About
Editorial Board
Contact Us
Monday, March 27, 2023
NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India
No Result
View All Result
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal
No Result
View All Result
NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India
Home Contemporary Issues

संचार क्रांति के बाद मीडिया: नज़रिए की बात है…

संचार क्रांति के बाद मीडिया: नज़रिए की बात है…

अकबर रिज़वी |

सैद्धांतिक स्तर पर हम भी यही मानते हैं कि अनुवाद एक कला है, लेकिन व्यवहारिक स्तर पर इससे काम नहीं चलने वाला। व्यवहार में तो अनुवाद को शिल्प की ही तरह लिया जा सकता है। ऐसा काम से बचने या भाषा-ज्ञान के अभाव के कारण नहीं है। बल्कि न्यूज़-रूम में ख़बरों के आने की जो रफ़्तार होती है और उसको जल्दी से जल्दी दर्शकों, स्रोताओं या पाठकों तक पहुँचाने की जो होड़ होती है, उसके कारण है। ऐसे में हम भावों से ज़्यादा शब्दों पर फोकस हो जाते हैं और यहीं पर हिन्दी-अँग्रेज़ी का स्ट्रक्चर गड्ड-मड्ड हो जाता है। यानी जिसे हम हिन्दी-भाषा के संकट के रूप में चिन्हित करते हैं, वह दरअसल शब्दानुवाद की प्रवृत्ति से उपजी समस्या है। लेकिन होड़ की इस दौड़ में ‘टाईम लिमिट’ और सीमित मैन-पॉवर के कारण इस समस्या से पार पाना फिलहाल मुमकिन नहीं है।

संचार क्रांति के बाद मीडिया और बाज़ार का संबंध और प्रगाढ हुआ है। दोनों की गलबहियाँ के साइड इफेक्ट्स ही नहीं, बल्कि फायदों से भी आप बख़ूबी वाक़िफ़ हैं। पहला फ़ायदा तो यही कि हिन्दी रोज़गार की भाषा के रूप में स्थापित हुई। ग्रामीण क्षेत्रों के सुविधा-विहीन छात्रों की मजबूरी और कॉलेज-यूनिवर्सिटी के उपेक्षित विभाग के रूप में चिन्हित एक ऐसी भाषा, जो मेधा के मामले में पिछड़े छात्रों की अंतिम शरण-स्थली हुआ करती थी, अब अँग्रेज़ी स्कूल से पास-आउट छात्रों की भी मजबूरी बन गई। लोग अँग्रेज़ी का तड़का लगाकर ही सही, हिन्दी लिखने और बोलने को बाध्य हुए। ऐसा, लोगों के हिन्दी-भाषा से रागात्मक संबंधों के कारण कम, बाज़ार के दबाव के कारण ज़्यादा हुआ है। ठीक उसी तरह जैसे क्रिसमस, वैलेंटाईन डे, करवाचौथ या ऐसे ही अन्य उपेक्षित अवसरों और पर्वों का कायाकल्प हुआ। बाज़ार का क्लियर फंडा है- मार्केटिंग। उसे न तो सोसाइटी मेंटेन करनी है और न ही सांभ्रांत कहलाने का शौक है। उसे एक ही ख़ब्त है- मार्केटिंग। मार्केटिंग यानी प्रोडक्ट की बिक्री का प्रशस्त मार्ग, जो सीधे बड़े उपभोक्ता वर्ग तक जाता हो। यह मार्ग सिर्फ कंक्रीट से नहीं बनता, बल्कि भाषा का इसमें बराबर का योगदान होता है। माल की पहुँच के लिए अगर सड़क की ज़रूरत होती है तो प्रोडक्ट की जानकारी लोगों तक पहुँचाने के लिए सम्प्रेषण की भी।

