सच्चिदानन्द सिन्हा।
त्रासदी के विवरणों के टीवी पर प्रसारण के तुरन्त बाद किसी सौन्दर्य प्रसाधन का विज्ञापन या ऐसी ही दूसरी प्रस्तुतियाँ मनुष्य के लिए त्रासद और आकर्षक जैसी अनुभूतियों का फर्क मिटा देती हैं। मनुष्य संवदेनहीन बन जाता है। लेखक कलाकार आदि की जवाबदेही ऐसे समय में कुछ बुनियादी प्रतिमान प्रस्तुत करने की होती है। लेकिन जहाँ साहित्य और कला स्वयं ‘कमोडिटी’ बन गयी हो, वहाँ साहित्यकार, कलाकार या पत्रकार यह दायित्व कैसे निभाएँगें?
हम आज सूचनाओं के युग में रह रहे हैं, ऐसी मान्यता है। इससे भी बढ़कर वैश्विक सूचनाओं के युग में। हमारे ऊपर चारों ओर से सूचनाओं की बौछार होती रहती है। अनेक संचार माध्यमों से हमें रेलगाडियों, मन्त्रियों और राजनयिकों के आगमन और प्रस्थान की सूचनाएँ मिलती रहती हैं। ऐसे ही, चाहे बिन चाहे हमें शेयर बाजारों के सूचकांक के उतार-चढ़ाव, क्रिकेट खिलाडियों के स्कोर और फिल्मी सितारों के बनते -टूटते प्रेम प्रसंगों की ध्वनित, लिखित, चित्रित और चलित सूचनाएँ रेडियो, अखबार और टी.वी. से प्राप्त होती रहती हैं। हमारे लिए इनकी पहुँच से बाहर निकलना लगभग असम्भव है, अगर हमने टी.वी., रेडियो और अखबार देखना बन्द भी कर दिया तो भी हमारा कोई पड़ोसी अपने प्यारे नेता का भाषण या प्यारे क्रिकेटर के चौकों की चर्चा कर ही देगा। फिर भी ध्यान देने की बात यह है कि सूचना कोई आज का आविष्कार नहीं है, दरअसल आदमी का संसार तो सदा सूचनाओं का संसार ही रहा है। पहले की सूचनाओं और आज की सूचनाओं में फर्क बस यह आया है कि आधुनिक संचार माध्यमों के विस्तार से हम पास-पड़ोस के नहीं संसार भर के ‘टार्गेट’ (निशाना) बन गये हैं।
हम प्राय: सूचनाओं के इस अतिरेक को प्रगति का पर्याय मान लेते हैं। इससे हमारी बौद्धिक चयन प्रक्रिया में भारी घालमेल और विभ्रम की स्थिति पैदा होती है। ऐसा नहीं है कि मात्रा के हिसाब से आज सूचनाअें की बाढ़ आ गयी है और पहले इसका अभाव था। मनुष्य की सन्देशवाहक इन्द्रियों के ऊपर तो उसके परिवेश से निरन्तर ताप, प्रकाश और ध्वनि से सूचनाओं की बौछार जन्म से मृत्युपर्यंत होती रहती है। हमारी इन्द्रियाँ तो सदा से सूचनाओं का ग्राहक और संचयक रही हैं। इसका दायरा भले ही सीमित रहा हो, संख्या के हिसाब से इसमें कभी भी आवक का अभाव नहीं रहा है। दरअसल समस्या रही है सूचनाओं के अतिरेक में यथोचित चयन की, जिसके लिए हमारी इन्द्रियों की बनावट विलक्षण रही है। एक तरह की स्क्रीनिंग (आन्तरिक छनन) हमें सूचनाओं की अति से संरक्षित रखती है। इसके बगैर जीवन की परम आवश्यक समस्याओं से जूझने में आदमी अक्षम हो जाता है। आज के ‘वैश्विक सूचनाओं’ के अतिरेक से हम जीवन की असली समस्याओं को समझने और जूझने में इसीलिए एक ऊहापोह की स्थिति में दिखाई देते हैं, समस्या यह है कि सूचनाओं का संचय आज ज्ञान का पर्याय बनता जा रहा है और जहाँ हमारे मस्तिष्क की सीमायें इस संचय में बाधा बनती हैं तो हम कम्प्यूटर और सी.डी. से इसमें इजाफा करते जाते हैं। इंटरनेट से जुड़कर हमें यह अहसास होता है कि हम वैश्विक नागरिक बन गये हैं और वैश्विक संवाद के हिस्सेदार हैं।
