प्रभु झिंगरन |
बनारस का अप्रतिम सौन्दर्य, गंगा-घाट देशी विदेशीे फिल्मकारों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है। फोटोग्राफी की बात करें तो शायद बनारस दुनिया के 2-4 ऐसे शहरों में से एक है जिस शहर और उसकी दिनचर्या पर सबसे अधिक काफीटेबल पुस्तकें/एलबम दुनिया भर में प्रकाशित हो चुकी हैं।
वर्ष 1962 में भोजपुरी फिल्मों की शुरूआत ने बनारस को आंचलिक फिल्म उद्योग के एक बड़े केन्द्र का दर्जा प्रदान कर दिया। बताते चलें कि काशी की सम्पन्न रंगमंच परम्परा तो रही ही है हिन्दी के पहले नाट्य मंचन का श्रेय भी बनारस को ही जाता है, जब वर्ष 1868 में 3 अप्रैल को हिन्दी नाटक ’जानकी मंगल’ का प्रदर्शन बनारस थिएटर (कैन्ट) में किया गया।
वास्तव में भोजपुरी सिनेमा के स्वर्णिम दौर का साक्षी रहा है बनारस शहर क्योंकि क्षेत्रीय भाषा के इस सिनेमाई सफर में लगभग हर दूसरी भोजपुरी फिल्म में बनारस किसी न किसी रूप में शामिल रहा है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा बिहार की जीवनरेखा कही जाने वाली गंगा को शामिल करते हुए एक दो नहीं बल्कि 25 भोजपुरी फिल्मों के नाम रखे गये।
यों तो काशी क्षेत्र की अपनी खास बोली है जिसे ’काशिका’ के नाम से जाना जाता है। लेकिन काशी और आस-पास के वृहद क्षेत्र में भोजपुरी भाषा भी समान रूप से बोली और समझी जाती है। जाहिर है कि भोजपुरी सिनेमा को प्रोत्साहित करने में काशी के कलाकारों एवं रचनाकारों का विशिष्ट योगदान रहा है।
वास्तव में भोजपुरी सिनेमा के उत्थान और पतन की कहानी उतनी ही दिलचस्प है जितनी भोजपुरी सिनेमा के शुरू होने की घटना। वर्ष 1950 में हिन्दी फिल्मों के चरित्र कलाकार नजीर हुसैन की मुलाकात मुम्बई में एक पुरस्कार वितरण समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद से हुई। चर्चा के दौरान राष्ट्रपति ने नजीर हुसैन से पूछा ’क्या आप पंजाबी हैं’?, नजीर हुसैन का जवाब था कि वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के रहने वाले हैं, यह सुनते ही राजेन्द्र बाबू भोजपुरी भाषा में बोले ’तो आप लोग भोजपुरी भाषा में एक फिल्म क्यों नहीं बनाते’, उस वक्त तो नजीर हुसैन ने ’इस उद्योग में कौन पैसा लगाएगा’, जैसे कारण बताते हुए बात को टाल दिया। लेकिन शायद उनके मन के किसी कोने में एक भोजपुरी फिल्म के निर्माण का सपना आकार लेने लगा था जो लगभग बारह वर्ष बाद वर्ष 1962 में एक ऐतिहासिक फिल्म ’गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ के रूप में पल्लवित होकर सामने आया और इसी के साथ एक नये उद्योग ने जन्म लिया-भोजपुरी सिनेमा।
’गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ फिल्म 21 फरवरी 1963 को पटना के सदाकत आश्रम में राजेन्द्र बाबू को समर्पित की गयी और अगले दिन इस फिल्म का सार्वजनिक प्रदर्शन पटना के बीना सिनेमा में शुरू हुआ, तथा इसी के आसपास की किसी तारीख को बनारस के कन्हैया चित्र मंदिर में इस फिल्म का प्रीमियर हुआ जिसे देखने के लिए बनारस के अलावा आसपास के कस्बों और गांवो के लोग टूट पड़े, जिन्हें पुलिस भी काबू न कर सकी।
भोजपुरी भाषा में सिनेमा का उदय न केवल बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल सीमा की तराई से लगे क्षेत्रों के लाखों भोजपुरी भाषियों के लिए कौतुहल मिश्रित उत्साह का वाकया बन गया, बल्कि फिजी, गुयाना, माॅरीशस, नीदरलैण्ड, सूरीनाम, त्रिनिदाद एवं टोबैगो जैसे दूरस्थ स्थानों में सालों पहले जाकर बस गये भारतीय मूल के भोजपुरी बोलने-समझने वालों के लिए भी ताजा हवा के झोंके की तरह था। इतना ही नहीं, मुंबई, कलकत्ता, राजस्थान, दक्षिण भारत में बस गये मेहनतकश भोजपुरियों ने भी खुले मन से भोजपुरी फिल्मों का स्वागत किया, तो सिर्फ इसलिए कि इस सिनेमा के जरिए उन्हें बड़े पर्दे पर अपनी भाषा में अपने गांव की खुशबू, रहन सहन, रीति रिवाज, त्योहार, बोलचाल, परंपरायें, रीति-कुरीति आदि सब देखने को मिले।
भोजपुरी सिनेमा की शुरूआत काफी धीमी रही, क्योंकि प्रारम्भ में मुंबई के बड़े निर्माता-निर्देशकों को ऐसा लगा कि यह क्षेत्रीय सिनेमा कभी पनप नहीं पायेगा। इसीलिए वर्ष 1963 में शुरू हुए इस सफर के बाद के 13 वर्षों में कुल 21 फिल्में ही बन सकीं। लेकिन देखने वाली बात ये है कि प्रारम्भिक दौर की ये सभी फिल्में साफ-सुथरी और पारिवारिक कहानियों पर आधारित थीं और इनमें देसी माटी की महक थी जैसे ’लागी नाहिं छूटे राम’, ’विदेशिया’, ’गंगा’, ’भौजी’, ’हमार संसार, ’बलम परदेसिया’ आदि। लिहाजा इन फिल्मों का दर्शक वर्ग जो बना उसमें समूचा परिवार शामिल था, और यही इस नये उद्योग की ताकत भी थी।
भोजपुरी फिल्मों के प्रारम्भिक दौर में काशी के कलाकार सुजीत कुमार, लीला मिश्रा, नजीर हुसैन, असीम कुमार, कुंदन कुमार, पद्मा खन्ना आदि सहित अनेक लेखकों, गीतकारों और चरित्र कलाकारों ने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई। दिलचस्प प्रसंग यह भी है कि नजीर हुसैन जिन्होंने पहली भोजपुरी फिल्म का सपना देखा, मुंबई में प्रख्यात निर्देशक विमल राॅय के असिस्टेंट के रूप में तो काम कर ही रहे थे, अभिनेता के रूप में उन्होंने विमल राॅय की फिल्म ’देवदास’ में धर्मदास की भूमिका से एक सफल अभिनेता की छवि बना ली थी। बहरहाल ’गंगा मइया……… की स्क्रिप्ट लिख कर नासिर ने विमल राॅय को दे दी जो उस जमाने में महिला आधारित विषयों के जानेमाने निर्देशक थे। विमल राॅय को स्क्रिप्ट पसंद भी आ गई, लेकिन तभी नासिर हुसैन के दिमाग में यह बात आई कि जब ’गंगा जमुना’ जैसी सुपरहिट फिल्म में अवधी भाषा के संवाद कामयाब हो सकते हैं तो यह फिल्म भोजपुरी में क्यों नहीं बन सकती?