सूचना सम्प्रेषण का सबसे सशक्त माध्यम भाषा है। और यह बात जगजाहिर है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हिन्दी भारत के बहुसंख्य लोगों की भाषा है। जो अँग्रेज़ी बोलते हैं वो भी, और जो नहीं बोलते हैं, वो भी हिन्दी समझने में तो सक्षम हैं ही। अर्थात केवल अँग्रेज़ी में अगर किसी प्रोडक्ट को प्रचारित किया जाए तो उसकी पहुँच सीमित वर्ग तक ही होगी। जबकि हिन्दी में अगर आप किसी प्रोडक्ट को प्रोजेक्ट करते हैं तो हिन्दी-अहिन्दी दोनों ही भाषा-भाषियों तक आप एक ही साथ मैसेज भेज पाने में सफल होते हैं। हाँ, एक बात ज़रूर है कि यहाँ शुद्धता का आग्रह नहीं पाला जाता, बल्कि कोशिश ये होती है कि भाषा आकर्षक और लोचदार हो, ताकि वह उपभोक्ता को सीधे हिट कर सके। ऐसे में हिन्दी-इंग्लिश मिक्सचर या यूँ कह लें कि हिन्दी में अँग्रेज़ी का तड़का लगा देने से एक तो मैसेज कई वर्गों को अपनेपन के घेरे में ले लेता है, दूसरा यह कि सुनने वाले को अपनी तरफ़ खींचता भी है। वैसे भी हम जिस मुल्क में रहते हैं, वहाँ गाँवों में भी लोग ‘टाईम’ पूछते हैं और ‘पत्नी’ पर ‘वाईफ’ को तरजीह मिलती है। लोग ‘सिरदर्द’ से नहीं ‘हेडेक’ से परेशान होते हैं। जबकि नागरिक-समाज तो माशा-अल्लाह बहुत पहले से अपनी टूटी-फूटी अँग्रेज़ी को हिन्दी के सपोर्ट से खींचते चलने का आदी है।

मसला मार्केटिंग का है। मुनाफे का है। मुनाफा तभी ज़्यादा होगा, जब लागत कम होगी। लागत में कमी सिर्फ उत्पादन के स्तर पर ही नहीं, बल्कि वस्तु के उपभोक्ता तक पहुँचने के दौरान तमाम स्तरों पर चिन्हित की जाती है। कंटेंट और विज्ञापन भी उन्हीं में शुमार है। अँग्रेज़ी में विज्ञापन तैयार करने का अर्थ ये है कि उसी प्रोडक्ट का अलग से हिन्दी में विज्ञापन अनिवार्य हो जाता है। जबकि अगर हिन्दी या हिंग्लिश में कोई विज्ञापन तैयार होता है तो वह सभी वर्ग के उपभोक्ताओं तक अपनी पहुँच बनाता है और लागत को भी घटाता है। विज्ञापन भी मीडिया का ही हिस्सा है, लेकिन फिलहाल मेरा मक़सद विज्ञापन पर नहीं, भाषा पर विचार करना है। लिहाजा इस पर फिर कभी। हम इस वक़्त बस इतना कहना चाहते हैं कि बाज़ार और मीडिया की जुगलबंदी और उसके आलोक में भाषा में आए परिवर्तन का जो निर्णायक पक्ष है, वह आर्थिक है। तभी तो कभी ‘टेस्ट द थंडर’ की सलाह देने वाला सलमान खान आज कल ‘कुछ तूफानी करने’ में व्यस्त है।

माध्यम से अधिक महत्वपूर्ण सम्प्रेषण है। सम्प्रेषण की शैली और भाषा का निर्धारण लक्षित उपभोक्ता अथवा भाषिक-समाज के आधार पर ही होता है। तभी जिन कारों के विज्ञापन एक-डेढ़ दशक पहले तक सिर्फ अँग्रेज़ी में आया करते थे, वे भी अब हिन्दी बोल रहे हैं। कारण स्पष्ट है कि हिन्दीभाषी बहुसंख्य मध्य-वर्ग की क्रय-शक्ति बढ़ी है। अब कार वैसे घरों की भी शोभा बढ़ा रहे हैं, जिन घरों के मालिकान के पास धन तो है, लेकिन अक्षर-ज्ञान नहीं। वैसे भी धन का ज्ञान से सीधा संबंध कभी नहीं रहा। सरस्वती और लक्ष्मी की कथित लड़ाई की कथा काफी पुरानी है। इसका ये भी मतलब नहीं कि बिना धन के ज्ञान अर्जित किया जा सकता है। अब तो प्राइवेटाइजेशन का दौर है। स्कूल-कॉलेजों की गुणवत्ता का मापदंड भी अब मोटी फीस और शो-ऑफ बन गया है। यानी सरस्वती के कस-बल थोड़े ढीले पड़े हैं और लक्ष्मी उन पर हावी होने लगी है।

