डॉ. देवव्रत सिंह।
दुनिया भर में अमेरिका और यूरोप में मीडिया शिक्षण की दो अलग-अलग धाराएं विद्यमान रही हैं। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा की धाराएं भी बाद में इन दोनों में ही मिल गयीं। अमेरिकी परंपरा के अनुसार मीडिया शिक्षण में क्राफ्ट पर जोर रहा है। जिसमें मीडिया प्रॉडक्शन और पत्रकारिता कैसे करें इस बात पर बल दिया जाता रहा है। जबकि यूरोप विशेषकर ब्रिटेन में विकसित हुई दूसरी धारा मीडिया अध्ययन से जुड़ी है। ये परंपरा मीडिया का अध्ययन अन्य विषयों जैसे समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान इत्यादि से जोड़कर करने पर बल देती है। इसी धारा ने मीडिया का समाजशास्त्र, मीडिया का मनोविज्ञान और मीडिया का अर्थशास्त्र जैसे अन्तरविषयक पाठ्यक्रमों को जन्म दिया है। दरअसल, इस परंपरा का जोर मीडिया के विश्लेषण के दौरान उसके कंटेंट में छिपे हुए सच को जानना रहा है। साथ ही मीडिया की अंतर्निहित राजनीति को उजागर करना रहा है
हाल के दिनों में मीडिया शिक्षण की वर्तमान स्थिति, कार्यप्रणाली, पाठ्यक्रम रूपरेखा, समस्याएं और भविष्य पर अधिकाधिक चर्चाएं आयोजित हो रही हैं। मीडिया में अभूतपूर्व विस्तार के साथ-साथ जो फैलाव मीडिया शिक्षा में पिछले एक दशक के दौरान आया, उसमें अब थोड़ा ठहराव दिखायी देना लगा है। ताबड़तोड़ फैलाव के बाद मीडिया में स्वमूल्यांकन की एक प्रवृत्ति दिखायी दे रही है। स्वाभाविक है कि मीडिया संस्थानों में भी विस्तार के बाद अब आत्ममूल्यांकन की बारी है।
पिछले एक दशक के दौरान देश में अनेक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और संस्थानों में मीडिया के नये विभाग और पाठ्यक्रम आरंभ किए गये। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय ने लंबे समय तक केवल एक मीडिया कार्यक्रम चलाने के बाद अलग से एक स्कूल ऑफ जर्नलिज्म एंड न्यू मीडिया स्ट्डीज आरंभ किया और पत्राचार के साथ साथ नियमित पाठ्यक्रम भी आरंभ किये। देश के प्रतिष्ठित भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली को विश्वविद्यालय का दर्जा दिये जाने की बात चल रही है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ मीडिया स्टडीज खुल चुका है। कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय ने अपने विभाग को जनसंचार एवं मीडिया प्रौद्योगिकी संस्थान में तब्दील कर अनेक नये आधुनिक पाठ्यक्रम आरंभ कर दिये हैं। वहीं देहरादून स्थित दून विश्वविद्यालय ने अपने आरंभ में ही स्कूल ऑफ कम्यूनिकेशन खोल कर अपनी प्राथमिकता तय कर दी है।
देशभर में खुल रहे नये केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी नये मीडिया विभाग खुल रहे हैं। निजी क्षेत्र में चेन्नई स्थित एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म, एमिटी स्कूल ऑफ मास कम्यूनिकेशन, एपीजे स्कूल ऑफ मास कम्यूनिकेशन, सिंबियोसिस पूना और मनिपाल यूनिवर्सिटी स्नातक और स्कूल स्तर पर पहुंच रहा है। दिल्ली, हरियाणा समेत अनेक राज्यों के कई दर्जन कॉलेजों में जनसंचार, एक विषय के रूप में युवाओं की पहली पसंद बन रहा है। वहीं अनेक राज्य स्कूली शिक्षा में मीडिया की जानकारियां पाठ्यक्रम में शामिल करने की तैयारी कर रही हैं। कुल मिलाकर मीडिया शिक्षा का परिदृश्य भारत में काफी संतोषजनक कहा जाएगा। साथ ही इस संख्यात्मक दृष्टि से फैलाव के बाद अब गुणवत्ता पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
वर्तमान लेख में मीडिया शिक्षा के ऐसे प्रश्नों पर विचार करने का विनम्र प्रयास किया गया हे जिनके बारे में अकसर मीडिया शिक्षक सोच-विचार करते हैं और आपस में बातचीत करते हैं।
1. क्या संचार एक अलग डिसीप्लीन है?
