डॉ. देवव्रत सिंह।
कई चैनलों में पत्रकारों को महीनों तक नाइट डयूटी पर रखा जाता है। इसी फार्मूले के मुताबिक कुछ लोगों को अच्छा वेतन दिया जाता है और बाकी अधिकांश स्टाफ को न्यूनतम वेतन पर रखा जाता है। वेतन 5000 रूपये से दो लाख तक हो सकता है। युवा अकसर शानदार वेतन पाने वाले नाम-गिरामी पत्रकारों को अपना आदर्श बना कर चलते हैं लेकिन वे नहीं जानते हैं कि ऐसे लोगों की संख्या चैनल में पांच प्रतिशत भी नहीं हैं
पिछले दिनों दो छात्राएं दिल्ली के एक प्रतिष्ठित चैनल में छह महीने की ‘इंटर्नशिप’ करके लौट आयी। छह महीने की इसलिए क्योंकि चैनल में एक महीने की ट्रेनिंग के बाद उन्हें लगातर नौकरी का झांसा देकर इंटर्नशिप जारी रखने को कहा गया था और जब आखिरकार थककर उन्होंने चैनल छोड़ने का फैसला किया तो बॉस ने अयोग्य बताकर उन पर राजनीति करने का आरोप जड़ दिया। उनके अलावा चैनल में करीब पचास इंटर्न और काम कर रहे थे दरअसल उन छात्राओं के इस तरह चैनल छोड़ने से अन्य इंटर्न्स में भी बेचैनी बढ़ गयी। मुफ्त में काम करने वाले ‘मीडिया मजदूर’ बने इन इटर्नों के अलावा लगभग इतने ही स्टाफ को वेतन के आधार पर भी रखा गया था।
ये किसी एक चैनल की कहानी नहीं है बल्कि देश के अनेक प्रतिष्ठित चैनलों के अंदर का क्रूर सच है। जिसके बारे में शायद कभी भी आम लोगों को पता ही नहीं चल पाता और ना ही किसी पत्रकार में इसे उजागर करने की हिम्मत होती है। विडम्बना ये है कि सारी दुनिया में अन्याय के खिलाफ कैमरे के सामने खड़ा होकर पीटीसी करने वाला रिपोर्टर जब खुद अन्याय का शिकार होता है तो उसका शोषण खबर भी नहीं बन पाता। जब 1999 में बिजनेस इंडिया ग्रुप के चैनल टीवीआई में लंबे समय तक वेतन ना मिलने के कारण पत्रकार हड़ताल पर चले गये थे तो सबकी खबर बनाने वाले पत्रकारों की खबर किसी अखबार या चैनल ने नहीं बनायी थी और ये बात आज भी इतनी ही सच है।
भारतीय लोकतंत्र में इस समय टेलीविजन समाचार चैनल सबसे बड़े हीरो बने हुए हैं। स्टिंग ऑपरेशन के जरिये टेलीविजन चैनल भ्रष्ट अधिकारियों का पर्दाफाश कर रहे हैं। इतिहास में पहली बार सांसदों को खुफिया कैमरे की मुंह की खानी पड़ी। राजनीतिज्ञ ही नहीं बल्कि समाज के लगभग हर हिस्से की खामियां उजागर कर उसमें सुधार करने का बीड़ा पत्रकारों ने उठा लिया है। अब तो नागरिक पत्रकारिता का जमाना है, टेलीविजन चैनल आम नागरिकों के लिए एक ऐसा प्लेटफॉर्म बनाने का दावा कर रहे हैं, जिसका प्रयोग करके आम जनता अपनी आवाज बुलंद कर सकेगी। हालांकि ये भी शोध का विषय हो सकता है कि टेलीविजन पर कुछ पर्दाफाश होने के बाद जमीनी हालात में कितने और कैसे परिवर्तन आये हैं। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि टेलीविजन चैनलों ने एक प्रकार से संकटमोचक अवतार का रूप ले लिया है। जिसके साथ ग्लैमर, ताकत, पैसा और सत्ता सभी कुछ जुड़ गया है।
नतीजा ये निकला कि हजारों की तादाद में युवा टेलीविजन पत्रकारिता की ओर आकर्षित हुए हैं। विभिन्न संस्थानों से डिग्री-डिप्लोमा हासिल करने वाले युवा शायद ही जानते हों कि सारी दुनिया को व्यवस्था और नियम कायदे का पाठ सिखाने वाले टेलीविजन चैनल खुद बहुत ही अफरातफरी और अव्यवस्था की स्थिति में काम करते हैं। टेलीविजन जगत के अंदरूनी हालात केवल अंदर पहुंच कर ही मालूम पड़ते हैं। युवाओं में टेलीविजन के प्रति आकर्षण इस कदर है कि हर हाल में वे काम करना चाहते हैं चाहे मुफ्त ही क्यों ना करना पड़े।