भूमंडलीकरण ने शहरीकरण की रफ़्तार को तेज़ किया है। शिक्षित युवा-वर्ग का शहरों की तरफ़ पलायन भी पहले की बनिस्बत बढ़ा है और इसी रफ़्तार से नये भाषिक-समाज के निर्माण की गति और दायरे में भी इजाफ़ा हुआ है। नये-नये सूचना तकनीकों ने लोगों में सम्प्रेषण की भूख जगाई है। लोगों में अपनी बात रखने या कहने की ललक भी बढ़ी है। अपनी बातों को दूसरों से शेयर करने का चलन भी बढ़ा है। (सोशल साइट्स की बढ़ती लोकप्रियता और उसके यूजर्स की तादाद में बेतहाशा बढ़ोतरी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।) ठीक है कि उसके अत्याधुनिक मोबाइल सेट में देवनागरी फॉन्ट नहीं है, लेकिन वह कोई शे’र शेयर करना चाहता है तो रोमन लिपि में ही सही, शेयर ज़रूर करेगा। ईद, दीपावली और वैलेंटाईन डे की शुभकामनाएँ मित्रों को देगा। उसके लिए लिपि मायने नहीं रखती, मैसेज महत्व रखता है। रोमन लिपि में हिन्दी-लिखने से भाषा के अस्तित्व पर संकट नहीं आता। भाषा पर संकट तब आता है, जब सांस्कृतिक अथवा भाषिक-समाज का दायरा सिकुड़ता है। जबकि हिन्दी के साथ प्लस प्वॉइंट यही है कि उसका दायरा बढ़ रहा है। हमने पहले भी कहा है कि अगर लिपि अधिक महत्वपूर्ण होती तो सूफ़ी-काव्य, हिन्दी नहीं बल्कि फ़ारसी साहित्य की श्रेणी में होता। उपन्यासकार असग़र वजाहत भी कई मौक़ों पर यह बात कहते रहे हैं कि भविष्य में ऐसा संभव है कि हिन्दी रोमन लिपि में लिखी जाने लगे। हालांकि मुझे पूरी तरह से ऐसा होने की आशंका पर संदेह है। लेकिन यदि आंशिक रूप से ही सही, ऐसा होता भी है तो उससे हिन्दी-भाषा पर कोई संकट नहीं आने वाला। क्योंकि हिन्दी लिपि नहीं, भाषा है। वैसे भी जब हिन्दी भारत से बाहर की दुनिया में भी तेज़ी से अपने पैर फैला रही है तो उसकी परंपरागत संरचना में बदलाव स्वभाविक है। और इसमें कुछ भी नया या अचंभे जैसा नहीं है। ऐसा पहले भी हुआ है। तात्पर्य यह कि जिसे भाषा का संकट कहकर प्रचारित किया जा रहा है, वह दरअसल भाषा का नहीं लिपि का संकट है। और हमें याद रखना चाहिए कि रोमन लिपि के बावजूद अँग्रेज़ी ब्रिटेन की भाषा है। लिपि फारसी होने के बावजूद उर्दू भारत की भाषा है। इसलिए भाषा की बात करते वक़्त इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए। चलिए फिर से हिन्दी भाषा में आ रहे परिवर्तन और मीडिया की भूमिका की तरफ लौटते हैं।

प्रत्येक भाषा कि अपनी भाषिक-संरचना होती है। अपना व्याकरण होता है। वाक्य-संरचना और शैलीगत भिन्नता भी हुआ करती है। अँग्रेज़ी की अपनी, उर्दू की अपनी और हिन्दी की अपनी। लेकिन भारत जैसे बहुभाषा-भाषी और मिश्रित संस्कृति वाले देश में न तो कोई भाषा, न धर्म और न ही संस्कृति या समाज अपना विशुद्ध रूप बनाए रखने में कामयाब हो सकता है। इसे कमज़ोरी के रूप में देखा भी नहीं जाना चाहिए, बल्कि यही मिश्रण-शक्ति और परिवर्तनकामी प्रवृत्ति विविधताओं के बावजूद भारत को एक-सूत्र में पिरोती है। ठीक है कि आज़ादी के बाद एकबारगी हिन्दी को जो स्थान मिल जाना चाहिए था, नहीं मिल सका। अँग्रेज़ी की महत्ता बनी रही। लेकिन शायद आपने ग़ौर किया हो, अँग्रेज़ी का भी भारतीयकरण हुआ है। उर्दू का हिन्दीकरण हुआ है और हिन्दी का उर्दूकरण। मीडिया में भाषाई घालमेल थोड़ा अधिक हुआ है। इसका कारण कुछ तो आर्थिक, कुछ तकनीकी और कुछ माध्यम की कमज़ोरी भी है।

