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Home Contemporary Issues

कैसे होगी पत्रकारों की सुरक्षा?

कैसे होगी पत्रकारों की सुरक्षा?

आनंद प्रधान।

इस समय एक सजग, सतर्क और सक्रिय स्थानीय समाचार मीडिया की बड़ी जरूरत है जो न सिर्फ भ्रष्टाचार-अनियमितताओं और विकास योजनाओं और सार्वजनिक सम्पदा की लूट का पर्दाफाश करे बल्कि जन-प्रतिनिधियों और अफसरों की जवाबदेही सुनिश्चित करे

क्या भारत पत्रकारों के लिए असुरक्षित देश बनता जा रहा है जहाँ उनपर अपराधियों-कारोबारियों-अफसरों-नेताओं के संगठित गिरोह की ओर से हमले और उत्पीड़न की घटनाएँ बढ़ रही हैं? क्या देश में पत्रकारों की जान सस्ती हो गई है क्योंकि उनके उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार अपराधियों पर आमतौर पर कोई कार्रवाई नहीं होती है और वे बेख़ौफ़ छुट्टा घूमते हैं? क्या पत्रकारों को ताकतवर हित समूहों (पुलिस-प्रशासन सहित) की ओर से चुप करने की संगठित कोशिश हो रही है? क्या उनपर सच को सामने न लाने और खासकर भ्रष्टाचार/अनियमितताओं का भंडाफोड़ न करने का दबाव बढ़ता जा रहा है और इसके लिए उनपर हमले बढ़ रहे हैं?

अफ़सोस और चिंता की बात यह है कि इनमें से सभी का उत्तर ‘हाँ’ है. असल में, हाल के महीनों में पूरे देश खासकर उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश में जिस तरह से दो जिला स्तरीय पत्रकारों की जलाकर हत्या की घटना सामने आई है, मध्य-प्रदेश के व्यापम घोटाले की जांच के लिए गए ‘आज तक’ के पत्रकार अक्षय सिंह की रहस्यमय मौत हुई है और पत्रकारों के उत्पीड़न के मामले सामने आये हैं, उससे पत्रकारों की सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर बहस में है. अंतर्राष्ट्रीय संगठन- कमिटी फार प्रोटेक्शन आफ जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) के मुताबिक, भारत उन देशों की सूची में 13वें स्थान पर है जहाँ पत्रकारों के खिलाफ हुए हमलों और उत्पीड़न के मामलों में गुनहगारों को उन्मुक्ति मिली हुई है.

इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आज़ादी और मुक्त प्रेस का दावा करनेवाले देश में पत्रकारों की सुरक्षा की स्थिति कितनी नाजुक और परेशान करनेवाली है. इसकी पुष्टि भारतीय प्रेस परिषद् (पीसीआई) की एक उपसमिति की पत्रकारों की सुरक्षा पर जारी ताजा रिपोर्ट से भी होती है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 1990 से 2015 के बीच ढाई दशकों में 80 पत्रकारों की हत्या की रिपोर्ट है. पत्रकारों पर शारीरिक हमलों और उनके उत्पीड़न की रिपोर्टें तो सैकड़ों में हैं. लेकिन अधिक अफसोस और चिंता की बात यह है कि पत्रकारों के उत्पीड़न के अधिकांश मामलों में स्थानीय पुलिस और प्रशासन सीधे या परोक्ष रूप से शामिल पाया गया है.

उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के स्वतंत्र पत्रकार जागेन्द्र सिंह की हत्या के मामले को लीजिये जिसमें सीधे स्थानीय पुलिस पर आरोप है कि उसने जागेन्द्र पर किरोसीन छिड़ककर जिन्दा जला दिया. जागेन्द्र के परिवार का आरोप है कि उनकी हत्या के पीछे जिले के एक दबंग नेता और उत्तर प्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री का हाथ है और पुलिस ने उन्हीं के कहने पर इस जघन्य हत्या को अंजाम दिया. कहने की जरूरत नहीं है कि जागेन्द्र का मामला अपवाद नहीं है. समाचार रिपोर्टों के मुताबिक, पिछले साल देश भर में पत्रकारों पर हमले और उत्पीड़न के 74 फीसदी मामले अकेले उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए.

