अकबर रिज़वी।
मुख्यधारा का मीडिया दरअसल पिछले दो-ढाई दशकों में पॉप मीडिया के रूप में ढल गया है। इसे पॉप म्यूजिक और फास्ट फूड की तरह ही देखा जाना चाहिए। यह उसी नव-पूँजीवाद की कल्चर इंडस्ट्री में निर्मित मीडिया है, जिसका उद्देश्य लोगों को सूचना देना, शिक्षित करना या स्वस्थ मनोरंजन करना नहीं है बल्कि एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जो बाजार के हिसाब से चले
बात बचपन की है। पाँचवी-छठी कक्षा में रहा होऊंगा! हमारे घर एक उर्दू अखबर आता था। नाम याद नहीं। लेकिन वह शे’र जरूर याद रह गया जो रोजाना अपने तयशुदा पेज पर छोटे से बॉक्स में गाढ़ी स्याही से छपा होता था। ”न स्याही के हैं दुश्मन न सफेदी के हैं दोस्त/हमको आईना दिखाना है दिखा देते हैं।” शायर जरूर कोई सहाफी ही रहा होगा! रोज-रोज देखते-पढ़ते यह शे’र जह्न में जज्ब हो गया। एक धारणा बनी, पत्रकार तटस्थ द्रष्टा है। बिल्कुल महाभारत के संजय की तरह। (संदेह है कि युद्ध के मैदान में इंसानों को कटता-मरता देखकर भी संजय बिल्कुल निर्विकार बना रहा होगा! सम्भव है उसके मन में किसी पक्ष के प्रति सहानुभूति रही हो! किन्तु उसने इसको प्रत्यक्ष न होने दिया हो! या यह भी सम्भव है कि ये सब देखते-देखते उसमें जीवन के प्रति वितृष्णा ही उत्पन्न हो गई हो!) पत्रकारिता हमारे जीवन-जगत की प्रत्येक छोटी-बड़ी, अच्छी-बुरी घटनाओं की सूचना हम तक पहुँचाती है। आईना दिखाती है। तब यह प्रश्न या शंका मन में उठी ही नहीं कि आईना दिखाना भी एक कला है। किस कोण से, कब और किन परिस्थितियों में आईना दिखाना है, यह तो वही तय करता है जिसके हाथ में आईना होता है।
उम्र के साथ समझ बढ़ी और यह राज खुला कि पत्रकार आईना नहीं दिखाता। वह प्रकाश-परावर्तन के माध्यम से किसी घटना के किसी खास हिस्से अथवा अंश को आलोकित करता है ताकि उसे हम देख/जान सकें। वह जितना दिखाता है, सूचित करता है, उससे कई गुना अधिक को छुपा जाता है। उपेक्षित छोड़ देता है। हम उतना ही देखते या जानते हैं, जितना वह दिखाता या बताता है। पाठक/दर्शक होने के नाते हम यह मानकर चलते हैं कि जो सूचना विभिन्न माध्यमों द्वारा सम्प्रेषित की जा रही है, वह ‘प्रायोजित’, ‘प्रॉपगेटेड’, ‘अफवाह’ अथवा ‘अर्द्धसत्य’ जैसी नहीं है। ऐसा इसलिए कि परम्परागत रूप से मीडिया को ‘निष्पक्ष’ माना जाता है। ‘निष्पक्ष’ होना बड़ी जिम्मेदारी का काम है। बकौल प्रमोद जोशी ”जब आप पक्षधर हो जाते हैं, तब किसी के पक्ष या किसी के खिलाफ विचार बड़ी तेजी से निकलते हैं। जब आप निष्पक्ष होते हैं तब विचार व्यक्त करने में समय लगता है। सबसे पहले अपने आपको समझना होता है कि क्या मैं निष्पक्ष हूँ? ऐसी स्थिति में असमंजस की पूरी गुंजाइश होती है। पर संतोष होता है कि किसी की धारा में नहीं बहे। यह संतोष पत्रकार का है।” किन्तु मीडिया के वर्तमान परिदृश्य पर गौर करें तो निष्कर्ष यही है कि पत्रकार निष्पक्ष नहीं होता। ऐसा इसलिए नहीं कि शब्द खर्च करने में आज के पत्रकार दरियादिल हैं या कि खबरों में विशेषणों का इस्तेमाल बढ़ गया है। बल्कि इसलिए कि ‘मिशन’ वाली पत्रकारिता का अन्त सन् सैंतालीस में ही हो गया था। बाद के परिदृश्य में ‘निष्पक्ष होना’ एक निष्प्राण मुहावरा भर रह गया। निश्चय है निष्पक्षता आपको गम्भीर बनाती है, झिझक पैदा करती है, जिम्मेदारी का बोध जगाती है। तथ्यों की तह तक जाकर पड़ताल को बाध्य करती है। उस खबर का समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इसके आंकलन को बाध्य करती है। किन्तु पिछले ढाई दशकों में आए तकनीकी और प्रबंधकीय बदलावों ने ‘ब्रेकिंग’ और ‘बिजनेस’ का ऐसा नुस्खा तैयार किया है कि सोचने का वक्त ही नहीं बचा।
