियाभर की सात बड़ी टेलीफोन कंपनियां जुड़ी हैं। यह कंपनियां हैं -सैमसंग, ऐरिक्सन, मीडियाटेक, माइक्रोसॉफ्ट, ओपेरा सॉफ्टवेयर, रिलाएंस और क्वांटम। भारत में 10 फरवरी 2015 को Internet.org को शुरू किया गया। इसमें कई बड़ी कंपनियों को मुफ्त सुविधा देने की बात थी। कुल 38 कंपनियां फेसबुक और रिलायंस की इस कोशिश का हिस्सा बनीं लेकिन जैसे ही इस कोशिश को नेट न्यूट्रेलिटी के ख़िलाफ बताया गया तो टाइम्स ऑफ इंडिया और एनडीटीवी जैसी कुछ कंपनियां इससे बाहर हो गईं। फेसबुक के मालिक मार्क जकरबर्ग को सफाई देनी पड़ी कि उनकी पहल नेट न्यूट्रेलिटी के खिलाफ नहीं है। लेकिन अनिल अंबानी की जिस रिलाएंस कंपनी के साथ फेसबुक ने टाईअप किया है अगर उसका कनेक्शन आपके पास नहीं है तो इंटरनेट डॉट ऑर्ग नहीं खोल सकते हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने जब वोडाफोन के कनेक्शन से इंटरनेट डॉट ऑर्ग खोलने की कोशिश की तो दो-टूक संदेश मिला कि चूंकि आप रिलायंस का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं इसलिए यह सुविधा नहीं ले सकते। हैरत की बात यह भी है कि भारत में जहां फेसबुक ने सर्विस प्रोवाइडर के तौर पर रिलायंस से समझौता किया है तो वहीं घाना में एयरटेल के साथ।
ट्राई ने अपने कंसल्टेशन पेपर में नेट न्यूट्रैलिटी की बहस को लेकर कई देशों के उदाहरण सामने रखे हैं। इंटरनेट के जन्मदाता देश अमेरिका में भी नेट न्यूट्रैलिटी को लेकर बहस तेज़ है। वहां राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर सूचना के राजनीतिक अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ रॉबर्ट मैकेस्नी और कम्प्यूटर विज्ञानी टिम बर्न्स ली जैसे लोग नेट न्यूट्रैलिटी के पक्ष में खड़े हैं। अमेरिका का फेडरल कम्यूनिकेशन कमिशन (एफसीसी) ने नेट न्यूट्रैलिटी को ध्यान में रखकर कुछ ठोस नियम बनाए हैं। लेकिन भारत अब तक इस बारे में कोई नियम नहीं बनाये जा सके हैं। इतना ज़रूर है कि न्यूट्रेलिटी की बहस अब तेज़ हो चुकी है। संसद के बजट सत्र के दौरान कांग्रेस उपाध्यक्ष ने लोकसभा में नेट न्यूट्रेलिटी का मामला उठाया। उन्होंने सरकार पर आरोप लगया कि वह नेट न्यूट्रेलिटी को ख़त्म करने की शाजिश कर कॉरपोरेट को ख़ुश करने की कोशिश कर रही है। राहुल ने ट्राई के कंसल्टेशन पेपर पर भी सवाल उठाये। उन्होंने कहा कि जब नेट न्यूट्रेलिटी जनता के पक्ष में है तो ट्राई की तरफ से कंसल्टेशन पेपर लाने की क्या ज़रूरत है। सरकार सीधे नेट न्यूट्रेलिटी के लिए कानून क्यों नहीं बनाती। राहुल के सवालों का जवाब देते हुए संचार और सूचना मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सरकार नेट न्यूट्रेलिटी से खिलवाड़ नहीं होने देगी और सरकार पर इस मामले में कोई कॉरपोरेट दबाव नहीं है।
इंटरनेट के क्षेत्र में जितनी भी बड़ी कंपनियां हैं उनमें ज़्यादातर अमेरिकी कंपनियां हैं। चाहे ये कंपनियां सर्विस प्रोवाइडर हों या कंटेंट प्रोवाइडर। सभी कंपनियां ख़ास तौर पर बड़ी पूंजी से चलती हैं। अगर इनको बेलगाम होने की छूट दे दी गई तो इंटरनेट पर इनके एकाधिकार को रोक पाना तो मुश्किल होगा ही यह मनमाने तरीके से जनमत का निर्माण कर हमारे लोकतंत्र की दिशा भी तय करने लगेंगी।
