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मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति

मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति

स्वतंत्र मिश्र।

विज्ञापनदाता कंपनियों का दबाव मीडिया संस्थाओं पर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। यह दबाव अब खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है क्योंकि अब विज्ञापन को संपादकीय सामग्री की शक्ल में प्रकाशित और प्रचारित किया जाने लगा है। यह काम सभी बड़े चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं में धड़ल्ले से हो रहा है

मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति के बीच के संबंधों पर बात करने से पहले हमें यह समझ लेना होगा कि हम किस मीडिया के बारे में बात कर रहे हैं। मीडिया के बारे में चिंतन शुरू करते ही हमारे दिमाग में बड़े समाचार और मनोरंजन चैनल, हिंदी, अंग्रेजी या फिर दूसरे किसी भी क्षेत्रीय भाषा में छपने वाले अखबारों का ख्याल जेहन में आने लगता है। यह वह मीडिया है, जो मुनाफे के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर ही अपनी परवरिश करता है और मालिकों के लिए यह एक धंधा भर है। आमतौर पर इसे मुख्यधारा का मीडिया भी कहते हैं।

पूंजीवादी व्यवस्था में गुणवत्ता से ज्यादा पूँजी का आकार यानी बड़ी पूंजी और छोटी पूंजी मायने रखती है क्योंकि इस समय कोई भी अखबार या मनोरंजन चैनल खड़ा करने के लिए सैकड़ों करोड़ रुपये की पूंजी की जरूरत होती है। जाहिर सी बात है कि जिस मीडिया संस्थान के पास जितनी बड़ी पूंजी होगी, वह अपने मीडिया संस्थान या ब्रांड को स्थापित करने के लिए तमाम जोखिम को सहने की क्षमता भी उतनी ज्यादा रखेगा। वह अपने साम्राज्य का विस्तार भी छोटी पूँजी के वेंचर की तुलना में ज्यादा कर सकेगा और जाहिर सी बात है कि वह अपनी पूँजी को भी ज्यादा कुशलता से विस्तार दे सकेगा। वह अखबार और टीवी चैनल के संस्करण के माध्यम से अपने उपभोक्ता और विज्ञापन के जरिये पूँजी का हर संभव दोहन करने में कामयाबी हासिल कर सकेगा। ऐसे में अखबार और चैनलों के लिए खबर नहीं बल्कि खबर के तौर पर उत्पाद या सीधी भाषा में कहें तो बिक्री के लिहाज वाली खबरें ही महत्व पाएंगी। उनके लिए भुखमरी, कुपोषण, खेती-किसानी और आम जनता जिसकी क्रय क्षमता नहीं है, उसकी खबर कोई खास मायने नहीं रखती है। अपवाद के तौर पर अगर कोई जन सरोकार वाली ख़बरें चैनल या अखबार में दिखती हैं तो उसे दिखाने या प्रकाशित करने के पीछे सम्बद्ध चैनल की कोई न कोई मजबूरी ही होती है। एक बड़ी मजबूरी उनकी अपने पाठकों या दर्शकों के बीच अपनी साख जमाने या बचाने की भी होती है जिसके चलते जन सरोकारी किस्म की ख़बरें जगह पा लेती हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण पृष्ठभूमि की सबसे ज्यादा ख़बरें 3 फीसदी अंग्रेजी अखबार ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित होती हैं। दूसरे अखबार तो गांव-ज्वार की ख़बरों के प्रति पहले से ही बहुत उदासीन हैं।

अखबारों या चैनलों में प्रकाशित या प्रसारित होने वाली खबरों से आसानी से उनकी पक्षधरता समझी जा सकती है। इस बात को समझने के लिए कुछ बड़े मनोरंजन चैनलों की पूंजी पर भी गौर फरमाया जा सकता है। सहारा समय, एबीपी, आजतक और एनडीटीवी का सालाना टर्नओवर 300 करोड़ रुपये के आसपास या इससे भी ज्यादा का है। ज्यादातार बड़े अखबारों के भी टर्नओवर कई सौ करोड़ रुपये सालाना का है। अब सवाल है कि यह कारोबार या मुनाफा चैनलों और अखबारों को कहां से आता है? उनकी कमाई दर्शकों और पाठकों से कतई पूरी नहीं हो सकती है। इसकी वजह साफ़ है कि आज की तारीख में 10 पन्ने का एक अखबार छापने की लागत प्रति कॉपी 10 रुपये के आसपास आती है। सवाल उठता है कि फिर मीडिया संस्थान इस घाटे की क्षतिपूर्ति कहाँ से करते हैं और मुनाफा कहां से कूटते हैं?

