About
Editorial Board
Contact Us
Tuesday, July 5, 2022
NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India
No Result
View All Result
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal
No Result
View All Result
NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India
Home Contemporary Issues

मीडिया, मिशन और मुनाफे की जिद

मीडिया, मिशन और मुनाफे की जिद

धनंजय चोपड़ा।

समय बदला, समाज बदला, सोच बदली और इन सबके साथ पत्रकारिता के सरोकार भी बदले। मिशन को खूंटी पर टांग कर पत्रकारिता के अधिकांश अलम्बरदार पहले मार्केट और फिर मुनाफे की दौड़ और आगे निकल जाने की होड़ में शामिल हो गये। मार्केट, मनी, मसल्स और मुनाफे के साथ खुद को सिंक्रोनाइज करने की जुगत में लगे मीडिया को कहीं आगे निकल जाने का मौका मिला तो कहीं पिछड़ जाने का। समाज के विविध मुद्दों पर सवाल उठाने वाले मीडिया पर खुद ही सवाल उठने लगे। मसलन, क्या मीडिया पहले से कहीं अधिक ताकतवर हुआ है? क्या आम जनता मीडिया की ताकत को बढ़ाने में योगदान दे रही है? क्या मीडिया अपने जन-सरोकारी रूप को बचा पा रही है? क्या अब लोगों को उनके अपने हिस्से की खबरों के लिए तरसना पड़ रहा है? क्या टीवी के साथ-साथ अखबारों पर से भी लोगों का विश्वास उठने लगा है? क्या मीडिया अपने मिशन से भटक कर नकारात्मक सामाजिक बदलाव की दिशा में चल पड़ा है? तो क्या फिर देश के विकास में मीडिया का कोई योगदान नहीं रह गया है? ऐसे ही कई और सवाल, जो मीडिया और उससे जुड़े संदर्भों को लेकर होने वाली बहसों में उठाये जा रहे हैं।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के समाप्त होते-होते मीडिया को लेकर कई सवाल व संकट हमसे रू-ब-रू हुए हैं। इन सवालों और संकटों का सीधा सम्बन्ध भारतीय सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक व आर्थिक स्थितियों में आ रहे बदलावों से रहा है। लोगों की बदलती दिलचस्पियों और रहन-सहन के तरीकों ने भी मीडिया पर एक अलग ढंग का प्रभाव डाला। प्रभाव सामाजिक मूल्यों के अपनी जगह छोड़ते जाने का भी पड़ा। मीडिया बरक्स इसके कि अपने मूल स्वभाव को बचाकर लोगों के हिस्से से खिसकते मूल्यों को दृढ़ता देने का काम करता, स्वयं ही अपने स्वभाव पर इसके प्रभाव को हावी होने से रोक नहीं पाया। यही वजह है कि मीडिया भी समय और समाज के साथ बदलने पर मजबूर हो गया। नतीजा यह है कि पुराने दौर की ‘मिशनरी पत्रकारिता’ नये दौर में ‘मार्केट ओरिएंटेड मीडिया’ होकर हमारे साथ है। ऐसे में यह प्रश्न भी उठना लाज़मी है कि जब समय बदला, समाज बदला तो फिर मीडिया के बदलने पर शोर मचाते हुए तमाम तरह के प्रश्नों की बौछार क्यों की जा रही है?

वास्तव में भारतीय मीडिया के पास प्रिंट मीडिया की एक समृद्ध स्मृति परम्परा है और इसी परम्परा को साथ लेकर भारतीय जनमानस नये होते मीडिया से मुठभेड़ करने को तैयार रहता है। यहां एक बात ध्यान देने की है कि हमारे इस समय में ‘मीडिया’ के प्रमुख हिस्से पर टेलीविजन का कब्जा है और जब जन-समाज मीडिया पर प्रश्नों की बौछार करता है तो उसका लक्ष्य अखबारों पर कम, न्यूज चैनलों पर अधिक होता है। सच यह भी है कि ‘मीडिया’ पर बात करने वाले या उससे जुड़े लोग यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते कि हम प्रिंट वाले हैं या हम रेडियो वाले हैं या फिर हम वेब मीडिया के पैरोकार हैं, और हमारा टेलीविजन पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं है।