वैसे पत्रकारिता और निष्पक्षता के प्रश्न पर ‘जनसत्ता’ के सम्पादक ओम थानवी का दृष्टिकोण प्रमोद जोशी से बिल्कुल भिन्न है, थानवी के लिए ”निष्पक्षता एक दकियानूसी और बोदा टोटका है। इसका इस्तेमाल पत्रकार अपनी शेखी बघारने के लिए और दुखी आत्माएँ ‘दुश्मन’ पत्रकारों को चुप कराने के मुगालते में बापरती हैं-निष्पक्षता की दुहाई उछाल कर उसे दलाल, महत्वाकांक्षी आदि करार देते हुए! कहना न होगा कि दुष्प्रचार के बावजूद ये लोग अपने कमसद में शायद ही सफल हो पाते हों! कोई पत्रकार निष्पक्ष नहीं होता; हरेक का अपना एक जनरिया, एक पक्ष होता है- होना चाहिए। इतना ही है कि उसे अपना पक्ष, अपनी सोच बेखौफ रखनी चाहिए- मर्यादित ढंग से, ईमानदारी के साथ, नितांत निस्स्वार्थ भाव से।” इस कथन से सहमत होने के बावजूद संदेह नहीं जाता। मर्यादा, ईमानदारी, नि:स्वार्थ, बेखौफ, जनपक्षधरता जैसे शब्दों का सन्दर्भ बदल गया है। सम्भ्व है, पहले से ही बदला रहा हो किन्तु अहसास अब हो रहा हो।
‘पत्रकार निष्पक्ष नहीं होता।’ क्योंकि वह जिस मीडिया संस्थान के लिए काम करता है, उसका मालिक मुनाफा कमाने आया है। उसने पूँजी लगाई है। पत्रकारिता पर सत्ता-व्यवस्था का खौफ और पूँजी का दबाव हमेशा से रहा है। आजादी से पहले कम्पनी सरकार के खिलाफ लिखते हुए, विक्टोरिया महारानी की प्रशंसा पत्रकारीय उदारता नहीं, भयजन्य बाध्यता ही थी। आजादी के बाद नेहरू-युग को छोड़ दें तो मुख्यधारा की मीडिया ने कभी भी पत्रकारिता के उसूलों को अधिक तवज्जों नहीं दी। मुमकिन है कि ऐसा पेशागत मजबूरी के कारण ही हुआ हो। आपातकाल के दौरान अधिकांश पत्रकारों-सम्पादकों ने सत्ता के समक्ष घुटने टेके या टेकने पर मजबूर हुए। प्रभाष जोशी, राजेन्द्र माथुर, गिरधर राठी कमलेश शुक्ल जैसे कुछ ही नाम ऐसे हैं, जिन्होंने सत्ता के दमन का निर्भीक होकर मुकाबला किया। कुछ को तो जेल भी जाना पड़ा था। रही नि:स्वार्थता की बात तो फिर प्रश्न उठता है कि चुनावों के दौरान ‘पेड-न्यूज’ और आम दिनों में ‘च्यूइंगम-जर्नलिज्म’ के माध्यम से दल-विशेष अथवा व्यक्ति-विशेष को ख्यात/कुख्यात करने की परिपाटी केसे सांसे लेती रहती हैं? जन-पक्षधर होने के बावजूद मीडियाकर्मियों की निगाह आदिवासियों की समस्याओं, दलितों-पिछड़ों के खिलाफ होने वाले अपराध और नरसंहारों की तरफ क्यों नहीं उठती? ईमानदार हैं तो सरकार के जन-विरोधी फैसलों को जनहित मे लिया गया लिखने/दिखाने की ऐसी क्या मजबूरी है? और रही मर्यादा की बात तो सन् 1990 से लेकर अब तक मीडिया ने कभी इसकी परवाह नहीं की। विशेष रूप से साम्प्रदायिक दंगों एवं राजनीति के मामले में यह अफवाहों का राजा ही सिद्ध हुआ है। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान मीडिया ‘मास’ पर हावी रहा। ‘ओपीनियन बिल्डिंग’ का माध्यम बना। पॉलिटिक्स भी बिजनेस में तब्दील हो गई और नेता प्रोडक्ट बन गया। यह एक नया ट्रेंड है- इमेज बिल्डिंग का ट्रेंड। अपनी छवि निखारने के लिए राजनेताओं ने पीआर एजेंसियों की मदद ली। और इस तरह कॉर्पोरेट और पॉलिटिक्स के साथ पब्लिक रिेलेशन एजेंसियों और मीडिया की सांठगांठ के नये युगा का सूत्रपात हुआ।