भारत में लंबे सफर के बावजूद अब भी ये सवाल अनेक बार मीडिया शिक्षकों के मन में उभरता है कि क्या संचार या मीडिया आज भी एक विषयधारा के रूप में विकसित हो पाया है। किसी भी विषय को डिसीप्लीन बनने के लिए पर्याप्त विस्तार, अलग पहचान और संबंधित विद्वानों में एक अलग अनुशासन के रूप में स्वीकार्यता आवश्यक होती है। अनेक विद्वान ये तर्क करते मिल जाएंगे कि मीडिया या संचार तो अभी एक इंटरडिसीप्लीनरी सबजैक्ट ही है। इसे अलग अनुशासन नहीं माना जा सकता। दरअसल, सभी मीडिया शिक्षकों को इस बारे में स्पष्ट राय बना लेनी चाहिए कि भारत में संचार एक अलग डिसीप्लीन के रूप में विकसित हो चुका है। मीडिया शिक्षण का आरंभिक काल जब पत्रकारिता की पढ़ाई का विकास भाषा विभागों के एक अंग के रूप में हुआ था अब अतीत बन चुका है।। डिप्लोमा से विस्तार होकर पहले मास्टर डिग्री, फिर एम.फिल. और अब डॉक्टरेट और पोस्ट डॉक्टरल डिग्री भी संचार में हो रही हैं। यही नहीं संचार शिक्षण पर केन्द्रित दो विश्वविद्यालय देश में खुल चुके हैं, जो इस बात के परिचायक हैं कि इस डिसीप्लीन में अन्य विषय भी हैं जिनकी विशेषज्ञता के लिए अलग से विभाग खोलने की आवश्यकता है। जैसे मोटे तौर पर पत्रकारिता रेडियो प्रोडक्शन, टेलीविजन प्रोडक्शन, मल्टीमीडिया प्रोडक्शन, न्यू मीडिया, जनसंपर्क, विज्ञापन, सिनेमा, शोध, विकास संचार, मीडिया अध्ययन संचार जगत के विशेषीकृत विषय हैं जिनके आपस में जुडे़ होने के बावजूद अलग अस्तित्व पर पूरे देश के मीडिया विद्वान सहमत हैं।
दुनियाभर में नवीन शोध के सहारे अब संचार को कला-कौशल के लबादे से निकलकर विज्ञान के रूप में स्थापित किया जा रहा है। प्रबंधन और मार्केटिंग के लोग भी संचार को नये रूप में अपने पाठ्यक्रमों में जोड़कर पढ़ा रहे हैं। यदि संचार और मीडिया शिक्षण अब सभी विषयों की जरूरत बन गया है तो ये इस विषय की महत्ता को ही दर्शाता है। जिस प्रकार कम्प्यूटर शिक्षण आज सभी विषयों की आवश्यकता बन गया है उसी प्रकार संचार और मीडिया भी इतना अधिक व्यापक विषय है कि इसकी उपस्थिति सर्वव्यापी प्रतीत होती है। आवश्यकता इस बात की है कि मीडिया शिक्षक बदले हालात में अपने विषय को अधिकाधिक परिमार्जित करें और उसके विकास की दिशा तय करने में मदद करें।
2. मीडिया विद्यार्थियों को क्या पढ़ाया जाये?
