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Saturday, July 2, 2022
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क्या यही हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ है?

क्या यही हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ है?

– आनंद प्रधान
(एसोशिएट प्रोफ़ेसर, भारतीय जनसंचार संस्थान )

क्या १८८ साल की भरी–पूरी उम्र में कई उतार–चढाव देख चुकी हिंदी पत्रकारिता का यह ‘स्वर्ण युग’ है? जानेमाने संपादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने बहुत पहले ८०–९० के दशक में ही यह एलान कर दिया था कि यह हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्ण युग’ है. बहुतेरे और भी संपादक और विश्लेषक इससे सहमत हैं. उनका तर्क है कि आज की हिंदी पत्रकारिता हिंदी न्यूज मीडिया उद्योग के विकास और विस्तार के साथ पहले से ज्यादा समृद्ध हुई है. उसके प्रभाव में वृद्धि हुई है. वह ज्यादा प्रोफेशनल हुई है, पत्रकारों के विषय और तकनीकी ज्ञान में वृद्धि हुई है, विशेषज्ञता के साथ उनके वेतन और सेवाशर्तों में उल्लेखनीय सुधार आया है और उनका आत्मविश्वास बढ़ा है.

हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ के पक्षधरों के मुताबिक, न्यूज चैनलों की लोकप्रियता, विस्तार और प्रभाव ने बची–खुची कसर भी पूरी कर दी है क्योंकि वहां हिंदी न्यूज चैनलों का ही बोलबाला है. हिंदी न्यूज चैनलों और कुछ बड़े हिंदी अखबारों के संपादक/एंकर आज मीडिया जगत के बड़े स्टार हैं. उनकी लाखों–करोड़ों में सैलरी है. इसके अलावा हिंदी न्यूज चैनलों के आने से पत्रकारों के वेतन बेहतर हुए हैं. उनका यह भी कहना है कि दीन–हीन और खासकर आज़ादी के बाद सत्ता की चाटुकारिता करनेवाली हिंदी पत्रकारिता के तेवर और धार में भी तेजी आई है. आज वह ज्यादा बेलाग और सत्ता को आईना दिखानेवाली पत्रकारिता है.

इसमें कोई शक नहीं है कि इनमें से कई दावे और तथ्य सही हैं लेकिन उन्हें एक परिप्रेक्ष्य में देखने–समझने की जरूरत है. इनमें से कई दावे और तथ्य १९७७ से पहले की हिंदी पत्रकारिता की तुलना में बेहतर दिखते हैं लेकिन वे तुलनात्मक हैं. दूसरे, इनमें से अधिकतर दावे और तथ्य हिंदी मीडिया उद्योग के ‘स्वर्णकाल’ की पुष्टि करते हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि वे हिंदी पत्रकारिता के बारे में भी उतने ही सच हों. क्या हिंदी अखबारों का रंगीन होना, ग्लासी पेपर, बेहतर छपाई और उनका बढ़ता सर्कुलेशन या हिंदी चैनलों के प्रभाव और ग्लैमर को हिंदी पत्रकारिता के बेहतर होने का प्रमाण माना जा सकता है?

हिंदी पत्रकारिता को पहचान देनेवाले बाबूराव विष्णुराव पराडकर के आज़ादी के पहले दिए गए ‘आछे दिन, पाछे गए’ वाले मशहूर भाषण को याद कीजिए जिसमें उन्होंने आज से कोई ७५ साल पहले भविष्यवाणी कर दी थी कि भविष्य के अखबार ज्यादा रंगीन, बेहतर कागज और छपाई वाले होंगे लेकिन उनमें आत्मा नहीं होगी. सवाल यह है कि जिसे पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ बताया जाता है, उसके कई उल्लेखनीय और सकारात्मक पहलुओं को रेखांकित करने के बावजूद क्या यह सही नहीं है कि उसमें आत्मा नहीं है? 

अंग्रेजी के मशहूर लेखक आर्थर मिलर ने कभी एक अच्छे अखबार की परिभाषा करते हुए कहा था कि, ‘अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता है.’ सवाल यह है कि क्या हमारे आकर्षक–रंगीन–प्रोफेशनल अखबारों और न्यूज चैनलों में देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई देता है? क्या आज की हिंदी पत्रकारिता में पूरा देश, उसकी चिंताएं, उसके सरोकार, उसके मुद्दे और विचार दिखाई या सुनाई देते हैं? कितने हिंदी के अखबार/चैनल या उनके पत्रकार पूर्वोत्तर भारत, कश्मीर, उडीसा, दक्षिण भारत और पश्चिम भारत से रिपोर्टिंग कर रहे हैं? उसमें देश की सांस्कृतिक, एथनिक, भाषाई, जाति–वर्ग, धार्मिक विविधता और विचारों, मुद्दों, सरोकारों की बहुलता किस हद तक दिखती है?

