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Home Contemporary Issues

कम होती लड़कियां और मीडिया रिपोर्टिंग

कम होती लड़कियां और मीडिया रिपोर्टिंग

अन्नू आनंद।

पिछले करीब पांच दशकों से लड़कियों के घटते अनुपात के मसले पर कवरेज का सिलसिला जारी है। 80 के दशक में अमनियोसेंटसिस का इस्तेमाल लिंग निर्धारण के लिए शुरू हुआ तो अखबारों में इस तकनीक के दुरूपयोग संबंधी खबरें आने लगी। इससे पहले देश के कुछ विशेष हिस्सों में जन्मते ही लड़की को विभिन्न तरीकों से मारने के क्रूर प्रचलन के संदर्भ में भी कुछ अख़बारों संबंधित ख़बरों का प्रकाशन होता रहा। 1991 की जनगणना ने जब लड़कियों के घटते अनुपात का खुलासा किया तो देश के विभिन्न हिस्सों खासकर पंजाब, हरियाणा, पश्चिम बंगाल में लिंग निर्धारण करने वाले क्लीनिकों का भंडाफोड़ करते हुए इंडियन एक्सप्रेस, टेलीग्राफ, ट्रिब्यून, नवभारत टाइम्स और अमर उजाला, दैनिक जागरण सहित कई क्षेत्रीय अख़बारों ने लिंग जांच की समस्या पर फोकस करते हुए कई रिपोर्टें प्रकाशित कीं।

लिंग निर्धारण पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून की मांग को लेकर चल रहे अभियान पर कुछ समाचारपत्रों जैसे अंग्रेजी के हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस और हिंदी के जनसत्ता, अमर उजाला ने निरंतर कवरेज दी। देश में प्रजनन तकनीकों का दुरूपयोग किस प्रकार लड़कियों के प्रति नफरत में बदल रहा है इस संदर्भ में विभिन्न अखबारों में प्रकाशित बड़े-बड़े फीचरों ने नीति निर्माताओं और स्वास्थ्य अधिकारियों को झकझोरने का काम किया।

1991 के बाद से आने वाली हर जनगणना और नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे और कई अध्ययन समाज की अंदरूनी जड़ों तक समाई पुरुष प्रधान सोच के चलते लड़कियों के साथ होने वाले अन्याय और उपेक्षा का खुलासा करते रहे। यह सभी खुलासे मीडिया के लिए खुराक बने और उन्होंने लिंग चयन के आधार पर लड़की के भ्रूण को गिराने की प्रवृत्ति पर जन जागरण अभियान खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई। 90 के दशक में दिल्ली के कुछ क्लीनिकों में कुछ समाचारपत्रों की महिला रिपोर्टरों ने गर्भवती महिला का रूप धारण कर भ्रूण के लिंग की जांच करने वाले कई क्लीनिकों का भंडाफोड़ किया।

इलेक्ट्रोनिक मीडिया की शुरुआत के बाद ‘स्टिंग आपरेशन’ द्वारा राजस्थान और उत्तर प्रदेश में भ्रूण की जांच कर लड़की के भ्रूण को खत्म करने वाले कई डॉक्टरों और क्लीनिकों के धंधे का पर्दाफाश किया गया। चैनलों द्वारा दिखाए गई इन रिपोर्टों के कुछ हद तक सार्थक परिणाम भी नजर आये। कुछ क्लीनिकों को बंद भी किया गया।

मई 2012 में बहुचर्चित टीवी कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते’ के पहले एपिसोड को देश में निरंतर कम होती लड़कियों पर फोकस किया गया। इस कार्यक्रम का तत्काल असर यह हुआ कि राजस्थान के मुख्यमंत्री ने राज्य में लिंग की जांच करने वाली क्लीनिकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की हिदायत दी।

लेकिन अप्रैल 2013 को बाल लिंग अनुपात पर जारी जनगणना 2011 के आंकड़े गवाह हैं कि लड़कियों के साथ असमानता और उपेक्षा कासिलसिला अभी भी जारी है। सुधार की अपेक्षा अभी भी अनुपात में गिरावट की प्रवृत्ति अधिक दिख रही है। यह आंकड़े साफ़ चेतावनी दे रहे हैं कि लड़कियों के प्रति समाज की सोच अभी भी जंग खाई है और समानता और संतुलन पैदा करने के लिए हर स्तर पर अधिक सक्रियता की ज़रूरत है।