कोई भी न्यूज़ चैनल या अख़बार पूरी दुनिया में जगह-जगह अपने संवाददाता नियुक्त नहीं कर सकता। यह आर्थिक मजबूरी है। लिहाजा करीब-करीब पचास-साठ फीसदी ख़बरों के लिए उसे न्यूज़ एजेंसियों पर निर्भर रहना पड़ता है। भाषा और वार्ता को छोड़ दें तो ज़्यादातर नेशनल-इंटरनेशनल न्यूज़ एजेंसियों से आनेवाली फीड अँग्रेज़ी में होती है। बल्कि सच तो ये है कि भाषा या वार्ता के ज़रिए मिलने वाली ख़बर भी यूएनआई या पीटीआई की ख़बरों का हिन्दी अनुवाद ही होती है। भाषा के स्ट्रक्चर में गड़बड़ी की बड़ी वजह यही है। सैद्धांतिक स्तर पर हम भी यही मानते हैं कि अनुवाद एक कला है, लेकिन व्यवहारिक स्तर पर इससे काम नहीं चलने वाला। व्यवहार में तो अनुवाद को शिल्प की ही तरह लिया जा सकता है। ऐसा काम से बचने या भाषा-ज्ञान के अभाव के कारण नहीं है। बल्कि न्यूज़-रूम में ख़बरों के आने की जो रफ़्तार होती है और उसको जल्दी से जल्दी दर्शकों, स्रोताओं या पाठकों तक पहुँचाने की जो होड़ होती है, उसके कारण है। ऐसे में हम भावों से ज़्यादा शब्दों पर फोकस हो जाते हैं और यहीं पर हिन्दी-अँग्रेज़ी का स्ट्रक्चर गड्ड-मड्ड हो जाता है। यानी जिसे हम हिन्दी-भाषा के संकट के रूप में चिन्हित करते हैं, वह दरअसल शब्दानुवाद की प्रवृत्ति से उपजी समस्या है। लेकिन होड़ की इस दौड़ में ‘टाईम लिमिट’ और सीमित मैन-पॉवर के कारण इस समस्या से पार पाना फिलहाल मुमकिन नहीं है।

माध्यम की भी अपनी समस्याएँ और सीमाएँ हुआ करती हैं। अख़बार में कभी जगह के अभाव में किसी अच्छे लेख पर कैंची चल जाती है तो कभी किसी ख़बर का बॉडी ही ग़ायब हो जाता है। आप सोचते होंगे, लिखने वाला मूर्ख होगा। जी नहीं, लिखने वाला मूर्ख नहीं होता, समस्या स्पेस की होती है। ठीक इसी तरह टीवी स्क्रीन की अपनी सीमाएँ होती हैं। यह स्क्रीन भी एक टेबल की तरह होता है, जिसका निश्चित क्षेत्रफल होता है और उसी दायरे में तमाम चीज़ों को सजाना पड़ता है। जैसे आप घर में टेबुल पर दो-तीन किताबें-कॉपियाँ, एक क़लमदान, दो-तीन पेन, एश ट्रे, गुलदस्ता और कुछ अन्य सामान सजाते हैं। वैसे ही टीवी स्क्रीन भी सजाई जाती है। चैनल-लोगो, लोकेशन, टाईम, टॉप-बैंड, एस्टन, ब्रेकिंग प्लेट, फ्लैश, स्क्रॉल और भी बहुत कुछ। टॉप बैंड से लेकर एस्टन तक, सभी के लिए शब्द संख्या निश्चित होती है। उससे अधिक शब्द डालने पर स्क्रीन पर पूरी बात नहीं आएगी और पढ़ने-देखने वालों को भद्दा भी लगेगा। लिहाजा कई मौकों पर न चाहते हुए भी कई ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ता है जो ठीक-ठीक उसी भाव को सम्प्रेषित नहीं कर रहे होते हैं, जिनको कि सम्प्रेषित करना हमारा लक्ष्य होता है। कई ऐसे शब्द जो आम-फ़हम होने के बाद भी अपने डील-डौल की वजह से इस्तेमाल नहीं किए जाते और उनकी जगह अँग्रेज़ी के वैसे शब्द का इस्तेमाल होता है जो अपेक्षाकृत छोटे होते हैं। उदाहरण के तौर पर आप सामूहिक बलात्कार, दुष्कर्म और गैंगरेप को ले सकते हैं।

