प्रभु झिंगरन |
हिन्दुस्तान में आने वाले दिनों में मीडिया के स्वरूप और भविष्य को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों के अनुभव बताते हैं मीडिया का भविष्य और स्वरूप तेजी से बदलने का ये सिलसिला आने वाले सालों में भी जारी रहेगा। मीडिया उद्योग के विकास की बात करें तो मार्च 2013 में प्रकाशित फिक्की (फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इंडस्ट्रीज), के पीएमजी द्वारा जारी सर्वे रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 तक टीवी और एंटरटेनमेंट उद्योग लगभग दो गुना बढ़ जाएगा। विकास की ये विस्मयकारी रफ्तार भारत में किसी और सेक्टर से ज़्यादा और तेज है।
उद्योग मंडल सीसीआई ने पीडब्ल्यूसी के साथ तैयार की गयी एक रिपोर्ट ने यह अनुमान लगाया है कि मीडिया क्षेत्र में बढ़ते कारोबार और विज्ञापन खर्चों में तेजी से आते सुधार के चलते भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग साल 2018 तक बढ़कर 2.27 लाख करोड़ रुपए तक हो जाएगा अर्थात् मीडिया उद्योग 2013 और 2018 के बीच लगभग 15 प्रतिशत की सालाना वृद्धि की दर से बढे़गा। बताते चलें कि साल 2013 में मीड़िया और मनोरंजन क्षेत्र लगभग 1 लाख 13 करोड़ रुपये का रहा है जबकि इसी अवधि से एक साल पहले मीडिया उद्योग में 19 प्रतिशत की रिकॉर्ड बढ़त हासिल की थी। फिक्की द्वारा गठित मीडिया एवं मनोरंजन उद्योग आकलन समिति के अध्यक्ष एवं स्टार इण्डिया के सीईओ उदय शंकर के अनुसार यह सेक्टर किसी अन्य सेक्टर की तुलना में रोजगार के ज्यादा अवसर प्रदान करने में सक्षम है। आंकड़ों का ये मायाजाल और भी जटिल हो सकता है लेकिन देखने वाली बात ये है कि वे कौन से कारण हैं जिनके चलते मीड़िया का भविष्य आर्थिक रूप से इतना सुदृढ़ नजर आ रहा है। आइए इनमें से कुछ कारकों पर नजर डालते हैं।
सरकार की उदार नीतियों का मीड़िया सेक्टर के विकास में बड़ा योगदान माना जाना चाहिए। केबल वितरण प्रणाली का अनिवार्य डिजिटलाइजेशन इस दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है। केबल और डी टी एच सेटेलाइट क्षेत्र में एफ.डी.आई की हिस्सेदारी बढ़ाकर 74 प्रतिशत से 100 प्रतिशत किये जाने के फलस्वरूप अच्छे परिणाम सामने आये हैं। संस्थागत वित्तीय सहायता हेतु फिल्म उद्योग को उद्योग का दर्जा दिया जाना भी एक समय से लिया गया निर्णय है। केन्द्र सरकार ने पिछले 3 वर्षों में 45 नये चैनलों को लाइसेंस जारी किया है। वर्तमान में भारत में 350 प्रसारक हैं जो 780 चैनलों के लिए सामग्री उपलब्ध करा रहे हैं। ’इंडियन ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन’ के सर्वेक्षण के अनुसार भारतीय टेलीविजन बाजार 2019 तक 15.5 की दर से बढ़त लेकर 15.2 मिलियन अमेरिकी डॉलर की ऊंचाई को छू लेगा। एफ. एम. और कम्युनिटी रेडियो हेतु जारी किये जाने वाले लाइसेंस के मामले में भी सरकार का रूख सकारात्मक रहा है।
