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मीडिया और लोकतंत्र : एक दूसरे से पूरक या विरोधी

मीडिया और लोकतंत्र : एक दूसरे से पूरक या विरोधी

राजेश कुमार। 
यह शोध पत्र मुख्य रूप से वैश्विक स्तर पर मीडिया और विभिन्न देशों की राजनीतिक‚ सामाजिक‚ आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के साथ उसके अंतरसंबंधों पर प्रकाश डालता है। विभिन्न समयकाल में विकसित होने वाली राजनीतिक व्यवस्थाओं ने मीडिया को किस हद तक प्रभावित किया? इन परिस्थितियों में मीडिया की क्या भूमिका रही? मीडिया ने किस प्रकार इन व्यवस्थाओं के अनुकूल खुद को ढाला और ऐसी कौन सी व्यवस्था है‚ जिसमें मीडिया सहज होकर लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती प्रदान करने के लिए काम कर सकता है? इन बिंदुओं पर चर्चा की गई है।

वैश्विक परिदृष्य और मीडिया: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

1956 में संचारविद् फ्रेड साइबर्ट‚ थिओडोर पीटरसन और विल्बर श्रैम ने अपनी पुस्तक ‘फॉर थ्योरीज ऑफ प्रेस’ में वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों की राजनीतिक‚ सामाजिक‚ आर्थिक और सांस्कृतिक विविधता को ध्यान में रखते हुए मीडिया सिद्धांतों का विस्तार से जिक्र किया। अधिनायकवाद‚ उदारवादी‚ सामाजिक उत्तरदायित्व और सोवियत कम्युनिस्ट सिद्धांतों के जरिए उन्होंने विभिन्न देशों की राजनीतिक व्यवस्था में मीडिया की कार्यप्रणाली और इसकी भूमिका के बारे में बताया। इसके साथ ही मीडिया को प्रभावित करने वाले कारकों की चर्चा की। इन सिद्धांतों के अस्तित्व में आने के 27 वर्षों बाद 1983 में संचारविद् डेनिस मेक्विल ने वैश्विक पटल के समक्ष दो अन्य मीडिया सिद्धांत सामने रखे-विकास संचार और लोकतांत्रिक सहभागिता। इन सिद्धांतों के प्रतिपादन की खास वजह विश्‍व की बदलती परिस्थितियां रहीं।

लेकिन मुख्य सवाल यह है कि वर्तमान वैश्विक परिदृष्य में इन सिद्धांतों की क्या प्रासंगिकता है? विभिन्न देशों की राजनीतिक व्यवस्था में आज मीडिया किस स्थिति में है? ऐसी कौन सी व्यवस्था है जिसमें मीडिया और राज्य एक आदर्श स्थिति प्रस्तुत करने में सक्षम रहा है? क्या मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है या इसमें कुछ बाधाएं हैं? यदि कोई बाधाएं हैं तो वह मीडिया को किस प्रकार प्रभावित कर रही हैं? क्या मीडिया भी अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करता है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं‚ जिनके तह में जाने के लिए उन सिद्धांतों पर आज के परिदृष्य में चर्चा करना जरूरी है‚ जो संचारविद् फ्रेड साइबर्ट‚ थिओडोर पीटरसन‚ विल्बर श्रैम और डेनिस मेक्विल ने दिए।

मीडिया सिद्धांत

संचारविद् फ्रेड साइबर्ट, थिओडोर पीटरसन और विल्‍बर श्रैम
(1956 में प्रकाशित फोर थ्‍योरीज ऑफ प्रेस)

 

अधिनायकवाद मीडिया सिद्धांत (तानाशाही, निरंकुश, सत्‍तावादी, अधिाकारवादी व्‍यवस्‍था पर आधारित)   उदारवादी मीडिया सिद्धांत(व्‍यक्तिगत और वाक एवं अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर आधारित व्‍यवस्‍था)
सोवियत कम्‍युनिस्‍ट मीडिया सिद्धांत (कम्‍युनिस्‍ट विचारधारा पर आधारित व्‍यवस्‍था अधिनायकवाद से प्रेरित)   सामाजिक उत्‍तरदायित्‍व सिद्धांत (अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक उत्‍तरदायित्‍व पर आधारित व्‍यवस्‍था)