सबसे बड़ी बात ये कि आधुनिक भारत में जिस नये भाषिक समाज की रचना हुई है, वह परंपरावादी हिन्दी-अनुरागियों से बिल्कुल अलग है। आज के बच्चों को पाठशाला जाना अच्छा नहीं लगता, वे स्कूल जाना चाहते हैं। हम उन्हें विद्यालय भेजने की तो कोशिश कर सकते हैं, लेकिन जब हम यह ज़िद ठान लें कि नहीं, अब तो हम उन्हें ‘शाला’ ही भेजेंगे तो समस्या पैदा हो जाएगी। वो कहेंगे कि आप अपनी शाला अपने पास रखें, मैं चला स्कूल। आप बेवजह वकील को अधिवक्ता बनाने पर तुले हैं। आप अधिवक्ता संघ बना लीजिए। आप ख़ुद को एडवोकेट कह लीजिए। लेकिन मुवक्किल तो आपको वकील साहब ही बोलेगा और जब मुवक्किल आपको वकील बुलाता है तो मीडिया आपको अधिवक्ता क्यों बुलाए? क़ानून और लॉ तो लोग समझ ही रहे थे, फिर विधि को जबरन घुसेड़ने की क्या ज़रूरत थी? मैं जान-बूझकर वैसे शब्दों की तरफ़ ही आपका ध्यान खींच रहा हूँ, जिनके लिए हिन्दी में ही एक या अधिक, सहज शब्द उपलब्ध हैं। अब आप ही बताएँ क्या विद्यालय विदेशी शब्द है? बोलने में कठिन है? सुनने में अटपटा लगता है? क्या ये तत्सम शब्द नहीं है? हमें आपका उत्तर पता है। झारखंड इंटर काउंसिल के लिए आद्य-विद्य परिषद् जैसे शब्द का चयन आख़िर किसने किया होगा? मैं इसके अस्तित्व में आने के बाद से ही, उस व्यक्ति से मिलने की तमन्ना लिए बैठा हूँ।

एक तरफ तो हम ये रोना रोते हैं कि आज़ादी के साठ-सत्तर साल बाद भी हिन्दी सरकारी कामकाज की भाषा नहीं बन पा रही है। दूसरी तरफ हम जान-बूझकर कठिन और बनावटी शब्दों से हिन्दी भाषा के स्वरूप को बोझिल बनाने में दिन-रात जुटे हैं। विशेष रूप से संस्कृत की तरफ झुकाव कुछ ज़्यादा ही है। आख़िर क्यों? राजभाषा विभाग के वातानुकूलित कमरों में बैठकर, ‘प्रत्यय’ और ‘उपसर्ग’ की मदद से कठिन शब्द गढ़ने की बजाय लोक और अन्य भारतीय भाषाओं के साथ ही विदेशी भाषाओं से सहज और समर्थ शब्दों का चयन कर, उसे हिन्दी में संस्कारित करने में क्या दिक्कत है? बल्कि इससे तो फ़ायदा ही होगा। अहिन्दी भाषी राज्यों के लोगों का भी हिन्दी से अपनापा बढ़ेगा। वैसे भी ऐसे शब्दों की संख्या हज़ारों में है जो कई दूसरी भाषाओं में तो कॉमन हैं, लेकिन हिन्दी में नहीं हैं। हम हिन्दी में अँग्रेज़ी शब्दों की आवक से तो चिंतित हैं, लेकिन हमारी संकीर्णता के कारण हिन्दी अबूझमार का जंगल बनती जा रही है, उसको लेकर बेचैन बिल्कुल भी नहीं हैं। मसला महज भाषा का नहीं है, ग्लोबलाइजेशन के साये में पनपी नव-उदारवादी संस्कृति से भय का भी है। इसने पुराने गढों-मठों की चूलें हिलानी शुरू कर दी हैं। लिहाजा भाषा की आड़ में संस्कृति का भय पाला जा रहा है। भय से समाधान की राह तो साफ़-साफ़ दिखाई देने से रही।