देश में कॉरपोरेट जगत की बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने कर्मचारियों को भर्ती करने के लिए विधिवत विज्ञापन करके आवेदन आमंत्रित करती है टेस्ट और इंटरव्यू करके प्रतिभा के आधार पर चयन करती है। कैम्पस इंटरव्यू भी चयन का एक आधार होता है लेकिन अधिकांश टेलीविजन चैनल ना तो अपने स्टाफ की भर्ती के लिए विज्ञापन करते और ना ही कोई व्यवस्थित और पारदर्शी आधार पर पत्रकारों का चयन करते। इनाडू टेलीविजन इस मामले में अपवाद कहा जायेगा। इनाडू समूह ना केवल अपनी भर्ती के लिए अखबारों में विज्ञापन करता है बल्कि लिखित परीक्षा के बाद अपने खर्च पर हैदराबाद में इंटरव्यू के लिए बुलाता है और रूकने-खाने की व्यवस्था करता है। अधिकांश चैनलों में जो भी भर्ती होती है उसमें जान-पहचान या नेता-अफसरों के संपर्कों की विशेष भूमिका रहती है। यहां तो केवल सिफारिश का आरक्षण चलता है।
लेकिन किसी भी चैनल अधिकारी से बात करें तो वो यही कहेगा कि सब कुछ नियम के मुताबिक होता है। नौकरी के लिये चयन हो भी गया हो तो कहा नहीं जा सकता कि कितने दिन तक नौकरी बनी रहेगी। पिछले दिनों एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने नये मैट्रो चैनल के लिए बिना पत्रकारिता प्रशिक्षण लिए हुए चेहरों को थोक में भर्ती कर लिया लेकिन इस बीच हालात ऐसे बने कि उनकी ही चैनल से छुट्टी कर दी गयी। तो सारी नयी भर्तियों का खटाई में पड़ना भी स्वाभाविक था।
अन्य कंपनियों की तरह टेलीविजन चैनलों में काम के अनुपात में कर्मचारियों की संख्या का कोई फार्मूला काम नहीं करता। निर्णय में केवल एक ही पैमाने का प्रयोग किया जाता है वो है किस प्रकार कम से कम लोगों से अधिक से अधिक काम लिया जा सकता है। इसलिए मल्टीस्किलिंग के नाम पर बहुत कम पत्रकारों से ही पूरे चैनल चलाये जा रहे हैं। काम के घंटे अनियमित और लंबे हैं। कई चैनलों में पत्रकारों को महीनों तक नाइट डयूटी पर रखा जाता है। इसी फार्मूले के मुताबिक कुछ लोगों को अच्छा वेतन दिया जाता है और बाकी अधिकांश स्टाफ को न्यूनतम वेतन पर रखा जाता है। वेतन 5000 रूपये से दो लाख तक हो सकता है। युवा अकसर शानदार वेतन पाने वाले नाम-गिरामी पत्रकारों को अपना आदर्श बना कर चलते हैं लेकिन वे नहीं जानते हैं कि ऐसे लोगों की संख्या चैनल में पांच प्रतिशत भी नहीं हैं।
बहुत कम लोग जानते हैं कि मोटे वेतन की हकीकत क्या है। अनेक चैनलों में पे स्लिप पर पत्रकारों की तनख्वाह कम होती है और उन्हें अनेक भत्तों के नाम पर उससे कई गुणा ज्यादा वेतन दिया जाता है। इससे टैक्स भी बचता है तो कंपनी को भी कर्मचारी अंशदान निधि में कम हिस्सा देना पड़ता है। इसके अलावा कुछ चैनल अपने कर्मचारियों को पे स्लिप पर वेतन काफी कम देते हैं और बाकी का पैसा उन्हें कैश में देते हैं जिसका कंपनी के खाते में कोई हिसाब ही नहीं होता। लेकिन ये सब इसलिए अच्छे से चलता रहता है क्योंकि संविदा पर होने के कारण ना तो कभी कर्मचारी कुछ कह पाता है और ना ही इन सब पर कोई स्टिंग ऑपरेशन करने वाला होता है।