इस बात से भी मुंह नहीं फेरा जा सकता कि इन दिनों मीडिया का हर हलका पूंजी के जबरदस्त दबाव में है। अखबार या टेलीविजन पर समाचार देना अब किसी ‘मिशन’ का हिस्सा भर नहीं है, बल्कि एक इण्डस्ट्री का हिस्सा है और उसमें बहुत पैसा लगाया जा रहा है। बड़ी बात यह है कि पैसा लगाने वाला इस उम्मीद में रहता है कि उसका पैसा बाजार भाव से कहीं अधिक मुनाफा देगा। मिशन और मुनाफे की मुठभेड़ में मुनाफा भारी पड़ रहा है। एक समय था जब मीडिया के पास आदर्श और मूल्य हुआ करते थे। अब इनका स्थान सूचना और मुनाफा ने ले लिया है। दूसरी ओर अब खबरों को जनता तक पहुंचाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना विज्ञापनदाता को उसके उपभोक्ताओं तक पहुंचाना हो गया है। वास्तव में अब पत्रकारिता में बै्रण्डिंग के एशेन्स तलाशे जा रहे हैं और मार्केटिंग के ताजा-तरीन फण्डों को अपनाया जा रहा है। जाहिर है कि जब मिशन की जगह मुनाफा प्रभावी होगा तो जन-सरोकार का अभाव मीडिया में आ ही जायेगा। इसी अभाव का प्रभाव जब मीडिया के स्वभाव पर पड़ना शुरू हुआ तो जन-मानस के पास बची-खुची स्मृति परम्पराओं ने मीडिया पर प्रश्न उठाने शुरू कर दिये। इन प्रश्नों के उत्तरों की तलाश में नये-नये रास्ते सामने आते गये, न केवल लोगों के सामने बल्कि मीडिया के सामने भी। लोग बदले और लोगों के साथ मीडिया भी बदल गया। नई परिस्थितियों ने भी कुछ प्रश्न उठाये कि क्या बदलते समय के नये रास्तों पर चलना बेमानी होगा? मीडिया के नये स्वरूप के साथ नई परिभाषायें गढ़ना पुरानी पड़ती जा रही परम्पराओं की अवमानना होगी? और क्या अपने समय के चाल-चलन के बीच रहते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करते रहना बुद्धिमत्ता नहीं है? शायद इन सबका उत्तर आप भी ‘नहीं’ में ही देंगे, जो कई लोगों की समझ में सही भी है।

यह सही है कि इण्डस्ट्री में अपनी चमक-दमक बरकरार रखने और अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की होड़, हड़बड़ी और हड़कम्प में मीडिया अपने जन-सरोकारी रूप को बचा पाने और जन-विश्वास बरकरार रख पाने में विफल रहा है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इन स्थितियों से उबरा नहीं जा सकता है। तलाश उस बिन्दु की करनी है, जहां पर मीडिया और जनता के बीच के रिश्तों का नमक चाटा जा रहा है। वास्तव में हुआ यह कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उभार ने पैसे, कैरियर, ग्लैमर का ऐसा गठजोड़ मीडिया में दिखाया कि युवाओं की एक बड़ी फौज अपना भविष्य संवारने की ललक लिए इसके भीतर आ गयी। ऐसी फौज, जिसे न तो मीडिया की स्मृति परम्पराओं से कुछ लेना-देना था और न ही जन सरोकारों से। कैरियर बनाने पहुंची इस फौज का जितना दोष था, उससे कहीं दोष उन प्रशिक्षण संस्थानों और मीडिया घरानों का था, जिन्होंने इनको स्वप्न दिखाते समय मीडिया इण्डस्ट्री के कड़वे यथार्थ को हाशिये पर ढकेल दिया। नतीजा हमारे सामने है कि खबरों का मीडिया, जो हमारा यानी जनता का था वह ठसक के साथ ‘इलीट’ होता चला गया। हालत यह है कि चैनल चलाने वालों का ‘मूड’ होता है तो वे जनता के हिस्से की बात करते हैं और फिर लम्बे समय तक ‘मूड’ न बन पाने के कारण उस बात को भूले रहते हैं। मसलन जब कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया तो सभी चैनलों पर ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के बहाने बच्चों पर केन्द्रित कार्यक्रम चलने लगे। ऐसा लगा कि बाल-मजदूरी को ये चैनल खत्म कराकर ही दम लेगे। लेकिन दो दिन के अंदर ही चैनल वालों का दिल भर गया और ‘मुहिम’ खत्म हो गई।