लेकिन सूचनाओं का आदान-प्रदान एक चीज है और संवाद एक बिल्कुल अलग चीज। दरअसल इंटरनेट से होने वाला सूचनाओं का आदान-प्रदान लगभग पूरी तरह बाजार और व्यवसाय से सम्बद्ध है, चाहे आउट-सोर्सिंग से डॉक्टरों के नुस्खे प्राप्त होते हों चाहे नये मॉडल के वाहनों की जानकारी। सभी जानकारी ज्ञान नहीं है। इसमें काफी कुछ दिमागी कबाड़ या बोझ हो सकता है। कभी-कभी तो लगता है आधुनिक वैश्विकता बौद्धिक कबाड़ों की पारस्परिकता भर है। आज के आधुनिक आदमी को संसार भर की मोटरगाडियों के मॉडलों, हवाई सेवाओं के किरायों और पर्यटन स्थल पर उपलब्ध होने वाले होटलों और सुविधाओं की जानकारी है। लेकिन उसके पड़ोस की झुग्गी में भूख और बीमारी से मरने वालों की कोई जानकारी नहीं। ये बेपनाह लोग उसके वैश्विक नक्शे से बाहर हैं। ऐसा नहीं है कि उसके कम्प्यूटर के वेबसाईट पर देश या दुनिया में भूख और बीमारी से मरने वालों के आंकड़ें उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन इन आँकड़ों का मन्तव्य मशीन से नहीं आदमी के मन से ज्ञात होता है। इस बिन्दु पर मामला महज सूचना और इसके संचार का नहीं बल्कि सम्प्रेषण का बन जाता है। लेकिन सम्प्रेषण की सम्भावना मनुष्य की संवेदनशीलता से जुड़ जाती है। इसमें सम्प्रेषित भावना मनुष्य की संवेदनशीलता से जुड़ जाती है। इसमें सम्प्रेषित भावना की अनुभूति के लिए मन के संवेदी तन्तुओं का किसी तरह झंकरित हो पाना अपरिहार्य होता है। यहां झंकरित होना अंग्रेजी के शब्द ‘रेजोनेंस’ के अर्थ में लिया गया है। यह शब्द वर्तमान सूचनाओं के प्रधान संवाहक ‘रेडियो और टी.वी. से वास्ता रखने वालों के लिए काफी परिचित है। इनकी ‘टयुनिंग’ का यही आधार होता है। इसी की पृष्ठभूमि में हम बातचीत के दौर में सम्प्रेषण की बाधा को यह कहकर समझाते हैं कि हम अलग-अलग ‘वेवलेंथ’ पर बात कर रहे हैं। हालांकि इसी बिन्दु पर रेडियो के ध्वनि तरंगों से पैदा झंकार और सम्प्रेषण से मानव मन में पैदा अनुभूति की समानता खत्म हो जाती है।
रेडियो तरंगों द्वारा प्रसारित कार्यक्रम रिसीवर पर ज्यों का त्यों अवतरित होता है। इसके विपरीत सम्प्रेषित अनुभूति के साथ ग्राहक व्यक्ति के पूरे निजी और सामाजिक अनुभवों की छाया जुड़ जाती है। जिनके परिप्रेक्ष्य में ही आदमी दूसरे के सुख-दुख की कल्पना करता है। इस प्रक्रिया के लिए अंग्रेजी में एक शब्द ‘इम्पैथी’ का व्यवहार होता है यानी हम दूसरे आदमी की स्थिति में होने की कल्पना कर उसकी मन:स्थिति को समझने की कोशिश करते हैं। इसलिए आमतौर पर अधिकतम सम्प्रेषण वहीं सम्भव होता है जहां संवाद से जुड़े व्यक्तियों के अनुभवों का क्षेत्र अधिक से अधिक समान हो। यह स्थिति इस कथन में पूरी तरह अभिव्यक्त होती है, ‘जाके पैर न फटी बेवाई सो क्या जाने पीर परायी।’