मीडिया संस्थान अपनी कमाई विज्ञापन से होने वाली आय से जुटा पाते हैं। अपनी कमाई को दुरुस्त रखने के लिए वे अंधविश्वास फैलाने वाले बाबाओं के कई-कई घंटे का स्लॉट बुक करने में कोई गुरेज नहीं रखते हैं। 2012 में जब आशाराम बापू पर गिरफ्तारी के बादल मंडरा रहे थे और टीवी चैनल में निर्मल बाबा छाये हुए थे तब मैंने यह जानने की कोशिश की थी उनका स्लॉट कब और किस-किस चैनल में आता है? मैंने पाया कि निर्मल बाबा समेत कई और बाबा हर न्यूज़ चैनल (एक या दो को छोड़कर) पर अपने-अपने प्रवचन वांचने के लिए स्लॉट अगले दो महीने तक की बुक करवा चुके थे। टीवी चैनल के ये स्लॉट बहुत ही ऊँची कीमत पर धर्मगुरु खरीदते हैं। टीवी वाले भी इसलिए उन्हें स्लॉट बेचने के लिए लालायित रहते हैं।

कई बार जिनकी टीआरपी कम होती है वैसे चैनल इन गुरुओं को स्लॉट बेचने के लिए पूरी कसरत करते हैं। ध्यान देने योग्य बातें यह है कि उन दिनों निर्मल बाबा मधुमेह के रोगियों को जलेबी खाने और उदर सम्बन्धी शिकायत वाले रोगियों को पानीपूरी खाने की सलाह चैनल पर दे रहे थे। पत्रकारिता का सम्बन्ध ख़बरों के साथ तर्क और तथ्यों से भी बराबरी का होता है। यही वजह है कि विज्ञापन और मीडिया संस्था के बीच मुनाफे को लेकर एक किस्म का दबाव काम करता है, जो विज्ञापन और संपादकीय सामग्री दोनों के स्तर को बुरी तरह से प्रभावित करते हैं और निश्चित तौर पर इससे उपभोक्तावादी संस्कृति को भी बढ़ावा मिलता है।

विज्ञापनदाता कंपनियों का दबाव मीडिया संस्थाओं पर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। यह दबाव अब खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है क्योंकि अब विज्ञापन को संपादकीय सामग्री की शक्ल में प्रकाशित और प्रचारित किया जाने लगा है। यह काम सभी बड़े चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं में धड़ल्ले से हो रहा है। निश्चित तौर पर यह भ्रामक और खतरनाक भी है। एक हिंदी पाक्षिक ने 2013 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर एक आवरण कथा प्रकाशित किया था। छह पृष्ठों की आवरण कथा में अखिलेश यादव के नकारापन पर बहुत उम्दा रिपोर्ट लिखी गयी थी लेकिन बिना किसी अंतराल के उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से दिए गिये छह पृष्ठों के अतिप्रशंसा वाले विज्ञापन (प्रचार-समाचार) भी प्रकाशित किए गए थे। यह पाक्षिक पत्रिका ऐसे विज्ञापन को प्रचार-समाचार के नाम से प्रकाशित करता है। अखिलेश यादव वाले इस अंक को लेकर सोशलसाइट (फेसबुक) पर भी लम्बी बहस चली थी और पत्रिका के संपादकीय विवेक पर सवाल भी उठाया गया था। यह पत्रिका अपने सम्पादकीय पन्ने पर विज्ञापन भी ऐसे छापता रहा जैसे कि उस विज्ञापनदाता कंपनी ने सम्पादकीय प्रायोजित किया हो। निश्चित तौर पर यह संपादकीय विवेक पर विज्ञापन के दबाव को दर्शाता है।