उन्होंने विमल राॅय से स्क्रिप्ट वापस मांगते हुए कहा कि वे इस फिल्म को भोजपुरी भाषा में बनाना चाहते हैं। विमल राॅय की प्रतिक्रिया थी-भोजपुरी? विच लैंग्वेज इज दिस?.. हुसैन का उत्तर था ’यह राष्ट्रपति की भाषा है’।
बहरहाल, लेखक निर्देशक गोविंद मुनीस के अनुसार पटना से मुंबई पहुंचे अभिनेता भगवान सिन्हा ने भी भोजपुरी भाषा में फिल्म बनाने की दिशा में काफी काम किया। सिन्हा चेतन आनंद की फिल्म ’हाउस नंबर – 44’ में खलनायक के रूप में ख्याति प्राप्त करके चर्चा में आ चुके थे। भगवान सिन्हा ने बाबू शिवपूजन सहाय की एक कहानी ’एक कहानी का प्लाट’ चुनकर पटना के कलीम राही से स्क्रीन प्ले लिखवाने का काम भी शुरू कर दिया था। फिल्म गोविंद मुनीस को ही निर्देशित करनी थी, लेकिन इस प्रोजेक्ट को कोई फाइनेंसर नहीं मिल सका। (गोविंद मुनीस ने बाद में राजश्री प्रोडक्शन के लिए ’नदिया के पार’ जैसी सुपरहिट फिल्म निर्देशित की और ’गंगा मइया……… में छोटी भूमिका भी की।
भोजपुरी की पहली फिल्म न बन पाती अगर नजीर हुसैन को विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी न मिल गये होते। विश्वनाथ बंधुछपरा गांव पश्चिम बिहार में जन्में एक सफल व्यवसायी थे जिनकी कोयले की खदानें, शराब व्यवसाय, के अलावा धनबाद और गिरीडीह में सिनेमाघर भी थे। विश्वनाथ संयोग से मुंबई के एक स्टूडियो में अपने एक मित्र के साथ ’पागल प्रेमी’ फिल्म की शूटिंग देखने पहुंचे, तो वहां उनकी मुलाकात नजीर से हुई। नजीर ने उन्हें अपनी भोजपुरी फिल्म बनाने की योजना के बारे में बताया और कहा कि अगर आप डेढ़ लाख रूपये लगा सकते हों तो वे फिल्म बना सकते हैं। विश्वनाथ ने कहानी सुनी और इस कदर प्रभावित हुए कि उस समय उनकी जेब में मौजूद दस हजार रूपये निकाल कर उन्होंने नजीर हुसैन के हाथ में रख दिये। अब जरूरत थी एक अच्छे निर्देशक की, बनारस के प्रतिभाशाली निर्देशक कुंदन कुमार को फिल्म के निर्देशन के लिए चुना गया जो ’बडे घर की बहू’ (गीताबाली, अभि भट्टाचार्य) निर्देशित कर चुके थे। फिल्म की नायिका के लिए कुमकुम को मनाया गया और नायक बने बनारस में पले-बढ़े असीम कुमार। फिल्म में कुमारी पद्मा नाम की बालिका और कोई नहीं बनारस की पद्मा खन्ना थीं जो बाद में हिन्दी फिल्म ’जाॅनी मेरा नाम’, ’सौदागर’ और ’उस पार’ से स्टार बन गईं तथा भोजपुरी सिनेमा की असरदार नायिका भी।
वर्ष 1964 में सात भोजपुरी फिल्में बनीं, कई गैर भोजपुरी निर्माता निर्देशक इस दौड़ में कूद पडे़। वर्ष 1983 में 11 भोजपुरी फिल्में आईं। भोजपुरी फिल्मों का अपना एक बड़ा बाजार स्थापित हो चुका था। यहां तक कि शक्ति सामंत जैसे बडे़ निर्देशक ने ’आयल बसंत बहार’ फिल्म बनारस और आसपास शूट कर डाली, पर चूंकि शक्ति न भोजपुरी जानते थे न वहां की संस्कृति से परिचित थे, लिहाजा फिल्म पिट गई। कम ही लोगों को पता होगा कि प्रख्यात निर्माता निर्देशक राजकुमार संतोषी के पिता पी0 एल0 संतोषी ने भी ’सइयां से भइले मिलनवां’ फिल्म निर्देशित की थी।