ऐसी स्थिति में मीडिया की भूमिका और भी बढ़ जाती है। मीडिया में विस्तार के साथ इस प्रकार के मुद्दे की कवरेज भी बढ़ी है लेकिन सही, सटीक और संवेदनशील रिपोर्टिंग की जरूरत अधिक है। इस प्रकार के संवेदनशील मसले पर लिखने के लिए ‘स्पष्टता’ और ‘शब्दावली’ महत्वपूर्ण बिंदू हैं। इन की अनदेखी करने से भ्रम और गलत संदेश फैलने की संभावना बढ़ जाती है। उदारहण के लिए एमटीपी एक्ट यानी गर्भपात के कानून में साफ लिखा है कि किसी भी महिला को निश्चित समय तक गर्भपात कराने का अधिकार है लेकिन मीडिया में निरंतर ‘भ्रूणहत्या’ शब्द के इस्तेमाल से यह भ्रम फैलने लगा है कि ‘सुरक्षित गर्भपात’ और ‘लिंग जांच आधारित गर्भपात’ में कोई अंतर नहीं है। क्योंकि जो महिला सुरक्षित गर्भपात कराती है वह भी एक प्रकार से भ्रूण की हत्या है। मीडिया में ‘भ्रूण हत्या’ और ‘पाप’ जैसे शब्दों ने सुरक्षित गर्भपात पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।जबकि हकीकत में लिंग चयन के बाद भ्रूण को गिराना अपराध है। इस विषय पर लेखन के समय ऐसी शब्दावली को अपनाना ज़रूरी है जिस से पीसीपीएनडीटी एक्ट को लागू करने की महत्ता का जिक्र गर्भपात के कानून (एमटीपी एक्ट) के उद्देश्य को निरर्थक न बना दे।

अखबारों और चैनलों में अक्सरइस विषय से संबंधित रिपोर्ट में महिलाओं की नाकारात्मक छवि प्रस्तुत की जाती है।कुछ समय पहले जब लड़कियों के भ्रूण कचरे के ढेर, नाली या सड़क किनारे पाए जाने की घटनाएं मीडिया में उजागर हुई तो कुछ खबरों की हेडलाइंस इस प्रकार थी जैसे कि लड़की के भ्रूण को गिराने का सारा दोष महिला का हो। उस समय प्रकाशित हुई कुछ समाचारों के शीर्षक इस प्रकार थे।

‘जन्म देकर छोड़ गई मां’
‘ममता तार-तार हुई’
‘ममता का निर्दयी चेहरा’
‘बेरहम मां ने कन्या भ्रूण कचरे में फेंका’

हेडलाइंस इस प्रकार की न हो जिसे पढ़कर ऐसा आभास हो जैसे बेटी के भ्रूण को गिराने या लिंग चयन करने का पूरा फैसला मां का हो या फिर वास्तविक दोषी वही है।

जयपुर की संस्था विविधा की रेणुका पामेचा के मुताबिक लिंग चयन आधारित भ्रूण गिराने में केवल मां ही कसूरवार नहीं होती। किन स्थितियों और किन दबावों में उसे यह फैसला लेने में मजबूर होना पड़ा। उस हकीकत के विवरण के बिना महिलाओं के लिए ऐसे शब्दों और विशेषणों के इस्तेमाल से मीडिया को बचना होगा। दिल्ली की सेंटर फॉर एडवोकेसी एंड रिसर्च संस्था की प्रमुख अखिला शिवदास के मुताबिक अक्सर टीवी चैनल मुद्दे की गंभीरता को बताने के लिए ‘खौफ’ का सहारा लेते हैं जिससे घटना की सवेंदनशीलता खत्म हो जाती है और स्टोरी सनसनी फैलाने का काम करती है। उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य के मुद्दे पर लंबे समय से काम कर रही संस्था ‘वात्सल्य’ की प्रमुख नीलम सिंह मीडिया में अक्सर ‘भ्रूण हत्या’ के शब्द के इस्तेमाल को गलत ठहराती हैं। उनके मुताबिक महिलाएं जब किन्ही चिकत्सीय कारणों से गर्भपात कराती हैं तो उसे भ्रूण को गर्भ में खत्म करना होता है। लेकिन यह हत्या नहीं इसका उसे कानूनी अधिकार है। लेकिन ‘फीमले फिटिसाइड’ या ‘भ्रूण हत्या’जैसे शब्द गलत भावना को व्यक्त करते है और सुरक्षित गर्भपात के उद्देश्य को विफल बनाते हैं। इसलिए लिंग जांच के बाद लड़की के भ्रूण को खत्म करने के सन्दर्भ में लिंग चयन गर्भपात’ या फिर ‘लिंग चयन आधारित गर्भपात’ का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