वास्तव में समस्या की जड़ मीडियाकर्मी हैं ही नहीं। सारा प्रपंच बाजार का है। मीडिया संस्थानों की बदमाशी है। रीढ़ की बात कहने-सुनने में ही अच्छी लगती है। हकीकत तो यही है कि नौकर को मालिक की इच्छा का सम्मान और उसके आदेश का पालन करना ही पड़ता है। मालिक तनख्वाह देता है इसलिए उसकी बात माननी पड़ेगी। मालिक पूँजी लगाता है, इसलिए उसको मुनाफा चाहिए। मुनाफा तभी होगा जब विज्ञापन आएंगे। विज्ञापन तभी आएंगे, जब विज्ञापनदाता को यह भरोसा हो कि ऐसा करने से उसके प्रोडक्ट की बिक्री बढ़ेगी। यह एक प्रकार की चक्रीय श्रृंखला है। सभी एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं और परस्पर निर्भर भी। अर्थात ‘एक हाथ ले, एक हाथ दे’ वाली उक्ति यहां चरितार्थ होती है।
अखबार की प्रसार संख्या या किसी टेलीविजन चैनल की पहुंच विज्ञापन का आधार नहीं है। विज्ञापन का आधार ‘आय-वर्ग’ है। टीवी तो घर-घर में है। जिन झुग्गी-झोंपडियों में पानी और शौचालय की व्यवस्था नहीं है, उनमें भी ‘डिश’ या केबल कनेक्शन के तार नजर आते हैं। प्रत्येक साक्षर व्यक्ति किसी-न-किसी बहाने अखबार से आंखें चार जरूर करता है। लेकिन यह बाजार के काम का व्यक्ति नहीं है। जो बाजार के काम का व्यक्ति है, उस व्यक्ति तक मीडिया की पहुँच है या नहीं? यही बाजार के लिए महत्वपूर्ण है। यानी बाजार की नजर लोअर और अपर मिड्ल क्लास पर है। उच्च वर्ग की बात करना बेमानी है क्योंकि उसको किसी प्रोडक्ट की खरीद के लिए लुभाने-ललचाने की आवश्यकता नहीं है। मध्य-वर्ग की जेब से रूपये खींचना थोड़ा मुश्किल काम माना जाता है और विज्ञापन इसी मकसद को हासिल करने का माध्यम है।
बाजार का विश्वास ‘संतोषम परम सुखम’ या ‘सादा जीवन उच्च विचार’ जैसे मुहावरों में नहीं है। हो भी नहीं सकता। घोड़ा घास से दोस्ती कर लेगा तो खाएगा क्या? बाजार को चाहिए लालसा, बाजार को चाहिए उत्सव, बाजार को चाहिए प्रतिस्पर्धा, बाजार को चाहिए भोग-लोलुप जीवन-समाज और संस्क़ति। और मीडिया को क्या चाहिए? मीडिया को चाहिए बाजार। बाजार मीडिया को महत्व कब देगा? जब मीडिया बाजार की जरूरतों को महत्व देगा। अर्थात जब मीउिया अपने पाठक-दर्शक में लालसा की चिंगारी भड़काएगा। मुकेश कुमार से शब्द उधार लें तो कह सकते हैं कि “मुख्यधारा का मीडिया दरअसल पिछले दो-ढाई दशकों में पॉप मीडिया के रूप में ढल गया है। इसे पॉप म्यूजिक और फास्ट फूड की तरह ही देखा जाना चाहिए। यह उसी नव-पूँजीवाद की कल्चर इंडस्ट्री में निर्मित मीडिया है, जिसका उद्देश्य लोगों को सूचना देना, शिक्षित करना या स्वस्थ मनोरंजन करना नहीं है बल्कि एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जो बाजार के हिसाब से चले। इस कल्चर इंडस्ट्री का पॉप मीडिया उस पॉपुलर विमर्श को ही मजबूत करने का काम करता है जो बड़ी पूँजी से संचालित लोकतन्त्र के हित में हो। पूरी पत्रकारिता अब इसी पॉप मीउिया के इशारों पर नर्तन कर रही है। जब वर्तमान सरकार पूरी निर्ममता के साथ बाजार के पक्ष में खड़ी है, तो जाहिर है पॉप मीडिया को भी उसी का साथ देना है क्योंकि वह उससे अलग नहीं, उसका अभिन्न हिस्सा है।” ठीक ही है, जब राजनेता ‘रॉकस्टार’ हो सकता है। जब धर्मगुरू ‘फिल्म स्टार’ हो सकता है। जब साधु-संत-साध्वी, मुफ्ती-मौलाना आदि एमएलए-एमपी-मन्त्री आदि बन सकते हैं, महानगरों में बाबाओं के आश्रम बन सकते हैं, तब मीडिया ‘पॉप’ और मीडियाकर्मी ‘पॉपस्टार’ क्यों नही हो सकते?