अनुभवों का आदान-प्रदान सबसे अधिक भाषा के माध्यम से होता है। भाषा से अनुभवों के प्रत्यक्ष आदान-प्रदान में भाव भंगिमाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। शायद यह उस सुदूर अतीत के सम्प्रेषण का अवशेष है, जब मनुष्यों में भाषा का विकास नहीं हुआ था। आज भी कहे हुए शब्दों से परे जा हम शरीर का भाषा (बॉडी लैंग्वेज) में अनकही चीजों की कल्पना करते हैं। पत्रकारों में तो आज बॉडी लैंग्वेज पढ़ना लग्भग फैशन-सा हो गया है। यह इस बात को रेखांकित करता है कि संवाद में व्यक्तियों की प्रत्यक्ष उपस्थिति जिसमें सारा परिदृश्य लगभग एक रंगमंच की तरह वक्ताओं और श्रोताओं से जोड़ता है सम्प्रेषण की आदर्श स्थिति है। जहां अभिव्यक्ति का माध्यम लेखन है वहां भी सम्प्रेषण को आसान बनाने के लिए कथ्य के साथ प्राय: स्थितियों का विवरण जुड़ा होता है।
ऊपर की सारी बातें यह रेखांकित करने के लिए हैं कि आज जिस वैश्विक या सार्विक साहित्य एवं अभिव्यक्ति की वकालत की जा रही है उसकी सीमाओं को समझा जाय। दरअसल किसी भाव या विचार के अधिकतम सम्प्रेषण के लिए लोगों को जोड़ने वाले भाषा समुदाय का होना जरूरी है। लेकिन भाषाएं परिप्रेक्ष्य से असम्पृक्त शून्य में विकसित नहीं होतीं। जहाँ के लोग हमारे परिवेश से परिचित नहीं हैं उन्हें आप चंपई, कुसुमी और सरसई रंग क्या है, कैसे समझायेंगे? भाषा-शास्त्रियों ने इस बात का ध्यान दिलाया है कि उत्तरी ध्रुव प्रदेश में रहने वाले एस्किमो बर्फ के लिए आधे दर्जन से अधिक शब्दों का प्रयोग करते हैं जो सब बर्फ की अलग-अलग स्थितियों को अभिव्यक्त करते हैं। जिसने कभी लीची नहीं खायी हो उसे आप किसी भी भाषायी कवायद से लीची के स्वाद का अनुभव नहीं करा सकते। लेकिन मामला सिर्फ अपरिचित वस्तुओं तक ही सीमित नहीं है।
बहुत से शब्द हैं जो किसी समाज की वैसी स्थितियों या परिपाटी से जुड़ें हैं जो किसी दूसरे भाषायी समूह के लिए बिल्कुल अपरिचित हैं। उदाहरण के लिए ‘नवाबी’ या ‘अज्ञात’ जो भारत की विशेष राजनीतिक सामाजिक स्थिति से जुड़ें हैं या ‘कोहबर’ जो विवाह की एक विशेष परिपाटी से सम्बद्ध है। इन शब्दों का अर्थ प्रत्यक्ष साक्षात्कार से ही सम्भव है। इसीलिए अधिकतम सम्प्रेषण जिसमें मनुष्य की अन्तरंग भावनाओं का ज्यादा से ज्यादा सम्प्रेषण हो सके एक छोटे भाषायी समुदाय में ही सम्भव है।