चैनलों में कर्मचारियों की वेतन वृद्धि और पदोन्नति की भी कोई विवेकपूर्ण और तार्किक व्यवस्था मौजूद नहीं है। इसकी वजह से हमेशा कर्मचारी असंतोष और कुंठा में जीते हैं। वेतन विसंगतियां तो आम हैं, अनेक बार एक ही संस्थान से पढ़कर आये नये छात्र को अपने दो साल सीनियर से ढेड या दो गुणा वेतन पर रख लिया जाता है। डेस्क पर काम करने वालों की तुलना में एंकरों को अनापशनाप वेतन दिया जाता है। विसंगति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले बीस साल से पत्रकारिता में लगे हुए एक वरिष्ठ पत्रकार की तुलना में दो साल पहले आयी एक युवा लड़की एंकर को दो गुणा वेतन पर भी रखा जा सकता है।
साल भर चैनल में लोगों का आना जाना लगा रहता है। कुछ दूसरे चैनलों में अच्छे वेतन के लिए छोड़े कर चले जाते हैं तो कुछ को विपरित हालात पैदा करके चैनल छोड़ने को मजबूर कर दिया जाता है। एक नया बॉस चैनल में आया तो समझो उसके साथ कई नये लोग भी चैनल में आयेंगे ही। इसी प्रकार एक बॉस को निकाला गया तो उसके साथ आये लोगों की भी छुट्टी होना लगभग तय समझो। पत्रकारों की जबरदस्त गुटबाजी के बीच अनेक बार सीधे और काबिल लोग घुन की तरह पिस जाते हैं। चापलूस किस्म के लोग स्थिति का फायदा उठाकर आगे निकल जाते हैं। इस माहौल में पत्रकार अधिकांश समय तो अपनी नौकरी बचाये रखने की जोड़-तोड़ में ही व्यस्त रहते हैं।
टेलीविजन पत्रकारिता का हाल ये है कि एक बार मिड लेवल का कोई पत्रकार बेरोजगार हो जाये तो उसे दोबारा उसी पद के समकक्ष नौकरी मिलना बहुत मुश्किल है। अकसर पत्रकार मेट्रो शहरों में फ्लैट खरीदने के लिए मोटे होमलोन की गिरफ्त में आ जाते हैं और एक बार बेरोजगार होने के बाद होमलोन की किस्त चुकाना भी मुश्किल हो जाता है। दिल्ली में पिछले कुछ सालों के दौरान कई बेरोजगार पत्रकारों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं को इस संदर्भ में भी देखने की आवश्यकता है।
इतने पर भी चैनल मालिक का दबाव भी अलग तरीके से पत्रकारों के काम को प्रभावित करता है। अगर मालिक ने तय कर लिया कि उसका एक रिश्तेदार सम्पादकीय टीम का महत्वपूर्ण पद संभालेगा तो तमाम अयोग्यताओं के बावजूद आपको उसके साथ काम करना ही होगा। अक्सर चैनल मालिक संपादकीय टीम पर दबाव बनाये रखने के लिए इस प्रकार का एक प्यादा फिट करके रखता ही है। पिछले एक दशक के घटनाक्रम से कुछ चैनलों के बारे में तो ये साफ तौर पर कहा जा सकता है कि वहां दो तीन साल से अधिक प्रमुख पदों पर काम करना कठिन ही है।
अनिश्चितता के इस माहौल में टेलीविजन पत्रकार भले ही पहले से अधिक घंटे काम कर रहे हों लेकिन इतना तो वे भी जानते हैं कि लंबे समय तक इस प्रकार काम करना शारीरिक रूप से उन्हें कमजोर तो बनाता ही है साथ ही इस प्रकार की व्यस्त दिनचर्या उनके सामाजिक जीवन को तहस-नहस कर देती है। उनका परिवारिक जीवन भी इसके बुरे प्रभाव से नहीं बच पाता। कुछ अरसे बाद समयाभाव में उन्हें अधिक वेतन भी व्यर्थ लगने लगता है। क्योंकि उस वेतन का आनंद उठाने का समय भी उसके पास नहीं होता। यही कारण है कि टेलीविजन अब भी युवा लोगों का माध्यम बना हुआ है। चैनलों में चालीस के पार पत्रकार बहुत कम देखने को मिलते हैं।