मुख्यधारा की यह हिंदी पत्रकारिता कितनी समावेशी और लोकतांत्रिक है? तात्पर्य यह कि उसमें भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों खासकर दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की कितनी भागीदारी है? क्या हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ का एलान करते हुए यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि हिंदी क्षेत्र के कितने जिला मुख्यालयों पर पूर्णकालिक महिला पत्रकार काम कर रही हैं? कितने हिंदी अखबारों और चैनलों की संपादक महिला या फिर दलित या अल्पसंख्यक हैं? क्या हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ का मतलब सिर्फ पुरुष और वह भी समाज के अगड़े वर्गों से आनेवाले पत्रकार हैं?

यही नहीं, हिंदी अखबारों और चैनलों में काम करनेवाले पत्रकारों के वेतन और सेवाशर्तों में सुधार का ‘स्वर्णयुग’ सिर्फ चुनिंदा अखबारों/चैनलों और उनके मुठी भर पत्रकारों तक सीमित है. कड़वी सच्चाई यह है कि छोटे–मंझोले से लेकर देश के सबसे ज्यादा पढ़े/देखे जानेवाले अखबारों/चैनलों के हजारों स्ट्रिंगरों के वेतन और सेवाशर्तों में कोई सुधार नहीं आया है. वह अभी भी अन्धकार युग में हैं जहाँ बिना नियुक्ति पत्र, न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा के वे काम करने को मजबूर हैं. उन्हें सांस्थानिक तौर पर भ्रष्ट होने और दलाली करने के लिए मजबूर किया जा रहा है. उनकी बदहाल हालत देखकर आप कह नहीं सकते हैं कि हिंदी अखबारों और चैनलों में बड़ी कारपोरेट पूंजी आई है, वे शेयर बाजार में लिस्टेड कम्पनियाँ हैं, उनके मुनाफे में हर साल वृद्धि हो रही है और वे ‘स्वर्णयुग’ में पहुँच गए हैं.

उदाहरण के लिए हिंदी के बड़े अखबारों की मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने में आनाकानी को ही लीजिए. उनका तर्क है कि इस वेतन आयोग के मुताबिक तनख्वाहें दी गईं तो अखबार चलाना मुश्किल हो जाएगा. अखबार बंद हो जाएंगे. सवाल यह है कि अखबार या चैनल स्ट्रिंगरों की छोडिये, अपने अधिकांश पूर्णकालिक पत्रकारों को भी बेहतर और सम्मानजनक वेतन देने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं? क्या यह एक बड़ा कारण नहीं है कि हिंदी अखबारों/चैनलों में बेहतरीन युवा प्रतिभाएं आने के लिए तैयार नहीं हैं? आप मानें या न मानें लेकिन यह सच है कि आज हिंदी पत्रकारिता के कथित ‘स्वर्णयुग’ के बावजूद हिंदी क्षेत्र के कालेजों/विश्वविद्यालयों के सबसे प्रतिभाशाली और टापर छात्र–छात्राएं इसमें आने के लिए तैयार नहीं हैं या उनकी प्राथमिकता सूची में नहीं है.

दूसरी ओर, हिंदी अखबारों और चैनलों में बेहतर और सरोकारी पत्रकारिता करने की जगह भी दिन पर दिन संकुचित और सीमित होती जा रही है. आश्चर्य नहीं कि आज हिंदी पत्रकारिता का एक बड़ा संकट उसके पत्रकारों की वह प्रोफेशल असंतुष्टि है जो उन्हें सृजनात्मक और सरोकारी पत्रकारिता करने का मौका न मिलने या सत्ता और कारपोरेट के सामने धार और तेवर के साथ खड़े न होने की वजह से पैदा हुई है. हैरानी की बात नहीं है कि हिंदी पत्रकारिता के इस ‘स्वर्णयुग’ में पत्रकारों की घुटन बढ़ी है, उनपर कारपोरेट दबाव बढ़े हैं और पेड न्यूज जैसे सांस्थानिक भ्रष्ट तरीकों के कारण ईमानदार रहने के विकल्प में घटे हैं.

यही नहीं, हिंदी पत्रकारिता की अपनी मूल पहचान भी खतरे में है. वह न सिर्फ अंग्रेजी के अंधानुकरण में लगी हुई है बल्कि उसकी दिलचस्पी केवल अपमार्केट उपभोक्ताओं में है. उसे उस विशाल हिंदी समाज की चिंताओं की कोई परवाह नहीं है जो गरीब हैं, हाशिए पर हैं, बेहतर जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ चाहते हैं. लेकिन मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता को उसकी कोई चिंता नहीं है.

यह हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ है या ‘फीलगुड पत्रकारिता’ का दौर?

यह स्थिति तब है जब देश में अखबारों समेत दूसरे मीडिया माध्यमों की उपलब्धता दुनिया के विकसित देशों की तुलना में काफी कम है. लेकिन इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि जहाँ विकसित पश्चिमी देशों में अख़बारों का सर्कुलेशन और आय में लगातार गिरावट आ रही है और उनकी मौत की घोषणाएँ हो रही हैं, टी.वी की चमक फीकी पड़ रही है, वहां भारत में अखबारों खासकर हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओँ के अख़बारों की प्रसार संख्या तेजी से बढ़ रही है, टी.वी के चैनलों और सेट्स की संख्या में भारी वृद्धि हो रही है और सबसे बढ़कर इंटरनेट का भी काफी तेजी से विस्तार हो रहा है. इससे यह पता चलता है कि देश और उसके आमलोगों में जानने की कितनी भूख है और देश–दुनिया के मसलों में कितनी रूचि लेते हैं.

