डॉ. शिल्पी झा।
भारतीय अखबारों के पन्नों में महिलाओं की स्थिति पर अगर बात करनी हो तो केवल वो शब्द या कॉलम गिनने से काम नहीं चलेगा जो अलग-अलग भाषाओं के अखबार महिलाओं या उनसे जुड़ी ख़बरों के लिए निर्धारित करते हैं। और इन कसौटियों पर मीडिया का देखना कई मायनों में बेहद संकुचित भी है क्योंकि समाज के निर्धारित मानदंडों को तोड़ने का जोखिम अखबारों के बड़े और स्थापित ब्रांड भी लेने से हिचकते हैं। महज़ डेढ़ महीने पहले तेलंगाना की एक महिला आईएएस अधिकारी स्मिता सबरवाल के लिए एक प्रतिष्ठित पत्रिका का आई कैंडी जैसे शब्दों के इस्तेमाल से पत्रकारिता के जिस पक्षपातपूर्ण, ग़ैर ज़िम्मेदाराना और छिछली मानसिकता का परिचय मिलता है उसे साबित करने के लिए शब्द और कॉलम पर्याप्त नहीं हैं।तो महिलाओं को लेकर अखबारों की मानसिकता तो यहां हमें दो कसौटियों पर परखने की ज़रूरत है। पहली ये कि अख़बारों ने लिखा या नहीं महिलाओं के बारे में और दूसरी ये कि लिखा तो इस रुप में लिखा।
ये सही है कि वीमेन्स लिब जैसे मुद्दों पर हमारा प्रेस पहले से काफी उदार हुआ है और इस उदारता ने पिछले कुछ सालों में महिलाओँ के उत्पीड़न से जुड़ी खबरों के लिए एक बड़ा पाठक वर्ग भी खड़ा कर दिया है। लेकिन सामूहिक रुप से अखबार अभी तक महिलाओं के बारे में अपने पाठकों की इस संकुचित ज़रुरत से आगे नहीं निकल पाए हैं जो या तो महिलाओं के ऊपर अत्याचार की घटनाएं बड़े चाव से पढ़ता है या फिर एक महिला को दूसरी के लिए प्रेरणा समझना चाहता है।
महिलाओं की कोई भी उपलब्धि केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि उसे किसी महिला ने हासिल किया है बल्कि वो उपलब्धि, वो काम अपने आप में काफी होना चाहिए ख़बरों में जगह पाने के लिए। आम मानसिकता को इस पूर्वाग्रह से उबारना कायदे से प्रेस का काम होना चाहिए। दुर्भाग्यवशआज की तारीख में सबसे पहले अखबारों को इस मानसिकता से बाहर आने की ज़रूरत है।स्टेट बैंक, एचएसबीसी बैंक और आईसीआईसीआई बैंक समेत कई बैंकों की मुखिया हो या अग्नि मिसाईल की प्रोजेक्ट हेड टेसी थॉमस या आईएएस की टॉपर लड़कियां कोई भी अपनी जगह पर महिला होने की वजह से नहीं है और इसलिए उनकी उपलब्धियों के बारे में बात करते समय हर वक्त उनका महिला होना सबसे प्रमुख नहीं होना चाहिए।
इस साल की शुरुआत में विंग कमांडर पूजा ठाकुर सुर्खियों में आईँ जब उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को सलामी देने वाली टुकड़ी का नेतृत्व किया। वो लगभग हर समाचार पत्र की पहले पृष्ठ पर नज़र आईं क्योंकि ऐसा करने वाली वो पहली महिला थीं। हम इस बात से अनजान नहीं कि सेना में काम करने वाले अधिकारियों को जिस तरह की संवेदनशील ज़िम्मेदारियां दी जाती हैं और उनसे जिस कुशलता की उम्मीद की जाती है उनके मुकाबले ये सलामी छोटी ज़िम्मेदारी थी और इसके पहले ये ज़िम्मेदारी उठाने वाला कोई भी पुरुष अधिकारी इसकी शतांश सुर्खियां नहीं बटोर पाया। बावजूद इसके कि पूजा ठाकुर ने बार बार अपने इंटरव्यू में ये कहा कि वो एक सैन्य अधिकारी पहले हैं और स्त्री बाद में और ये भी कि ट्रेनिंग के दौरान सेना में स्त्रियों और पुरुषों के बीच कोई भेद-भाव नहीं किया जाता, उनके 15 साल के करियर का निचोड़ प्रथम महिला के तौर पर वो एक ज़िम्मेदारी बन गई। इस तरह के शब्दाडम्बर सुनने में अच्छे लेकिन केवल इन्हीं ख़बरों को हम महिलाओं से जुड़े समाचार की श्रेणी में नहीं रख अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्ति नहीं पा सकते।