लेकिन पत्रकारों पर हमलों और उत्पीड़न के मामले में उत्तर प्रदेश सभी राज्यों से आगे भले हो लेकिन देश के किसी राज्य में स्थिति बेहतर नहीं है. आश्चर्य नहीं कि प्रेस परिषद ने ‘पत्रकारों की सुरक्षा’ से संबंधित ताजा रिपोर्ट में अनुशंसा की है कि पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक सख्त कानून बनाया जाए जिसमें पत्रकारों पर हमले या उनके उत्पीड़न को संज्ञेय अपराध बनाया जाए और सख्त सजा का प्रावधान किया जाए. इसमें पत्रकारों पर हमलों और उत्पीड़न के सभी मामलों को विशेष अदालतों में भेजने और चार्जशीट दाखिल होने के एक साल के अन्दर फैसला सुनाने की अनुशंसा की गई है.

प्रेस परिषद् ने यह भी सिफारिश की है कि पत्रकारों की हत्या के मामले की जांच स्वतः सीबीआई के पास भेज देनी चाहिए. उसने पत्रकारों पर हमलों के मामलों की जांच प्रेस परिषद/अदालत की निगरानी में स्पेशल टास्क फ़ोर्स से कराने को कहा है. पीसीआई ने मारे गए पत्रकारों के परिवारजनों को 10 लाख और घायलों को 5 लाख का मुआवजा देने की सिफारिश भी की है. वह यह भी चाहती है कि केंद्र सरकार एक अतिरिक्त सचिव स्तर के अधिकारी, प्रेस परिषद की ओर से नामांकित एक सदस्य और पत्रकार संगठनों के प्रतिनिधियों की उच्च-स्तरीय समिति गठित की जाए. इसी तरह राज्यों में भी एक ऐसी उच्च-स्तरीय समिति के गठन को कहा है जो पत्रकारों पर हमलों और उनके उत्पीड़न के मामलों की जांच की निगरानी कर सके.

सवाल उठ सकता है कि पत्रकारों की सुरक्षा को इतना महत्व क्यों दिया जाए? वे आम नागरिकों से किस तरह अलग हैं? यह भी कि जब आम नागरिक असुरक्षित है और संगठित अपराध की घटनाएं बढ़ रही हैं तो पत्रकारों के लिए विशेष सुरक्षा और उनपर हमलों/उत्पीड़न के मामलों को अलग से देखने की मांग का क्या औचित्य है? सवाल यह भी है कि अगर पत्रकारों को आम नागरिकों की तुलना में अधिक और विशेष सुरक्षा मिलने लगे तो क्या वे आम नागरिकों की सुरक्षा और उनके खिलाफ बढ़ रहे आपराधिक मामलों को लेकर सक्रिय और संवेदनशील रह पायेंगे? क्या विशेष सुरक्षा की मांग उन्हें आम नागरिकों से दूर नहीं कर देगी?

यही नहीं, जब आमतौर पर राजनेताओं-अफसरों के संरक्षण में अपराधी-माफिया तत्वों का सामाजिक जीवन में दबदबा बढ़ता ही जा रहा है, सार्वजनिक सम्पत्ति और खजाने की लूट आम है और इस सबके बीच जब आम नागरिकों की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है तो ऐसे माहौल में पत्रकार कैसे सुरक्षित रह सकते हैं खासकर वे पत्रकार जो अपराध और भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने में जुटे हैं?? याद रहे कि हाल के वर्षों में सिर्फ पत्रकारों पर ही नहीं बल्कि दर्जनों भ्रष्टाचार विरोधी-सूचना के अधिकार (आर.टी.आई) कार्यकर्ताओं पर भी प्राणघातक हमले हुए हैं, कईयों की हत्या कर दी गई है या बुरी तरह से जख्मी कर दिया गया है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि पत्रकारों पर हुए हमलों की तरह इन हमलों के पीछे भी राजनेताओं-अफसरों के संरक्षण में चलनेवाले अपराधी-माफिया गिरोहों का हाथ रहा है. यही नहीं, ऐसे अनेकों मामले हैं जिनमें खुद पुलिस-प्रशासन पर किसी आपराधिक गिरोह की तरह पत्रकारों और भ्रष्टाचार विरोधी-आर.टी.आई कार्यकर्ताओं को धमकाने, उन्हें फर्जी मामलों में फंसाने और जेल में डालने, उनपर हमले करने और कई मामलों में हत्या कराने तक के संगीन आरोप हैं. जैसे हाल में शाहजहांपुर में पत्रकार जागेन्द्र को जलाकर मारने के मामले में दिखाई पड़ा. इससे साफ़ है कि पत्रकारों पर हमलों और उनके उत्पीड़न में खुद पुलिस-प्रशासन की भूमिका संदिग्ध और सवालों के घेरे में रही है.