भोजपुरी फिल्मों का संसार पंख पसार रहा था। वर्ष 1977 में भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म ’दंगल’ प्रदर्शित हुई जिसके नायक थे सुजीत कुमार एवं नायिका थी प्रेमा नारायण। वर्ष 1977 से 2001 तक का भोजपुरी फिल्मों का दूसरा चरण भी शानदार रहा और इस दौरान लगभग 140 फिल्मों का निर्माण हुआ। प्रख्यात पत्रकार और ’सिनेमा भोजपुरी’ पुस्तक के लेखक अविजित घोष के अनुसार वर्ष 2001 के बाद का भोजपुरी सिनेमा का तीसरा दौर व्यावसायिकता प्रधान फिल्मों का दौर कहा जा सकता है जहां ग्रामीण परिवेश के कथानकों के स्थान पर चोरी छुपे अश्लीलता, द्विअर्थी संवाद, एक्शन और कानफोडू संगीत धीरे-धीरे पैर पसारने लगे। भोजपुरी फिल्मों को रातोरात कमाई का आसान जरिया समझा जाने लगा। कम से कम एक कैबरे डांस फिल्मों की अनिवार्यता हो गयी।(पूर्व विश्व सुन्दरी युक्तामुखी के आइटम गर्ल के पदार्पण के साथ इस नई परम्परा की शुरूआत हुई) भोजपुरी फिल्मों के दर्शक धीरे-धीरे दो वर्गों में विभाजित होते गये। एक तो ग्रामीण परिवेश के वे दर्शक जो स्वस्थ मनोरंजन चाहते थे और दूसरा तबका दूर दराज तक फैले ट्रक ड्राईवरों, मजदूरों, कुलियों और रिक्शा चालकों का था जिन्हें सेक्स, फूहड़ काॅमेडी, हिंसा के नाम पर बार बार थिएटर में सीटी बजाने के मौके चाहिए थे। नये भोजपुरी सिनेमा के इस दौर में दर्शकों में से परिवार, खासतौर पर महिलांए दूर होती गयीं जो दर्शक वर्ग का एक बड़ा हिस्सा थीं। एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा। वर्ष 1980 में बनी फिल्म ’गंगा किनारे मोरा गांव’ की अपार सफलता के कारणों का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 10 अप्रैल 1984 को मिर्जापुर जैसी जगह में इस फिल्म के दर्शकों में 90 प्रतिशत महिलाएं थीं। पारंपरिक पारिवारिक दर्शकों ने नये भोजपुरी सिनेमा को नकारना शुरू कर दिया।
वर्ष 2004 में आयी सुपरहिट फिल्म ’ससुरा बड़ा पैसा वाला’ ने भोजपुरी फिल्मों की एक नयी छवि बना कर रख दी। यह फिल्म कुल 30 लाख रुपए की लागत से बनी थी जबकि इसने 9 करोड़ रु. का व्यापार किया। फिल्मों में तरह-तरह के मसाले डालने की होड़ मच गयी और अगले 8 वर्षों के दौरान रिकार्ड 500 फिल्मों का निर्माण तो हो गया लेकिन इनमें से कहानी, अभिनय या संगीत के लिए याद रखी जा सकने वाली फिल्में उंगलियों पर गिनी जा सकती थीं।
नाचघर
