अनूप भटनागर।
न्यायपालिका और इसकी कार्यवाही से जुड़ी छोटी बड़ी सभी सभी खबरों में नेताओं, नौकरशाहों और कार्पोरेट जगत के लागों की ही नहीं बल्कि आम जनता की भी हमेशा से ही गहरी दिलचस्पी रही है। महांत्मा गांधी की हत्या से लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा इन्दिरा गांधी का चुनाव निरस्त करने और फिर इन्दिरा गांधी हत्याकांड से लेकर राजीव गांधी की आत्मघाती बम विस्फोट में हत्या के मुकदमे तक की अदालती कार्यवाही में देश और दुनिया की दिलचस्पी बनी रही।
ये सभी मामले बेहद गंभीर और संगीन थे। जनता यह जानना चाहती थी कि इन प्रकरणों में अदालतों में क्या हो रहा है। चूंकि जनता और समाज की दिलचस्पी इन मामलों में थी, इसलिए अदालती कार्यवाही की रिपोर्टिंग समय के साथ महत्वपूर्ण होती गयी।
दो दशक पहले हालांकि अदालती कार्यवाही की रिपोर्टिंग के लिये संवाददाताओं के पास विशेष शैक्षणिक योग्यता या पात्रता की आवश्यकता नहीं थी। उस समय आमतौर पर पुलिस के मामलों की रिपोर्टिंग करने वाले संवाददाता ही निचली अदालतों की कार्यवाही का संकलन भी करते थे और उनसे कुछ अधिक अनुभवी संवाददाता उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय की कार्यवाही का संकलन करते थे।
लेकिन अब ऐसा नहीं है। नयायिक सक्रियता और जनहित याचिकाओं का सिलसिला शुरू होने तथा कार्पोरेट जगत से जुड़े विवादों के प्रति भी बढ़ती रूचि को देखते हुए और अदालती कार्यवाही के संकलन करने के लिये अदालत पहुंचने वाले संवाददाताओं की बढ़ती संख्या को नियंत्रित करने के इरादे से उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालयों में मान्यता प्राप्त करने के हेतु संवाददाताओं के पास कानून की डिग्री होना अनिवार्य कर दिया गया। इस तरह की अनिवार्यता के पीछे एक विचार यह भी रहा है कि कानून की डिग्री रखने वाले पत्रकार न्यायालय की कार्यवाही और इससे जुड़े दूसरे पहलुओं को सही तरीके से समझ सकते हैं और उन्हें सही संदर्भ में लिख भी सकेंगे।
अदालत की कार्यवाही की रिपोर्टिंग करते समय संवाददाताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अधिक चौकन्ने रहेंगे और यह ध्यान रखेंगे कि उनकी खबरों में ऐसा कुछ नहीं हो जिससे न्यायालय की अवमानना होने की संभावना हो। लीगल रिपोर्टरों से यह भी अपेक्षा होती है कि वे अदालती कार्यवाही से संबंधित अपनी खबरों में सिर्फ तथ्य ही पेश करेंगे और उनमें अपनी तरफ से किंतु परंतु के साथ खबरें प्रस्तुत नहीं करेंगे।
कभी-कभी राजनीतिक दृष्टि से या फिर सामाजिक चेतना को झकझोरने वाले किसी मामले की सुनवाई के दौरान किसी पक्ष विशेष के तर्कों और दलीलों से हम प्रभावित हो सकते हैं लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि खबर लिखते समय हमारी निष्पक्षता बनी रहे और अंजाने में भी हम किसी कार्यवाही में पक्षकार नहीं बने।
वैसे तो उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय की कार्यवाही की रिपोर्टिंग करना थोड़ा सहज लगता है क्योंकि वहां पर चीजें काफी हद तक व्यवस्थित होती हैं। इसके विपरीत, निचली अदालतों की रिपोर्टिंग करना अधिक मशक्कत वाला होता है। सूचना क्रांति के इस दौर में अब न्यायिक कार्यवाही से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी सहजता से मिल जाती है जबकि इंटरनेट का दौर शुरू होने से पहले अदालती कार्यवाही का संकलन करने वाले संवाददाताओं को हर कदम पर नयी चुनौती का सामना करना पड़ता था।
