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भाषा की बधिया वक्‍त के सामने बैठ जाती है

भाषा की बधिया वक्‍त के सामने बैठ जाती है

कुमार मुकुल।

धूमिल ने लिखा है – भाषा की बधिया वक्‍त के सामने बैठ जाती है। इधर हिन्‍दी के लेखक, कवि और पत्रकार जिस तरह भाषा को बरत रहे हैं उसे देखकर उसकी बधिया बैठती नजर आती है। अपने एक वरिष्‍ट और प्रिय कवि के यहां भी जब एक कविता में पढा कि मुकुट की तरह उड़े जा रहे थे पक्षी तो जी उन्‍मन हो गया। अब मुकुट कैसे उड़ता है यह कीमियागिरी तो हिन्‍दी के कवि ही दिखा सकते हैं। वैसे हमारे संपादक, आलोचक भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। अब भाषा के कुछ मर्मज्ञ भी जिस तरह से लिख्‍ते हैं कि उसे पढकर पैर पीट लेने का मन करता है। अपने एक संपादकीय में उन्‍होंने लिखा – … मेरे साहित्‍य ज्ञान पर स्‍याही कैसे फेर दी। ज्ञान पर स्‍याही कैसे फेरी जाती है अब यह कला तो उन लेखक बंधु से सीखनी पड़ेगी जिनका जिक्र संपादक महोदय ने किया है। पर जब संपादक महोदय का लिखा पढा तो पता चला कि वे भी ज्ञान पर झाड़ू ही फेर रहे हैं। उन्‍होंने एक जगह लिखा – सारे देश … छत पर खड़े खड़े यह तमाशा देखते हैं…। …भर भरी दोपहर दोपहरी में …गरीब देशों का की हाय-हाय…। अरे बाबा देशों को इस तरह छतों पर खड़ा करने की तरकीब कहां से सीखी आपने।

अब हमारे विद्वतजन अगर ऐसी भाषा लिखेंगे तो नयी जमात तो गुल खिलाएगी ही। नतीजतन वे दुर्लभ गंगा, हर घडि़यां, हर पानी, अतल जंगल जैसे बहुमुखी प्रयोग कर हिन्‍दी जगत का मान बढाने से क्‍यों बाज आएं। अब एक महानुभाव की वेदना शब्‍दों में सोचती है। कैसे, यह हमारे पाठक अर्थों में सोचकर बताएं तो नवतुरिया लेखकों का मार्गदर्शन हो। एक महोदय के यहां – सबसे वरिष्‍ठ पीढ़ी से अभी कल लिया गया साक्षात्‍कार आपको मिलेगा तो स्‍त्री को सदा के लिए मार दिया जाता भी पाएंगे आप। किसी को थोड़ी देर के लिए कैसे मार दिया जाता है यह कोई बताए हमें। यहां मजेदार है कि संपादक महोदय खुद अपने ही एक संपादकीय में लिखते हैं – … अब भाषा को भ्रष्‍ट करने में अंतरराष्‍ट्रीय शक्तियां लगी हुई हैं। इसी तरह एक चर्चित युवा कवि अपनी कविता में अधम कोना शब्‍द का प्रयोग किया है। यूं उन कवि महोदय के यहां अजूबे कम नहीं हैं। अपनी एक कविता में वे लिखते हैं – गायें …कुछ भी खाकर करती हैं गोबर पवित्र।

आजकल पालीथीन खाकर गायें क्‍या कर रही हैं इस पर तो पर्यावरणविद ही बता सकते हैं। इसी तरह एक कवि के यहां जब पढा कि तलुओं को नींद आ रही है तो मेरी दृष्टि में मोच पड़ गयी और मैंने उसी क्षण अपनी इस नवागंतुक मोच का कापीराइट करा लेने की सोची, क्‍यों कि कल को वेदों की तरह मेरी कविताओं का कापीराइट भी जर्मनी वाले करा लें तो। इसी तरह एक मीठे स्‍वाभाव के कवि महाराज के यहां क्रूर जबड़े, विकल मेज और स्‍तब्‍ध सभा भवन जैसे प्रयोग मिले तो मेरी बल्‍ले बल्‍ले हो गयी। अरसा पहले एक कवयित्री को पृथ्‍वी को रोटी की तरह बेलते पाया था तो सोचा था कि यह तो उनका विशेषाधिकार है और लगता है उन्‍हीं से छूट लेकर उनके बाद के एक कवि महोदय ने पृथ्‍वी को रेत पर दौड़ाने की ठान ली। जब कवि आलोचक इस तरह भाषा की बधिया बैठा रहे हों तो पत्रकार तो उससे आगे जाएंगे ही। पटना के एक लोकप्रिय दैनिक में एक बार एक खबर छपी साठ बोल्‍ड में- …बाघ ने अमुक की हत्‍या की। बाघ मारता है या हत्‍या करता है यह तो विद्वतजन ही समझा सकते हैं। कल को आप इस खबर का इंतजार कर सकते हैं कि भूस्‍खलन ने हजारों लोगों की हत्‍या की। इसी तरह हैदरबाद के एक दैनिक में पटना के एक संवाददाता ने जब लिखा- … लालू प्रसाद के निकटस्‍थ उनके पुत्र ने…। मैंने सोचा गलती से सूत्र की जगह पुत्र लिखा गया होगा पर आगे देखा तो पुत्र का नाम भी दर्ज था।

गलती आदमी ही करता है और जहां मैं हूं या रहा हूं, वहां भी गलतियां होती ही रही हैं। हम अपनी ओर से सचेत हो सकते हैं, कर सकते हैं। गलतियों के बहुत से कारक हो सकते हैं। अपर्याप्‍त हैंड्स, जीवन स्थितियां आदि। अखबारों में काम का दबाव और समय सीमा का दबाव भी गलतियों का कारक होता है। कई बार अपनी गलतियां हम खुद नहीं देख पाते, गलत को हम कई तरह के दबावों के कारण सही पढ जाया करते हैं इससे बचने के लिए अखबारों में क्रास चेकिंग का चलन है। देखते हैं कि कहीं जिस काम को दस लोग कर रहे हैं उसी काम को दूसरी जगह सौ लोग कर रहे हैं। पर देखें तो दस की जगह सौ से काम लेने वाले भी गलतियों में पीछे नहीं रहते। इसीलिए यहां तुलसीदास को याद किया जा सकता है – शास्‍त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिए।

कुमार मुकुल वरिष्ठ पत्रकार और देशबन्धु डेली के रेजिडेंट एडिटर हैं।

Tags: Emerging TrendsHindi WritingsKumar MukulLanguageकुमार मुकुलदेशबन्धु डेलीपत्रकारभाषारेजिडेंट एडिटर
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