संचारविद् डेनिस मेक्विल
(1983 में प्रकाशित सप्‍लीमेटरी थ्‍योरीज ऑफ प्रेस)

विकास संचार सिद्धांत(विकासपरक संचार पर आधारित व्‍यवस्‍था)
लोकतांत्रिक सहभागिता सिद्धांत
(लोकतांत्रिक सहभागिता पर आधारित व्‍यवस्‍था)

ब्रिटेन के ‘द इकनोमिस्ट’ मैगजीन ने विश्‍व के 167 देशों में सर्वे किया और अपने रिपोर्ट में यह बताया कि करीब 55 देशों में अधिनायकवाद फल-फूल रहा है। उत्तरी कोरिया इरीट्रिया, इक्वेटोरियल गुएना, तुर्कमेनिस्तान, बहरीन, ब्रूनेई, बर्मा, बुरूंडी, कांगो, इथियोपिया, गाम्बिया, जॉर्डन, कजाकिस्तान, ओमान, रूस, रवांडा, सोमालिया, सूडान, सीरिया, स्वाजीलैंड, ताजिकिस्तान, यमन, वियतनाम, लीबिया, क्यूबा, ब्राजील, चिली, अर्जेंटीना, उजबेकिस्तान, सीरिया, बेलारूस, आर्मेनिया, बहरीन, कंबोडिया, इरान, लाओस, सउदी अरब, तुर्की, वियतनाम, अफगानिस्तान, अल्जीरिया, अंगोला, चीन, पाकिस्तान और जिम्बाब्वे आदि देशों में यह व्यवस्था प्रत्यक्ष तौर पर अपना अस्तित्व बनाए हुए है और मीडिया की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करता रहा है।

इन देशों की राजनीतिक व्यवस्था ने हमेशा नागरिक और मीडिया स्वतंत्रता को ताक पर रखा है। मीडिया यहां कठपुतली मा़त्र है, जो राज्य के इशारे पर नाचता है। यहां राज्य ही कानून है और इसके खिलाफ होने वाली कोई भी अभिव्यक्ति स्थापित सत्ता के लिए खतरा है और उसे दमनात्मक तरीके से कुचलने में कोई कोताही नहीं बरती जाती। मीडिया के लिए राज्य के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना ही पहला और अंतिम विकल्प है। ऐसा न करने की स्थिति में मीडिया को कठोर कार्रवाई का सामना करना पड़ता है। मीडिया संदेशों की निगरानी के लिए सेंसरशिप और प्री सेंसरशिप सिस्टम लागू है, जिसका प्रभार एक सेंसरशिप अधिकारी को सौंपा गया है। राज्य के खिलाफ किसी संदेश के प्रचार-प्रसार होने की स्थिति में कई दंडात्मक प्रावधान किए गए हैं। मीडियाकर्मियों का जीवन हमेशा खतरे के साए में होता है। यही कारण है कि इन देशों में सैकड़ों पत्रकारों को जान से हाथ धोना पड़ा है।

अधिनायकवाद का ही एक स्वरूप सोवियत कम्युनिस्ट मीडिया सिस्टम 1917 की रूसी क्रांति के बाद उभरा, जो मार्क्स-स्टालिन-लेनिन-एंजेल की विचाराधारा से प्रेरित रहा। लेनिन ने जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए मीडिया को सबसे बडा हथियार माना और साफ संदेश दिया कि मीडिया को हमेशा राज्य के साथ मिलकर समाज की सेवा करनी चाहिए। इस प्रकार कम्युनिस्टों ने मीडिया पर अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण कर लिया। यह राजनीतिक व्यवस्था काफी हद तक अधिनायकवाद तंत्र से ही प्रभावित रही, जहां राज्य के खिलाफ कुछ लिखने-बोलने की स्वतंत्रता नहीं। रूस, चीन, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, क्यूबा और चिली जैसे देश कम्युनिस्ट मीडिया सिस्टम से ही प्रभावित हैं। यहां मीडिया हमेशा भय के साए में काम करता है। इन देशों में भी सेंसरशिप और प्री सेंसरशिप सिस्टम लागू है और कडे़ दंडात्मक प्रावधान किए गए हैं।