यह अनायास नहीं है कि हाल ही में राडिया प्रकरण के कारण लोकतंत्र के चैथे खंभे के दरकने की आवाज हम सभी को सुनाई पड़ी। आवाज इतनी तेज और डरावनी थी कि देश का हर जागरूक नागरिक चैंक गया। चैंकता भी क्यों न, आखिर दरकने की यह तेज आवाज उस खंभे से आयी थी, जिस पर उसका सबसे अधिक भरोसा था। यह सही है कि यह खंभा अपने अस्तित्व में आने के बाद से ‘मिशन’, ‘परमिशन’ और ‘कमीशन’ के दौर से गुजरता हुआ कई बार दरका, लेकिन इस बार इसने सभी को डरा दिया। सच तो यह है कि दरकने की आवाज ने खुद मीडिया के लोगों को भी डरा दिया। आजादी के 64 साल बाद यदि यह पढ़ने-सुनने को मिले कि ‘भारत में गणतंत्र अब बिकाऊ है और इसकी नीलामी में बोली लगाने वालों में शामिल हैं देश के चुनिंदा शक्तिशाली लोग, कार्पोरेट घराने, लॉबीस्ट, नौकरशाह और पत्रकार…….’ तो डर तो लगेगा ही। यहां उन जुगलबंदियों पर निगाह डालना जरूरी है, जिन्होंने यह डर पैदा किया है और वे हैं कार्पोरेट घराने और मीडिया तथा लाबिस्ट और मीडिया। अभी वे दिन बीते बहुत अधिक समय नहीं हुआ है जब पूर्व संचार मंत्री सुखराम के घर से बोरियों में भरे नोट मिले थे और तब के इकलौते टीवी समाचार बुलेटिन के प्रस्तुतकर्ता जाने-माने पत्रकार एस0पी0 सिंह ने उसे इस तरह जनता तक पहंुचाने का काम किया था, मानो वे भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी मिशन में जुट गये हों। इसी के बरक्स अगर हाल के दिनों की कुछ टीवी खबरों को याद करने की कोशिश करें तो कभी किसी फिल्मी हीरो के घर पर होने वाली दावत का नजारा मिलेगा या किसी उद्योगपति का आलीशान घर या फिर किसी राजनेता की हड़क।

वास्तव में देश की राजधानी और महानगरों में सत्ता की चकाचैंध में कार्पोरेट कम्युनिकेशन का बाजार फल-फूल रहा है। यह बात और है कि जानकार लोग इस पूरे प्रकरण को नया नहीं मानते। प्रख्यात समाजशास्त्री और जे0एन0यू0 के प्रोफेसर आनंद कुमार की माने तो ‘सत्ता, कार्पोरेट और मीडिया के गठजोड़ की बात नयी नहीं है। समाज के सजग लोग इसे लेकर बहुत परेशान नहीं हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा हमेशा सत्ता में हस्तक्षेप करता रहा है। मीडिया के जरिये उद्योगपति अपना अप्रत्यक्ष दबाव या अंकुश सत्ताधारियों पर रखते हैं। लेकिन बात इतनी खुल गई कि मुनाफे के धंधे से जुड़े मंत्रालयों के बारे में सीधा उद्योगपतियों और मीडियाकर्मियों का परस्पर गठबंधन अलोकतांत्रिक तरीके से निजी लाभ को बढ़ाने में लगा है, जो पूंजीवाद की अंतिम बुराइयों को खोलकर सामने लाता है।’ प्रो0 आनंद चेतावनी भी देते हैं कि ‘अगर लोकतंत्र निर्माण और राष्ट्रीय विकास के स्थान पर मुनाफा, अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी संचार का नियंत्रण एवं पैसे के आधार पर सूचना संचार और विश्लेषण ही रह जायेगा तो फिर मीडिया समाज के लिए एक खतरनाक व्यवसाय के जैसा हो जायेगा।