दुनियाभर में अमेरिका और यूरोप में मीडिया शिक्षण की दो अलग-अलग धाराएं विद्यमान रही हैं। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा की धाराएं भी बाद में इन दोनों में ही मिल गयीं। अमेरिकी परंपरा के अनुसार मीडिया शिक्षण में क्राफ्ट पर जोर रहा है। जिसमें मीडिया प्रॉडक्शन और पत्रकारिता कैसे करें इस बात पर बल दिया जाता रहा है। जबकि यूरोप विशेषकर ब्रिटेन में विकसित हुई दूसरी धारा मीडिया अध्ययन से जुड़ी है। ये परंपरा मीडिया का अध्ययन अन्य विषयों जैसे समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान इत्यादि से जोड़कर करने पर बल देती है। इसी धारा ने मीडिया का समाजशास्त्र, मीडिया का मनोविज्ञान और मीडिया का अर्थशास्त्र जैसे अन्तरविषयक पाठ्यक्रमों को जन्म दिया है। दरअसल, इस परंपरा का जोर मीडिया के विश्लेषण के दौरान उसके कंटेंट में छिपे हुए सच को जानना रहा है। साथ ही मीडिया की अंतर्निहित राजनीति को उजागर करना रहा है। क्रिटीकल स्कूल, बिर्मिंघम स्कूल इस संदर्भ में उल्लेखनीय है।
भारत में मीडिया शिक्षा आरंभ करने वाले पंजाब विश्वविद्यालय, चडीगढ़ के अध्यक्ष प्रो. पृथ्वीपाल सिंह अमेरिका के विख्यात कोलंबिया स्कूल से पढकर आये थे। ये भी एक संयोग ही कहा जायेगा कि भारत में मीडिया शिक्षा का विकास अमेरिका की तर्ज पर अधिक हुआ। नतीजा ये निकला कि मीडिया अध्ययन के स्थान पर क्राफ्ट आधारित शिक्षा का अधिक बोलबाला रहा। इसका एक कारण ये भी रहा क्योंकि यहां मीडिया शिक्षा का विस्तार रेडियो, टेलीविजन, अखबार, सिनेमा इत्यादि के विस्तार से जुड़ा हुआ है। स्वाभाविक है कि मीडिया शिक्षा ग्रहण करने वाले अधिकांश छात्रों का सपना मीडिया में काम करना रहता है और वे मीडिया में काम आने वाले पत्रकारिता के कौशल पाठ्यक्रम के दौरान सीखना चाहते हैं। ऐसे में शिक्षक उनको मीडिया के सिद्धान्त, संचार मॉडल, इतिहास, शोध विधि और मीडिया के विचार पक्ष सिखाये तो वो उन्हें व्यर्थ लगता है। इस प्रकार मीडिया शिक्षकों पर ये दबाव निरंतर बना रहता है कि वे अपना अध्यापन मीडिया में नौकरी दिलाने वाले क्राफ्ट पर अधिक केन्द्रित रखें।
दरअसल, दोनों धाराओं का अपना महत्व है। पहली धारा का काम मीडिया के लिए प्रशिक्षित लोग तैयार करना हे तो दूसरी धारा का उद्देश्य मीडिया से इतर संचार विषयों से जुडे़ विश्लेषक, लेखक, शोधकर्ता, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता तैयार करना है। अगर मीडिया के लिए केवल कुशल लोग तैयार करने हैं तो वो स्नातक स्तर पर कॉलेजों में भी तैयार हो सकते हैं। विश्वविद्यालय नये ज्ञान का सृजन और शोध करने के उद्देश्य से स्थापित किये गये हैं। वहां भी रोजगारोन्मुखी शिक्षा के नाम पर केवल कुशल वर्कर तैयार करने का काम किया जाएगा तो ये लगभग वैसा ही होगा कि हम देश की आई.आई.टी. में इंजीनियर ना बनाकर टर्नर, फिटर इत्यादि तैयार करें। जबकि इंजीनियरिंग में मकैनिक तैयार करने के लिए पोलिटेक्निक और आई.टी.आई. बनाये गये हैं।
फिलहाल विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में मीडिया विषयक सब प्रकार की सामग्री को मिला-जुलाकर पढ़ाया जाता है। भविष्य में पत्रकारिता और मीडिया प्रॉडक्शन के लिए एम.जे., एम.जे.एम.सी., एम.एस.सी. इलेक्ट्रोनिक मीडिया कोर्स चलाये जा सकते हैं। जबकि मीडिया अध्ययन, संचार अध्ययन और मीडिया शोध के लिए एम.ए. जनसंचार, एम.ए. मीडिया अध्ययन, मास्टर्स इन कम्यूनिकेशन आरंभ किये जा सकते हैं। दाखिले से पहले विद्यार्थियों की इस बारे में कांसलिंग हो कि वे क्या बनना चाहते हैं। पाठ्यक्रमों का उद्देश्य स्पष्ट ना होने की स्थिति में उन संस्थानों में परेशानी पैदा हो जाती है जहां एक से अधिक पाठ्यक्रम चलाये जा रहे हैं। इस मामले में शिक्षकों के बीच भी अधिक स्पष्टता ना होने के कारण छात्रों में भ्रम की स्थिति बनी रहती है।
3. मीडिया शिक्षक और प्रोफेशनल के बीच रिश्ता कैसा हो?