एक भाषा-भाषी होना और एक भाषायी समुदाय का सदस्य होना, दोनों एक ही बात नहीं है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी भाषा को ले लें। इस भाषा को बोलने वाले दुनिया के अनेक हिस्सों में फैले हैं और हजारों मील समुद्र से अलग किये गये ब्रिटेन, अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे देशों के आम लोगों की मातृभाषा भी यही है। लेकिन इनका एक भाषायी समुदाय नहीं है क्योंकि एक भाषायी केन्द्र से फैलाव के बावजूद उनके इतिहास और परिवेश ने इन देशों के लोगों के अनुभवों के संसार को बिल्कुल अलग बना दिया है। इसका प्रभाव स्वयं भाषा की संरचना पर भी पड़ता है। अंग्रेजी होते हुए भी इनकी भाषाएं भिन्न हैं और कभी-कभी अमेरिकी अंग्रेजी, अंग्रेजों के लिए भी अबूझ बन जाती है। भारत में अंग्रेजी में ही पढ़ने-लिखने और जीने वाले लोगों को यह भ्रम होता है कि उनकी भाषा ‘इंग्लिश’ है। इस भ्रम को व्यावसायिक कारणों से ‘बूकर प्राइज’ आदि से जीवित रखने की कोशिश होती है और इसे एक नाम ‘इण्डो इंग्लिश’ से नवाज दिया जाता है, जबकि यह ‘हिंग्लिश’ ही है क्योंकि यह महज काम-चलाऊ है, जिसे कभी अंग्रेज ‘बाबू इंग्लिश’ कहा करते थे। कम्प्यूटरों के प्रसार से यह भ्रम और भी मजबूत हुआ है क्योंकि कम्प्यूटरों के ‘की बोर्ड’ पर अभी भी रोमन लिपि ही अंकित है (प्राय: लोग लिपि और भाषा का फर्क नहीं करते)। आउट-सोर्सिंग से लोग रोजगार के लिए एक तरह की अंग्रेजी बड़ी संख्या में लिखने लगे हैं- जैसा अंग्रेजी शासन के प्रारम्भिक दौर में प्रशासनिक सेवाओं में जगह के लिए हुआ था।
लेकिन जो अंग्रेजी आ रही है; महज कामचलाऊ व्यावसायिक अंग्रेजी है, भावनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं। गणित, विज्ञान आदि के क्षेत्र में इससे अभिव्यक्ति में फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इन क्षेत्रों में विशेश तरह से परिभाषित शब्द (बोलचाल से भिन्न अर्थ वाले), अंक और प्रतीकों की प्रधानता होती है जो सदा वैश्विक रहे हैं। यही कारण है कि सैकड़ों वर्ष पहले भारत, यूनान और चीन के गणितीय एवं वैज्ञानिक ज्ञान अरबी भाषा के माध्यम से यूरोप के पुनर्जागरण और वैज्ञानिक विकास का आधार बन सके।
अंग्रेजी की बात हम यहाँ छोड़ते हैं क्योंकि यह तो हमारे लिए पूरी तरह विजातीय है। लेकिन हिन्दी में भी जो भारत की आधी आबादी की मातृभाषा है, उसमें भौगोलिक और ऐतिहासिक कारणों से इतनी भिन्नता है कि अभिव्यक्ति की दृष्टि से एक भाषा के रूप में इसका विकास सम्भव भी नहीं था। इसके आधार में इसकी पूर्ववर्ती भाषाएं जैसे मैथिली, भोजपुरी, मगधी, अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी आदि समृद्ध भाषायें रही हैं जिनकी छाप इसकी आँचलिकताओं के रूप में विद्यमान है। इससे भी इसमें अभिव्यक्ति की अनेक सम्भावनाएं और सीमाएं बनती हैं। सम्भावनाएं प्रकृति और परम्पराओं के वैविध्य से प्राप्त अभिव्यक्ति की समृद्धि के रूप में बनती हैं। सीमाएं आंचलिक भिन्नता से पैदा सम्प्रेषण के अवरोध से। भाषाएं ऐसे विकास और बदलाव से मुक्ति के प्रयास में निष्प्राण हो जाएंगी। शायद संस्कृत की व्याकरणीय शुचिता ने ही उसे आधुनिक जीवन के लिए एक मातृभाषा बना दिया। भाषा में शुद्धता और जीवन्तता का यह द्वन्द्व सदा निहित होता है और इसी से लगातार बदलने वाले जीवन के यथार्थ को भाषा के जरिये रूपायित और सम्प्रेषित किया जा सकता है।