सवाल यह उठता है कि क्या उस पुलिस-प्रशासन से पत्रकारों की सुरक्षा की अपेक्षा की जा सकती है जो या तो खुद पत्रकारों के उत्पीड़न और उनपर हमलों में सीधे-सीधे शामिल है या जिसके संरक्षण में फलने-फूलनेवाले अपराधी/माफिया गिरोह उन हमलों के सूत्रधार हैं? हालाँकि पुलिस-प्रशासन से सुरक्षा की मांग बिलकुल जायज है और यह उनकी कानूनी जिम्मेदारी भी है जिसके लिए उन्हें जवाबदेह बनाया जाना चाहिए लेकिन हाल के अनुभवों से यह साफ़ है कि पुलिस-प्रशासन और राजनेताओं-अफसरों से यह उम्मीद करना बेकार है कि वे उन पत्रकारों या व्हिसल-ब्लोवर को सुरक्षा देंगे जो भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और सार्वजनिक धन की लूट का पर्दाफाश करने की कोशिश करते हैं.

जरूरी है कि पत्रकारों और व्हिसल-ब्लोवरों की सुरक्षा के बारे में गंभीरता से सोचा जाए. लेकिन उनकी सुरक्षा सिर्फ एक अलग कानून बनाने से या पुलिस के भरोसे नहीं हो सकेगी. असल में, विशेष सुरक्षा की मांग एक रक्षात्मक मांग है. जरूरत आक्रामक होने और लड़ाई को उनके मैदान में ले जाने की है. इसके लिए सबसे बेहतर उपाय यह है कि भ्रष्टाचार और लूट-खसोट के पर्दाफाश की रिपोर्टें अधिक से अधिक और इतने अधिक समाचार माध्यमों में छपें/प्रसारित हों कि उनका मुंह बंद करना नामुमकिन हो जाए. आखिर कितने पत्रकारों की जान लेंगे और कितनों का मुंह बंद करेंगे?

ऐसे में, इस बात के बहुत कम आसार हैं कि प्रेस परिषद् की सिफारिश के मुताबिक पत्रकारों की सुरक्षा के लिए अलग से कोई कानून बनाने की पहल राजनीतिक नेतृत्व करेगा. लेकिन अगर ऐसा कोई सख्त कानून बन भी गया तो उसे अमल में लाने की जिम्मेदारी जिस पुलिस-प्रशासन पर होगी, उससे क्या इसे लागू कराने की उम्मीद की जा सकती है? असल में, एक भ्रष्ट-अपराधी तंत्र में उन पत्रकारों और व्हिसल-ब्लोवरों की जान हमेशा खतरे में रहेगी और उन्हें उत्पीड़न झेलना पड़ेगा जो उसका खुलासा करने या आवाज़ उठाने की कोशिश करेंगे. एक मायने में यह इस पेशे के साथ जुड़ा हुआ जोखिम है जो एक भ्रष्ट-अपराधी तंत्र में और संगीन और खतरनाक हो जाता है.

दरअसल, ये हमले पत्रकारों और व्हिसल-ब्लोवरों को डराने और उनका मुंह बंद कराने के लिए किए जा रहे हैं. अगर पत्रकार और व्हिसल-ब्लोवर भ्रष्टाचार-लूट खसोट, अनियमितताओं और संघर्ष के इलाकों (कनफ्लिक्ट जोन) में सुरक्षा बलों और उग्रवादियों दोनों की ओर से होनेवाले मानवाधिकार हनन के मामलों से आँखें मूंद लें तो उनपर हमले नहीं होंगे या उनका उत्पीड़न नहीं होगा. अफसोस और चिंता की बात यह है कि ज्यादातर पत्रकारों और उनके मीडिया संस्थानों ने इस सन्देश को समझते हुए यथार्थ के साथ न सिर्फ संगति और सहमति बैठा ली है बल्कि कई उसके लाभार्थियों में शामिल हो गए हैं.