अकसर मीडिया शिक्षकों को ये सवाल कचोटता है कि क्या पिछले बीस साल से पढ़ा रहा एक संचार शिक्षक एक युवा प्रोफेशनल की तुलना में कमतर है। हाल ही में एक विश्वविद्यालय में साक्षात्कार के बाद आठ मीडिया शिक्षकों के लंबे अनुभव को किनारे कर इकलौते दूरदर्शन के पैक्स को मीडिया के एसोशिएट प्रोफेसर के रूप में चुन लिया गया। मीडिया शिक्षकों के बारे में ऐसी आम धारणा है कि वे लंबे अनुभव के बावजूद आउटडेटिड हैं और केवल सैद्धांतिकी जानते हैं। उन्हें वर्तमान में नया क्या चल रहा है उसकी जानकारी नहीं होती। वहीं मीडिया शिक्षक मानते हैं कि जब एक पत्रकार क्लास लेने आता है तो उसके अनुभव और आत्मकेन्द्रित कहानियां-किस्से कुछ लैक्चर तक ही चल पाते हैं। पाठ्यक्रम के मुताबिक उन्हें पढ़ाना मुश्किल लगता है क्योंकि उनका अध्ययन इस प्रकार का नहीं होता। निसंदेह एक पत्रकार जब शिक्षक बनने का फैसला करता है तो उसे शैक्षिक ढ़ांचे में स्वयं को ढालना पड़ता है। उसके बावजूद ये भी कोई गारंटी नहीं है कि वो एक अच्छा अध्यापक साबित हो पायेगा। यही बात विपरित भी उतनी ही सच है।
दुर्भाग्य से भारत में मीडिया और शिक्षण विभागों में आदान-प्रदान अभी तक एकतरफा ही रहा है। आपने अभी तक शायद ही कोई ऐसा शिक्षक देखा हो जो पढ़ाना छोड़कर कुछ दिन या हमेशा के लिए मीडिया में नौकरी करने लगा हो। दरअसल, मीडियाकर्मी और शिक्षक की सोच में एक मौलिक अंतर है जिसे हम दरकिनार करते हैं। मीडियाकर्मी एक विशेष मीडिया के सीमित दायरे में रहकर काम करता है और वही उसका अनुभव का दायरा भी होता है जिसे वो छात्रों के साथ साझा करता है जबकि शिक्षक होने के नाते उसे विद्यार्थियों को मीडियाकर्मी ही नहीं बल्कि बेहतर संचारकर्मी के रूप में प्रशिक्षित करना होता है। संचारक के रूप में ये वृतहर भूमिका है जिसे शिक्षक को निभाना पड़ता है।
इसके अलावा कुछ शिक्षक ये भी मान बैठे हैं कि मीडिया शिक्षा का नीतिनियंता और आदर्श मीडिया का बाजार है। जो कुछ अखबारों, रेडियो और टेलीविजन चैनलों में चल रहा है वो सब फटाफट सिलेबस में शामिल करो और उसी के मुताबिक विद्यार्थियों को प्रशिक्षित करो। जाने अनजाने ऐसे शिक्षक बाजार की चकाचैंध और दबाव में ये भी स्वीकार कर चुके हैं कि जो कुछ भी मीडिया बाजार में इस समय हो रहा है वो सर्वोत्तम है और ग्रहणीय है। इस प्रकार का आत्मसमर्पण उनके बौद्धिक खोखलेपन को दर्शाता है। मीडिया शिक्षकों को अपनी अग्रणी भूमिका को पहचानना चाहिए। दुनिया का अनुभव दर्शाता है कि मीडिया को बाजारू होने से बचाने में मीडिया संस्थानों ने अह्म भूमिका निभाई है। नैतिकता के सारे मार्गों पर फिसलते मीडिया की आलोचना करने, शोध करने, उस बारे में सकारात्मक बहस चलाने, समाज में जागरूकता फैलाने और मीडिया को सही दिशा दिखाने में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका है। मीडिया शिक्षण की प्रमुख जवाबदेही समाज के प्रति है उसे भारतीय समाज की भावी संचार जरूरतों को ध्यान में रखकर मीडियाकर्मी तैयार करने का ध्येय अपने सामने रखना चाहिए।
4. आखिर मौलिक मीडिया रिसर्च कब शुरू होगी?