वस्तुत: मीडिया का वर्तमान बेहद उलझा हुआ है। इसको समझने के लिए सत्ता-राजनीति, अर्थव्यवस्था और पूँजी के ताने-बाने को समझना जरूरी है। तभी बाजार और मीडिया के अन्तर्सम्बन्धों की पहचान मुश्किल हो सकेगी और तभी हम मीडिया के वर्तमान को भी समझ सकेंगे।
सम्प्रेषण के माध्यमों और औजारों में निस्संदेह वृद्धि हुई है। आज सैकड़ों टेलीविजन चैनल और रेडियो स्टेशन हैं। अखबारों की सूची भी छोटी नहीं है। इंटरनेट की सुविधा के बाद करोड़ों की तादाद में बेबसाइट्स, सोश्यल साइट्स, ब्लॉग्स और गैजेट्स-एप्पस आदि अस्तित्व में आए हैं। ऐसा लगता है कि अब मीडिया की दुनिया में विकल्पों का इफरात है, उदारीकरण में मीडिया का लोकतान्त्रीकरण कर दिया है। लेकिन यह महज छलावा है। सूचनाओं का संकुचन पहले की बनिस्बत कहीं अधिक हो रहा है। विकल्प-बाहुल्य के बावजूद दर्शक-पाठक स्वयं को विकल्पहीनता की स्थिति में पा रहा है। बात अचरज की है, लेकिन बिल्कुल सही है। ‘जनहित’ शबद अब मीडिया की प्राथमिकता सूची से गायब है। उदारीकरण के बाद से मीडिया का आचरण क्रमश: संदिग्ध ही होता गया है। मीडिया पहले लोकसेवक की श्रेणी में आता था, फिर बिजनेस की श्रेणी में आया और अब यह निगमीकृत हो रहा है। यह चंद कॉर्पोरेट्स की मुटठी में कैद हो गया है। क्रॉस-मीडिया ऑनरशिप के कारण भी विश्वसनीयता का संकट घनीभूत हुआ है। राजनीतिक दल और राजनेता भी निहित स्वार्थों के कारण इस मंच का दुरूपयोग कर रहे हैं। पिछले दो आम-चुनाव इसके प्रमाण हैं। पेड-न्यूज, प्रॉपगंडा सेटिंग, च्युइंगम जर्नलिज्म जैसे रोग असाध्य हो चले हैं। मीडिया संस्थानों में अघोषित सेंसरशिप लागू है। मीडियाकर्मी अपने भविष्य को लेकर सहज नहीं हैं। नैतिकता की बात नौकरी पर लात मारने जैसी है। मीडिया में लोकतन्त्र नहीं बचा है। भारत जैसे बहुलता वाले लोकतान्त्रिक गणराज्य के लिए मीडिया एक खतरे के रूप में उभरा है। न्यू मीडिया से उम्मीद तो बंधती है, किन्तु कब तक? यह प्रश्न बेचैन करने वाला है। मीडिया, राजनीति और बाजार की अन्तर्कथाएँ अन्तहीन हैं।
कहने को तो यह आज भी कहा जाता है कि मीडिया वस्तुत: लोगों तक सूचना, शिक्षा और मनोरंजन पहुँचाने का एक माध्यम है और अर्थव्यवस्था के समग्र विकास में इसकी भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है। किन्तु वर्तमान परिदृश्य सर्वथा विपरीत है। यह ज्ञान और तथ्य के युग में अज्ञान और प्रॉपगंडा का प्रसारक बन चुका है। आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मसलों की गम्भीरता और अर्थवत्ता को इसने कुंठित किया है और कर रही है। पॉपुलर कल्चर की आड़ में बाजार का दरबारी राग चौबीस घंटे लगातार। ऐसी परिस्थिति में यह कहना कि ‘मीडिया राष्ट्र के अन्त:करण का रक्षक है’, प्रवंचना ही है
(साभार: मीडिया का वर्तमान -संपादक अकबर रिज़वी, अनन्य प्रकशन)