इतना ही नहीं बीते एक दशक से यह देखा यह जा रहा है कि पत्र-पत्रिकाएं और न्यूज चैनल विज्ञापन की संपादकीय सामग्री को खुद ही अपने यहां कार्यरत मीडिया कर्मचारियों यानी पत्रकारों से तैयार करवाता है। कई संस्थानों में इस काम के लिए पत्रकारों को अलग से पारिश्रमिक भी दिया जाता था। अलग से पारिश्रमिक देने की व्यवस्था भी धीरे-धीरे खत्म सी हो गई है। अब पत्रकारों ने और मीडिया संस्थानों में बैठे संपादकों और कुछ अधिकारियों ने इसे संपादकीय सहयोग के तौर पर स्वीकार कर लिया है।

मतलब यह है कि अखबार में नौकरी करनी है तो विज्ञापनदाताओं और मालिकों के हितों को पहले पायदान पर रखना होगा। पत्रकारिता तो बीते जमाने की बात हो ही चली है। पत्रकार भाड़े के टट्टू की तरह हैं। उन्हें जहां चाहे जोत लो, वे न नहीं कर सकते हैं। अगर यह कहा जाए कि नौकरी बनाए रखने के नाम पर पत्रकारों की रीढ़ तोड़ दी गई है या तोड़ी जा रही है तो शायद कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह कोशिश ‘हिंदुस्तान’ और ‘आइबीएन 7’ से निकाले गए सैकड़ों पत्रकारों के ही संदर्भ में ही नहीं बल्कि तथाकथित प्रगतिशील अखबार ‘द हिंदू’ के सिद्धार्थ वरदराजन से संपादक की कुर्सी छीनकर इसके मालिक कस्तूरी परिवार के अपने परिवार के सदस्यों को सौंप देने के संदर्भ में समझा जा सकता है। सिद्धार्थ वरदराजन से संपादक की कुर्सी लेकर मालिकों द्वारा अपने बेटे और बेटियों को दिया जाना ‘संपादक’ नाम की संस्था को खत्म करने जैसा है।

युवा पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने अपने फेसबुक वाॅल पर यह भी लिखा है कि सिद्धार्थ ने नरेंद्र मोदी की खबर को पहले पन्ने पर जगह देने से अपने संपादकीय टीम को मना किया था। ‘द हिंदू’ को एक लोकतांत्रिक और एक वामपंथी दल की विचारधारा से प्रभावित अखबार की तरह देखा जाता रहा था। सिद्धार्थ वरदराजन के हटाये जाने और पी। साईनाथ द्वारा अखबार को विदा कहने के बाद अखबार की सामग्री बहुत कमजोर पड़ने लगी है। हालांकि यहां भी सिद्धार्थ के संपादक पद पर रहते हुए ही ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के नक्शेकदम पर चलते हुए जैकेटनुमा विज्ञापन प्रकाशित किया जाने लगा था। विज्ञापन को तवज्जो मिलने से खबरों की जगह यहां भी मरने लगी थी। अंतर यह है कि यह काम यहां बहुत देरी से हो रहा है, जो अन्य अखबारों के मालिकों ने मुनाफा लूटने के लिए एक सुनहरे अवसर की तरह दो दशक पहले ही लपक लिया था। लाजिमी है कि कोई भी संस्थान या पेशा अपने मूल से भटकने लगता है और उसकी पहली और अंतिम इच्छा केवल मुनाफा बटोरने की रह जाती है तो उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा मिलने से कोई कैसे रोक सकता है?