मोबाइल उपभोक्ता को मिली सरकारी राहतें भी सोशल मीडिया के पनपने में बड़ी सहायक सिद्ध हो रही हैं। भारत जैसे विशाल भौगोलिक क्षेत्र में रोमिंग समाप्त कर दिया जाना और देश भर में एक नंबर पोर्टबिलिटी की सुविधा प्रदान करना बड़ा कदम है। बताते चलें कि स्मार्टफोन के बढ़ते चलन और भारत में 3जी नेटवर्क के विस्तार के चलते भारत में इस वर्ष 9 सौ करोड़ मोबाइल अप्लीकेशन डाउनलोड की सम्भावना है जो वर्ष 1912 के आंकड़ों से 5 गुना ज्यादा है। ’डेलओटी इंडिया टेक्नोलॉजी’ के अनुसार वर्ष 1916 में एप डाउनलोड राजस्व में पेड डाउनलोड 15 बिलियन अमेरिकी डॉलर का आंकड़ा छूने की संभावना है जो 2014 में केवल 9 बिलियन ही था। इसके अलावा भी मीडिया अनुप्रयोग के विस्तार के कई कारण हैं। जैसे भारत में प्रतिव्यक्ति मीडिया उपभोग (डमकपं ब्वदेनउचजपवद) की दर में वृद्धि हुई है।
आम आदमी की दिनचर्या में मीडिया ने चुपके से प्रवेश कर लिया है, जैसे मोबाइल मैप का उपयोग, ऑनलाइन टेªडिंग, ऑनलाइन खरीद-फरोख्त और भुगतान आदि, ट्रेन, बस, प्लेन का आरक्षण, यहां तक कि सिनेमा की सीटों का आरक्षण और होटल-रेस्टोरेंट की बुकिंग आम बात होती जा रही है। सोशल मीडिया की हालत यह हो गई है कि अगर आप फेसबुक, ट्विटर आदि पर नहीं है तो आपको हैरत भरी नजरों से देखा जा सकता है। तकनीक दिनों दिन यूजर फ्रेंडली होती जा रही है।
वीडियो गेम्स इंडस्ट्री ने वर्ष 2012 और 13 में 16 प्रतिशत की दर से बढ़त हासिल की और इसके वर्ष 1918 तक 19 प्रतिशत बढ़त के दर को छू लेने की संभावना है। इतना ही नहीं एनीमेशन इंडस्ट्री ने वर्ष 2013 में 247 मिलियन अमेरिकी डॉलर का व्यापार किया और इसमें 15 से 20 प्रतिशत प्रतिवर्ष की बढ़त का अनुमान है। ’डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रमोशन’ के अनुसार इन्फार्मेशन एण्ड ब्रॉडकास्टिंग सेक्टर में विदेशी एफडीआई डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट वर्ष 2015 तक 3,891 मिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर रहा है जो अपने आप में एक कीर्तिमान है।
भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग तेजी से पनप रहा हैः वर्ष 2018 तक भी टेलीविजन और प्रिंट मीडिया विज्ञापन राजस्व में सबसे बडे खिलाड़ी रहेंगे जबकि इंटरनेट एडवर्टाइजिंग 12 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ तीसरा स्थान प्राप्त कर लेगी। भारतीय फिल्म उद्योग जिसने वर्ष 2013 में लगभग 12,600 करोड़ रुपए का कारोबार किया था इसकी विकास दर भी 12 प्रतिशत से अधिक मानी जा रही है।
डिजिटल एडवर्टाइजिंग सीएजीआर में पहली बार 27.7 प्रतिशत की हिस्सेदार बनेगी जबकि रेडियो 18.1 प्रतिशत की दर से दूसरे स्थान पर रहेगा। टेलीविजन सब्सक्रिप्शन रेवेन्यु की तुलना में तीन गुना बढ़ जाने की संभावना है, जो पहली दफा होगा।