जो लोग नेट न्यूट्रेलिटी की बात पर आंख मूंद कर इस या उस पक्ष में खड़े हैं उन्हें समझना पड़ेगा कि कॉरपोरेट अपने मुनाफे के लिए आपस में युद्ध कर सकते हैं तो आपस में हाथ भी मिला सकते हैं। मसलन फेसबुक आर्थिक क्षेत्र में बेहिसाब कामयाबी पाने के बाद आज एक बहुत बड़ा कॉरपोरेट बन चुका है। जिस तरह बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियों का अधिग्रहण कर लेती हैं या उनका ख़ुद में विलय करवा देती हैं वैसे ही ह्वट्स ऐप अब फेसबुक की सबसिडियरी कंपनी बनी चुकी है। कमाल की बात यह है कि न तो फेसबुक और न ही व्हट्स ऐप सर्विस प्रोवाइडर कंपनी है लेकिन ये रिलायंस जैसे सर्विस प्रोवाइडर से समझौता कर लेते हैं। ठीक यही बात फ्लिपकार्ट पर भी लागू होती है उसने भी अपने फायदे के लिए एयरटेल से समझौता कर लिया लेकिन ऐयरटेल से समझौता करते ही फ्लिपकार्ट का ट्रेफिक कम हो गया जिस वजह से उसे एयरटेल से अपना करार तोड़ना पड़ा।
इंटरनेट पर सबके समान अधिकार की बात पर उसी दिन ग्रहण लगना शुरू हो जाता है जब निजी कंपनियों को इस क्षेत्र में मुनाफे के लिए व्यवसाय करने की इजाजत दे दी जाती है। अब तो इंटरनेट के ऐतिहासिक विकास के क्रम में जितनी सुविधाएं आम जनता को मिल पाई हैं उसे सुरक्षित रख पाना बड़ी बात है। नेट न्यूट्रेलिटी की असली पहलकदमी यह हो सकती है कि चाहे सर्विस प्रोवाइडर हों या ऐप्स वाली कंपनियां, इन्हें जनता और कानून के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। इस कोशिश में यह ज़रूर ध्यान रखा जाए कि इंटरनेट का व्यावसायिक इस्तेमाल करने वाले लोगों पर किसी भी कीमत पर अतिरिक्त बोझ न पड़े। क्योंकि रोजमर्रा के जीवन में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाली आबादी इंटरनेट का व्यवसाय नहीं कर रही होती है।
फेसबुक-रिलायंस, एयरटेल-फ्लिपकार्ट के गठजोड़ की जो कहानियां सामने आ रही हैं, यह इंटरनेट पर जनता के अधिकारों को ख़त्म करने वाली है। इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर कंपनी और विषय सामग्री या ऐप वाली कंपनियों का गठजोड़ इंटरनेट की दुनिया में कुछ पैसे वालों के लिए एक ख़ास जगह बनाएगा जहां उन्हें कम पैसे में अधिक स्पीड मिलेगी और दूसरी तरफ ऐसी जगह बनेगी जहां ज़्यादा कीमत चुकाने पर भी कम स्पीड मिलेगी। मसलन अगर रिलायंस के कनेक्शन वाले इंटरनेटडॉटऑर्ग पर आप फेसबुक या इस गठजोड़ में शामिल दूसरी साइट को देखना चाहेंगे तो तेज़ स्पीड में इन सभी साइट्स को देख पाएंगे वहीं अगर दूसरी साइट्स पर कनेक्शन पर इनको देखना चाहेंगे तो वहां स्पीड कम मिलेगी। इस तरह बड़ी कंपनियां धीरे-धीरे इंटरनेट के अधिकांश बाज़ार पर कब्ज़ा कर लेंगी। इंटरनेट की दुनिया में यह ठोस नियम बनाया जा सकता है कि टेलीकॉम कंपनियों को इंटरनेट विषय सामग्री और ऐप्लिकेशंस के साथ समझौता करने या ख़ुद की सेवाएं शुरू करने का अधिकार किसी सूरत में न दिया जाए। जो साइट-ऐप व्यवसायिक नहीं हों, विचार, ज्ञान और सामाजिक विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर रही हों उनको किसी भी तरह के शुल्क से मुक्त रखा जाए।
मुक्त इंटरनेट की बहस सिर्फ तकनीकी और व्यावसायिक बहसों में ही नहीं उलझी रहनी चाहिए। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि इंटरनेट के आने के बाद इसने जनपक्षीय मीडिया के लिए एक ज़मीन तैयार की है। इंटरनेट अपने आप में एक ऐसा मीडिया हैं जहां नागरिक अपने विचारों को व्यक्त कर सकते हैं और लोकतांत्रिक बहस को आकार दे सकते हैं। अगर इंटरनेट पर कुछ गिनी-चुनी कंपनियों का ही अधिकार हो जाता है तो इससे किसी भी नागरिक विमर्श के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। जनपक्षीय इंटरनेट सामग्री लोगों तक आसानी से नहीं पहुंच पाएगी जबकि कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिल्टी के नाम पर बने कॉरपोरेट समाजसेवियों के विचार हमारे जनमत का निर्माण करने लगेंगे। इससे हमारे लोक विमर्श या पब्लिक स्फीयर का और विरूपित होना तय है। जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करने वाले या गंभीर सामाजिक-दार्शनिक विमर्श को आगे बढ़ाने वाली कोशिशों के सामने नया इंटरनेट सिस्टम मुसीबत खड़ी कर देगा।