यूनाइटेड नेशन की परामर्शदात्री संस्था रिपोर्टर विदाउट बॉर्डर ने प्रेस फ्रीडम पर आधारित अपनी रिपोर्ट में यह बताया कि 2013 में विश्‍व में करीब 71 मीडियाकर्मी मारे गए और 826 को हिरासत में लिया गया। करीब 2160 मीडियाकर्मियों को या तो धमकाया गया या फिर उन्हें शारीरिक प्रताड़ना दी गई। करीब 87 मीडियाकर्मियों का अपहरण भी किया गया और 77 को जान बचाने के लिए अपने देश से भागना पड़ा। इसके अलावा करीब 39 नेटीजेंस और सिटीजन जर्नलिस्ट और 6 मीडिया असिस्टेंट मारे गए। करीब 127 नेटीजेंस को हिरासत में लिया गया।

इनमें से ज्यादातर घटनाएं उन देशों में हुईं, जहां अधिनायकवादरूपी व्यवस्था काम कर रही हैं। इस व्यवस्था ने मीडिया का गला घोंटने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने दिया। यही कारण है कि इसका विरोध वैश्विक स्तर पर हमेशा से होता रहा है।

इसकी शुरुआत यूरोप में 16वीं शताब्दी के दौरान जॉन मिल्टन, जॉन स्टुअर्ट मिल, जॉन लॉके और थॉमस जेफर्सन जैसे उदारवादी बु़द्धिजीवियों ने की। अधिनायकतंत्र की कटु आलोचना करते हुए इसे नागरिक स्वतंत्रता के लिए बर्बर बताया और इसके खिलाफ मुहिम शुरू कर दी। इन उदारवादियों ने एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की परिकल्पना दी। जिसमें मीडिया आजादी के साथ अपनी बात कह सके, उस पर किसी प्रकार का दबाव न हो। इस व्यवस्था में इस बात पर जोर डाला गया कि किसी व्यवस्था के विकास के लिए नागरिक स्वतंत्रता काफी महत्वपूर्ण है और यही स्वतंत्रता मीडिया को भी मिलनी चाहिए, तभी एक स्वस्थ तंत्र का निर्माण हो पाएगा, जो सभी के हित का ध्यान रखेगा।

इन उदारवादियों की मुहिम ने मीडिया और समाज में व्यापक परिवर्तन के संकेत दिए, लेकिन मीडिया की भूमिका क्या हो और इसे किस प्रकार समाज के सभी तबकों के हित में काम करने के लिए प्रेरित किया जाए, यह विचार का प्रश्‍न बना रहा। खासकर यूरोपीय व्यवस्था में औ़द्योगिक क्रांति के दौरान पूंजीवादी विचारधारा का बोलबाला रहा और पूंजीपतियों ने मीडिया पर अप्रत्यक्ष रूप से कब्जा कर लिया। उनका मुख्य ध्येय मीडिया के जरिए अपने राजनीतिक और व्यापारिक हितों को साधना बन गया और इसे एक उद्योग का रूप देने का प्रयास किया जाने लगा। मीडिया के केंद्रीकरण ने इसके स्वरूप को बिगाड़ दिया। यह जनमत के बजाए पूंजीपतियों और राजनीतिज्ञों का हथियार बनकर बेलगाम हो गया। जिन देशों ने पूंजीवादी विचारधारा का अनुसरण किया, वहां मीडिया का स्वरूप केंद्रीकृत होता चला गया।

20वीं शताब्दी की शुरुआत में विश्‍व के कई देशों ने इस मुददे पर चर्चा शुरू की और यह तय करने का प्रयास किया कि मीडिया के लिए वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन। इसके मददेनजर 1923 में अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूजपेपर एडिटर्स ने मीडिया के सामाजिक उत्तरदायित्व पर विस्तार से चर्चा की और मीडिया के आचार संहिता से जुडे कुछ बिंदुओं को सामने रखा। इसके तहत मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देते हुए जिम्मेदार, यथार्थपरक, निष्पक्ष और संतुलित बनाने का प्रयास किया गया।

