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‘डाउन टू अर्थ वीआईपी’ : देवकीनंदन पांडे

‘डाउन टू अर्थ वीआईपी’ : देवकीनंदन पांडे

उमेश जोशी।

देवकीनंदन पांडे समाचार प्रसारण जगत का एक ऐसा नाम है जो कई दशक तक हर किसी की जुबान पर था। चाहे वो कितना ही बड़ा नेता हो या अभिनेता, जनसाधारण की तो बिसात ही क्‍या। 1990 तक किसी भी भारतीय ने दुनिया की बड़ी घटना का कोई समाचार अगर कभी आकाशवाणी पर सुना होगा तो उसे देवकीनंदन पांडे की खनकदार, गरजदार और रौबीली आवाज सुनने का सौभाग्‍य जरूर मिला होगा।

उनकी शौहरत मैने देखी है। 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान गांव में एकमात्र रेडियो पर रात का बुलेटिन सुनने के लिए पूरा गांव इकट्ठा होता था। जब मै बहुत छोटा था, खबर तो नहीं समझता था लेकिन उनकी जादुई आवाज का करिश्‍मा समझने लगा था। जब रेडियो से जुड़ा तो उनके करीबियों से बहुत कुछ सुना। समाचार प्रसारण जगत में पांडे जी का नाम, शोहरत, कद, हैसियत आप कुछ भी कहें, जो था, उस पर लिखना बूते से बाहर है। पर, इतना जरूर महसूस करता हूं कि इस सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्‍चन की आवाज को मापने के लिए पांडे जी ही एक पैमाना हो सकते हैं यानी पैमाना यह हो सकता है कि अमिताभ बच्‍चन फिल्‍म उद्योग के देवकीनन्‍दन पांडे हैं।

देवकीनंदन पांडे बहुमुखी प्रतिभा के धनी जरूर थे लेकिन बेहद सरल और सहज थे। सरलता और सहजता उनके व्‍यक्तित्‍व का सबसे ताकतवर पक्ष था। एक साधारण-सा कुर्ता और ढीलाढाला पाजामा और चप्‍पल उनकी स्‍थायी पोशाक थी।

सर्दियों में ऊपर काली अचकन और पैरों में चप्‍पल के बजाय कभी-कभार सैंडिल पहन लेते थे। आकाशवाणी भवना जाना हो, किसी वीआईपी से मिलना हो (वैसे तथाकथित वीआईपी भी उन्‍हें ही वीआईपी मानते थे) या शादी समारोह में जाना हो, यही पोशाक र‍हती थी। सर्दी जब प्रस्‍थान कर रही होती थी और गर्मी हौले हौले कदम बढ़ा रही होती थी तो भी बदले मौसम के मुताबिक ऊनी कपड़ा नही बदलते थे। वे सिर्फ अपनी बचकन के बटन खोलते थे।

एक बार बहुत वरिष्‍ठ समाचार वाचक ने भरे न्‍यूजरूम में उनकी 25 साल पुरानी अचकन पर तंज भी कर दिया था लेकिन पांडे जी में गजब की सहनशीलता थी। कभी मजाक का बुरा नहीं मानते थे। यही वजह थी कि पांडे जी भी सभी के साथ खुलकर मजाक करते थे। उनके मजाक का कोई बुरा नहीं मानता था। मखौलिया माहौल बनाने में पांडे जी के साथ जुगलबंदी करते थे समाचार वाचक जयनारायण शर्मा।

देवकीनंदन पांडे ने वीआईपी होते हुए भी कभी वीआईपी जैसा जीवन नहीं जिया। माफ करना मुझे अंग्रेजी के मुहावरे का सहारा लेना पड़ रहा है। यूं कह सकते हैं कि पांडे जी ‘डाउन टू अर्थ’ थे, साथ में चाहें तो वीआईपी भी जोड़ सकते हैं यानी वे ‘डाउन टू अर्थ वीआईपी’ थे।