असल में, देश और काफी हद तक राज्यों की राजधानियों से दूर जिलों, कस्बों और तहसीलों और खासकर कश्मीर-उत्तर पूर्व और मध्य भारत में संघर्ष के इलाकों (कनफ्लिक्ट जोन) में स्थानीय पत्रकार सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं. वे बहुत मुश्किल भरी स्थितियों में काम करते हैं. आमतौर पर उन्हें न तो स्थाई वेतनभोगी पत्रकारों की तरह वेतन मिलता है, न ही उन्हें कवरेज के लिए कोई सुविधा मिलती है. उन्हें बहुत मामूली वेतन या रिटेनरशिप में गुजारा करना पड़ता है. कईयों को बिलकुल मुफ्त में काम करना पड़ता है. उनमें से अधिकांश को मीडिया संस्थान परिचय पत्र भी नहीं देते हैं. उनमें से ज्यादातर का पत्रकारिता में कोई शिक्षण-प्रशिक्षण भी नहीं है.

लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि हाल के वर्षों में जिस तरह से क्षेत्रीय अखबारों और न्यूज चैनलों का विस्तार हुआ है और जिला संस्करण प्रकाशित होने लगे हैं और जिलों की ख़बरों की मांग बढ़ी है, उसके कारण समाचार संस्थानों का उनके बिना काम भी नहीं चल सकता है. अखबारों के स्थानीय संस्करणों और क्षेत्रीय न्यूज चैनलों की सफलता में उनकी बहुत बड़ी भूमिका है. इसके बावजूद उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है और आज भी उन्हें बंधुआ मजदूर की तरह ही समझा जाता है. आश्चर्य नहीं कि समाचार संस्थानों में न सिर्फ उनकी कोई कदर नहीं है बल्कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया है.

यही नहीं, ज्यादातर समाचार संस्थानों ने उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर उन्हें विज्ञापन एजेंट में बदल दिया है. उनकी मामूली तनख्वाह भी इसपर निर्भर करती है कि उन्होंने कितना विज्ञापन वसूल किया. यहाँ तक कि देश के सबसे ज्यादा बिकने का दावा करनेवाले अखबारों और बिना किसी अपवाद के सभी क्षेत्रीय चैनलों में जिला स्तर के स्थानीय रिपोर्टरों को सालाना विज्ञापन का टारगेट दिया जाता है. इस टारगेट को पूरा करने के लिए जाहिर है कि उन्हें जिला प्रशासन और ताकतवर हित समूहों के साथ समझौते करने पड़ते हैं. इस प्रक्रिया में खुद का खर्च चलाने के लिए थानों से लेकर सरकारी कार्यालयों तक और आला अफसरों से लेकर सांसदों-विधायकों-मुखियाओं तक और ठेकेदारों-कारोबारियों से लेकर माफियाओं तक की दलाली और जी-हुजूरी करनी पड़ती है.

यह एक कडवी सच्चाई है कि आज जिले/कस्बे के स्तर की स्थानीय पत्रकारिता का बड़ा हिस्सा न सिर्फ भ्रष्ट-अपराधी तंत्र के साथ सांठ-गांठ कर चुका है बल्कि ठेकेदारी-दलाली-पैरवी और ब्लैकमेल में शामिल है. लेकिन इसके लिए सिर्फ उन पत्रकारों को दोषी ठहराना उचित नहीं होगा. वास्तव में, इसके लिए वे समाचार संस्थान सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार-ब्लैकमेल और समझौते को संस्थाबद्ध कर दिया है. सच पूछिए तो वे इस सांस्थानिक भ्रष्ट व्यवस्था के शिकार हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो दलाली-ब्लैकमेल और गलत धंधों में शामिल पत्रकार क्या समाचार संस्थानों में टिक सकते हैं?

असल में, जिला स्तर के स्थानीय पत्रकारों के पास बहुत कम विकल्प हैं. उन्हें अगर उन अखबारों/चैनलों में काम करना है तो उनकी शर्तें स्वीकार करनी पड़ती हैं. लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि यहाँ भ्रष्ट और दलाली में लिप्त पत्रकारों का बचाव करने या उनके कारनामों पर पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है. बहुतेरे मामलों में यह सिर्फ मजबूरी नहीं बल्कि एक सोचा-समझा चुनाव भी हो गया है. यही नहीं, ऐसे कथित पत्रकारों की संख्या भी कम नहीं है जो पहले से तमाम तरह के अवैध धंधों और गैर कानूनी गतिविधियों में शामिल रहे हैं और जिन्होंने सिर्फ अपने बचाव और “प्रेस” के रसूख का इस्तेमाल करने के लिए पत्रकार का चोला पहन लिया है. चिंता की बात यह है कि उनमें से कईयों को बड़े-मंझोले समाचार संस्थानों का संरक्षण भी प्राप्त हैं.