इसी तरह की एक और ताज़ा घटना जब सानिया मिर्ज़ा ने हाल में विम्बिल्डन महिला युगल ख़िताब जीता। जोश में कई जगह ये भी छापा गया कि कैसे महिलाएं किसी से कम नहीं। इस चक्कर में लिखने वाले ये भूल गए कि ये प्रतियोगिता महिलाओं की ही थी और हकीकत ये भी है कि पुरुष हो या महिला, विम्बिल्डल का खिताब जीतना किसी के लिए भी उतने ही गर्व का विषय है।
पेज थ्री महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते ना ही क्राईम पेज। महिला लेखकों की कोई चर्चा नहीं होती। महिला लेखकों की बात करें तो ज्यादातर अखबार तस्लीमा नसरीन का नाम लेगें जिनकी आखिरी किताब 6 साल पहले आई थी। शायद इसलिए कि ये नाम हमारे लिए कॉन्ट्रोवर्सी का द्योतक बन गया है। सबसे कम उम्र में साहित्य अकादमी सम्मान से नवाज़ी गईं अलका सरावगी की ताज़ा किताब जानकीदास तेजपाल मेंशन की समीक्षा हिन्दी भाषी अख़बारों में गिनी चुनी मिली बावजूद इसके साहित्य के गलियारों में इस किताब ने काफी हलचल पैदा की है और इसका अलका सरावगी के महिला होने से कोई ताल्लुक नहीं है।
पश्चिमी अख़बार भी औरतों की ख़बरों को लेकर अपने इस पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं है। इस तरह की ख़बरें जैसे पहली महिला अरबपति या पहली महिला राष्ट्रपति अभी भी महिलाओं के बारे में सबसे महत्वपूर्ण ख़बरें मानी जाती हैं। 2008 में लिखी पाउला पॉइनडेक्सटर की किताब Women, men and news, divided and disconnected in the news media landscape का शीर्षक ही बताता है कि ख़बरों के संसार के लिए महिलाएं और पुरुष परस्परबेमेलऔर पृथक लकीरें हैं। इस किताब के अनुसार अमेरिका में भी महिलाओं से जुड़ी ख़बरों में पहली महिला अरबपति या पहली महिला राष्ट्रपति जैसे दृष्टिकोण को ही ज्यादा तवज्जो दी जाती है जबकि वीमेन्स लिब जैसे मुद्दों को संपादक हेय दृष्टि से देखते हैं और अखबारों में उनकी जगह बीच के पन्नों में होती है। मिसाल के लिए 1966 में जब अमेरिकी संगठन नाऊ यानि National Organization for Women की स्थापना की घोषणा के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस की गई थी तो न्यूयॉर्क टाइम्स ने उस खबर को महिलाओं के पृष्ठ पर एक छोटे कॉलम में खाने-पीने से जुड़ी खबर के साथ जगह दी गई थी। 2007 में राष्ट्रपति उम्मीदवारी के दौरान जब हिलेरी क्लिंटन डेमोक्रेटिक पार्टी की सशक्त उम्मीदवार के तौर पर देखी जा रही थी…नेता के तौर पर उनकी काबलियत देखने के बजाय अख़बारों का एक बड़ा तबका ये बातें भी कर रहा था कि कैसे वो महिला की तरह व्यवहार नहीं करतीं और इसलिए महिला वोटर उनसे दूर होती जा रही हैं।
