प्रमोद जोशी |
दुनिया के तकरीबन 150 विश्वविद्यालयों और सैकड़ों केन्द्रों में हिन्दी का अध्ययन, अध्यापन हो रहा है। विदेशों से 25 से अधिक पत्र-पत्रिकाएं हिन्दी में प्रकाशित हो रही हैं। बीबीसी, जर्मनी के डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड, चीन के रेडियो इंटरनेशनल, रूसी रेडियो और ईरानी रेडियो की हिन्दी सेवाओं के अलावा दुनिया के अनेक देशों से और इंटरनेट पर हिन्दी के कार्यक्रमों का प्रसारण हो रहा है
जुलाई के महीने में लंदन से खबर मिली कि स्कॉटलैंड यार्ड हिन्दी, पंजाबी और बांग्ला सहित 14 भाषाओं में निपुण द्विभाषी अधिकारियों को भर्ती करेगा। इसी तरह सन 2011 की अमेरिकी जनगणना से जुड़ी एक रपट के अनुसार अमेरिका में 6.5 लाख लोग हिन्दी बोलते हैं जबकि आठ लाख से ज्यादा लोग भारत की अन्य क्षेत्रीय भाषाएं बोलते हैं। पिछले एक दशक में अमेरिका में हिन्दी बोलने वालों की संख्या में 105 प्रतिशत की दर से विकास हुआ है। अमेरिका में हिन्दी-भाषियों के साथ साढ़े तीन लाख गुजराती भाषी, पौने चार लाख उर्दू भाषी और करीब सवा आठ लाख अन्य भारतीय भाषाओं को बोलने वालों की संख्या को जोड़ा जाए तो यह संख्या 22 लाख से ऊपर पहुँच जाती है।
मान लेते हैं कि इनमें सभी हिन्दी नहीं बोलते होंगे। फिर भी यह संख्या 17-18 लाख तक हो सकती है। इसकी तुलना में दूसरी भाषाओं पर नजर डालें। अमेरिका में फ्रांसीसी (13 लाख), जर्मन (10 लाख), इतालवी (साढ़े 7 लाख), रूसी (9 लाख), पुर्तगाली (पौने सात लाख), चीनी (28.8 लाख), वियतनामी (14 लाख) और कोरियाई (11.4 लाख) भाषा भाषी हैं। इनमें से ज्यादातर लोगों का आगमन अमेरिका में भारतीयों के आगमन से पहले हुआ है।
हिन्दी संवैधानिक रूप से हिन्दी भारत की प्रथम राजभाषा और देश की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। भारत और अन्य देशों में 60 करोड़ से भी ज्यादा लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। भारत के बाहर हिन्दी बोलने वालों की तादाद का अलग-अलग अनुमान लगाया जाता है। मोटे तौर पर यह संख्या दो करोड़ के आसपास है। यानी रोमानियन, डच, हंगेरियन, ग्रीक और स्वीडिश जैसी भाषाओं से ज्यादा। फिजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकतर और नेपाल की कुछ जनता हिन्दी बोलती है। राष्ट्रभाषा, राजभाषा, सम्पर्क भाषा और जनभाषा की सीढ़ियों को पार करते हुए हिन्दी ग्लोबल यानी विश्व-भाषा बनने की ओर बढ़ चली है। भाषा-वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले समय में वैश्विक महत्त्व की जो भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी होगी और ऊँची पायदान पर होगी।
केवल भाषा की ताकत नहीं
हिन्दी की ताकत केवल किसी भाषा की ताकत नहीं है, बल्कि देश और उसके समाज की ताकत है। दुनिया की भाषाओं से जुड़े आँकड़े इस प्रकार लिखे जाते हैं कि हिन्दी की शक्ल उभर कर नहीं आती। विकीपीडिया में भाषा से जुड़े आँकड़ों पर ध्यान दें तो आप पाएंगे कि हिन्दी के अलावा छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, मारवाड़ी, मगही, भोजपुरी और मैथिली वगैरह को हिन्दी से अलग दिखाया जाता है। उर्दू तो अलग भाषा घोषित है ही। हिन्दी को केवल परिष्कृत खड़ी बोली के रूप में न देखें तो इसका संसार काफी बड़ा है। खासतौर से पैन-इंडियन हिन्दी ने जो शक्ल अख्तियार की है वह उसे वैश्विक भाषा के रूप में पहचान दिलाने की पहली सीढ़ी है। अमेरिका, यूके और यूरोप के अन्य देशों के भारतीयों-पाकिस्तानियों और एक सीमा तक नेपालियों के बीच सम्पर्क की भाषा वह बन गई है।