बीते एक दशक से यह देखा यह जा रहा है कि पत्र-पत्रिकाएं और न्यूज चैनल विज्ञापन की संपादकीय सामग्री को खुद ही अपने यहां कार्यरत मीडिया कर्मचारियों यानी पत्रकारों से तैयार करवाता है। कई संस्थानों में इस काम के लिए पत्रकारों को अलग से पारिश्रमिक भी दिया जाता था। अलग से पारिश्रमिक देने की व्यवस्था भी धीरे-धीरे खत्म सी हो गई है। अब पत्रकारों ने और मीडिया संस्थानों में बैठे संपादकों और कुछ अधिकारियों ने इसे संपादकीय सहयोग के तौर पर स्वीकार कर लिया है

मीडिया उद्योग में कई संस्थान बस इसलिए शुरू किये जाते हैं ताकि उनकी आड़ में अपने काले या गैर-कानूनी धंधों को फलने –फूलने का हरसंभव अवसर उपलब्ध कराया जा सके। कारोबारी और उनसे गठजोड़ कर चुके संपादक अपने मीडिया संस्थान (अखबार या चैनल) के पत्रकारों की नेता, मंत्री और अफसरशाहों के संपर्कों का दोहन करके अपने धंधे को आगे बढ़ाते हैं और जब यह मकसद पूरा नहीं होता हुआ दीखता तब वे बड़े स्तरों पर पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखाते हैं। पर्ल न्यूज़ नेटवर्क की चार पत्रिकाओं (शुक्रवार, बिंदिया, मनी मन्त्र हिंदी व अंग्रेजी) और टीवी चैनल का बंद होना इसकी बड़ी मिसाल है। पर्ल न्यूज़ नेटवर्क ने छह साल तक अपने यहाँ काम करने वाले कर्मचारियों को 15-25 फीसदी का सालाना ग्रोथ दिया। पर्ल ने अपने कर्मचारियों को हर त्यौहार पर काजू, किसमिस और रेवड़ियाँ बांटी। होली और दिवाली पर 1500-2500 रुपये के लिफाफे भी पकडाए। लेकिन इस ग्रुप की दूसरे चिटफण्ड के कारोबार में निवेशकों के 45 हज़ार करोड़ की देनदारी के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से ही यहाँ के मैनेजमेंट का रुख अपने कर्मचारियों के प्रति बदल-बदल सा गया है।

2009 में जब इस पर्ल ग्रुप के चिटफण्ड ऑफिस पर छापा पड़ा था तब इस कंपनी ने 75 हज़ार करोड़ रूपये की अचल संपत्ति होने की अधिकारिक घोषणा की थी। इस रेवड़ी बांटने वाली संस्था ने अपने कर्मचारियों को 2014 के अगस्त-सितम्बर से ही सैलरी नहीं दी है। पी 7 चैनल और पत्रिकाओं के कर्मचारी अपने बकाये को लेकर संघर्षरत हैं। कंपनी के मेनेजर कर्मचारियों से हरसंभव बुरा व्यबहार कर रहे हैं। संपादकों से मालिकों के एजेंट द्वारा पत्रिका बंद करने से पहले हर महीने 5 लाख विज्ञापन लाने को कहा गया था। एक-दो ने इस शर्त को स्वीकार भी कर लिया और यही वजह है कि उनके लिए कार्यालय के दरवाजे पत्रिका बंद होने के बाद भी कई महीने तक खुले रहे। शुक्रवार के सबसे लोकप्रिय संपादक रहे विष्णु नागर के सामने भी प्रबंधन ने विज्ञापन लाने का दवाब बनाया था लेकिन उन्होंने प्रबंधन को दूसरे दिन ही इस्तीफा भेज दिया था। वह ऐसा व्यवहार इसलिए कर रही है क्योंकि उनके चिटफण्ड के कारोबार के काले पक्ष को मीडिया के मजदूर धोने में कामयाब नहीं हो पाए। पर्ल के साथियों ने यह किस्सा कई बार सुनाया था कि उनके एक संपादक आयकर विभाग को वर्षों तक मैनेज करता रहा। ये संपादक इस समूह के स्थापना काल से लेकर अगले कई सालों तक जुड़े रहे।