साफ़ है कि आनेवाले दिनों में मीडिया की भूमिका और बढ़नेवाली है. यह किसी से छुपा नहीं है कि आज राष्ट्रीय राजनीतिक–सामाजिक जीवन पर मीडिया का काफी ज्यादा प्रभाव दिखाई पड़ता है. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में उसका हस्तक्षेप बढ़ा है. यहाँ तक कि वह राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति का एजेंडा तय करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है. ऐसे में, यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि मीडिया में किन घटनाओं, व्यक्तियों, मुद्दों और विचारों को प्राथमिकता मिल रही है. क्या उसमें देश की वास्तविक तस्वीर दिखाई पड़ रही है? क्या उसमें देश खुद से संवाद करता दिखता है? इस सवाल का उत्तर हर दिन मीडिया में उठनेवाले मुद्दों, उसे पेश करने के एंगल और उसकी कवरेज के तरीके में खोजा जा सकता है.

जैसे गरीबी के मुद्दे को ही लीजिए. तेज आर्थिक वृद्धि और देश के आर्थिक महाशक्ति बनने की खबरों के बीच भारत की सच्चाई यह है कि यह अभी भी गरीबों का देश है. लेकिन हमारे मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया में वे कहाँ हैं?  पिछले दिनों अख़बारों और चैनलों पर देश में गरीबी घटने और गरीबों की संख्या में कमी आने की खबरें एक बार फिर सुर्ख़ियों में थी. गरीबी घटने के योजना आयोग के दावे पर न्यूज मीडिया के बड़े हिस्से में खासकर गुलाबी अखबारों/चैनलों में स्वाभाविक तौर पर जश्न का माहौल है.

नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और तेज आर्थिक वृद्धि दर की भोंपू बन गई फील गुड पत्रकारिता के दौर में इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है. आखिर इन आर्थिक नीतियों की सफलता को साबित करने के लिए देश में गरीबी घटने और गरीबों की संख्या में कमी आने से बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है?

कहने की जरूरत नहीं है कि फील गुड पत्रकारिता को ऐसी खबरों और रिपोर्टों का बेसब्री से इंतज़ार रहता है. इन खबरों और सुर्ख़ियों से माहौल खुशनुमा बनता है. खुशनुमा माहौल बनाना अख़बारों/चैनलों की मजबूरी है. असल में, नई अर्थव्यवस्था फील गुड पर चलती है. इस अर्थव्यवस्था की जान अधिक से अधिक उपभोग में है. माना जाता है कि उपभोक्ता अपनी जेब से पैसा उसी समय निकालता है, जब उसे माहौल खुशनुमा दिखाई देता है. माहौल खुशनुमा बनाने के लिए खुशखबर यानी फील गुड खबरें जरूरी हैं. इससे वह उत्साहित होता है और नई–नई चीजें खरीदने के लिए प्रेरित होता है. उसे कर्ज लेकर घी पीने में भी संकोच नहीं होता है.

जाहिर है कि उपभोग बढ़ने से अर्थव्यवस्था को गति मिलती है और कंपनियों का मुनाफा बढ़ता है. कंपनियों का मुनाफा बढ़ता है तो कारपोरेट अख़बारों/चैनलों को विज्ञापन मिलता है. इससे उनका भी मुनाफा बढ़ता है. इस तरह फील गुड पत्रकारिता में अधिक से अधिक निवेश कारपोरेट मीडिया की मजबूरी और जरूरत दोनों है. कहना न होगा कि इसमें उसका निहित स्वार्थ है. आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़–दो दशकों में देश में फील गुड पत्रकारिता का न सिर्फ तेजी से विस्तार हुआ है बल्कि वह भारतीय पत्रकारिता की मुख्यधारा बन गई है.

फील गुड पत्रकारिता के जलवे का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अखबारों/चैनलों में क्रिकेट, सिनेमा, फैशन, सेलिब्रिटीज से लेकर पांच सितारा खान–पान, घूमना–फिरना, सजना–संवरना, फिटनेस, शापिंग और गैजगेट्स को मिलनेवाली जगह बढ़ती जा रही है. अखबारों/चैनलों में इन्हें कवर करनेवाले रिपोर्टर्स की मांग खासी बढ़ गई है. वहीँ दूसरी ओर अखबारों/चैनलों में कृषि, श्रम, गरीबी–भूख, कुपोषण, माइग्रेशन जैसे बीट या तो खत्म कर दिए गए हैं या उन्हें इकठ्ठा करके आर्थिक बीट देखनेवाले रिपोर्टर को ‘इन्हें भी देख लेना’ के चलताऊ निर्देश के साथ थमा दिया गया है.