तकरीबन डेढ़ दशक पहले तक विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था। संसार की भाषाओं की रिपोर्ट तैयार करने के लिए सन् 1998 में भेजी गई यूनेस्को प्रश्नावली के आधार पर भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन द्वारा भेजी गई विस्तृत रिपोर्ट के बाद यह माना गया कि संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान है। पर क्षेत्र के विस्तार को सामने रखें तो पाएंगे कि चीनी भाषियों की संख्या हिन्दी से ज्यादा होने के बावजूद हिन्दी का प्रसार क्षेत्र चीनी प्रसार क्षेत्र से ज्यादा बड़ा है। दुनिया भर में अंग्रेजी का बोलबाला है, पर बोलने वालों की संख्या के लिहाज से चीनी और हिन्दी के मुकाबले अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या कम है। आने वाले समय की आर्थिक गतिविधियों को ध्यान में रखें तो आप पाएंगे कि हिन्दी का इस्तेमाल बढ़ने वाला है।
दुनिया के तकरीबन 150 विश्वविद्यालयों और सैकड़ों केन्द्रों में हिन्दी का अध्ययन, अध्यापन हो रहा है। विदेशों से 25 से अधिक पत्र-पत्रिकाएं हिन्दी में प्रकाशित हो रही हैं। बीबीसी, जर्मनी के डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड, चीन के रेडियो इंटरनेशनल, रूसी रेडियो और ईरानी रेडियो की हिन्दी सेवाओं के अलावा दुनिया के अनेक देशों से और इंटरनेट पर हिन्दी के कार्यक्रमों का प्रसारण हो रहा है।
हिन्दी दीन-हीन की भाषा नहीं, फिर भी…
अमेरिका में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगे प्रो. हरमन वॉन ऑलफन का कहना है कि भारत में लोगों को लगता है कि हिन्दी दीन-हीन की भाषा है, लेकिन सात समुंदर पार स्थितियां ऐसी नहीं हैं। प्रो. ऑलफन ने कहा, ”वर्ष 1960 के आसपास अमेरिका में हिन्दी की पढ़ाई शुरू हुई थी और मेरा संबंध हिन्दी जगत से पिछले करीब 45 वर्षों से है।” उन्होंने कहा कि प्रवासी भारतीय अमेरिका आए तो हिन्दी के प्रचार-प्रसार में गति आई, क्योंकि प्रवासी बच्चे हिन्दी पढ़ाए जाने को लेकर स्थानीय सरकार पर दबाव बना रहे थे। यह सही है कि अब तक अमेरिका के हाई स्कूलों में हिन्दी का प्रवेश अधिक नहीं हुआ, लेकिन अब स्थिति बदल रही है। ऑलफन ने जानकारी दी कि न्यूयॉर्क के करीब न्यू जर्सी में हिन्दी प्राध्यापिका की नियुक्ति शुरू हुई है। ऐसी संभावना है कि सितंबर यानी इसी महीने से यहां के स्कूलों में नियमित तौर पर हिन्दी की पढ़ाई शुरू हो जाएगी।
वे इस बात को मानते हैं कि अमेरिकी शहरों में देवनागरी लिपि में साइनबोर्ड नहीं दिखाई पड़ते हैं। भारतीय रेस्तरां, होटलों के नाम भी दूसरी लिपियों में लिखे हुए दिखलाई पड़ते हैं, जबकि अरबी, चीनी, फारसी लिपी पर आपकी नजर सहजता से पड़ जाएगी। इसके बावजूद प्रो. ऑलफन निराश नहीं हैं। उनका मानना है कि अमेरिका में हिन्दी भाषा तरक्की पर है। वह अपनी स्थिति मजबूत कर रही है और इसके सुखद परिणाम भी धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि 10 वर्ष पहले तक अमेरिका में केवल 25 विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती थी, लेकिन अब 100 से भी अधिक विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। मनोरंजन की दुनिया में ‘सलाम नमस्ते’ नामक हिन्दी रेडियो कार्यक्रम प्रसारित किया जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कुछ दिन पहले कहा कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने में धन कोई अड़चन नहीं है बल्कि इसके लिए 129 देशों का समर्थन चाहिए। उन्होंने उम्मीद जताई कि भारत का कद जिस तरह लगातार बढ़ रहा है, उससे निकट भविष्य में उसे समर्थन हासिल हो जाएगा। उन्होंने कहा कि कहा कि यह कहना सही नहीं है कि आर्थिक बोझ के कारण हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने में अड़चन है। यह धारणा गलत है कि जिस देश की भाषा को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिलता है, उस देश को उसका आने वाला पूरा खर्च वहन करना पड़ता है।
अगर ऐसा होता भी तो भारत इतना बड़ा देश है और ये खर्च उठाने का उसमें माद्दा है। उन्होंने कहा कि ये खर्च हालांकि किसी एक देश को नहीं उठाना पड़ता और जिस भाषा को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया जाता है, उस पर आने वाला खर्च सभी देशों में बंटता है।अगर आर्थिक बोझ की ही बात होती तो जापान कब से अपनी भाषा को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में शामिल कराना चाहता है और वह खर्च उठाकर ऐसा कर चुका होता।
