पाणिनि आनंद।
भारत में पत्रकारिता के लिए पिछले दो दशक साधन, तकनीक और प्रसार की दृष्टि से बहुत उत्पादक रहे हैं। टीवी ने तेज़ी से अपने पांव पसारे हैं। रेडियो कई और रूपों में सामने आया है। प्रिंट के कागज़ और प्रेसों, प्रकाशकों तक की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। ऑनलाइन ने एक नया जाल पूरी दुनिया के गिर्द गढ़ा है, जिसमें आने वालों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ती जा रही है। सूचना और संचार के लिए माध्यमों का इतना त्वरित विकास पहले कभी नहीं हुआ था।
यह विकास सुबह की प्रतीक्षा तक व्याकुल रखने वाले अखबार से निकलकर अब आपकी जेब तक पहुंच चुका है, जहां आप खबर की प्रतीक्षा नहीं करते, खबर आपको बार-बार बुलाती, सुनाती नज़र आती हैं। वो आपको जब-तब दस्तक देती हैं और अपने संसार में ले जाती हैं जहां वीडियो है, ऑडियो है, विज़ुअल कंटेंट है, लिखित सामग्री है, उसके विकल्प हैं और आपके विचारों, टिप्पणियों, प्रतिक्रियाओं के लिए गुंजाइश है। इस तरह मीडिया और मल्टीमीडिया के विकास ने आपको सूचनाओं के अथाह सागर में उतार दिया है।
लेकिन सूचना के इस संसार में जहां असीमित, अनंत सूचनाएं समुद्र की गहराई की तरह आपको अपनी लहरों से उलझाए रखती हैं, वहीं संचार के मूल सिद्धांतों की समझ का अभाव और उसके बारे में एक व्यापक स्पष्टता का न होना काफी चिंताजनक है। इसीलिए साधनों पर आधारित पत्रकारिता का यह विकास किसी उपयोगी खेती की तरह कम, जंगली घास और खर-पतवार जैसी ज़्यादा मालूम होती है। हम पत्रकारिता पढ़ रहे हैं, फिर पत्रकारिता कर रहे हैं। बाज़ार को जैसी और जो चीज़ें बनवानी हैं, हम बना रहे हैं, छाप और दिखा रहे हैं। लेकिन इन सबके बीच एक पत्रकार लगातार मारा जा रहा है, उसकी पेशेवर ईमानदारी और सामग्री के उपयोग का कौशल लगातार कुचला जा रहा है। धारा के साथ बहने और उत्तरजीवित्व खोजने के क्रम में वो संचार की आधारभूत दृष्टि और सिद्धांतों को लगातार अनदेखा करता चल रहा है।
पत्रकारिता के लिए यह एक गंभीर संकट है। भले ही इस संकट को समझने के लिए हमारे पास आज न तो वक्त है और न इसे समझना हम महत्वपूर्ण मानते हैं लेकिन इसे नकारने का ही नतीजा है कि हमारी आज की व्यावहारिक पत्रकारिता पहुंचकर भी कहीं पहुंच नहीं पा रही है। उसके पास निष्पक्षता, सटीकता, निरपेक्षता, वास्तुनिष्ठता और दृष्टि जैसे आभूषण नहीं है। इनके बिना होने वाली पत्रकारिता ठीक एक शव की तरह है जिसके तमाम ज़रूरी अंग निकाल लिए गए हों और फिर हम उससे प्राणों की उम्मीद कर रहे हों।
बहरहाल, आज बात जनसंचार के सिद्धांतों के एक पहलू पर। समाचारपत्रों में हेडलाइनों के उदाहरण पढ़ते हुए और उन पर बात करते हुए एक हेडलाइन की चर्चा हममें से कई पत्रकारिता के छात्रों ने की है- राजमंदिर में लगी आग। अब कल्पना कीजिए कि कोई हॉकर ज़ोर-ज़ोर से इस हेडलाइन को दोहराते हुए लोगों को ख़बर बेच रहा हो तो लोगों की धारणा किस प्रकार से बनेगी। पहली तो यह कि किसी राज परिवार के मंदिर में आग लग गई है। दूसरी यह कि राजकपूर साहेब के स्टूडियो और थिएटर में आग लग गई है। तीसरी यह भी कि किसी मंदिर में आग लगी है यानी हिंदुओं के धार्मिक स्थल में आग लग गई है। इसमें यह भी सोचा जा सकता है कि आग किसी दुर्घटना के कारण लगी या किसी शरारती तत्व ने सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने के मकसद से ऐसा किया है। ऐसी तमाम धारणाओं को उस एक वाक्य के संचार के कारण अपने मन में पिरोते हुए कितने ही लोग अखबार वाले की ओर लपकेंगे, उसे पढ़ना चाहेंगे, जानना चाहेंगे, पूछेंगे। संभव है कि बाद में किसी से चर्चा करें। यह भी संभव है कि अपने साथ चल रहे किसी व्यक्ति या सहयात्री से पूछें कि क्या आपने यह खबर देखी। या ऐसा कब हुआ। आदि आदि। सच्चाई क्या है। सच्चाई यह है कि राजमंदिर एक थिएटर है जहां आग शीर्षक वाली कोई फ़िल्म लगी है और उसके शो चल रहे हैं। यानी पूर्व में गढ़ी-रची गई छवियों से वास्तविकता को कोई लेना-देना नहीं है।