ऐसे में, हैरानी की बात नहीं है कि अख़बारों/पत्रिकाओं/चैनलों की सेक्स, फैशन, ट्रेवल, शापिंग, प्रापर्टी पर सर्वे रिपोर्ट छापने में जितनी दिलचस्पी होती है, उसकी पांच फीसदी भी कृषि, श्रम, गरीबी–भूख पर छापने में नहीं होती है. क्या आपने किसी अखबार/चैनल/पत्रिका में कृषि, गरीबी, भूख, श्रम या माइग्रेशन पर कोई सर्वे या सप्लीमेंट या कवर स्टोरी देखी है? सी.एस.डी.एस के एक सर्वे में यह पाया गया कि अंग्रेजी और हिंदी के छह बड़े अखबारों में ग्रामीण क्षेत्र से जुडी खबरों को दो से तीन फीसदी जगह मिलती है. चैनलों का हाल इससे भी बुरा है.

साफ़ है कि फील गुड पत्रकारिता के दौर में न्यूज मीडिया के लिए गरीबी कोई खबर नहीं है. गरीबों और उनके मुद्दों को मीडिया के हाशिए पर भी जगह नहीं मिलती है क्योंकि माना जाता है कि उनका जिक्र भी उनके पाठकों/श्रोताओं यानी उपभोक्ताओं के ‘बाईंग मूड’ को डिस्टर्ब या डिप्रेस कर सकता है. विज्ञापनदाता इसे पसंद नहीं करते हैं. कहा जाता है कि गरीबी–भूख, कुपोषण जैसे मुद्दे अप–मार्केट नहीं हैं या वे उनके टी.जी (टारगेट ग्रुप) को लक्षित नहीं हैं. लेकिन यह फैसला संपादक नहीं विज्ञापनदाता करते हैं. यही वजह है कि कारपोरेट मीडिया में जिस खबर/फीचर/रिपोर्ट का कोई प्रायोजक नहीं है, वह कारपोरेट मीडिया के लिए खबर नहीं है. 

लेकिन गरीबी और गरीबों के नाम से दूर भागनेवाला न्यूज मीडिया गरीबी में कमी की खबर को लेकर बावला हुआ जा रहा है. हालाँकि इस विवादास्पद रिपोर्ट पर न्यूज मीडिया में जश्न के बीच कुछ सवाल भी उठे लेकिन उन सवालों को जिस तरह से उठाया गया है उसमें सनसनी ज्यादा है और गंभीरता कम. सनसनी हमेशा बड़े और गंभीर सवालों और मुद्दों को पीछे ढकेल देती है. आश्चर्य नहीं कि गरीबी के आकलन और उससे जुड़े व्यापक मुद्दों को न्यूज मीडिया में २२ रूपये और २८ रूपये प्रतिदिन की ग्रामीण और शहरी गरीबी रेखा तक सीमित कर दिया गया है. इससे सारा हंगामा गरीबों की आर्थिक–सामाजिक स्थिति और उनकी वास्तविक समस्याओं के बजाय गरीबी रेखा पर केंद्रित हो गया.

सनसनी की पत्रकारिता बनाम सरोकार की पत्रकारिता

दूसरे, हर सनसनी की उम्र बहुत छोटी होती है. एक नई सनसनी हमेशा उसकी जगह लेने को तैयार रहती है. याद रहे कि गरीबी के बारे में योजना आयोग की ताजा रिपोर्ट से पहले पिछले साल के मध्य में सुप्रीम कोर्ट में उसके हलफनामे पर ऐसी ही सनसनी मची थी. योजना आयोग के पैमाने का देश भर में विरोध भी हुआ लेकिन वास्तविक मुद्दे और सवाल ज्यों के त्यों बने रहे. न्यूज मीडिया उसे जल्दी ही भूल गया. अब एक बार फिर गरीबी में कमी की घोषणा को लेकर न्यूज मीडिया में एक ओर जश्न और दूसरी ओर हंगामा मचा हुआ है, उसके शोर के बीच इस मुद्दे पर स्पष्टता कम और भ्रम ज्यादा बढा है.

सच पूछिए तो देश में गरीबी के आकलन के मुद्दे पर न्यूज मीडिया की रिपोर्टिंग की गरीबी साफ़ दिख रही है. अधिकांश अखबारों/चैनलों में ऐसे रिपोर्टर/विश्लेषक नहीं हैं जो गरीबी के मुद्दे को राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सन्दर्भों में स्पष्ट कर सकें. यह दरिद्रता उनकी रिपोर्टिंग और उनके विश्लेषणों में भी झलकती है. हालाँकि इक्का–दुक्का अख़बारों/पत्रिकाओं में योजना आयोग के इन दावों पर गंभीर सवाल भी उठे और गरीबी रेखा की राजनीति को बे–पर्दा करने की कोशिश हुई लेकिन मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में फील गुड पत्रकारिता के दबदबे के आगे वे नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गए हैं.      