अखबारों के लिए महिलाओं पर हो रहे अत्याचार खबर हैं लेकिन उनकी सुरक्षा के लिए बनाए गए क़ानूनों का ग़लत इस्तेमाल ख़बर नहीं है। मीडिया का एजेंटा सेटिंग थ्योरी का यह रुप भी उतना ही घातक है जितना महिलाओं के विरुद्ध पक्षपात पूर्ण रवैया रखना। ये बात अलग है कि इस मानसिकता के लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका भी ज़िम्मेदार हैं, लेकिन सारा दोष उनपर डाल कर पत्रकारिता अपनी ज़िम्मदारियों से मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि आखिरकार ये सब उनके लिए ख़बर इसलिए है क्योंकि इसके लिए पाठकों का एक वर्ग सदैव तैयार खड़ा रहता है। इसलिए भले ही खबरों के साथ अन्याय हो जाए या अच्छी ख़बरें छूट जाएं
इस दृष्टिकोण का एक विपरीत पहलू भी है। अक्सर अखबार महिला सशक्तीकरण को लेकर पॉलिटिकली करेक्ट होने की धुन में इतने रम जाते हैं कि उन खबरों को अनदेखा भी करने लग जाते हैं जहां उन्हें किसी महिला की गलती या अपराध को उजागर करना हो। जैसे पिछले दिनों दिल्ली की एक ख़बर जहां ट्रैफिक पुलिस के एक सिपाही और एक स्कूटर सवार महिला के बीच हुई मारपीट से सनसनी फैली थी। मामला स्कूटर सवार एक नागरिक का एक ऑन ड्यूटी ट्रैफिस पुलिस से झड़प का था लेकिन ख़बर एक पुलिसवाले की एक महिला के उपर किए गए अत्याचार की बनी। बावजूद इसके कि वीडियो में साफ दिख रहा था कि उस महिला ने भी पुलिसवाले के उपर ईंटों से हमला किया था। निरपेक्षता की बात करने वाले अखबारों का ये दृष्टिकोण भी घातक है।
2003 में निशा शर्मा दहेज उत्पीड़न कांड शायद अभी भी बहुतों के जेहन में हो जहां इस लड़की ने तथाकथित लड़की ने दहेज के नाम पर अपनी बारात लौटा दी और रातों रात तमान अखबारों की सुर्खी बन गईं। ना केवल अखबारों नें उसे तमाम दूसरी लड़कियों के लिए मिसाल बना दिया बल्कि इस साहस के लिए कई राज्य सरकारों ने उन्हें सम्मानित भी किया। यही नहीं सीएनएन इंटरनेशनल ने इस के ऊपर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बनाई। नौ साल चले मुकदमे के बाद अदालत ने उस लड़के और उसके परिवार पर लगे तमाम आरोपों को गलत पाया। दरअसल निशा ने ये सारा खेल इसलिए रचा ताकि उसके परिवार को उसके प्रेम संबंधों के बारे में पता नहीं चले। समस्या यहां ये है कि जब 2003 में ये मामला सामने आया तो मीडिया ने इसे बड़ा मुद्दा बनाकर इस परिवार को समाज का विलेन बना दिया जबकि जब 2012 में अदालत का फैसला आया तो इस ख़बर को ज्यादातर अखबारों में प्रमुखता से जगह नहीं दी गई।
निचोड़ ये कि अखबारों के लिए महिलाओं पर हो रहे अत्याचार खबर हैं लेकिन उनकी सुरक्षा के लिए बनाए गए क़ानूनों का ग़लत इस्तेमाल ख़बर नहीं है। मीडिया का एजेंटा सेटिंग थ्योरी का यह रुप भी उतना ही घातक है जितना महिलाओं के विरुद्ध पक्षपात पूर्ण रवैया रखना। ये बात अलग है कि इस मानसिकता के लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका भी ज़िम्मेदार हैं, लेकिन सारा दोष उनपर डाल कर पत्रकारिता अपनी ज़िम्मदारियों से मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि आखिरकार ये सब उनके लिए ख़बर इसलिए है क्योंकि इसके लिए पाठकों का एक वर्ग सदैव तैयार खड़ा रहता है। इसलिए भले ही खबरों के साथ अन्याय हो जाए या अच्छी ख़बरें छूट जाएं .