बच्चों से जुड़ी घटनाओं की रिपोर्टिंग के लिए दिशा-निर्देश

न्यूज़ ब्राडकास्टरर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने बच्चों से जुड़ी ख़बरों के प्रसारण के लिए सभी चैनलों के लिए कुछ दिशा निर्देश बनाये हैं। जो इस प्रकार हैं।

1. समाचार प्रसारकों को ऐसे समय पर जब बच्चे आमतौर पर टेलीविजन देखते हैं, वैसी सामग्रियों का प्रसारण नहीं करना चाहिए जिनसे बच्चे विचलित या भयभीत हो जाएं अथवा उनके मनोविज्ञान पर हनिकारक असर पड़े।

2. अन्य समय पर ऐसी सामग्रियों का प्रसारण करने पर प्रसारक (ब्राडकास्टर्स) को माता-पिता के लिए समुचित सलाह, चेतवानी एवं विषय के प्रकार (वर्गीकरण) का स्पष्ट रूप से उल्लेख करना चाहिए। समाज विरोधी व्यवहार, घेरलु झगड़े, मादक द्रवों के सेवन, धूम्रपान, शराब सेवन, हिंसा, बुराइयों अथवा भयावह दृश्यों, यौन विषयों,आक्रामक या भद्दी भाषा अथवा वैसी अन्य सामग्री नहीं दिखानी चाहिए जिससे बच्चे विचलित या भयभीत हो सकते हैं या उनके मनोविज्ञान पर गहरा असर पड़ सकता है या उन्हें मानसिक सदमा पहुँचने की संभावना हो।

3. मीडिया को यह सुनिचित करना होगा की बलात्कार, अन्य यौन अपराधों, तस्करी, मादक पदार्थों/मादक द्रव्यों के सेवन, पलायन, संगठित अपराधों, सशस्त्र संघर्षों में इस्तेमाल बच्चे, कानून के साथ संघर्ष में बच्चे और गवाहों आदि से जुड़े बच्चों की पहचान गोपनीय होनी चाहिए।

4. बच्चों से संबंधित किसी भी विषय या मुद्दे का प्रस्तुतिकरणसनसनीखेज़ न हो, किसी सनसनीखेज रिपोर्ट का बच्चों पर प्रतिकूल प्रभाव के प्रति मीडिया अपनी जिम्मेदारी समझे और इसके प्रति जागरूक रहे।

5. मीडिया सुनिचित करे कि किसी बच्चे की पहचान किसी भी तरीके से उजागर नहीं हो, बच्चे से जुड़ी कोई भी जानकारी जैसे कि व्यक्तिगत जानकारी, तस्वीर, स्कूल/संस्था/इलाके और उनके आवासीय/परिवार से जुड़ी कोई जानकारी आदि उजागर नहीं हो।

6. बच्चे की पहचान को बचाने के लिए मीडिया को यह सुनिचित करना होगा कि यदि कोई चित्र जिससे बच्चे का चेहरा प्रसारित हो रहा हो तो वह पूरी तरह मोर्फड होना चाहिए।

7. बच्चों से संबंधित ब्रोडकास्टिंग, रिपोर्टिंग, पब्लिशिंग, न्यूज, प्रोग्राम आदि बनाते समय मीडिया ये जरूर सुनिचित करे कि बच्चों के निजता के अधिकार की सुरक्षा हो।

अन्नू आनंद : विकास और सामाजिक मुद्दों की पत्रकार। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया बेंगलूर से केरियर की शुरुआत। विभिन्न समाचारपत्रों में अलग अलग पदों पर काम करने के बाद एक दशक तक प्रेस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विकास के मुद्दों पर प्रकाशित पत्र ‘ग्रासरूट’ और मीडिया मुद्दों की पत्रिका ‘विदुर’ में बतौर संपादक। मौजूदा में पत्रकारिता प्रशिक्षण और मीडिया सलाहकार के साथ लेखन कार्य।

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