बनारस के कैंट क्षेत्र में स्थित बंगला नंबर 25ए-बी को ब्रितानी हुकूमत के दौरान नाचघर या ’बनारस थिएटर’ का नाम अंग्रेज हाकिमों ने दिया था। यही वह ऐतिहासिक स्थल है जहां पर हिन्दी नाटक 3 अप्रैल 1868 को ’जानकी मंगल’ का पहली बार मंचन किया गया था, जिसके लेखक भारतेन्दु जी के मित्र पं0 शीतला प्रसाद त्रिपाठी थे। आज यह थिएटर उपेक्षित पड़ा है तो आश्चर्य नही, परंतु इसकी कहानी दिलचस्प है। वर्ष 1811 में अंग्रेजों ने बनारस कैंट क्षेत्र का सृजन और विस्तार किया, जहां हजारों की संख्या में ब्रितानी अफसर और फौजी रहते थे। कैंट स्थित यह मनोरंजन केंद्र 1.93 एकड़ के क्षेत्र में फैला था जिसका वास्तु प्रख्यात ब्रिटिश वास्तुकार प्रिंसेप ने तैयार किया था। थिएटर का प्रेक्षागृह 111 फुट लंबा और 32 फुट ऊंचा था जो उस दौरान के कलकत्ता के चैरंगी थिएटर के बाद देश का सबसे बड़ा और सुंदर थिएटर माना जाता था।
वास्तव में ’जानकी मंगल’ की प्रथम प्रस्तुति से उत्साहित काशी के रंगमंच प्रेमियों ने बाबू भारतेंदु हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में एक शौकिया नाट्य मंडली का गठन कर डाला और इस मंडली ने बनारस थिएटर या नाचघर में अनेक अन्य हिंदी नाटक भी प्रस्तुत किए। वर्ष 1890 तक यहां पर हिंदी, अंग्रेजी, बंगाली, नाट्य आयोजन होते रहे। वर्ष 1930 में यह बंगला बनारस के औद्योगिक घराने, दास परिवार ने खरीद लिया और उसी के साथ यहां चलती रही सांस्कृतिक गतिविधियों पर विराम लग गया। बंगले के वर्तमान स्वामी के अनुसार छावनी क्षेत्र होने के कारण यहां पर कोई निर्माण आदि नहीं किया जो सकता अतः यह ऐतिहासिक स्थल उपेक्षित पड़ा हुआ है।
शहर के रंगकर्मियों की मानें तो प्रतिवर्ष 3 अप्रैल को यहां पर आधुनिक हिंदी रंगमंच की वर्षगांठ के तौर पर कुछ लोग इकट्ठा होकर सेमिनार आदि की रस्म अदायगी भी करते हैं। कुछ अधूरे प्रयास नाट्य बसुधा ग्रुप, अयोध्या शोध संस्थान, उत्तर प्रदेश और सांस्कृतिक विभाग आदि की ओर से भी हुए लेकिन धरोहरों को सहेजना हम कभी सीख ही नहीं पाये।
वरिष्ठ नाट्य समीक्षक और ’नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा’ के पूर्व व्याख्याता डाॅ0 कुंवर जी अग्रवाल के अनुसार इतना तक तो पता था कि हिंदी का पहला नाटक बनारस में खेला गया, लेकिन स्थान की प्रमाणिक पुष्टि होने की प्रक्रिया में 100 वर्ष लग गये। कुछ लोगों का मानना था कि नाट्य मंचन का स्थान बुलानाला के आसपास का क्षेत्र था जो भारतेन्दु निवास से समीप था। भारतीय रंगमंच के 100 वर्ष पूरे होने पर हुए आयोजन के दौरान बाबू संपूर्णानंद सहित कई विद्वानों ने अनेक मत व्यक्त किये। एक मत यह भी था कि यह स्थान ’बनारस घराना’ के गढ़ रहे कबीरचैरा के समीप था। डाॅ0 अग्रवाल के अनुसार वर्ष 1970 में लंदन स्थित एक पत्रिका¤ के मई 1868 के अंक में इस नाट्य मंचन की समीक्षा मिली, जिससे यह पुष्टि हो सकी कि यह मंचन ’नाचघर’ में हुआ था।
¤उक्त समीक्षा का उल्लेख *Culture and Power in Banaras-Community Performance and Environment 1800-1980 Edited by Sandria B. Freitag पुस्तक के पृष्ठ 82 पर प्रकाशि लेख में मिलता है जिसका प्रकाशन यूनिवर्सिटी आॅफ कैनिफोर्निया प्रेस ने 1992 में किया है।