अदालत की रिपोर्टिंग के लिये सबसे जरूरी है कि खबर की दृष्टि से महत्वपूर्ण मुकदमे की सुनवाई के समय संवाददाता खुद अदालत में मौजूद रहे और इसे सुने। ऐसा होने की स्थिति में जहां संवाददाता तथ्यों के प्रति आश्वस्त रहता है वहीं उसे इस तरह की कार्यवाही और इससे जुड़े पहलुओं को बेहतर तरीके से समझने का मौका भी मिलता है। लीगल रिपोर्टिंग का काम आसान नहीं है। इस बीट को करने वाले अधिकांश संवाददाताओं, विशेषकर संवाद समितियों, इलैक्ट्रानिक मीडिया और बड़े अखबारों को सवेरे साढ़े दस बजे से पहले ही उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय पहुंचना पड़ता है। वहां पहुंचने के साथ ही विभिन्न कोर्ट रूप में चल रहे मुकदमों को सुनना और उनसे संबंधित दस्तावेज जुटाने में पूरा दिन निकल जाता है।
प्रारंभ में तो न्यायालयों की कार्यवाही की रिपोर्टिंग में संवाददाताओं को आनंद आता है लेकिन कुछ समय बाद ही इससे थकान होने लगती है क्योंकि सुबह से शाम तक एक ही ढर्रे में लगे रहना और फिर शाम को ऑफिस पहुंच कर रात तक काम करना। शायद यही वजह है कि अब बहुत से पत्रकार नियमित रूप से कोर्ट की रिपोर्टिंग से बचने का प्रयास करने लगे हैं।
हां, यह जरूर है कि जिस दिन अदालत में किसी महत्वपूर्ण मुकदमें की सुनवाई हो रही होती है तो उस दिन वहां वकीलों के साथ ही पत्रकारों की भी संख्या बहुत अधिक हो जाती है और ऐसी स्थित में तमाशबीनों की धक्का मुक्की के बीच ही संवाददाताओं को अपना काम करना होता है। अदालतों में संवाददाताओं की निगाहें अपनी नोटबुक पर, भीड़ और कानाफूसी के बीच कान न्यायाधीशों के सवालों और टिप्पणियों तथा संबंधित वकीलों के कथन की ओर ही लगे रहते हैं।
अधीनस्थ अदालतों में अधिकांश आपराधिक मामलों की ही रिपोर्टिंग होती है। इनमें भी अब सफेदपोश अपराधों और भ्रष्टाचार के मामलों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति में पुलिस और दूसरी जांच एजेन्सियों के जांच अधिकारियों तथा संबंधित महकमें के वकीलों से संपर्क बनाकर रखना जरूरी है। इनसे संपर्क होने पर संवाददाताओं को इस बात की सूचना मिलती रहती है कि किसी महत्वपूर्ण मामले में क्या कोई नया घटनाक्रम तो नहीं होने वाला है।
हमें कोशिश करनी चाहिए कि सुनी सुनाई बातों के आधार पर अदालत की कार्यवाही की रिपोर्टिंग नहीं की जाये क्योंकि इसमें गलती होने की बहुत अधिक संभावना रहती है। यदि आपने किसी कार्यवाही की गलत रिपोर्टिंग कर दी और ऐसे मामले में कोर्ट ने कार्रवाई की तो अकेला पत्रकार ही नहीं बल्कि समाचार पत्र के संपादक, प्रकाशक और मुद्रक को भी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
गलत रिपोर्टिंग की स्थिति में जहां अदालत की अवमानना की कार्यवाही हो सकती है वहीं आरोपी भी जानबूझ कर तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगाते हुये कई पत्रकार को अदालत में घसीट सकता है।
राष्ट्रीय जांच एजेंसी तथा निर्भया कांड और इस समय उबर कैब बलात्कार जैसे कई ऐसे प्रकरण होते हैं जिनमें अदालत के बंद कमरे में सुनवाई होती है जिसे ‘इन कैमरा’ कार्यवाही कहा जाता है। ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग में अतिरिक्त सावधानी की आवश्यकता होती है। ऐसे मामलों में चूंकि सिर्फ संबंधित पक्षों के वकील ही अदालत में मौजूद होते हैं, इसलिए संवाददाता को वकीलों द्वारा उपलब्ध करायी गयी जानकारी पर निर्भर रहना होता है। हां, दिन की कार्यवाही पूरी होने पर अदालत के नायब से न्यायिक आदेश की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
साभार: प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के प्रकाशन ” The Scribes World सच पत्रकारिता का”. लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के सदस्य हैं।