एक बड़ा रोचक किस्‍सा है। स्‍टाफ आर्टिस्‍ट एसोसिएशन का प्रतिनिधिमंडल समाचार वाचक अशोक वाजपेयी के नेतृत्‍व में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने गया। वाजपेयी जी स्‍टाफ आर्टिस्‍ट्स की समस्‍याओं का ब्‍योरा इंदिरा जी को दे रहे थे। इंदिरा जी की नजरें फाइल पर टिकी थीं। वाजपेयी जी ने परिचय करवाने के लिए जैसे ही पांडे जी का नाम लिया वैसे ही इंदिरा जी ने नजरें उठाई और पांडे जी की तरफ देख कर कहा- तो आप हैं देवकीनंदन पांडे। यह था पांडे जी का कद।

हम उनके जीवन से जुड़े ऐसे ही छोटे छोटे किस्‍सों में उनका बड़प्‍पन खोजते हैं। अब तक जो बताया उससे अलग हट कर आपको न्‍यूजरूम वाले पांडे जी के पास लेकर चलता हूं, जहां उनकी सिर्फ प्रतिभा दिखाई देगी। देवकीनंदन पांडे बीए पास करने के बाद 1943 में लखनऊ चले गए थे। वर्षों पहले ‘जनसत्‍ता’ के लिए किए इंटरव्‍यू में उन्‍होंने बताया था कि 1944 में लखनऊ केंद्र में एनाउसंर और ड्रामा आर्टिस्‍ट के तौर पर काम शुरू किया था। तब से वह लगातार आकाशवाणी की सेवा से जुड़े रहे। वॉयस ऑफ अमेरिका से आफर मिला लेकिन ठुकरा दिया। 1948 में आकाशवाणी में हिंदी समाचार सेवा प्रभाग बनाया गया। समाचार वाचकों का चयन किया जाना था।

करीब तीन हजार उम्‍मीदवारों में उनकी आवाज और वाचन शैली को पहला स्‍थान मिला। तभी चयनकर्ताओं को एहसास हो गया होगा कि यह आवाज आकाशवाणी की पहचान बनेगी और देश की जनता के दिलों में रच-बस जाएगी। न्‍यूजरूम में उनकी मौजूदगी का एहसास इधर-उधर से उठने वाले ठहाकों से होता था। उन ठहाकों से न्‍यूजरूम के बाहर खड़ा व्‍यक्ति भी समझ जाता था कि पांडे जी अंदर हैं। वे बेहद विनोदप्रिय थे। न्‍यूजरूम में उस वक्‍त दिग्‍गज समाचार वाचक और संपादक हुआ करते थे। अनादि मिश्र, रामानुज प्रसाद सिंह, कृष्‍ण कुमार भार्गव, मनोज मिश्र, राजेंद्र अग्रवाल, जयनारायण शर्मा, इंदु वाही, विनोद कश्‍यप जैसे समाचार वाचकों से न्‍यूजरूम गौरवान्वित होता था। ओपी दत्‍ता, त्रिलोकी नाथ, केके पंत, राजेंद्र धस्‍माना, सुभाष सेतिया जैसे बेजोड़ संपादक होते थे। लेकिन इनमें से कोई भी पांडे जी के निशाने से बच नहीं पाते थे। उन्‍हें बोझिल माहौल कतई पसंद नहीं था। इसके बावजूद वो पूरी तैयारी के साथ स्‍टूडियो जाते थे। कभी क्‍वालिटी से समझौता नहीं किया। वे बुलेटिन एक बार पढ़ते जरूर थे लेकिन रिहर्सल कभी नहीं करते थे।