दरअसल इन आंकड़ों में चौकाने वाला कुछ भी नहीं है। वास्तव में ग्लोबल खिलाड़ियों के लिए भारत एक बड़ा बाजार है जहां सूचना और मनोरंजन के व्यापार की अपार संभावनाएं हैं। क्योंकि आम भारतीय उपभोक्ता सूचना और मनोरंजन को लेकर और अधिक जागरुक हुआ है। डिजिटल मीडिया की तकनीक ने उसके दरवाजे पर दस्तक दी है जबकि सोशल मीडिया बराबर इसके साथ सुर में सुर मिला रहा है, एक तरह से ये दोनों ही एक दूसरे के प्रतिपूरक हैं। यह लुभावनी जुगलबंदी लंबे दौर तक चलने वाली है।
आने वाले दिनों में मीडिया जगत क्या रूप लेगा, इन आंकड़ों में विस्तार से जाने का कोई लाभ नहीं है न ही मेरा उद्देश्य। यहां पर उपस्थित अधिसंख्य विद्धतजन मीडिया अध्यापन और पठन-पाठन से जुड़े हैं अथवा वे मीडिया की किसी विधा के छात्र हैं। इसलिए मीडिया के भविष्य से जुड़े दो गंभीर मुद्दे मैं आपके समक्ष विचारार्थ रखना चाहता हूं और पहला मूद्दा है मीडिया के भविष्य के उद्योग के स्वरूप और जरूरतों को देखते हुए सम्यक और पूर्णतः प्रशिक्षित मैनपावर की जरूरत का। सीधे शब्दों में कहें तो मीडिया उद्योग के लिए बड़ी तादाद में वांछित उम्दा किस्म का कच्चा माल कहां से आयेगा? इस सवाल का जवाब हमें ही खोजना होगा और वह भी समय रहते।
आप सभी अवगत हैं कि अभी कुछ ही दिन पूर्व देश के प्रधानमंत्री ने 15 जुलाई को ’स्किल इण्डिया’ अभियान की घोषणा की है जिसकी देश को ज़रूरत है। मैं विनम्रतापूर्वक आपका ध्यान फरवरी 2014 में ’मीड़िया एण्ड इंटरटेनमेंट स्किल्स काउंसिल’ द्वारा ’स्किल गैप स्टडी फार द मीडिया एण्ड इंटरटेनमेंट सेक्टर’ विषय पर किए गये सर्वेक्षण की 57 पृष्ठों की उस रिपोर्ट की और दिलाना चाहता हूं जिसका लब्बो-लबाव यही है कि हमारे पास आज की तारीख में मीडिया की विभिन्न और नई विधाओं के अध्यापन हेतु तकनीकी तौर पर प्रशिक्षित और कुशल प्राध्यापकों और प्रशिक्षकों की बेहद कमी है। देश में पहली बार मीडिया विषयक किये गये इस सर्वेक्षण के परिणाम चौकाने वाले हैं।
यह समूचे मीडिया जगत खास तौर पर अध्ययन-अध्यापन और प्रशिक्षण के क्षेत्र में मदद की दृष्टि से एक स्वागत योग्य कदम है और निश्चय ही इसके दूरगामी और रचनात्मक परिणाम भविष्य में सामने आयेंगे।
फिक्की (फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इंडस्ट्रीज) के सहयोग से कार्य कर रही काउंसिल के इस अध्ययन के उद्देश्यों को मैं मूल रूप में आपके सामने रखना चाहूंगा।
इन उद्देश्यों को देखने से साफ हो जाता है कि देश में पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया तथा इंटरटेनमेंट सेक्टर की स्थिति पर आने वाली जरूरतों, खास तौर पर मैनपावर की कमी को लेकर वृहद सर्वेक्षण का प्रयास किया गया है।
’वर्क फोर्स डिमांड और सप्लाई’ के अंतर्गत काउंसिल ने मीडिया गतिविधियों से जुड़ी 50 ऐसी कंपनियों जो फिल्म, टेलीविजन, प्रिंट, रेडियो, एनीमेशन, गेमिंग और एडवर्टाइजिंग से सम्बद्ध थीं, से संपर्क करके वर्क फोर्स की मांग और आवश्यकता के प्रकार को रेखांकित करने की कोशिश की। इस चार्ट को भी मैं मूलरूप में आपके समक्ष रखना चाहूंगा।