इस दिशा में मजबूत पहल करते हुए 1947 में गठित ब्रिटेन की रॉयल कमीशन ने 1947 में अपनी रिपोर्ट में प्रेस काउंसिल की सिफारिश करते हुए मीडिया के स्वनियमन पर जोर दिया। कमीशन ने कहा कि प्रेस काउंसिल एक वाचडॉग की तरह मीडिया को अपनी जिम्मदारियों का समय समय पर अहसास कराएगी। 1947 में ही अमेरिका की हचिंस कमीशन (जिसे आधिकारिक तौर पर कमीशन ऑन फ्रीडम ऑफ प्रेस के नाम से भी जाना जाता है) ने अपनी रिपोर्ट में समाज के प्रति मीडिया की भूमिका को अति महत्वपूर्ण माना और आचार संहिता को ध्यान में रखते हुए समाज तक संदेश पहुंचाने का निर्देश दिया। विश्‍व के कई लोकतांत्रिक देशों ने इन रिपोर्टों को अपनी व्यवस्था में जगह दी है। यह मीडिया की भूमिका पर अब तक सबसे बडी बहस साबित हुई, जिसका सकारात्मक पक्ष सामने आया।

ब्रिटेन की ‘द इकनोमिस्ट’ की रिपोर्ट के अनुसार विश्‍व के 24 देश पूरी तरह से लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आधारित हैं, जिनमें आस्ट्रेलिया, आस्ट्रिया, चेक रिपब्लिक, आयरलैंड, दक्षिणी कोरिया, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, स्वीडेन, स्पेन, जापान, आयरलैंड, आइसलैंड, स्विटजरलैंड, अमेरिका, जर्मनी, फिनलैंड, कोस्टा रिका, कनाडा, ब्रिटेन, बेल्जियम और उरूग्वे आदि शामिल हैं। इसी रिपोर्ट में करीब 54 देशों को दोषपूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था की श्रेणी में रखा गया है। इनमें एंटीगुआ, अर्जेंटीना, बेनिन, बोत्सवाना, साइप्रस, डोमिनिका, डोमिनिकन रिपब्लिक, ईस्ट तिमोर, अल सल्वाडोर, एस्टोनिया, फ्रांस, घाना, ग्रीस, गुएना, हांगकांग, हंगरी, भारत, इंडोनेशिया, इजराइल, इटली, जमैका, किरीबाती, लातविया, लेसोथो, लिथुआनिया, मैसेडोनिया, मालावी, मलेशिया, मेक्सिको, मोल्दोवा, मोनेको, मंगोलिया, नामीबिया, पनामा, पापुआ न्यू गिनी, पराग्वे, पेरू, कोलंबिया, चिली, फिलीपींस, पोलैंड, पुर्तगाल, रोमानिया, सेंट लुसिया, दक्षिण अफ्रीका, ताइवान और सुरीनाम आदि हैं।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था रखने वाले देशों में मीडिया को अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता दी गई है। यह सिर्फ सैद्धांतिक नहीं है, बल्कि व्यावहारिक तौर पर भी है। जबकि जिन देशों को दोषपूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था की श्रेणी में रखा गया है, वहां मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो है, लेकिन राजनीतिक व्यवस्था किसी न किसी तरीके से इस पर नकेल कसती रही है। इसके बावजूद इनकी खासियत यह है कि कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर मीडिया को लिखने-बोलने की पूरी आजादी दी गई है।

द्वितीय विश्‍वयुद्ध से पहले विकसित हुई राजनीतिक व्यवस्थाओं को ध्यान में रखते हुए विल्बर श्रैम, फ्रेड साइबर्ट और थिओडोर पीटरसन ने मीडिया सिद्धांतों की विस्तार से की, लेकिन इसके बाद वैश्विक परिदृश्‍य काफी बदल गया। औपनिवेशिक दास्ता से मुक्त हुए एशिया और अफ्रीका के कई देश सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर जीर्ण शीर्ण हो चुके थे। इनकी अर्थव्यवस्था कुपोषण का शिकार थी। इनका मुख्य लक्ष्य एक विकसित व्यवस्था तैयार करना था और इसमें मीडिया की भूमिका क्या हो, इस पर संचारविद डेनिस मेक्विल ने चर्चा करते हुए कुछ नए सिद्धांत प्रतिपादित किए।

मेक्विल ने विकासशील और अर्द्धविकसित देशों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए मीडिया की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया और विकास संचार की पुरजोर वकालत की, जो देश की आंतरिक स्थिति को मजबूती प्रदान कर सके। संचारविद डेनियल लर्नर और विल्बर श्रैम ने भी यह पहलू सामने रखा कि इन देशों की स्थिति में सुधार लाने के लिए लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना जरूरी है। उन्हें विकास के लिए प्रेरित करना होगा, जो मीडिया के माध्यम से किया जा सकता है।