एक बात और गौर करने वाली है कि इंटरनेट के क्षेत्र में जितनी भी बड़ी कंपनियां हैं उनमें ज़्यादातर अमेरिकी कंपनियां हैं। चाहे ये कंपनियां सर्विस प्रोवाइडर हों या कंटेंट प्रोवाइडर। सभी कंपनियां ख़ास तौर पर बड़ी पूंजी से चलती हैं। अगर इनको बेलगाम होने की छूट दे दी गई तो इंटरनेट पर इनके एकाधिकार को रोक पाना तो मुश्किल होगा ही यह मनमाने तरीके से जनमत का निर्माण कर हमारे लोकतंत्र की दिशा भी तय करने लगेंगी।
बेंगलौर के आइटी फॉर चेंज नाम के संगठन से जुड़े परमिंदरजीत सिंह इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) में लिखते हैं कि कॉरपोरेट हाउस इंटरनेट का एक मॉल खड़ा करना चाहते हैं जिसका मालिकाना टेलीकॉम कंपनियों के पास होगा। और उसमें चमक-दमक वाली दुकानों में इंटरनेट की विषयवस्तु पेश करने वाली कंपनियां दिखाई देंगी। यहां उन्हीं कंपनियों को प्रवेश मिलेगा जो मॉल मालिक को बढ़िया पैसा देंगी। इसका मतलब यह है कि जैसे रिलायंस का कनेक्शन लेने पर अगर आप ने इंटरनेट भी ऐक्टिवेट नहीं किया है तो भी आपको अपने फोन पर मुफ्त में यह सुविधाएं मिल जाएंगी। इंटरनेट पर बाकी सुविधाओं के लिए अलग से कनेक्शन या पैसा चुकाना पड़ेगा जो स्वाभाविक रूप से ज़्यादा होगा। इस ऑफर को सिर्फ प्रमोशनल गतिविधि समझना भूल होगी। अगर इंटरनेट प्रोवाइडर की तरफ से कंपनियों को इस तरह का अधिकार दे दिया जाता है तो कल के दिन रिलायंस और फेसबुक की तरह कई और बड़ी कंपनियों के गठजोड़ देखने को मिलेंगे जिसमें सिर्फ नामी ब्रांड ही जगह पाएंगे। जनता के इंटरनेट को इन कंपनियों का गठजोड़ निगल जाएगा और सामाजिक सरोकारों वाली साइट्स को कोई खास जगह नहीं मिल पाएगी और उन्हें बड़ी कंपनियों की इंटरनेट स्पीड भी नहीं मिल पाएगी।
साथ ही इनके लिए पैसे का भुगतान भी करना पड़ेगा। ज्यादा महंगी और कम स्पीड वाला सरोकारी इंटरनेट कैसे बचेगा इसका जवाब किसी के पास नहीं होगा। जैसे इंटरनेट पर अगर आप स्वाइन फ्लू तलाश करना चाहते हैं तो इसके लिए विकीपीडिया और वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) की साइट एक बेहतरीन साइट हो सकती है। लेकिन विकीपीडिया और डब्ल्यूएचओ के रिलायंस के पैक में न होने पर वह आपको किसी दवा कंपनी या ऐसी पक्षपाती साइट के पास ले जा सकती है जिसके इस सूचना के साथ व्यावसायिक हित जुड़े हों। इस स्थिति में इंटरनेट पर मिलने वाली ज़्यादातर सूचनाएं पेड होंगी। सही सूचनाओं का मिलना मुश्किल हो जाएगा। नेट न्यूट्रैलिटी ख़त्म होने पर भविष्य का इंटरनेट पूरी तरह बदल जाएगा जिसका इस्तेमाल मुनाफाखोर कॉरपोरेट आज से भी कई गुना ज़्यादा आक्रामकता के साथ उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रहे होंगे और स्वच्छ बहसों के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल बहुत मुश्किल हो जाएगा।
भूपेन सिंह पिछले डेढ़ दशक से एक पत्रकार, शोधकर्ता और मीडिया शिक्षक के तौर पर सक्रिय रहे हैं। वह कई राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों के साथ पत्रकारिता करने के अलावा भारतीय जन संचार संस्थान (आइआइएमसी), एमिटी विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता पढ़ा चुके हैं। भूपेन ने मीडिया पर दो किताबें संपादित की हैं। वह फिलहाल दिल्ली में रहकर स्वतंत्र पत्रकारिता के साथ एक शोध परियोजना पर काम कर रहे हैं।