असल में, कारपोरेट मीडिया और उसके अख़बारों/चैनलों ने अपना पक्ष तय कर लिया है. उदाहरण के लिए, वे भारतीय राज्य की माओवाद के खिलाफ लड़ाई में निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ प्रेक्षक नहीं हैं और न ही वे इस लड़ाई में पिस रहे निर्दोष नागरिकों के मानवाधिकारों के पैरोकार बनने को तैयार हैं. इस प्रक्रिया में उन्होंने सच को दांव पर लगा दिया है. पत्रकारिता के बुनियादी उद्देश्यों और मूल्यों से किनारा कर लिया है. वे भूल गए हैं कि समाचार माध्यमों और पत्रकारिता से पहली अपेक्षा सच के साथ खड़े होने की जाती है. उनकी पहली और आखिरी प्रतिबद्धता सच के साथ खड़ा होना है. यह इसलिए भी जरूरी है कि जनतंत्र में न्यूज मीडिया और पत्रकारिता की पहली वफ़ादारी नागरिकों के प्रति है और नागरिकों के लिए सच जानना इसलिए जरूरी है ताकि वे खुद मुख्तार बन सकें और अपने फैसले ले सकें.

कहने की जरूरत नहीं है कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे आदर्श और मूल्य बेमानी हैं, अगर न्यूज मीडिया लोगों को सच बताने के लिए तैयार नहीं है. मानवाधिकार संगठन यही सवाल तो उठा रहे हैं कि लोगों को सीमा आज़ाद या सोनी सोरी या प्रशांत राही के मामलों में पूरी सच्चाई बताने के लिए अखबारों/चैनलों को आगे आना चाहिए? सवाल यह है कि क्या आम लोगों को यह जानने का हक नहीं है कि सीमा आज़ाद का ‘अपराध’ क्या है कि उन्हें आजीवन कारावास जैसी उच्चतम सजा दी गई है? याद रहे कि पत्रकारिता की आत्मा या सत्व स्वतंत्र छानबीन, जांच–पड़ताल और खोजबीन के जरिये सच तक पहुँचना है. अफसोस की बात यह है कि कारपोरेट मीडिया की पत्रकारिता ने छानबीन, जांच–पड़ताल और खोजबीन का जिम्मा पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों को सौंप दिया है और वे सिर्फ उसके प्रवक्ता भर बनकर रह गए हैं.

ऐसे में, कारपोरेट मीडिया और उसकी पत्रकारिता को यह याद दिलाना बेमानी है कि पत्रकारिता के उच्च आदर्शों और मूल्यों में एक महत्वपूर्ण मूल्य कमजोर और बेजुबान लोगों की आवाज़ बनना भी है. भारत जैसे देश में पत्रकारिता की यह भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यहाँ गरीबों, आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों की आवाज़ बहुत मुश्किल से सुनाई देती है. भारत जैसे अत्यधिक असमान और गैर बराबरी से भरे समाज में जहाँ गरीब और कमजोर लोगों को भांति–भांति के भेदभाव, उत्पीडन और जुल्म झेलने पड़ते हैं, वहाँ पत्रकारिता से स्वाभाविक तौर पर यह अपेक्षा की जाती है कि वह उनकी आवाज़ बने और उनके खिलाफ हो रहे भेदभाव, उत्पीडन और जुल्मों को सामने लाये.

इसके बिना न तो एक बेहतर और बराबरी पर आधारित समाज संभव है और न ही वास्तविक जनतंत्र मुमकिन है. कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा दौर में जब गरीबों और कमजोर लोगों के मानवाधिकार सबसे ज्यादा संकट में हैं और उनपर हमले बढ़ रहे हैं तो एक जनपक्षधर न्यूज मीडिया और पत्रकारिता से यह अपेक्षा और उम्मीद और बढ़ जाती है कि वह कमजोर लोगों की आवाज़ बने, उनके मानवाधिकारों की रक्षा करे और सत्तातंत्र को निरंकुश होने से रोके. लेकिन सवाल यह है कि क्या कारपोरेट मीडिया और उसके अखबार/चैनल जनपक्षधर रह गए हैं?

कहने की जरूरत नहीं है कि दिन–रात लोकतंत्र की कसमें खानेवाले चैनलों के मुद्दों और सवालों के कवरेज का लोकतंत्र बहुत सीमित और संकुचित है. इस लोकतंत्र में सबसे ज्यादा जगह मध्यवर्ग यानी ‘पीपुल लाइक अस’ के लिए रिजर्व है. जाहिर है कि श्रमिक खासकर असंगठित क्षेत्र के करोड़ों श्रमिक पी.एल.यू नहीं हैं यानी उनमें विज्ञापनदाताओं की दिलचस्पी नहीं है, इसलिए चैनल की भी उनमें कोई रूचि नहीं है.

यही कारण है कि आमतौर पर चैनलों में श्रमिकों खासकर अगर वह व्हाइट कालर कर्मचारी नहीं हैं तो उन्हें कवरेज के लायक नहीं समझा जाता है. संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को अपवादस्वरूप थोड़ी–बहुत जगह मिल भी जाती है लेकिन असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को तो लगभग अछूत सा समझा जाता है. आश्चर्य नहीं कि आप न्यूज चैनलों पर असंगठित क्षेत्र के उन करोड़ों श्रमिकों के दीन–दशा, समस्याओं और संघर्षों के बारे में अपवादस्वरूप भी कोई खबर या रिपोर्ट नहीं देखते हैं जिनके बारे में भारत सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट बताती है कि उनमें से ७९ फीसदी प्रतिदिन २० रुपये से भी कम की आय में गुजर–बसर करने के लिए मजबूर हैं.