भोजपुरी फिल्मों के बढ़ते दर्शक वर्ग के चलते एक समय ऐसा भी आया जब अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी और मिथुन चक्रवर्ती जैसी हिंदी फिल्मों की हस्तियों ने भी भोजपुरी फिल्मों की ओर रूख किया।
वस्तुतः दर्शकों की मांग और रूचि के अनुसार लगातार सस्ते समझौते करने वाले प्रोड्यूसरों की एक लंबी लाइन लग गई जो पैसे बनाने की जल्दी में थे। क्षेत्रीय सिनेमा की शुचिता, मौलिकता को बरकरार न रखने के लिए परोक्ष रूप से यह दलील दी जाने लगी कि दक्षिण की फिल्मों में तो भोजपुरी फिल्मों से ज्यादा सेक्स और हिंसा होती है। नये प्रोड्यूसरों का यह भी तर्क था कि समय के साथ पारिवारिक कथानकों का अब कोई भविष्य नहीं रह गया है। ऐसे में भोजपुरी सिनेमा के सामने एक नया संकट उपस्थित हुआ कि उनके साथ पारिवारिक दर्शक नहीं खड़ा था, और इसकी वजह थी नये सिनेमा की विषय वस्तु, निम्नतम घटियापन पर उतर कर किये गये समझौते और सी ग्रेड हिंदी और दक्षिण फिल्मों से चुराया और उड़ाया गया कथानक। जबकि सच तो यह है कि घटिया अश्लीलता और द्विअर्थी संवादों के बगैर भी भोजपुरी सिनेमा जिंदा रह सकता था। एक और बड़ी वजह रही है फिल्मों की घटिया तकनीकी गुणवत्ता। जल्दी से जल्दी फिल्म पूरी कर लेने के गणित के चलते ज्यादातर भोजपुरी फिल्में तकनीकी तौर पर बेहद कमजोर नजर आयेंगी। संपादन, छायांकन, प्रकाश, संगीत, अभिनय आदि को लेकर बहुत कम व्यावसायिक सोच अपनाई गई क्योंकि इन सबकी ज़रूरत नहीं समझी गई।
‘गंगा’ भोजपुरी सिनेमा में
गंगाघाट, गंगा सरयू, गंगा मइया भर द अचरवा हमार, गंगा किनारे मोरा गांव, गंगा मइया तोहार किरिया, दुल्हा गंगा पार के, गंगा की बेटी, गंगा हमार माई, गंगा जैसी भौजी हमार, गंगा ज्वाला, गंगा आबाद रखिह सजनवा के, गंगा मइया करादे मिलनवा हमार, गंगा और गौरी, गंगा के तीरे-तीरे, गंगा मइया भर दे गोदिया हमार, गंगा के पार सइयां हमार, आशीष गंगा मइया के, गंगा मिले सागर से, गंगा तोहार पानी अमृत, गंगा, गंगा मइया तोहे चुनरी चढ़इबो।
भोजपुरी फिल्मों की गोल्डन जुबली के मौके पर इंडिया टुडे की आवरण कथा के ये अंश गौरतलब हैं – पांच दशक बीत जाने के बाद भी भोजपुरी सिनेमा जीवित है और 50 से 100 फिल्में प्रतिवर्ष बन भी रही हैं परन्तु उनमें से ज्यादातर फिल्में सस्ते गीतों, द्विअर्थी संवादों और आइटम नंबर के चलते अश्लील होती हैं। यहां तक कि कुछ फिल्मों के शीर्षक तक बेहद आपत्तिजनक होते हैं।
फिल्में अब भी बन रहीं हैं, आगे भी बनती रहेंगी लेकिन इनका दर्शक वर्ग एक खास मानसिकता तक सिमट कर रह गया है जिसे ’सीटी बजाऊ’ उत्तेजनात्मक मनोरंजन चाहिए और इस एक तबके की मांग पूरी करने के लिए निर्माता हर संभव समझौते करने को तैयार हैं। कानफाड़ू शोर में भोजपुरी की पुरबिया मिठास खो गई है।
अब भोजपुरी फिल्मकार बनारस का रूख नहीं करते, क्योंकि अब वो बनारस भी तो कहीं गुम हो गया!