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि स्थानीय स्तर पर ईमानदार और साहसी पत्रकार नहीं हैं या सब बिक गए हैं. यह सही है कि उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है. मुश्किल यह है कि ईमानदारी और निष्ठा से काम करनेवाले पत्रकारों को न सिर्फ सत्ता से संरक्षण प्राप्त राजनेताओं-अफसरों-कारोबारियों-माफियाओं के संगठित गिरोह का कोपभाजन बनना पड़ता है बल्कि उन्हें भ्रष्ट और समझौतापरस्त समाचार संस्थानों में भी या तो जगह नहीं मिलती है या हाशिये पर रखा जाता है या फिर उनकी भ्रष्टाचार-अनियमितताओं और लूट-खसोट को उजागर करनेवाली खबरों को जगह नहीं दी जाती है. कभी जगह मिल भी गई और पत्रकार को निशाना बनाया गया तो उनके समाचार संस्थान उनके साथ खड़े नहीं होते.

इस पूरे दुष्चक्र का एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि हाल के वर्षों में जिला और स्थानीय स्तर पर विकास के धन में जिस तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है, उससे ज्यादा तेजी से उसकी और सार्वजनिक सम्पदा की लूट बढ़ी है. इस लूट पर फलने-फूलनेवाला जन-प्रतिनिधियों-अफसरों-ठेकेदारों/कारोबारियों-अपराधियों का गठजोड़ और मजबूत हुआ है. उसमें कोई लोकलाज और डर-भय नहीं है क्योंकि लूट का पैसा ऊपर तक जा रहा है और उसे सीधे सत्तारूढ़ पार्टी के आलाकमान और मुख्यमंत्रियों/मंत्रियों तक का संरक्षण मिला हुआ है. इस कारण उसका दुस्साहस बहुत बढ़ गया है. उसकी लूट को उजागर करने और उसपर ऊँगली उठानेवाले पत्रकारों या व्हिसल-ब्लोवरों को रास्ते से हटाने के लिए वे किसी हद तक जा सकते हैं. इसका अंदाज़ा पत्रकार जागेन्द्र के मामले से लगाया जा सकता है.

दूसरी ओर, जन-प्रतिनिधियों-अफसरों-ठेकेदारों/कारोबारियों-अपराधियों के गठजोड़ को पत्रकारों को निशाना बनाने का साहस इसलिए भी हो रहा है क्योंकि हाल के वर्षों में इस भ्रष्ट गठजोड़ के साथ सांठ-गांठ के कारण समाचार संस्थानों और पत्रकारों की साख गिरी है और उन्होंने आम जनता का विश्वास खोया है. इसके कारण पत्रकारों पर हमला करके बच निकलने में आसानी हो गई है. हैरानी की बात नहीं है कि चाहे पत्रकार जागेन्द्र की हत्या का मामला हो या मध्य प्रदेश में पत्रकार संदीप की हत्या का- पुलिस-प्रशासन की ओर से उनके पत्रकार होने पर सवाल उठाने से लेकर उनकी चरित्र हत्या तक की कोशिशें की गईं.

साफ़ है कि क्षेत्रीय और जिला/कस्बे स्तर की पत्रकारिता और पत्रकार उस समय जबरदस्त दबाव में है जब वहां अखबारों/चैनलों के पाठक/दर्शक और उसके साथ उनका बाजार बढ़ रहा है. यह वह पाठक/दर्शक वर्ग है जिसे ‘आकांक्षाओं से भरा वर्ग’ (एशपिरेशनल क्लास) कहा जा रहा है और जिसकी ‘विकास’ की बड़ी आकांक्षाएं हैं. वह राजनीतिक रूप से सक्रिय और जागरूक वर्ग है. उनमें जानने की जबरदस्त भूख है. उसकी स्थानीय अखबारों/चैनलों से बड़ी अपेक्षाएं हैं. यही वह समय है जब भारतीय राज्य एक ओर जिलों में विकास योजनाओं के नामपर एक ओर बड़े पैमाने पर धन भेज रहा है जिसकी जमकर लूट हो रही है और दूसरी ओर, निजी क्षेत्र को जल-जंगल-जमीन-खनिज आदि सार्वजनिक संपदा को लूटने की खुली छूट मिल गई है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस समय एक सजग, सतर्क और सक्रिय स्थानीय समाचार मीडिया की बड़ी जरूरत है जो न सिर्फ भ्रष्टाचार-अनियमितताओं और विकास योजनाओं और सार्वजनिक सम्पदा की लूट का पर्दाफाश करे बल्कि जन-प्रतिनिधियों और अफसरों की जवाबदेही सुनिश्चित करे. इससे सबसे ज्यादा फायदा जाहिर है कि आमलोगों को है. इसलिए यह जरूरी है कि इस भ्रष्टाचार को उजागर करनेवाले पत्रकारों को न सिर्फ पूरी सुरक्षा मिले बल्कि उन्हें भ्रष्ट और समझौतापरस्त न्यूज मीडिया के बरक्स वैकल्पिक मीडिया मंच- चाहे वह कोई छोटा अखबार/पत्रिका हो, स्थानीय वेबसाईट हो या फेसबुक पर पेज- खड़ा करने में मदद दी जाए.