सम्प्रेषण के लिए संवाद देने वाले और इसे ग्रहण करने वाले दोनों के जीवन के अनुभव और ज्ञान के दायरे में एक हद की समानता जरूरी है। इससे ऐसे समाज में जिसमें एक अभिजात समूह (इलीट) आम लोगों से अलग होता जाता है, दोनों के बीच सम्प्रेषण में फाँक पैदा हो जाती है। इलीट समूह का अक्सर यह भ्रम होता है कि वह एक वृहत समाज से भावनात्मक स्तर पर जुड़ रहा है, जैसा हमारे यहाँ के अंग्रेजीदां इलीट का भ्रम है; जो अपनी स्थिति को वैश्वीकरण के अनुरूप पाता है। लेकिन यह जुड़ाव महज बाजारी होता है क्योंकि वह संसार भर के परिधानों और पकवानों से ही परिचित हो रहा है, और इंटरनेट से ऑर्डर कर उन्हें पा भी सकता है। लेकिन यह सम्भव नहीं है कि दुनिया के विभिन्न समूहों के जीवन के समृद्ध अनुभवों का एक छोटा हिस्सा भी आत्मसात कर सके। दरअसल उसकी स्थिति त्रिशंकु की होती है जो दुनिया के बीच बौद्धिक रूप से लटका रहता है। अपने समाज से तो वह कट ही जाता है, दूसरे समाज में भी उसकी स्वीकृति पूर्ण नागरिक के रूप में नहीं हो पाती। वह उतना संवेदनशील और जिज्ञासु नहीं कि दूसरे समाजों के सुख-दुख को अपनी अनुभूति का अंग बना सके। अपने समाज से तो वह सप्रयास कटा ही होता है। यह आधुनिक समाज में सम्प्रेषण का सबसे बड़ा संकट है। साहित्य, कला आदि के क्षेत्र में यह संकट और भी गम्भीर है क्योंकि इनमें अनुभूति के गहरे स्तर की तलाश होती है।
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में टी. एस. ईलिएट, एजरा पाउण्ड आदि अंग्रेजी के कुछ बड़े साहित्यकारों ने संसार भर के महत्वपूर्ण साहित्यों की उपलब्धियों को अपनी सृजन-प्रक्रिया में पिरोने की कोशिश की थी। लेकिन उनकी विलक्षण साहित्यिक क्षमता के बावजूद उनके काव्य के सम्प्रेषण का दायरा एक छोटे समूह तक सीमित हो गया। ईलियट के प्रसिद्ध काव्य ‘वेस्ट लैण्ड’ में यूनानी, भारतीय, फ्रान्सीसी, जर्मन आदि तमाम भाषाओं में बिखरी काव्यानुभूति को प्राय: उनकी मूल भाषा में ही समेटने की कोशिष हुई है। लेकिन इससे काव्य की सहज ग्रहणशीलता खत्म हो गई है। स्वयं इलियट को इसका अहसास था और इसलिए कविता को ग्राह्य बनाने के लिए इसके अन्त में एक लम्बा सा नोट जोड़ना पड़ा। ऐसा इसके बावजूद करना पड़ा कि ईलियट को पता था कि उसका पाठक वर्ग अति संवेदनशील विद्वानों का था।