प्रभु झिंगरन, वरिष्ठ मीडिया समीक्षक, संपर्क: Mediamantra2000@gmail.com
प्रभु झिंगरन भारतीय दूरदर्शन पर ‘तीसरी आंख’ कार्यक्रम के माध्यम से अन्वेषणात्मक पत्रकारिता का सूत्रपात करने वाले प्रभु झिंगरन पिछले 30 वर्षों से प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय हैं। दैनिक ‘आज’ से अपना कैरियर शुरू करने वाले श्री झिंगरन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के प्रथम सत्र के स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं। सन् 1975 ई0 में काशी छोड़ने के बाद श्री झिंगरन ने समाचार-पत्र, आकाशवाणी, दूरदर्शन, शैक्षिक दूरदर्शन के रचनात्मक और वरिष्ठ प्रशासकीय पदों पर रहते हुए विशद और विविध अनुभव प्राप्त किया। टेलीविजन माध्यम को एक नई देशज भाषा और मौलिक शैली देकर अपनीएक अलग पहचान बनाई। ‘तीसरी आंख’ की शैली, प्रस्तुती और निर्देशन के लिए उन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हुए। इसके अलावा लगभग 2000 से अधिक कार्यक्रमों, वृत्तचित्रों और टेलीविजन रूपकों का निर्माण और निर्देशन, पटकथा लेखन और संचालन करने का वृहद् अनुभव श्री झिंगरन को है।
वाराणसी में 12 अगस्त 1953 ई0 को जनमें श्री झिंगरन ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर और पेंटिंग में 2 वर्षीय डिप्लोमा के उपरांत, इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ फिल्म एण्ड टेलीविजन तथा इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन से विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किया। वे प्रतिनियुक्ति पर भारत सरकार के प्रतिष्ठान शैक्षिक तकनीकी संस्थान (उ0 प्र0) के 3 वर्ष तक निदेशक भी रहे। उनके कार्यकाल में शैक्षिक तकनीकी संस्थान को देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थान तथा दूरदर्शन केनद्र को देश के सर्वोतम केन्द्र का सम्मान भी मिला। सन् 2003 ई0 में उनके द्वारासंपादित दूरदर्शन गृह-पत्रिका, ‘दृष्टी-सृष्टि’ को सूचना संत्रालय द्ववारा द्वितीय श्रेष्ठ पत्रिका के सम्मान से पुरस्कृत किया गया। इसी वर्ष आपने मलेशिया में एशिया पैसफिक ब्राडकास्टिंग यूनियन द्वारा आयोजित ‘नई सूचना तकनीक’ में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
श्री झिंगरन अनेक राष्ट्रीय मीडिया शिक्षण संस्थानों से प्रशिक्षक, सलाहकार और अतिथि व्याख्याता के रूप में जुड़े हैं। उनकी पुस्तक ‘टेलीविजन की दुनिया’ को सन् 2001 ई0 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘बाबूराव विष्णुराव पराड़कर’ सम्मान प्राप्त हुआ। सन् 2005 ई0 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘मीडिया शब्दावली’ कई शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में शामिल है। आपकी अंग्रेजी पुस्तक ‘फिल्म एण्ड सिनेमैटोग्राफी- हैंडबुक’ भी है। उक्त हैंडबुक श्रृंखला के 3 भाग- ‘रेडियो एण्ड टीवी’, ‘प्रिंट जर्नलिज्म’ तथा ‘पी आर एण्ड एडवरटाइजिंग’ है।