आजकल किसी सरकारी महकमे में हैं। इस समूह की एक पत्रिका के एक संपादक के बारे में इनदिनों मीडिया के गलियारे में यह चर्चा आम है कि वे एक पॉवर प्रोजेक्ट और स्टील कंपनी से यह वादा कर चुके हैं उन्हें वे कोयला खदान का पट्टा दिलवाएंगे। पॉवर प्रोजेक्ट वाली कंपनी इसके बदले में उन्हें कई पत्रिकाओं का संपादक बनाने का वादा कर चुका है। वे इससे पहले उत्तर प्रदेश के एक अखबार से बिना किसी सम्पादकीय सहयोग के ही हजारों रूपये (लाख से थोडा कम) की पगार उठाते रहे। इनकी विशेषता केंद्र की सत्ता में बैठी पार्टी के एक कद्दावर नेता से बहुत करीबी तालुकात की हैं।

चिटफण्ड कंपनियां दरअसल अपने निवेशकों को यह झांसा देती है कि वे बाज़ार में उपलब्ध सभी निवेश उत्पाद के मुकाबले कई गुना ज्यादा रिटर्न देंगी। चिटफण्ड कंपनियां अपने निवेशकों के पैसों से अपनी पूँजी को बढ़ाने के लिए कई- कई कंपनी खोलती है ताकि अपने बट्टे-खातों पर घाटे-मुनाफे का खेल, खेल सके। वे अपने इस खेल में अपना सामर्थ्य बढ़ाने के लिए प्रेस की ताक़त को ढाल की तरह इस्तेमाल में लाना चाहती है। वे 30-40 कंपनियों के साथ एक मीडिया हाउस भी खड़ा करती है। हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में इन मीडिया कंपनियों का जादू ख़त्म सा होता हुआ दिख रहा है, सो नतीजे के तौर पर मीडिया संस्थान बंद हो रहे हैं और सैकड़ों पत्रकार रातोंरात बेरोजगार हुए हैं।

सहारा समूह के चेयरमैन भी निवेशकों के साथ धोखाधडी के मामले में जेल की सलाखों की पीछे कई महीने से हैं। सहारा समूह की ३१ कंपनी में से सिर्फ एक कंपनी ही फायदे में थी। सहारा कंपनी के मालिक सुब्रतो रॉय को बचाने के लिए मीडिया मजदूरों से चंदा इकट्ठा करने की बात सुनी गयी थी। पर्ल ग्रुप की भी लगभग ४२ कंपनी में से सिर्फ एक-दो ही मुनाफे में थी। दरअसल, उपभोक्तावाद का मूल सिद्धांत ही किसी भी सूरत में मुनाफा कमाना भर होता है। मुनाफा कमाने के लिए तमाम किस्म की अमानवीयता और श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। दुखद तो यह है कि मीडिया की इस बाजारू खेल में बड़े-बड़े और नामचीन पत्रकार-संपादक शामिल हैं। इन पत्रकार-संपादकों की नज़रें सालाना करोड़ों के सैलरी पैकेज और अम्बानी के अंतिला में आलिशान फ्लैट खरीदने और इडियम मॉल में शेयर जुगाड़ने की है। एक अंग्रेजी पत्रिका ‘कारवान’ के अनुसार इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक शेखर गुप्ता को संस्थान क्या गुल खिलने को सालाना 10 करोड़ रूपये देता रहा?

पत्रकारिता एक मिशन और जज्बा है- देश के अलग-अलग पत्रकारिता स्कूल में पढ़कर निकले हर साल 60 हज़ार बच्चों को इसके तहकाने की बातें जब पता चलती हैं तब वह इससे ज्यादा भली पीआर की नौकरी में ही अपनी ऊर्जा खपाना उचित समझते हैं। वैसे भी पत्रकारिता भी तो मिशन को छोड़ मालिकों और उनके गोरख धंधों के लिए पीआर का ही काम कर रही है…

स्वतंत्र मिश्र अनेक मीडिया संस्थानों में पढ़ाते हैं। वे एक वरिष्ठ और संवेदनशील पत्रकार हैं। लेखों की किताब ‘जल, जंगल और जमीन : उलट, पुलट, पर्यावरण’ प्रकाशित हो चुकी है।

Tags: advertisementEditorialMedia and Consumer CultureNewspaperSwatrantra Mishraपत्र-पत्रिकाएंमीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृतिविज्ञापनसंपादकीयस्वतंत्र मिश्र
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