मुकुल व्यास |
एक जमाना था जब हिंदी के अखबारों को प्रमुख ख़बरों के लिए इंग्लिश संवाद एजेंसियों पर निर्भर रहना पड़ता था। शुरू-शुरू में अस्तित्व में आईं हिंदी संवाद एजेंसिया खबरों की विविधता और विस्तृतता के मामले में इंग्लिश संवाद एजेंसियों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाती थीं। धीरे-धीरे स्थितियां बदलीं। राष्ट्रीय स्तर की हिंदी संवाद और फीचर एजेंसियां अस्तित्व में आईं। हिंदी पत्रकारिता के लिए यह एक सुखद परिवर्तन था। हिंदी एजेंसियों के आगमन से समाचारों के स्रोतों के विस्तार के बावजूद इंग्लिश आज भी हिंदी या दूसरी भाषाओं के पत्रकारों के लिए एक महत्वपूर्ण टूल है। कभी-कभी खबरों का विस्तार करने या उनमे वैल्यू एडिशन करने की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में हमें इंग्लिश स्रोतों से ही मदद लेनी पड़ती है। नेट और अन्य स्रोतों से मिलने वाली स्तरीय संदर्भ सामग्री इंग्लिश में ही उपलब्ध है।
सरकारी विज्ञप्तियों की जटिल हिंदी और उनमे प्रयुक्त अप्रचलित शब्दों को ठीक से समझने के लिए हमें उनकी इंग्लिश प्रतियां देखनी पड़ती है ताकि समाचार में सरल शब्दों का प्रयोग किया जा सके। इंग्लिश के मुकाबले हिंदी में समाचार को ठीक से और सरल ढंग से समझाना एक बड़ी चुनौती है। मसलन इंग्लिश के समाचार लेखक यह नहीं सोचता कि ‘लाइट ईयर’ में कितने किलोमीटर हैं या ‘नॉटिकल माइल्स’ का अर्थ क्या होता है। उसे लार्ज हेड्रोन कोलाइडर, हिग्स बोसोन, न्यूट्रिनो, डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बारे में नहीं सोचना पड़ता। उसे ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ या ‘हॉलिस्टिक मेडिसिन’ की भी चिंता नहीं करनी पड़ती। उसे किसी शब्द या नाम के उच्चारण के बारे में बताना नहीं पड़ता। यह जानते हुए कि हिंदी का पाठक वर्ग बहुस्तरीय होता है , हिंदी के पाठकों को समझाना पड़ता है कि यदि अल्फा सेंटौरी नामक तारा पृथ्वी से 4.22 प्रकाश वर्ष दूर है तो वास्तव में वह हमसे कितना दूर है। उन्हें यह बताना पड़ता है कि ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ क्या होता है और ‘इकोसिस्टम’ किसे कहते हैं। हिंदी का समाचार लेखक मिलियन को मिलियन या ट्रिलियन को ट्रिलियन नहीं लिख सकता। यदि वह अपनी कॉपी में डॉलर या पौंड को रूपये में नहीं परिवर्तित करेगा तो उसकी कॉपी अधूरी मानी जाएगी।
हिंदी समाचार लेखक के समक्ष यह अतिरिक्त दायित्व है कि वह विज्ञान,प्रौद्योगिकी, संसदीय कामकाज,कानून,अर्थ व्यवस्था और कार्पोरेट से जुडी कठिन शब्दावली को अपने पाठकों को समझाए।
देवनागरी लिपि की खूबी यह है कि इसका हर शब्द सटीक ध्वनि उत्पन्न करता है। इंग्लिश,फ्रेंच,जर्मन,स्पेनिश या अन्य यूरोपीय भाषाओं में ऐसा नहीं है। इंग्लिश के सभी शब्दों का उच्चारण वैसा नहीं होता जैसा कि रोमन लिपि को देख कर हम अटकल लगाते हैं। जब हम अटकल लगाते हैं तो ‘डेंगी’ को ‘डेंगू’ और ‘जूलरी’ को ‘ज्वैलरी’ कहने लगते हैं। आज हर कोई डेंगी को डेंगू ही कह रहा है। विदेशी नामों, खास कर फ्रेंच,जर्मन और चीनी नामों के सही उच्चारण में बहुत दिक्कत आती है। यहां अक्सर हम तुक्का लगाते हैं।
समाचार लेखक को बाहरी शब्दों और विदेशी नामों का सही उच्चारण बताने की यथासंभव कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए ऑनलाइन शब्दकोश और सही उच्चारण बताने वाली साइट्स से मदद ली जा सकती है। समाचार लेखक को इस संबंध में अपने वरिष्ठ सहयोगियों से परामर्श लेने में भी संकोच नहीं करना चाहिए। सुव्यस्थित संपादकीय कार्यालयों में बर्तनी और विदेशी नामों के सही उच्चारण के लिए एक स्टाइल बुक रखने की परंपरा है। यदि किसी कार्यालय में किसी वजह से ऐसी स्टाइल बुक नहीं है तो वहां ऐसी बुक रखवाने के लिए पहल करनी चाहिए।
बोलचाल की भाषा के नाम पर आजकल अखबारी हिंदी में इंग्लिश शब्दों का प्रयोग जम कर हो रहा है। अखबारी दुनिया में किसी एक अख़बार द्वारा शुरू किए प्रयोग का अनुसरण दूसरे अखबार भी करने लगते हैं। हिंदी के कठिन शब्दों की जगह इंग्लिश के ज्यादा प्रचलित सरल शब्दों का प्रयोग गलत नहीं है लेकिन यह समाचार लेखक को सोचना है कि क्या वह ‘गिरफ्तार ‘ की जगह ‘अरेस्ट’ या ‘संसद’ की जगह ‘पार्लियामेंट’ लिखना चाहता है ?
हिंदी के पाठकों को सरल भाषा में समाचार देने की चुनौती से तभी निपटा जा सकता है जब हम अपनी हिंदी को सुदृढ़ करने के या साथ अपने इंग्लिश ज्ञान में भी निरंतर वृद्धि करें। सतत अभ्यास से हमें इस दिशा में सफलता मिल सकती है और इससे भविष्य में पत्रकारिता के कॅरियर में नई उपलब्धियों का मार्ग भी प्रशस्त होगा।
मुकुल व्यास नवभारत टाइम्स में समाचार संपादक रहे चुके हैं.