1980 में यूनेस्को के प्रयास से गठित मैकब्राइड कमीशन ने अंतराष्ट्रीय मीडिया की स्थिति से रूबरू करवाया। कमीशन की रिपोर्ट से यह पता चला कि वैश्विक स्तर मीडिया संदेशों का प्रवाह असंतुलित और एकतरफा है, जो पश्चिमी देशों से होकर पूर्वी देशों तक आता है। यह विकासशील और अर्द्धविकसित देशों की सही तस्वीर पेश नहीं करता। मैकब्राइड कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में अंतराष्ट्रीय मीडिया के लोकतांत्रिकरण पर बल दिया। यूनेस्को की इस रिपोर्ट का कई विकसित देशों ने बहिष्कार किया। कई संचारविदों ने भी माना है कि विकसित देशों की कभी यह मंशा नहीं रही कि उनके समक्ष कोई नया साधन संपन्न देश खड़ा हो, क्योंकि यह उनके वर्चस्व को चुनौती देता, इसलिए इन देशों ने नए सिरे से घुसपैठ शुरू की और मीडिया के जरिए विकासशील और अर्द्धविकसित देशों की व्यवस्था में घुसने का प्रयास किया और वैश्विक स्तर पर इन देशों की सही तस्वीर नहीं पेश की। इस प्रकार सूचना साम्राज्यवाद और सांस्कतिक उपनिवेशवाद का नया दौर शुरू हुआ। कमजोर देशों के सूचना तंत्र और संस्कृति पर प्रहार किया गया।

मेक्विल ने इस स्थिति से बचने के लिए लिए विकसित देशों की मीडिया के समक्ष एक वैकल्पिक मीडिया खड़ा करने का सुझाव दिया, जो इनके प्रोपेगंडा को समझ सके और उसकी काट खोज सके। उन्होंने कहा कि इन देशों को अपनी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था को मजबूत करना होगा, जिसमें मीडिया काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

मेक्विल ने अपने लोकतांत्रिक सहभागिता सिद्धांत में मैकब्राइड कमीशन की रिपोर्ट से मिलती जुलती व्यवस्था का पुरजोर समर्थन किया, लेकिन यह किसी देश की आंतरिक व्यवस्था से जुड़ा है। उन्होंने मीडिया के लोकतांत्रिकरण और विकेंद्रीकरण पर जोर देते हुए कहा कि विकास के लिए लोकतांत्रिक सहभागिता जरूरी है। उन्होंने कहा कि हर देश विविधताओं से भरा है और इसके सही प्रतिनिधित्व के लिए विभिन्न स्तरों पर लोगों के समूह द्वारा मीडिया का संचालन किया जाना चाहिए, ताकि किसी क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों से सही तरीके से रूबरू होकर विकास के लिए कदम उठाया जा सके। इस प्रकार मीडिया केंद्रीकरण का खतरा भी कम हो जाएगा।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया
संचारविद मैक्स मैककाम्ब और डोनाल्ड शॉ ने एजेंडा सेटिंग सिद्धांत के जरिए किसी राजनीतिक व्यवस्था में तीन प्रकार के एजेंडे का जिक्र किया। इनमें पब्लिक एजेंडा, मीडिया एजेंडा और पॉलिसी एजेंडा शामिल हैं। एक आदर्श स्थिति में पब्लिक एजेंडा लोगों की विभिन्न परिस्थितियों से जुड़ा हैं, जिसे वह मीडिया एजेंडे के जरिए राज्य तक पहुंचाना चाहते हैं, ताकि उसे पॉलिसी एजेंडे का अंग बनाया जा सके। मीडिया एजेंडा एक माध्यम है, जो लोगों के मुददे को राज्य तक पहुंचाता है और राज्य का ध्यान उस ओर आकर्षित करता है। वहीं पॉलिसी एजेंडा राज्य द्वारा तय किया जाता है, जो पब्लिक को ध्यान में रखकर बनाना चाहिए, लेकिन तीनों एजेंडे में तालमेल व्यावहारिकता के धरातल पर कम ही दिखाई पड़ता है। ज्यादातर मीडिया और राज्य का एजेंडा एक साथ काम करते हैं और पब्लिक एजेंडा हाशिए पर चला जाता है। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि जहां इन तीनों में तालमेल होता है, वहां समाज, मीडिया और राज्य अपने अधिकारों का भरपूर दोहन करते हुए सुखद स्थिति में होते हैं।