यहां ये सवाल भी महत्वपूर्ण है कि मीडिया क्या ये सब केवल पाठकों के प्रति अपने सरोकार के लिए कर रही है? अखबारों की उससे भी ज़रूरी प्रतिबद्धता अपने विज्ञापनों के लिए है। और Gender discourse के मामले में विज्ञापन देने वाली कंपनियां और विज्ञापन एजेंसियां भी निर्धारित मानदंडों से ज्यादा छेड़छाड़ करने से बचती हैं।मुद्रा इन्सटीट्यूट ऑफ कम्यूनिकेशन MICA की एक रिसर्च के मुताबिक 85 प्रतिशत विज्ञापनों में जहां परिवार में एक बच्चे को दिखाया जाता है वहां वो बच्चा लड़का होता है। कॉर्नफ्लेक्स हो, कॉम्प्लान, बॉर्नविटा जैसे हेल्थ ड्रिंक हों..वो सारी ज़रूरतें एक लड़के यानि मेल चाईल्ड की होती है और उन ज़रूरतों को निष्ठा से पूरा मां करती है। महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रह इस क़दर है कि विज्ञापन एजेंसियों के लिए महिलाएं या तो गृहणियां होती हैं या फिर सुपर वुमन जो घर, बाहर सबकी ज़िम्मेदारी एक साथ संभाल रही होती हैं। शारादा स्टीरियोटाईपिंग होती है बल्कि महिला पात्रों का उत्पाद के रुप में इस्तेमाल किया जाता है। शैफर ने अपनी 2006 की किताब Privileging the Privileged-Gender in Indian Advertising में 2000 भारतीय विज्ञापनों के अध्ययन के बाद पाया कि ज्यादातर भारतीय विज्ञापन महिलाओं को लेकर बेहद पक्षपतापूर्ण और संकीर्ण रवैया अपनाते हैं और महिलाओं का उपयोद उत्पाद को बेचने के लिए ग़लत संदर्भ में किया जाता है।
आमतौर ख़बर बनाने में महिलाओं की भागीदारी दो तरह की होती है, एक तो वो जो सामान्य पन्नों पर होती है जिनके पाठक अखबारों के हिसाब से पुरुष होते हैं। यानि पुरुषों को महिलाओं की खबरों से अवगत कराने की कोशिश। ऐसी खबरें मुख्यता महिलाओं के उत्पीड़न से जुड़ी होती हैं जिनका पाठक वर्ग इन खबरों को एक स्टेपल की तरह ग्रहण करने को तैयार रहता है। दूसरे प्रकार की ख़बरें वो जो महिलाओं को प्रेरणा देने के लिए होती हैं जिन्हें महिलाओं के लिए निर्धारित पन्नों में जगह दी जाती है जहां इनके अलावा रसोई और गृह सज्जा जैसी ख़बरें भी होती हैं। महिलाओं की उपलब्धि को मीडिया सामाजिक सुधार और जागरुकता से नहीं जोड़ते बल्कि महिलाओं की जागरुकता से जोड़कर देखते हैं। महिलाओं की कोई भी सफलता केवल महिलाओं के लिए प्रेरणा क्यों बने? पेप्सीको की प्रेसिडेंट इन्दिरा नुई किसी भी मैनेजमेंट ग्रेजुएट के लिए वैसी ही प्रेरणा बन सकती हैं जैसे रोहित बाल किसी भी फैशन डिज़ाईनर के।
प्रेरणा के साथ संभावनाओं का होना भी उतना ही ज़रूरी है। अमेरिकी लोकतंत्र के 235 साल के इतिहास में एक भी महिला राष्ट्रपति नहीं बन पाई। क्या इसका मतलब इस ओर वहां की महिलाओं के लिए प्रेरणा की कमी है? नहीं, क्योंकि महिलाओं के लिए तमाम क्षेत्रों में वहां संभावनाएं हमारे देश से कहीं ज्यादा हैं और बांग्लादेश से तो काफी ज्यादा जहां दो महिला राष्ट्राध्यक्ष रह चुकी हैं महज चालीस साल में। वहीं भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति को आमतौर पर हम प्रेरणा की स्रोत्र के तौर पर नहीं आम लोगों की इस मानसिकता को बदलने की ज़रूरत है जिसके लिए मीडिया को आगे आना होगा। लेकिन इससे पहले मीडिया को अपनी मानसिकता बदलने की ज़रूरत है। अपने उपभोक्ता पाठकों की पसंद के कम्फर्ट ज़ोन से बाहर आने की ज़रूरत है। मीडिया की कल्टीवेशन थ्योरी को नए सिरे से गढ़ने की ज़रूरत है। इस अवधारणा, इस विचारधारा को बदलने में समय ज़रूर लगेगा लेकिन इसकी शुरुआत में देर नहीं की जानी चाहिए।
डॉ. शिल्पी झा वर्तमान में अतिथि व्याख्याता के तौर पर इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय और जागरण इन्सटीट्यूट में सक्रिय। कई रिसर्च पेपर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित। मीडिया अर्थशास्त्र में पीएचडी, भारतीय जनसंचार संस्थान से हिन्दी पत्रकारिता में डिप्लोमा। वॉइस ऑफ अमेरिका की हिन्दी सर्विस में ‘इंटरनेशनल ब्रॉडकास्टर’ के तौर पर काम किया, उसके पहले आजतक और हेडलाइन्स टुडे में बतौर ‘वरिष्ठ बिजनेस संवाददाता’ कार्यरत।
बहुत उत्तम शिल्पी. ऐसे मूल चिंतन जो मिडिया पर प्रश्न उठाते है, उन्हें अखबारों में छ्पना चाहिए. कभी एक अखबार में ऐसा ही कुछ आकलन छपा था पत्रकारों के जातिगत बैक-ग्राउण्ड पर, जात न पूछो पत्रकार की. इसे भी छपना चाहिए. लिखते रहिए. बधाई.