उनके व्‍यक्तित्‍व का एक और दिलचस्‍प पहलू बता रहा हूं। वो अपने पास कभी कलम नहीं रखते थे। स्‍टूडियो में बुलेटिन पढ़ते समय दाहिने हाथ का अंगूठा और पहली उंगली इस तरह करीब लेकर आते थे मानो कलम पकड़ी हुई हो। उसके बाद हवा को हाथ में इस तरह हिलाते थे जैसे बुलेटिन पर कलम से मार्किंग करते हैं। शुरू में बड़ा से बड़ा संपादक पांडे जी का नाम और रूतबा देख कर घबरा जाता था कि स्‍टूडियो में उनके साथ खड़े होकर बुलेटिन कैसे पढ़वाएं। एक-दो बार पढ़वाने के बाद सभी संपादक सबसे ज्‍याद सहजता उनके साथ ही महसूस करते थे। साथ ही बेफिक्र भी रहते थे। वो जानते थे कि पांडे जी बहुत पढ़ने-लिखने वाले समाचार वाचक हैं इसलिए कभी कोई तथ्‍यात्‍मक भूल नहीं जाने देंगे। आकाशवाणी में तथ्‍यों, भाषा और उच्‍चारण पर सबसे ज्‍यादा ध्‍यान दिया जाता था। आज भाषा और उच्‍चारण तो खत्‍म हो गए लेकिन तथ्‍यों का महत्‍व बरकरार है। ऐसी पेशेवर संस्‍कृति वाला न्‍यूजरूम बनाने में पांडे जी की अहम भूमिका रही है।

आकाशवाणी के बेहद काबिल संपादकों में से एक त्रिलोकी नाथ ने पांडे जी के प्रोफेशनलिज्‍म से जुड़े दो रोचक किस्‍से सुनाए। किस्‍सा नंबर एक, क्रिकेट मैच में पहली पारी में भारत का स्‍कोर 291 रन था लेकिन अंक इधर-उधर होने से स्‍केार 219 लिखा गया। पांडे जी दो बजे का बुलेटिन पढ़ रहे थे। वे स्‍कोर पढ़ने से पहले थोड़ा रूके और सही स्‍कोर पढ़ कर आगे बढ़ गए। आईटम खत्‍म होने के बाद फेडर बंद किया और कहा- भूतनी के चेक तो कर लेते।

पांडे जी जिनके प्रति अति स्‍नेह रखते थे उन्‍हें प्‍यार से डांटने के लिए ‘भूतनी के’ शब्‍द इस्‍तेमाल करते थे। इसके बाद उसी सहजता से अगला आइटम पढ़ने लगे। किस्‍सा नंबर दो। फलस्‍तीन के यासिर अराफात की खबर आई। तुरंत पढ़वानी थी। खबर आधी टाइप हो पाई थी। संपादक यह सोच कर स्‍टूडियो चला गया कि जब पांडे जी दूसरी खबरें पढ़ रहे होंगे उस वक्‍त यह अधूरी खबर वहीं पूरी कर दूंगा। अधूरा वाक्‍य इस तरह था- इस बारें में पूछे जाने पर यासिर अराफात ने…. आगे कुछ नहीं लिखा था। किसी वजह से खबर पूरी नहीं हो पाई और पांडे जी को पढ़ने के लिए दे दी।

लेकिन पांडे जी ने बिना रूके अधूरे वाक्‍य को बड़ी सहजता से पूरा कर दिया यह कहते हुए कि यासिर अराफात ने कुछ भी स्‍पष्‍ट कहने से इनकार कर दिया। ऐसा इसलिए संभव हुआ कि देश-विदेश की हर तरह की खबर से अपडेट रहना उनकी आदत में शुमार था। उनके प्रोफेशनलिज्‍म की बात चली है तो यिह बताना भी जरूरी है कि उन्‍होंने समाचार पढ़ने की अपनी रफ्तार ना बढ़ाई और का कभी घटाई। संपादकों को हमेशा लालच रहता है कि थोड़ी-सी स्‍पीड़ बढ़ा दी जाय तो एक आइटम और पढ़वाया जा सकता है। पांडे जी कहा करते थे कि न घास काटूंगा और ना ही एटलस साईकिल बेचूंगा।

उनके विचारों में पूरी तरह स्‍पष्‍टता थी। कहते थे- अगर भारत मैच जीत गया तो अति उत्‍साह में समाचार क्‍यों पढूं। समाचार वाचन के बारें में एक बेहतरीन गुर बताते थे जो आज 99.9999 फीसदी समाचार वाचकों और एंकरों को नहीं मालूम होगी। वो कहते थे कि एक चुटकी बजाओं उतना समय दो वाक्‍यों के बीच देना चाहिए। दो चुटकी जितना समय दो पैराग्राफ और तीन चुटकी जितना समय दो खबरों के बीच देना जरूरी है।