यही नहीं, इसके साथ ही पत्रकार की मौजूदा सीमित परिभाषा को भी चुनौती दी जानी चाहिए. बड़े-मंझोले अखबारों/चैनलों के पत्रकारों को ही ‘पत्रकार’ क्यों माना जाए जबकि नए वेब माध्यम न सिर्फ तेजी से फ़ैल रहे हैं बल्कि उनकी लोकप्रियता भी बढ़ रही है. सच यह है कि बड़े-मंझोले अखबारों और चैनलों में जितनी ही समझौतापरस्ती और भ्रष्ट-अपराधी तंत्र के साथ सांठ-गांठ बढती जा रही है, उतना ही वैकल्पिक माध्यमों की मांग और जरूरत बढती जा रही है. इसके कारण आनेवाले दिनों में स्थानीय स्तर पर ऐसे वैकल्पिक सूचना/न्यूज माध्यमों की संख्या बढ़ेगी, खोजी या भंडाफोड़ पत्रकारिता का जोर बढेगा क्योंकि उसके बिना उसके होने का कोई औचित्य नहीं होगा लेकिन इसके साथ ही उनपर हमले भी बढ़ेंगे.

इसलिए जरूरी है कि पत्रकारों और व्हिसल-ब्लोवरों की सुरक्षा के बारे में गंभीरता से सोचा जाए. लेकिन उनकी सुरक्षा सिर्फ एक अलग कानून बनाने से या पुलिस के भरोसे नहीं हो सकेगी. असल में, विशेष सुरक्षा की मांग एक रक्षात्मक मांग है. जरूरत आक्रामक होने और लड़ाई को उनके मैदान में ले जाने की है. इसके लिए सबसे बेहतर उपाय यह है कि भ्रष्टाचार और लूट-खसोट के पर्दाफाश की रिपोर्टें अधिक से अधिक और इतने अधिक समाचार माध्यमों में छपें/प्रसारित हों कि उनका मुंह बंद करना नामुमकिन हो जाए. आखिर कितने पत्रकारों की जान लेंगे और कितनों का मुंह बंद करेंगे?

इससे बड़े-मंझोले अखबारों/चैनलों पर भी समझौते से बाहर आने का दबाव बढेगा. यह क्षेत्रीय/स्थानीय पत्रकारिता की साख को बहाल करने और लोगों का विश्वास जीतने का भी एकमात्र रास्ता है. इसके साथ ही वैकल्पिक माध्यमों और व्हिसल-ब्लोवरों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने और एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने की भी जरूरत है क्योंकि यह लड़ाई सिर्फ पत्रकारों की सुरक्षा की नहीं है बल्कि लोकतंत्र और लोगों के सच जानने के अधिकार को बचाने की लड़ाई है.

आनंद प्रधान भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नई दिल्ली में पत्रकारिता के एसोशियेट प्रोफ़ेसर हैं। वे संस्थान में 2008 से 2013 हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम के निदेशक रहे। संस्थान की शोध पत्रिका “संचार माध्यम” के संपादक। उन्होंने मीडिया शिक्षा में आने से पहले आकाशवाणी की समाचार सेवा में सहायक समाचार संपादक के बतौर भी काम किया। वे कुछ समय तक दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में भी सीनियर लेक्चरर रहे। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डाक्टरेट। वे राजनीतिक, आर्थिक और मीडिया से जुड़े मुद्दों पर अखबारों और पत्रिकाओं में नियमित लेखन करते हैं। ‘तीसरा रास्ता’ ब्लॉग (http://teesraraasta.blogspot.in/ ) के जरिए 2007 से ब्लागिंग में भी सक्रिय। उनका ट्विटर हैंडल है: @apradhan1968 ईमल: anand.collumn@gmail.com

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