भाषा से पहले भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का मामला ज्यादा बड़ा है। यदि भारत स्थायी सदस्य बनता है तो हिन्दी को विश्व संगठन की आधिकारिक भाषा बनाने का रास्ता आसान हो जाएगा।जैसे-जैसे भारत का महत्व बढ़ रहा है, उससे उम्मीद है कि वह दिन जल्द ही आएगा, जब हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में से एक होगी।
पिछले साल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिन्दी में भाषण देकर इस माँग को बढ़ावा दिया है कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र में स्थान मिलना चाहिए। सवाल है कि क्या सरकार इस मामले में पहल करेगी। पिछले दिनों लखनऊ की एक बालिका ऐश्वर्या पाराशर ने सूचना के अधिकार के तहत जानना चाहा था कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए प्रस्ताव क्यों नहीं दिया गया है। अपने जवाब में विदेश मंत्रालय के केंद्रीय जनसूचना अधिकारी एस गोपालकृष्णन ने कहा, ‘संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को एक आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल किए जाने के कई वित्तीय और प्रक्रिया संबंधी निहितार्थ हैं। इस बारे में औपचारिक प्रस्ताव रखे जाने से पहले इन निहितार्थों को पूरा करने की जरूरत है।’ उन्होंने कहा कि प्रस्ताव करने वाले देश यानी भारत को संयुक्त राष्ट्र को पर्याप्त वित्तीय संसाधन प्रदान करने होंगे ताकि व्याख्या, अनुवाद, प्रिंटिंग और दस्तावेजों के प्रतिलिपियों पर होने वाले अतिरिक्त खर्च तथा इससे संबंधित बुनियादी खर्च का प्रबंध किया जा सके।
एक अनुमान के मुताबिक इस पर प्रति वर्ष करीब 82.6 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। यह अनुमान अरबी को 1973 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की आधिकारिक भाषा बनाने के निर्णय पर आधारित है। गोपालकृष्णन के मुताबिक वास्तविक खर्च इससे भी अधिक हो सकता है क्योंकि अतिरिक्त इंटरप्रेटर बूथ के लिए सभी कांफ्रेंस हॉल की आधारभूत संरचना में बदलाव करने की जरूरत होगी। पिछले साल जुलाई में लोकसभा में पूछे गए एक सवाल पर भी सरकार ने जवाब दिया था कि सरकार इस दिशा में प्रयास कर रही है।
संयुक्त राष्ट्र में चीनी, अंग्रेजी, अरबी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनी को ही मान्यता मिली हुई। 1945 में संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाएँ केवल चार थीं। अंग्रेज़ी, रूसी, फ्रांसीसी और चीनी। उनमें 1973 में दो भाषाएँ और जुड़ीं। हिस्पानी और अरबी बाकी भाषाएं बाद में जुड़ीं। इन भाषाओं को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाए जाने के कारणों से ज्यादा वाजिब कारण हिन्दी का है। पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन से यह माँग उठती रही है। इस काम के लिए केवल खर्चा ही महत्वपूर्ण नहीं है। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा से प्रस्ताव पास कराने की जरूरत होगी। जिस तरह भारत ने 21 जून को विश्व योग दिवस मनाए जाने के कार्यक्रम का प्रस्ताव पास कराया, तकरीबन उसी तरह हिन्दी को लेकर भी देशों का समर्थन जुटाया जा सकता है। हिन्दी भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ की प्रतीक बनेगी। हमारी वैश्विक उपस्थिति इससे नजर भी आएगी।
प्रमोद जोशी चार दशक से भी अधिक समय से पत्रकारिता से जुड़े हैं. करीब दस वर्षों तक वे हिंदुस्तान से जुड़े रहे और अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया. इससे पहले वे स्वतंत्र भारत , नवभारत टाइम्स , सहारा टेलीविज़न से भी जुड़े रहे. हिंदी पत्रकारिता में उनका महत्वपूर्ण योगदान है. अभी उनका एक ब्लॉग है जिस पर वे समकालीन मुद्द्दों पर लिखते रहतें हैं. उनका ब्लॉग है: जिज्ञासा http://pramathesh.blogspot.com