विडम्बना ये है कि सारे तकनीकी विकास का लाभ चैनल का मुनाफा बढ़ाने में तो हुआ लेकिन उसका फायदा पत्रकारों को नहीं हुआ। पिछले दिनों एक शोध में पाया गया कि देश के दस सबसे अधिक तनाव और मानसिक दबाव वाले पेशों में एक टेलीविजन पत्रकारिता का भी है। वैसे अमेरिका की तरह भारत में अभी इसी प्रकार की किसी शोध का शुरूआत नहीं हुई है। जिसमें ये पता लग सके कि पेशेवर टेलीविजन पत्रकारों की स्थिति चैनलों में कैसी है। उनके काम के घंटे कितने हैं। उन्हें किन दबावों में काम करना पड़ता है और इस निरंतर दबाव का उनके शरीर, मन और परिवार पर क्या प्रभाव पड़ते हैं।
अधिकाधिक लाभ के लिए चैनल नित नये हथकंडे अपना रहे हैं। एक चैनल जब बाजार से विज्ञापन नहीं जुटा पाया तो उसने छात्रों से इंटर्नशिप कराने के भी अच्छे खासे पैसे वसूलने शुरू कर दिये। अनेक चैनलों ने ट्रेनिंग के नाम पर अपने इंस्टीट्यूट खोल लिये हैं और वे भी छात्रों से मोटी रकम वसूल रहे हैं। चैनल में नौकरी के लालच में उनमें छात्र दाखिला ले भी रहे हैं। इससे चैनलों को फीस भी मिलती है तो अपने मुताबिक प्रशिक्षित छात्र भी। अधिकांश चैनल समूह इकलौते नहीं बल्कि अब समाचारों के ही अनेक चैनल चला रहे हैं। एक ही फुटेज अलग-अलग ढंग से एडिट करके वे विभिन्न भाषाओं के चैनलों पर दिखाते हैं। साथ ही एक चैनल की तुलना में अधिक चैनल चलाना सस्ता सौदा है।
दरअसल इस सारी बहस में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न ये उठता है कि टेलीविजन चैनलों की अंदरूनी हालत ऐसी क्यों है। क्यों चैनल दिन दुगनी रात चैगुनी तरक्की तो कर रहे हैं लेकिन इस तरक्की का फायदा अधिकांश पत्रकारों को नहीं मिल रहा। टीआरपी की अंधी दौड़ में आगे निकलने के लिए सारे चाबुक रिपोर्टरों और प्राडयूसरों पर ही क्यों चलाये जा रहे हैं। सवाल ये भी उठता है कि एक व्यवस्थित स्तरीय पेशा बनने के लिए क्या पत्रकार जगत युवा पत्रकारों के लिए उचित और मानवीय प्रशिक्षण की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ सकता है। और इस सारे प्रकरण में पत्रकारिता शिक्षण में लगे संस्थान कहां तक जिम्मेदार हैं।
देश में टेलीविजन चैनलों की संख्या में जिस तरह रातोंरात इजाफा हुआ है उससे हम खुश हो सकते हैं लेकिन वर्तमान अंदरूनी स्थिति केवल ये इंगित करती है कि ये विकास काफी बेतरतीब, ताबड़तोड़ और असमान हैं। जिसे काफी व्यवस्थित किये जाने की गुंजाइश है। क्योंकि मुनाफे के लिए भले ही प्रयोग के नाम पर चैनल कुछ भी करें लेकिन देर-सबेर कंटेंट की गुणवत्ता में ही मुकाबला होना है और कंटेंट को बेहतर बनाने के लिए जरूरी है कि उसे बनाने वाले बेहतर मानसिक, शारीरिक और आर्थिक स्थिति में हों। यही तर्क साबित करता है पत्रकारों की बेहतर स्थिति अंततः चैनल और सारे पत्रकारिता जगत की बेहतरी के लिये जरूरी है।
डॉ. देवव्रत सिंह, अध्यक्ष, जनसंचार केन्द्र, झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय, रांची
मीडिया संस्थाओं की सही तस्वीर बयान कर रहा है यह लेख..