इस अध्ययन से साफ जाहिर हो जाता है कि वर्ष 1917 तक हमें कम से कम 7.5 लाख दक्ष मीडिया कर्मियों की आवश्यकता पडे़गी। इस संख्या के बढ़ने की प्रबल संभावना है। जाहिर है इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए उद्योगों की जरूरतों के मुताबिक मीडियाकर्मी तैयार करने होंगे।
दूसरी ओर काउंसिल ने देश भर की 40 विभिन्न मीडिया शिक्षण-प्रशिक्षण से जुड़ी संस्थाओं से संपर्क करके यह भी जानने की कोशिश की है कि ’स्किल गैप’ के सम्भावित कारण क्या-क्या हो सकते है।
और अब अंत में अपनी बात समाप्त करने से पूर्व एक बार पुनः उन दो चुनौतियों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं।
मीडिया का भविष्य उज्जवल है इसमें संदेह नहीं, लेकिन आने वाले मीडिया के स्वरूप की तकनीकी जरूरतों को मद्दे नजर रखते हुए पहली बडी चुनौती है ैापससमक डंद च्वूमत उपलब्ध कराने की जिसके लिए हम पूरी तरह से तैयार नहीं है तथा उपलब्ध संसाधन, संस्थान और पाठ्यक्रम पर्याप्त नहीं है।
हमें भविष्य के मीडिया की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अत्याधुनिक उपकरणों से सुसज्जित लैब स्टूडियो आदि मुहय्या कराते हुए प्रायोगिक प्रशिक्षण पर और अधिक जोर देना होगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए नीतिगत निर्णय लिए जाने चाहिए। भविष्य में मीडिया की दूसरी बड़ी चुनौती सूचना और समाचार की विश्वसनीयता को बनाये रखने की होगी। हमें तय करना होगा कि हम त्वरित सूचना चाहते हैं या विश्वसनीय सूचना? हम त्वरित मीडिया चाहते हैं अथवा विश्वसनीय मीडिया? क्योंकि डिजिटल मीडिया के खतरे सामने आने लगे हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध सूचनाएं ज्यादातर व्यावसायिक हितों से प्रेरित हैं। पारंपरिक मीडिया में एक नहीं कई गेट कीपर होते हैं, यहां कोई भी नहीं है, गेट कीपर की अनुपस्थिति इंटरनेट को स्वेच्छाचारी बना रही है। वेब पत्रकारिता के तहत पान की दुकान की तरह न्यूज पोर्टल खोले जा रहे हैं।
यहां सूचनाओं की तेज बारिश तो है पर उन्हें जांचने, प्रमाणित करने और वस्तुगत आंकलन करने का कोई जरिया नहीं! नये मीडिया से जुड़े ऐसे मुद्दे भी हैं जो सीधे-सीधे कानूनी दायरे में आते हैं। हैकिंग, फर्जीवाड़ा, गलत पहचान, चित्रों और वीडियो के साथ खिलवाड, वित्तीय मामले, साइबरसेक्स, साइबरपोर्न, अवांछित भाषा-शैली, व्यक्ति विशेष, समुदाय या वर्ग की गरिमा का हनन जैसे खतरों से भी निपटने के लिए संभावित नये प्राविधान कितने प्रभावी हो सकेंगे, इसका उत्तर समय देगा।
प्रभु झिंगरन: भारतीय प्रसारण सेवा, वरिष्ठ मीडिया विश्लेषक, पूर्व उपमहानिदेशक-दूरदर्शन
संपर्क: 11/6 डालीबाग कॉलोनी, लखनऊ – 226001, मो0 9415408010
ईमेलः mediamantra2000@gmail.com