उनका कहने का अभिप्राय यह था कि भागवत कथा और समाचार वाचन में अंतर रखने के लिए इस नियम का पालन आवश्‍यक है। वे खुद इस नियम में बंधे रहे इसलिए उनकी वाचन की रफ्तार हमेशा एकसार रही। शुरू में ही कह चुका हूं कि देवकीनंदन पांडे में बहुमुखी प्रतिभा थी। 1944 में लखनऊ केंद्र से एनाउंसर और ड्रामा आर्टिस्‍ट के तौर पर जुड़े थे। उनके कालेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर विशंभर दत्‍त भटट ने उन्‍हें रंगमंच के लिए बहुत प्रोत्‍साहित किया।

उन्‍होंने अल्‍मोड़ा में कई दर्जन नाटकों में भाग लिया। वहां से उनकी अभिनय क्षमता भी सामने आई। रेडियो के भी बहुत उम्‍दा ड्रामा आर्टिस्‍ट थे। कई रेडियो नाटकों में भाग लिया। उन्‍हें लोकप्रिय टीवी सीरियल ‘तमस’ और फीचर फिल्‍म ‘आधारशिला’ में अपने अभिनय के जलवे दिखाने का मौका मिला। फिल्‍म आधारशिला में उन्‍होंने उस वक्‍त के एक बड़े नाम नसीरूद्दीन के साथ काम किया लेकिन कहीं भी उनका अभिनय नसीर के सामने फीका नहीं लगा। ‘आधारशिला’ की काफी शूटिंग (खास तोर से पांडे जी वाले हिस्‍सों मे) उनके सरकारी आवास डी-II/13 ईस्‍ट किदवई नगर में ही हुई थी। प्रॉडयूसर अमरजीत कम बजट की फिल्‍म बना रहे थे। उनके पास सेट लगाने के लिए पैसे नहीं थे। फिल्‍म में पांडे जी की लाइब्रेरी भी दिखी है। उसे देख कर आप समझ जाएंगे कि उनकी पढ़ने-लिखने में कितनी गहरी रूचि थी।

वे बेहद संतोषी थे। वे चाहते वायस ओवर कर कितना ही पैसा कमा सकते थे लेकिन हमेशा अपने सिद्धांतों पर रहे। वे कहते थे कि सरकार इस आवाज का पैसा देती है इसलिए सरकार की सेवा में ही इस्‍तेमाल होगी। ये आवाज लालाओं को लाभ दिलाने के काम नहीं आ सकती।

आजकल के ब्राडकास्‍टर्स में ये सिद्धान्‍त कहां हैं। उन्‍होंने फिल्‍म में काम किया लेकिन मेहनताने की अपेक्षा नहीं की। प्रॉडयूसर अमरजीत उनके एक्‍टर बेटे सुधीर का हवाला देकर आए थे इसलिए काम करने के लिए हां कह दी। जब मेहनताना नहीं मिला तो कोई भी मलात नहीं हुआ। इस बात का जिक्र अपने बहुत करीबी लोगों के बीच एक-दो बार ही किया। वो भी प्रसंगवश, जब उनसे खासतौर से पूछा गया कि फिल्‍म से कितने पैसे मिले। उनका लेखन पक्ष भी काफी मजबूत था। उन्‍होंने कुमाऊं पर एक किताब ‘कुमाऊं- ए परस्‍पेक्टिव’ लिखी।

उनकी सरलता, सहजता और सपाट बयानी में कुमाऊं की संस्‍कृति हमेशा झलकती थी। उनके चेहरे की मासूमियत जो लोगों को उनसे गहराई से जोड़ती थी, वो आज भी आंखों के सामने आ जाती है और ऐसा एहसास होता है मानो कानों में उनकी रौबीली और गर्जदार आवाज आएगी- ये आकाशवाणी है। अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिए।

साभार: प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के प्रकाशन ” The Scribes World सच पत्रकारिता का”. लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के सदस्य हैं।

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