खासकर विश्‍व की पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में यह देखने को मिलता है, जहां मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इसकी खास बात यह है कि उस व्यवस्था के सबल और दुर्बल पक्षों को सामने रखने के लिए मीडिया स्वतंत्र है। फिनलैंड, स्वीडन, नीदरलैंड, नार्वे, डेनमार्क, आस्ट्रेलिया, कनाडा, लक्जमबर्ग, स्विटजरलैंड, आयरलैंड, न्यूजीलैंड और आस्ट्रिया जैसे देशों में मीडिया पूरी तरह स्वतंत्र है और लोकहित तीनों एजेंडे में सर्वप्रमुख है। यहां का उदारवादी मीडिया अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करता है, वहीं कई ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं भी हैं, जहां खामियां हैं। यहां भी मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन यह उदारवादी, सामाजिक उत्तरदायित्व, विकास संचार और लोकतांत्रिक सहभागिता के घालमेल से होते हुए लोगों तक पहुंचता है। परिपक्वता के अभाव के कारण कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है, जब मीडिया और समाज को अराजक स्थिति का सामना करना पड़ता है। यहां इन तीनों एजेंडों में तालमेल का घोर अभाव दिखता है। कई मौकों पर राज्य और मीडिया एजेंडा एक साथ होकर व्यवस्था का संचालन करते हैं, जबकि कुछ मौकों पर पब्लिक के लामबंद होने पर मीडिया अपना एजेंडा बदलकर उनके साथ हो लेता है। इन सभी खामियों के बावजूद यहां की व्यवस्था में सुधार की गुंजाइश है और यह अधिनायकवाद की स्थिति से काफी बेहतर है।

इससे इतर कई देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है। यहां की राजनीतिक व्यवस्था पूरी तरह अधिनायकवाद या फिर कम्युनिस्ट व्यवस्था से प्रभावित है। उत्तरी कोरिया, इक्वेटोरियल गुएना, इरीट्रिया, सेंट्रल अफ्रीका रिपब्लिक, चाड, टोगो, म्यांमार, सउदी अरब, गुएना, क्यूबा, सीरिया, लाओस, सूडान, विएतनाम, चिली और अर्जेंटीना जैसे कई देशों में मीडिया के लिए राज्य का एजेंडा पहला और अंतिम विकल्प है। किसी भी स्थिति में राज्य के एजेंडे को चुनौती नहीं दी जा सकती।

इससे यह स्पष्ट है कि मीडिया का विकास और उसकी भूमिका मुख्य रूप से विशुद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में निखरकर सामने आती है और एक सफल लोकतंत्र के लिए मीडिया की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बेहद जरूरी है।

संदर्भ सूची
साइबर्ट फ्रेड, पीटरसन थिओडोर, श्रैम विल्बर, (1956), फोर थ्योरीज ऑफ प्रेस, यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनॉयस प्रेस,
मेक्विल डेनिस, (1983), सप्लीमेंटरी थ्योरीज ऑफ प्रेस
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स (2013), रिपोटर्स विदाउट बॉर्डर
डेमोक्रेसी इंडेक्स (1012), : डेमोक्रेसी एट ए स्टैंडस्टील, इकनोमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट, 2013
रॉयल कमीशन ऑन द प्रेस रिपोर्ट, (1947-49), ब्रिटेन
कमीशन ऑन द फ्रीडम ऑफ प्रेस, (1947), हचिंस कमीशन रिपोर्ट
मैकब्राइड कमीशन रिपोर्ट: मैनी व्वासेस वन वर्ल्ड, (1980), यूनेस्को
श्रैम विल्बर (1964), मास मीडिया एंड नेशनल डेवलपमेंट
लर्नर डेनियल, (1958), पासिंग ऑफ ट्रेडिशनल सोसाइटी
मैककाम्ब मैक्स, शॉ डोनाल्ड, (1968), एजेंडा सेंटिंग थ्योरी

राजेश कुमार
असिस्‍टेंट प्रोफेसर
सेंटर फॉर मास कम्‍युनिकेशन
सेट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड मोबाइल- 9631488108
ई मेल- rajesh.iimc@gmail.com

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