ईलियट या उस काल के दूसरे साहित्यकारों के सामने सम्प्रेषण का जो संकट पैदा हुआ था उसका सीधा कारण नयी औद्योगिक सभ्यता के प्रभाव से पुराने समुदाय का विघटन था। इस संकट का सामना होने पर साहित्यकार अपने-अपने हिसाब से सृजन और सम्प्रेषण का अलग-अलग समुदाय बनाने की कोशिश कर रहे थे। पश्चिमी देशों में समाज दो बड़े खण्डों में विभाजित हो रहा था। एक हिस्सा ‘ईलीट’ का था और दूसरा बाकी लोगों का जिन्हें मोटा-मोटी रूप से ‘मास’ कहकर चेतना के धुँधलका में डाला जा रहा था। यह दृष्टि उस हद तक मूर्खतापूर्ण तो नहीं थी जैसी ब्राह्मणवादी अतीत से जुड़े हमारे अंग्रेजीदां अभिजात वर्ग की है, फिर भी रेमण्ड विलियम्स ने 1960 के दशक में अपनी पुस्तक ‘कल्चर एण्ड सोसायटी’ में इस दृष्टि की धज्जियां उड़ाई थी और इस सत्य की ओर ध्यान खींचा था कि अन्तत: साहित्य और कला समुदाय में ही सृजित होती है और अभिव्यक्ति और आस्वाद की अधिकतम सम्भावना समुदाय के साथ जुड़ने में ही है। इस दृष्टि से विचार करने से यह साफ दिखाई देता है कि ‘वैश्विक’ साहित्य और कला महज बाजारू हो सकती है। टी.वी., अखबार आदि माध्यमों का जो घटिया स्तर आज दिखाई देता है, वह वास्तव में वैसे लोगों की जरूरत पूरा करने के लिए है जो समुदाय से टूटे होने के कारण मानवीय संवेदना से शून्य हैं। मीडिया के लोग सजग हैं और ऐसे लोगों के लिए गम्भीर सामग्री प्रदान कर ‘भैंस के आगे बीन बजा’ समय और साधन को बर्बाद करना नहीं चाहते। उनकी समझ का ही नतीजा है कि मीडिया में सफल लोगों की आय और सुविधाओं का जो स्तर आज दिखाई देता है; पहले कल्पना से परे था।
गहरे स्तर की संवेदना और उसके सम्प्रेषण की संभावना आंचलिक भाषाओं या हिन्दी के आंचलिक रूपों में ही दिखाई देती है। इसी के माध्यम से उन अन्तरंग भावनाओं को अभिव्यक्ति मिल सकती हे जो अपने परिवेश से जुड़े पदों और प्रतीकों के सहारे व्यक्त हो सकती है। लेकिन अंचल के बाहर इसकी सम्प्रेषणीयता बाधित हो जाती है। इससे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य से प्राप्त विचारों के आधार पर समाज परिवर्तन के प्रयासों से भी विकृति की सम्भावना पैदा होती है। यह हमारे यहाँ ग्रामीण स्तर पर मार्क्स या माओं के विचारों से प्रेरित आन्दोलनों के चरित्र के आंकलन में साफ दिखाई देता है। मार्क्स या माओ दोनों के विचार क्रमश: यूरोप और चीन के विशेष समय की घटनाओं और उसके पीछे भी बौद्धिक परम्परा से जुड़े थ। जब उसके आधार पर भारतीय ग्रामीण समाज का वर्गीकरण होता है और रणनीतियां बनायी जाती हैं तो आनदोलन से प्रेरित समूहों में समाज और संघर्ष की भूमिका एक काल्पनिक रूप उभरता है। मार्क्स या माओ ने ‘युडयल’ या ‘श्रमिक’ जैसे शब्दों का जिस अर्थ में व्यवहार किया था वह यहाँ बिल्कुल कल्पना पर आधारित और बनावटी दिखाई देता है। इसी से एक ऐसी विचारधारा जो व्यक्तिगत हिंसा का निषेध करती थी यहाँ क्रान्तिकारी समूहों को पूरे के पूरे परिवार की सामूहिक हत्या के लिए प्रेरित करती है। अलग अर्थ में मार्क्सवाद भी एक वैश्विक विचार है लेकिन भाषाई परिवेश की भिन्नता से प्रयोग के स्तर पर इसके अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