अब यहां हमें कुछ अहम बातों को समझने की ज़रूरत है। मसलन, लोगों को जब सुनाई दिया या उन्होंने सरसरे तौर पर शीर्षक को पढ़ा कि राजमंदिर में लगी आग, तो उनके मन में किस तरह की छवियां उभरीं। एक जलते हुए मंदिर की। मूर्तियों की, पूजा के सामान की। कुछ लोग लाल-पीले फूलों की कल्पना करेंगे तो कुछ लोग गुलाबी या नीले फूलों की। कुछ गुलाब की कल्पना करेंगे तो कुछ कमल की, गेंदे की, या कनेर, गुड़हल जैसे फूल। कुछ लोग काली की कल्पना करेंगे तो कुछ लोग शिव की। विनायक, हनुमान, राम, विष्णु, दुर्गा जैसी छवियां लोगों के मन में उभरेगी। कुछ को मोटे शरीर वाले गोरे पुजारी का खयाल आएगा तो कुछ को सांवले, दुबले पुजारी का। कुछ शंख याद करेंगे तो कुछ घंटा-घड़ियाल और पखावज की कल्पना करेंगे। कुछ को बिखरा प्रसाद याद आएगा तो कुछ को खंडित आरती का थाल। ऐसी कितनी ही छवियां लोगों को मन में आएंगी। बिखरा प्रसाद, टूटी-जली अलमारियां, धधकते हुए पर्दे और वस्त्र, भागते हुए लोग, जले हुए हाथ… ऐसी कितनी ही कल्पनाएं लोगों के मन में इस एक खबर के साथ बनती बिगड़ती जाएंगी। इससे आगे बढ़कर कुछ लोग पानी लेकर भागते भक्त, फ़ायर ब्रिगेड के सिपाही, शोर करते पीड़ित, सायरन बजाती पुलिस की गाड़ी, मदद करते हाथों की कल्पना करेंगे।
यहां संचार के एक सिद्धांत को समझते हैं। दरअसल, जब हम किसी एक घटना को देखते हैं तो उसके बारे में एक बिंब हमारे मन में बनता है। इसी बिंब के सहारे और अपनी सूझ-समझ के आधार पर हम इस घटना को संप्रेषित करते समय शब्द और संज्ञाएं चुनते हैं। दूसरा व्यक्ति, जो इस घटना का साक्षी नहीं है, अपनी चाक्षुक समझ और अनुभव के आधार पर इस घटना के कई और बिंब अपने मन में बनाता है। यानी जितने लोग इसके बारे में जानते जाते हैं, अपनी अपनी समझ से बिंब बनाते जाते हैं। ये बिंब प्रायः एक दूसरे से भिन्न होते हैं क्योंकि हम सोचते समय केवल उस याददाश्त पर आश्रित होते हैं, जो हमारे अनुभवों से हमने अर्जित की है। अब ऐसे में पत्रकार के नाते हमारी सबसे अहम ज़िम्मेदारी है कि हम घटना या संवाद या स्थिति का वर्णन करते समय अपने को जितना ज़्यादा निरपेक्ष कर सकते हैं, करें।
हालांकि कहा जाता है कि निरपेक्ष कुछ नहीं होता। और निरपेक्ष होना मृत होना है। लेकिन व्यावहारिक निरपेक्षता के बिना हम जब पत्रकारिता करने लगते हैं तो हमें पता भी नहीं चलता कि कब हम पत्रकार के शरीर से निकलकर एक पीआर एजेंसी, एक अफवाह फैलाने वाला, एक दलाल, एक नेता या ऐसे बहुत से किरदारों में धंस जाते हैं, जिनमें परिणीत होने से हमें बचना था। प्रधानमंत्री के साथ यात्रा पर जाना, सीमा पर युद्ध की कवरेज, किसी बाबा या धर्मस्थल से रिपोर्टिंग, किसी राजनीतिक प्रचार की खबर लिखना, किसी सिनेमा के बारे में पाठकों, दर्शकों को बताना, किसी एक समुदाय या संप्रदाय के बारे में लिखना, बताना… ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जहां हम अपनी निरपेक्षता को मारकर झूठ का हिस्सा बन जाते हैं। संचार के सिद्धांत के माध्यम से और मंदिर में आग के उदाहरण से आपके सामने यह तर्क रखने का मकसद यही था कि आप इस बात को समझ सकें कि निरपेक्षता की मांग कोई लादी गई बात नहीं है बल्कि पेशे और पेशेवरी के सिद्धांतों का वो एक हिस्सा है जिसकी अनदेखी अपने पेशे की हत्या से कम नहीं है।
पाणिनि आनंद इस वक्त राज्य सभा टेलीविज़न में काम कर रहे हैं। इससे पहले वे आउटलुक में थे। पत्रकारिता में उनका 15 वर्ष से अधिक अनुभव है।