ऐसा लगता है, जैसे वे देश के नागरिक नहीं हैं. तथ्य यह है कि देश की कुल श्रमशक्ति में लगभग ९२ फीसदी श्रमिक असंगठित क्षेत्र में काम करने को मजबूर हैं जहाँ न्यूनतम मजदूरी भी नहीं या बहुत मुश्किल से मिलती है. सामाजिक सुरक्षा आदि की बातें उनके लिए सपने की तरह हैं. यहाँ कोई श्रम कानून लागू नहीं होता है. उनके काम करने की अमानवीय और शारीरिक रूप से असुरक्षित परिस्थितियों से लेकर उनके रहने की नारकीय स्थितियों तक ऐसा बहुत कुछ है जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को बेचैन करने के लिए काफी है. लेकिन जाहिर है कि देश–दुनिया के बोझ से परेशान चैनलों को इससे कोई बेचैनी नहीं होती है.

यहाँ तक कि न्यूज चैनलों पर संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए भी जगह नहीं है. मारुति के श्रमिकों की हड़ताल को अनदेखा किया जाना इसका ताजा उदाहरण है. सच पूछिए तो संगठित क्षेत्र कोई स्वर्ग नहीं है और न उसमें काम करनेवाले सभी श्रमिक स्वर्ग का आनंद उठा रहे हैं. तथ्य यह है कि हाल के वर्षों में संगठित क्षेत्र में भी श्रमिकों के लिए काम की परिस्थितियां लगातार बिगड़ी हैं. नौकरी की सुरक्षा बीते दिनों की बात हो चुकी है. कारण, स्थाई श्रमिकों और कर्मचारियों की जगह ठेका और दिहाड़ी श्रमिकों की भर्ती की प्रवृत्ति बढ़ी है जिन्हें जब चाहा रखा और जब चाहा निकाल दिया जाता है. यहाँ तक कि निजी क्षेत्र की बड़ी–बड़ी देशी–विदेशी कंपनियों में ज्यादातर श्रमिक ठेके पर हैं जिन्हें स्थाई कर्मचारियों वाली सुविधाएँ और लाभ नहीं मिलते हैं. उन्हें यूनियन बनाने या अपनी मांग उठाने के संवैधानिक अधिकार से भी वंचित रखा जाता है.

इस मायने में संगठित और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के बीच सिर्फ अब कहने भर को अंतर रह गया है. माना जाता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों में श्रमिकों को बेहतर वेतन और सेवाशर्तों के तहत काम करने का मौका मिलता है लेकिन सच यह है कि उनमें और देशी कंपनियों में कोई खास फर्क नहीं है. उदाहरण के लिए, मारुति सुजूकी फैक्टरी को ही लीजिए जोकि एक जापानी बहुराष्ट्रीय कंपनी है. लेकिन तथ्य यह है कि मारुति सुजूकी में लगभग ८५ फीसदी श्रमिक ठेके पर हैं जिन्हें वे सुविधाएँ और लाभ नहीं मिलते जो स्थाई श्रमिकों को मिलते हैं या मिलने चाहिए. यहाँ तक कि मारुति सुजूकी का प्रबंधन उन्हें यूनियन बनाने का अधिकार भी देने को तैयार नहीं है. आश्चर्य नहीं कि श्रमिकों की हड़ताल की सबसे बड़ी मांग अपनी यूनियन को मान्यता देने और ११ श्रमिक नेताओं की मुअत्तली को रद्द करने की थी.

मारुति सुजूकी ऐसी अकेली बहुराष्ट्रीय कंपनी नहीं है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, नोकिया में ५० फीसदी और फोर्ड मोटर्स में ७५ फीसदी श्रमिक ठेके पर हैं. सच यह है कि निजी क्षेत्र की अधिकांश देशी–विदेशी कंपनियों की यही स्थिति है. दूर क्यों जाएँ, बिना किसी अपवाद के लगभग सभी न्यूज चैनलों में भी ९० से १०० फीसदी टी.वी पत्रकार, एंकर, रिपोर्टर और संपादक ठेके पर हैं. नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है. किसी को कभी भी निकाला जा सकता है और निकाला जाता है. दो साल पहले आर्थिक मंदी के नाम पर सैकड़ों पत्रकारों की रातों–रात छुट्टी कर दी गई. सेवाशर्तें अमानवीय हैं. काम के निश्चित घंटे नहीं हैं और न छुट्टी की कोई नियमित व्यवस्था है. काम का दबाव और तनाव इस कदर रहता है कि बहुतेरे टी.वी पत्रकार कम उम्र में डायबिटीज से लेकर स्लिप डिस्क के शिकार हो रहे हैं.