बहरहाल मीडिया में काम करने वाले, मीडिया पढ़ाने वाले और मीडिया पर नजर रखने वाले मीडिया पर उठने वाले प्रश्नों और मीडिया की पहचान कर आ रहे संकटों से निपटने की तैयारी में जुट गये हैं। समृद्ध स्मृति परम्पराओं, बाजार और नई उभरती टेक्नोलॉजी के बीच पारस्परिक सामंजस्य बैठाने की कोशिशें भी शुरू कर दी गयी हैं। एक सार्थक प्रयास राष्ट्रीय विकास के साथ मीडिया को लेकर चलने और बरास्ते मीडिया देश के पिछड़े इलाकों को मुख्य धारा में लाने का भी हो रहा है। मीडिया शिक्षण संस्थानों द्वारा शुरू किये गये ‘डेवलपमेंट जर्नलिज्म’ के पाठ्यक्रमों को इसी संदर्भ की कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। यहां मैं सन् 2006 के राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर आयोजित प्रेस कौंसिल आफ इण्डिया के उस कार्यक्रम का जिक्र करना चाहूंगा, जिसमें तत्कालीन राष्ट्रपति ए0पी0जे0 अबुल कलाम सहित सभी वक्ताओं ने भारत के राष्ट्रीय विकास में मीडिया की भूमिका सुनिश्चित करने की बात कही थी। स्वयं श्री कलाम ने उदीयमान भारत को 2020 तक विकसित राष्ट्र के रूप में देखने के स्वप्न को साकार करने के लिए ‘मिशन फाॅर मीडिया’ प्रस्तुत किया था।

श्री कलाम ने मीडिया के लिए जो आठ मिशन सुझाये थे उनमें मीडिया से यह उम्मीद की गई थी कि वह उन सरोकारों को फिर से पाने की कोशिश करेगी, जिसके बलबूते देश को आजाद कराने और फिर उसे निरंतर आगे बढ़ाने में सफलता मिली। इस मिशन फार मीडिया के एजेंडे में अपनी परम्पराओं और मूल्यों को सहेज कर देश के विकास, महिलाओं की सुरक्षा, भ्रष्टाचार से मुक्ति, लोगों की व्यक्तिगत सफलताओं के उत्सव और शैक्षिक व आर्थिक उन्नयन में मीडिया की भूमिका सुनिश्चित करना शामिल था। इस अवसर पर श्री कलाम ने कहा था कि ‘‘मीडिया के लिए यह बहुत जरूरी है कि वह राष्ट्रीय विकास की प्रक्रिया का भागीदार बने। मीडिया को चाहिये कि वह जटिल मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस चलाकर उसके सकारात्मक पहलुओं को उजागर करके समाधान उपलब्ध कराये।’’

वास्तव में सिक्के के दूसरे पहलू पर ध्यान दें तो जिस तेजी से देश का विकास हुआ है उतनी ही तेजी से मीडिया ने भी विकास की गति पकड़ रखी है। टेक्नोलॉजी ने जहां मीडिया को नित नये आयाम दिये हैं वहीं ‘साइमल कास्टिंग सिस्टम’ यानी प्रिंटकास्ट, टेलीकास्ट, ब्राडकास्ट, वेब कास्ट और ह्यूमन कास्ट को एक साथ मिलकर जनता के बीच काम करने का मंच भी उपलब्ध कराया है। इन दिनों नागरिक प्रतिबद्धता और नागरिक नाकेबंदी जैसे शब्द जितने अधिक मजबूत और अर्थवान हुए हैं, उतने पहले कभी नहीं थे, और इसका श्रेय मीडिया को ही है। ‘नागरिक पत्रकारिता’ के सहारे लोगों के बीच अपनी पैठ बरकरार रखने लगे मीडिया को अब यह सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि उसकी असल ताकत सत्ता से नहीं, बल्कि जनता से है। ठीक है कि अभी यह सोच मीडिया के कुछ हलकों में ही विकसित हो रही है, लेकिन अपने खोये हुए ताप को पाने के लिए अपनी समृद्ध स्मृति परम्पराओं और दृढ़ सामाजिक जड़ों की ओर लौटना मीडिया के लिए जरूरी होता जा रहा है।