किसी भी भाषा का मानक तो होना ही चाहिए। लेकिन मानक को लोक की कसौटी पर खरा भी उतरना होगा। जब हम मानक की कसौटी पर लोक को परखने लगेंगे तो दिक्कत पैदा होगी। नेशनल मीडिया गाँव और क़स्बों या अलग-अलग राज्यों की बोलियों का इस्तेमाल नहीं करता। वह मानक हिन्दी का ही इस्तेमाल करता है। लेकिन यह मानक हिन्दी, सरकारी प्रतिष्ठानों की मानक हिन्दी से भिन्न है और ऐसा होना भी चाहिए। क्षेत्रीय मीडिया अगर क्षेत्रीय भाषा के शब्दों को तरजीह देती है तो वह न्याय-संगत ही कही जाएगी। वैसे भी मसला भाषा का है। यह देश की ज़मीन पर विदेशी शक्तियों द्वारा कब्ज़े का मामला नहीं है कि महाभारत छेड़ दिया जाए। यहाँ तो परिवर्तनों पर ग़ौर करना और उसके अनुरूप दृष्टि में परिवर्तन की कोशिश ज्यादा ज़रूरी है। वैसे मुझे मालूम है कि न तो मैं कृष्ण हूँ और न ही आप अर्जुन, लिहाजा अगर आप अपने विचार नहीं बदलना चाहते तो मैं आपको बाध्य भी नहीं कर सकता। लेकिन अगर मैं कृष्ण होता तो वही करता, जो उन्होंने अर्जुन के साथ किया था। अर्थात-

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमननैव स्वचक्षुषा।

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमेश्वरम।।

-गीता, अध्याय-18 (66)

संपर्क:09711102709, ईमेल- akbarizwi@gmail.com

Tags: Media After Information Revolutionअकबर रिज़वी
Previous Post

Theories of Mass Communication: Priming

Next Post

सोशल मीडिया क्या है?

Next Post
सोशल मीडिया क्या है?

सोशल मीडिया क्या है?

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

No Result
View All Result

Recent News

 Fashion and Lifestyle Journalism Course

March 22, 2023

Fashion and Lifestyle Journalism Course

March 22, 2023

Development of Local Journalism

March 22, 2023

SCAN NOW FOR DONATIONS

NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India

यह वेबसाइट एक सामूहिक, स्वयंसेवी पहल है जिसका उद्देश्य छात्रों और प्रोफेशनलों को पत्रकारिता, संचार माध्यमों तथा सामयिक विषयों से सम्बंधित उच्चस्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाना है. हमारा कंटेंट पत्रकारीय लेखन के शिल्प और सूचना के मूल्यांकन हेतु बौद्धिक कौशल के विकास पर केन्द्रित रहेगा. हमारा प्रयास यह भी है कि डिजिटल क्रान्ति के परिप्रेक्ष्य में मीडिया और संचार से सम्बंधित समकालीन मुद्दों पर समालोचनात्मक विचार की सर्जना की जाय.

Popular Post

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता

टेलीविज़न पत्रकारिता

समाचार: सिद्धांत और अवधारणा – समाचार लेखन के सिद्धांत

Evolution of PR in India and its present status

संचार मॉडल: अरस्तू का सिद्धांत

आर्थिक-पत्रकारिता क्या है?

Recent Post

 Fashion and Lifestyle Journalism Course

Fashion and Lifestyle Journalism Course

Development of Local Journalism

Audio Storytelling and Podcast Online Course

आज भी बरक़रार है रेडियो का जलवा

Fashion and Lifestyle Journalism Course

  • About
  • Editorial Board
  • Contact Us

© 2022 News Writers. All Rights Reserved.

No Result
View All Result
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal

© 2022 News Writers. All Rights Reserved.