पत्रकारिता के स्वर्णयुग में पत्रकारों का हाल–बदहाल

आमतौर पर बाहर यह धारणा है कि टी.वी. न्यूज चैनलों में पत्रकारों की संविदा पर नियुक्ति के बावजूद उन्हें बहुत मोटा वेतन मिलता है. लेकिन यह एक बहुत बड़ा मिथक है. सच यह है कि चुनिन्दा चैनलों को छोड़ दिया जाए तो ८० फीसदी न्यूज चैनलों में न सिर्फ वेतन बहुत कम है बल्कि काम की परिस्थितियां भी बहुत दमघोंटू हैं. अधिकांश चैनलों में पत्रकारों की तनख्वाहों के बीच बहुत ज्यादा अंतर है. चैनलों में शीर्ष पर बैठे चुनिन्दा पत्रकारों को मोटा वेतन दिया जाता है लेकिन दूसरी ओर, निचले स्तर पर पत्रकारों की बड़ी संख्या को बहुत मामूली वेतन मिलता है.

जाहिर है कि न्यूज चैनल कोई अपवाद नहीं हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि अधिकांश मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र की कंपनियों के अंदर कामकाज की स्थितियां इतनी अमानवीय, दमघोंटू और खतरनाक हैं और प्रबंधन का आतंक इस कदर है कि अकसर वहां श्रमिकों का गुस्सा फूट पड़ता है. कई बार यह गुस्सा हिंसक भी हो उठता है. स्थिति कितनी विस्फोटक हो चुकी है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले दो–तीन वर्षों में श्रमिकों और प्रबंधन के बीच हुए टकराव में नोयडा स्थित इटालियन कंपनी ग्रेजियानो ट्रांसमिशन के सी.इ.ओ एल.के चौधरी, कोयम्बतूर की प्राइकोल इंडस्ट्रीज के वाइस प्रेसिडेंट–एच.आर रॉय जार्ज और गाजियाबाद की एलाइड निप्पन के असिस्टेंट मैनेजर जोगिन्दर चौधरी की मौत हो गई जबकि दर्जनों श्रमिक गंभीर रूप से घायल हो गए.

हालाँकि इन हिंसक घटनाओं की न्यूज चैनलों में अच्छी–खासी कवरेज हुई लेकिन रिपोर्टों में जोर श्रमिकों की हिंसा पर था. इन रिपोर्टों में श्रमिकों में बढती हिंसा, अराजकता और कानून हाथ में लेने की प्रवृत्ति के साथ–साथ औद्योगिक अशांति को उठाया गया था. प्राईम टाइम चर्चाओं में सबसे अधिक चिंता श्रमिकों की बदहाल स्थिति पर नहीं बल्कि इन घटनाओं से विदेशी निवेश पर पड़नेवाले कथित नकारात्मक प्रभाव पर व्यक्त की गई. अधिकांश चैनलों ने इस बात की जाँच–पड़ताल करने की कोशिश नहीं की कि यह स्थिति क्यों आई? श्रमिकों की मांगें क्या थीं और फैक्ट्री में उनकी स्थिति क्या थी?

जाहिर है कि यह चैनलों के लिए सिर्फ एक और सनसनीखेज घटना भर थी और उनके पास अन्य घटनाओं की तरह इन घटनाओं के भी तह में जाने की फुर्सत और इच्छा नहीं थी. ध्यान देनेवाली बात यह है कि जिस नोयडा में अधिकांश न्यूज चैनलों के दफ्तर हैं, वह एक बड़ा औद्योगिक क्षेत्र भी है. लेकिन हैरान करनेवाली बात यह है कि चैनलों पर नोयडा के हजारों श्रमिकों की दास्तानें शायद ही कभी सुनाई देती हैं. न सिर्फ नोयडा बल्कि दिल्ली के ५० किलोमीटर के इर्द–गिर्द नोयडा, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, गुड़गांव, फरीदाबाद, मानेसर, कोंडली, नरेला, बवाना, सोनीपत आदि इलाके औद्योगिक क्षेत्र हैं जहाँ हजारों फैक्टरियों में लाखों श्रमिक काम करते हैं. इसके बावजूद चैनलों पर वे कभी दिखाई नहीं देते हैं.

इसका मतलब यह हुआ कि अगर आप चैनलों के जरिये दिल्ली और देश को जानते–पहचानते हैं तो संभव है कि आप कभी इस सच्चाई से परिचित न हो पायें कि अकेले राजधानी दिल्ली के बाहरी इलाकों में लाखों मजदूर फैक्ट्रियों में काम करते हैं जिन्हें उनका कानूनी हक भी मयस्सर नहीं है. चैनलों के जरिये दिल्ली और उसके आसपास के उपनगरों की जो चमकती–दमकती, रंगीन और खुशनुमा छवियाँ हम–आप तक पहुंचती हैं, उससे ऐसा लगता है कि यहाँ दिन–रात रोशन बाज़ार हैं, शापिंग माल्स हैं, दमकता मध्यम और अमीर वर्ग है और कुलांचे भरती अर्थव्यवस्था है. इस खुशनुमा तस्वीर में आप उन लाखों श्रमिकों को शायद ही कभी देखें जो इस बूमिंग अर्थव्यवस्था की नींव में होते हुए भी उसके लाभों से वंचित हैं.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि चैनलों के लिए वे ‘अस्पृश्य’ हैं. नतीजा, वे चैनलों के ‘लोकतंत्र’ से ‘बहिष्कृत’ और उसके परदे से ‘अदृश्य’ हैं. यही नहीं, चैनलों खासकर बिजनेस न्यूज चैनलों पर कभी श्रमिकों की बात होती भी है तो सबसे ज्यादा चर्चा श्रम सुधारों की होती है. इन चर्चाओं में आमतौर पर औद्योगिक–वाणिज्यिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई और एसोचैम आदि के प्रतिनिधि, उद्योगपति और नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार अर्थशास्त्री बुलाये जाते हैं और वे एक सुर में श्रम सुधारों को आगे बढ़ाने की मांग करते हैं. यहाँ श्रम सुधारों का मतलब श्रमिकों की स्थिति में सुधार से नहीं बल्कि उन श्रम कानूनों को और ढीला, लचीला और उद्योग जगत के अनुकूल बनाने का है जो पहले से ही ठेका, कैज्युअल और दिहाडी व्यवस्था के जरिये बेमानी बना दिए गए हैं.