चलते-चलते एक राहत देने वाली बात भी कहता चलूं तो ठीक रहेगा। ऐसा नहीं है कि देश के विकास में मीडिया अपनी भागीदारी निभाने में नाकामयाब रहा है। वास्तव में भारतीय प्रिंट मीडिया तो उन देशों के लिए उदाहरण की तरह रहा है, जो अपनी आजादी की लड़ाई लड़ने और फिर विकास की राह पकड़ने के लिए भारत की ओर उम्मीद और प्रेरणा के अक्स पाने के लिए देखते हैं। वास्तव में असल गड़बड़ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ही लेकर है। यही वह मीडिया है जिसने अपने भीतर से आम आदमी को रूखसती का अहसास कराया है और अपने साथ-साथ मीडिया के सभी आयामों पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। फिर भी चीजें संभल सकती हैं और संभाली जा रही हैं। स्वयं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने शैशव काल कसे बाहर आकर परिपक्वता व्यक्त करने के प्रयास में है। एक बड़े पत्रकार की यह बात सम्बल देती है कि ‘सुखराम को आज की पीढ़ी नहीं जानती। आने वाली पीढ़ी राजा, राडिया और कलमाड़ी को नहीं जानेगी, लेकिन पराड़कर, राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, बी.जी. वर्गीज और एस0 पी0 सिंह हमेशा याद रखे जायेंगे, जिनके एशेंस पीढ़ी दर पीढ़ी अपने समय के पत्रकारों में मिल जाते हैं।’

डॉ. धनंजय चोपड़ा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर आफ मीडिया स्टडीज के कोर्स कोआर्डिनेटर हैं, मोबाइल: 9415235113
ई-मेल: c.dhananjai@gmail.com

Tags: Allahabad UniversityBroadcast JournalismCorporate JournalismDhananjay ChopraEconomic JournalismEnglish MediaFacebookHindi MediaInternet JournalismJournalisnMedia Mission and Quest for ProfitNew MediaNews HeadlineNews writersOnline JournalismPRPrint JournalismPrint NewsPublic RelationSenior Journalistsocial mediaSports JournalismtranslationTV JournalistTV NewsTwitterWeb Journalismweb newsअंग्रेजी मीडियाआर्थिक पत्रकारिताइंटरनेट जर्नलिज्मइलाहाबाद विश्वविद्यालयकॉर्पोरेट पत्रकारिताखेल पत्रकारिताजन संपर्कटीवी मीडियाट्रांसलेशनट्विटरधनंजय चोपड़ान्यू मीडियान्यूज राइटर्सन्यूड हेडलाइनपत्रकारपब्लिक रिलेशनपीआरप्रिंट मीडियाफेसबुकमीडिया मिशन और मुनाफे की जिदवेब न्यूजवेब मीडियासीनियर जर्नलिस्टसोशल माडियास्पोर्ट्स जर्नलिज्महिन्दी मीडिया
Previous Post

जन सम्‍पर्क के सिद्धांत, क्या ये अवैज्ञानिक है?

Next Post

फोटोग्राफी में ऐपर्चर की भूमिका

Next Post
फोटोग्राफी में ऐपर्चर की भूमिका

फोटोग्राफी में ऐपर्चर की भूमिका

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

No Result
View All Result

Recent News

The Age of Fractured Truth

July 3, 2022

Growing Trend of Loss of Public Trust in Journalism

July 3, 2022

How to Curb Misleading Advertising?

June 22, 2022

SCAN NOW FOR DONATIONS

NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India

यह वेबसाइट एक सामूहिक, स्वयंसेवी पहल है जिसका उद्देश्य छात्रों और प्रोफेशनलों को पत्रकारिता, संचार माध्यमों तथा सामयिक विषयों से सम्बंधित उच्चस्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाना है. हमारा कंटेंट पत्रकारीय लेखन के शिल्प और सूचना के मूल्यांकन हेतु बौद्धिक कौशल के विकास पर केन्द्रित रहेगा. हमारा प्रयास यह भी है कि डिजिटल क्रान्ति के परिप्रेक्ष्य में मीडिया और संचार से सम्बंधित समकालीन मुद्दों पर समालोचनात्मक विचार की सर्जना की जाय.

Popular Post

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता

समाचार: सिद्धांत और अवधारणा – समाचार लेखन के सिद्धांत

टेलीविज़न पत्रकारिता

समाचार, सिद्धांत और अवधारणा: समाचार क्‍या है?

समाचार : अवधारणा और मूल्य

Rural Reporting

Recent Post

The Age of Fractured Truth

Growing Trend of Loss of Public Trust in Journalism

How to Curb Misleading Advertising?

Camera Circus Blows Up Diplomatic Row: Why channels should not be held responsible as well?

The Art of Editing: Enhancing Quality of the Content

Certificate Course on Data Storytelling

  • About
  • Editorial Board
  • Contact Us

© 2022 News Writers. All Rights Reserved.

No Result
View All Result
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal

© 2022 News Writers. All Rights Reserved.