कभी-कभी ही कोई बड़ा साहित्यकार इस फर्क को अपनी रचना में अभिव्यक्त कर एक विभिन्न तरह के परिवेश से लाये गये शब्दों की अर्थहीनता खोल कर रख देता है। हमारे यहाँ फणीश्वरनाथ रेणु एक ऐसे साहित्यकार थे। सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, काँग्रेसी जैसे शब्दों और स्वयं महात्मां गांधी को एक सीधा सादा ग्रामीण समाज अपने भिन्न भाषाई परिवेश में किस रूप में ग्रहण करता है, यह चौंकाने वाला लगता है। अचरज है कि किसी साहित्यकार ने वर्तमान नक्सली या माओवादी आन्दोलन को इसमें हिस्सा लेने वलो लोगों की सरल और सपाट समक्ष के परिप्रेक्ष्य में रखकर, प्रस्तुत करने की कोशिश नहीं की है। इसकी रूमानी प्रस्तुति, जिसमें क्रान्तिकारी पदों को उनके प्रारम्भिक अर्थों में, जिनका परिवेश बिल्कुल भिन्न था, कठिन नहीं है। लेकिन यह हमारे समाज के यथार्थ को नहीं बताता। यह भी एक कारण हे कि बहुत से लोग इन आन्दोलनों को वस्तुपरक दृष्टि से ग्रहण करने की बजाय रूमानियत में आकर ग्रहण करते हैं। आगे चलकर आन्दोलन में एक विभ्रम की स्थिति बनी रहती है। बाद में मोहभंग भी होता है।
जो भी हो समाज में सम्प्रेषण का संकट आज ज्यादा गहरा है बनिस्बत तब के, जब जॉर्ज ऑर्वेल ने ‘उन्नीस सौ चौरासी’ में अंग्रेजी भाषा के राजनीतिक प्रयोग में शब्दों के अर्थ को विकृत करने के रूझान को रेखांकित किया था। उस समय मामला सिर्फ राजनीति के होने वाले दुष्परिणाम का था, जिससे तानाशाही पैदा होती है। लेकिन आज वैश्वीकरण के दौर में भाषा जीवन के हर क्षेत्र में दूषित है। निजी रिश्ते, नाते, और सभी मानवीय सम्बन्ध अर्थहीन हो गये हैं। हर व्यक्ति एक ‘कमोडिटी’ बन कर बाजार में खड़ा है और अपनी कीमत का आकलन उन सभी वस्तुओं के बरक्स कर रहा है, जिन्हें मीडिया उनके सामने प्रस्तुत करता है। समाज में आदमी दरअसल भाषा से वैसा ही आवृत है जैसे उस हवा से जिसमें वह सांस लेता है। उसका सारा मानवीय अस्तित्व उसकी भाषा से निर्धारित होता है।
आज के समाज में मीडिया उन सारे मूल्य बोधों को नष्ट करने के अभिप्राय से संचालित है, जिनसे हम परिचित हैं। सुनामी की त्रासदी के विवरणों के टीवी पर प्रसारण के तुरन्त बाद किसी सौन्दर्य प्रसाधन का विज्ञापन या ऐसी ही दूसरी प्रस्तुतियाँ मनुष्य के लिए त्रासद और आकर्षक जैसी अनुभूतियों का फर्क मिटा देती हैं। मनुष्य संवदेनहीन बन जाता है। लेखक कलाकार आदि की जवाबदेही ऐसे समय में कुछ बुनियादी प्रतिमान प्रस्तुत करने की होती है। लेकिन जहाँ साहित्य और कला स्वयं ‘कमोडिटी’ बन गयी हो, वहाँ साहित्यकार, कलाकार या पत्रकार यह दायित्व कैसे निभाएँगें? (साभार: मीडिया का वर्तमान -संपादक अकबर रिज़वी, अनन्य प्रकशन)