इस मामले में अधिकांश चैनल अपने मालिकों और बड़े विज्ञापनदाताओं की आवाज़ बन जाते हैं. इस मामले में प्रेस की आज़ादी पत्रकारों की आज़ादी न होकर मालिकों की आज़ादी बन जाती है. हालत का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इन दिनों कुछ टी.वी न्यूज चैनल, अखबार मालिकों की संस्था आई.एन.एस के साथ मिलकर समाचारपत्र और समाचार एजेंसियों के कर्मचारियों और श्रमिकों के लिए गठित न्यायमूर्ति मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के खिलाफ मुहिम चलाये हुए हैं. उन्होंने सरकार पर जबरदस्त रूप से दबाव बनाया हुआ है कि वह मजीठिया आयोग की सिफारिशों को न माने.

अखबार मालिकों का तर्क है कि जब टी.वी चैनलों के पत्रकारों के लिए सरकार ऐसा कोई वेतन आयोग नहीं गठित करती तो अखबारों के कर्मचारियों के लिए अलग से वेतन आयोग क्यों बनाती है? उनका यह भी कहना है कि अगर यह सिफारिशें मान ली गईं तो समाचारपत्र उद्योग उसका बोझ नहीं उठा पायेगा और बंद होने के कगार पर पहुँच जाएगा. आई.एन.एस ने इसे लेकर एक जबरदस्त प्रचार अभियान छेड दिया है. मजे की बात यह है कि अखबारों में मजीठिया वेतन आयोग के खिलाफ खूब रिपोर्टें छप रही हैं लेकिन अखबारी श्रमिकों और पत्रकारों का पक्ष पूरी तरह से ब्लैक–आउट कर दिया गया है. यहाँ तक कि पत्रकार और कर्मचारी यूनियनों के आंदोलन और उनके बयानों को भी खुद के अखबारों में जगह नहीं मिल रही है.

यही नहीं, कई बड़े मीडिया समूहों के न्यूज चैनलों में भी मजीठिया वेतन आयोग के खिलाफ इसी तरह से एकतरफा रिपोर्टें दिखाई जा रही हैं. उदाहरण के लिए, टाइम्स समूह के न्यूज चैनल– टाइम्स नाउ में खुद अर्नब गोस्वामी के कार्यक्रम न्यूज आवर में मजीठिया आयोग के खिलाफ एकतरफा रिपोर्ट दिखाई गई. खुद को अन्याय के खिलाफ सबसे बड़े योद्धा की तरह पेश करने वाले अर्नब गोस्वामी ने बिना किसी हिचक के इस एकतरफा रिपोर्ट को दिखाया. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चैनलों की कथित आज़ादी वास्तव में किसकी आज़ादी है? इससे यह भी पता चलता है कि चैनलों के लिए देश की इतनी बड़ी श्रमिक आबादी अदृश्य और अस्पृश्य क्यों है?

आश्चर्य नहीं कि बिना किसी अपवाद के अधिकांश चैनलों में श्रमिक मामले कोई अलग और नियमित बीट नहीं है और न ही उसे कवर करने के लिए अलग से कोई रिपोर्टर नियुक्त किया जाता है. यह बात और है कि लगभग सभी चैनलों में मनोरंजन यानी इंटरटेन्मेंट, फैशन, लाइफ स्टाइल आदि कवर करने के लिए खास और आम रिपोर्टरों की भरमार है. उनके लिए अलग से ब्यूरो है. चैनलों पर नियमित बुलेटिनों के अलावा अलग से आधे–आधे घंटे के कार्यक्रम हैं. लेकिन करोड़ों श्रमिकों के लिए चैनलों के पास आधे घंटे तो छोडिये, एक मिनट का भी समय नहीं है. लेकिन चैनलों के ‘गुड नाईट एंड गुड लक’ जर्नलिज्म से इसके अलावा और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है?

आनंद प्रधान

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान में एसोशिएट प्रोफ़ेसर हैं. यह उनके निजी विचार हैं. उनका एक ब्लॉग भी है: http://teesraraasta.blogspot.in/ )                                            

Tags: Anand Pradhanhindi journalismहिंदी पत्रकारिता
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