अपने दस साल के अकादमिक अनुभव के दौरान मैनें ये पाया कि मीडिया शोध ऐसा विषय है जिसके बारे में मीडिया शिक्षकों के बीच सबसे अधिक बढ़-चढ़कर बातचीत होती है और असल धरातल पर बहुत कम होता है। भारत में एक भी प्रतिष्ठित शोध जर्नल ऐसा नहीं है जिसकी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान हो। स्वाभाविक है कि अन्तर्राष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरने के लिए किसी भी जर्नल को रैफर्ड होना पड़ेगा और उसमें रिसर्च पेपर छापने पड़ेंगे। दरअसल, शोध जर्नल के नाम पर छपने वाले अधिकांश प्रकाशन हल्के-फुल्के शोध लेख ही छापते हैं। मौलिक मीडिया रिसर्च का अभाव होने के कारण देश में मीडिया अध्ययन का विकास नहीं हो पा रहा है। शोध आधारित संचार का एक भी भारतीय सिद्धान्त ना तो अभी तक प्रकाश में आया है और ना ही उस पर कोई चर्चा हुई है।
शिक्षकों में मीडिया शोध के प्रति गंभीरता की कमी और गहरी समझ का अभाव भी इसका एक कारण है। मीडिया में पीएचडी करने वालों की तादाद निरंतर बढ़ रही है। डिग्रियां अवार्ड भी हो रही हैं लेकिन पुस्तक के रूप में छपने और चर्चित होने वाली मीडिया शोध लगभग ना के बराबर है। अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार इन शोध ग्रंथों के इम्पैक्ट फैक्टर की बात करें तो हालत और दयनीय हो जाती है। विश्वविद्यालयों के मीडिया विभागों को मौलिक शोध की दिशा में विशेष ध्यान देना चाहिए।
5. क्या मीडिया संस्थानों के बीच राष्ट्रीय समन्वय संभव है?
अक्सर मीडिया शिक्षक कहते मिल जाएंगे कि सेमिनार और कार्यशाला के बहाने कम-से-कम शिक्षक दोस्तों से मुलाकात तो हो जाती है। कुछ विभागों ने तो अपने यहां सिलेबस में मौखिक परीक्षा के लिए बाहरी विशेषज्ञ को बुलाना इसलिए तय किया हुआ है ताकि अन्य मीडिया संस्थानों से परिचय और संवाद बना रहे। असल में अकादमिक प्रगति के लिए ये आवश्यक भी है कि शिक्षकों के बीच आपसी संवाद निरंतर बना रहे और कहां क्या शोध और लेखन चल रहा है ये सबकी जानकारी में रहे। इंटरनेट ने ये अब काफी सरल बना दिया है। लेकिन फिर भी इतिहास कांग्रेस और इंडियन सोशियोलोजिकल सोसायटी की तर्ज पर एक राष्ट्रीय मीडिया सोसायटी का भी गठन किया जाये तो निरंतर संवाद की ये कमी दूर की जा सकती है। संवाद के अभाव में अनेक बार मीडिया संस्थानों के बीच व्यर्थ किस्म की प्रतिद्वंद्विता पैदा हो जाती है और लंबे अर्से बाद ये द्वंद्व काफी विकृत रूप ले लेते हैं।
अनेक अवसरों पर कुछ मीडिया शिक्षक संगठनों का गठन किया गया लेकिन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के चलते कोई भी संगठन राष्ट्रीय स्तर पर सर्वव्यापी रूप नहीं ले पाया। राष्ट्रीय मीडिया सोसायटी इस क्षेत्र में अकादमिक प्रगति को सालाना राष्ट्रीय मीडिया कांफ्रेंस आयोजित कर सुनिश्चित कर सकती है। ये सोसायटी एक नियमित शोध जर्नल भी प्रकाशित कर सकती है। आगे चल कर देश में मीडिया संस्थानों के बीच समन्वय स्थापित करने, सही दिशा प्रदान करने, विवादों का निपटारा करने और स्वस्थ आदान-प्रदान के लिए एक मंच प्रदान करने में ये सोसायटी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इस दिशा में देश के वरिष्ठ मीडिया प्रोफेसरों के मार्गदर्शन में उचित पहल की दरकार है।
6. पाठ्यक्रमों में एकरूपता कितनी जरूरी है?
जितनी विविधता मीडिया पाठ्यक्रमों में मिलती है उतनी शायद ही किसी और विषय में हो। एकरूपता के दो रूप हैं पहली पाठ्यक्रमों के नाम और दूसरी पाठ्यक्रमों की सामग्री। सन् 2001 में प्रो. एम.आर.दुआ की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक समिति ने मीडिया का एक मॉडल पाठ्यक्रम बनाया था। देश के प्रतिष्ठित विद्वानों की इस समिति ने मास्टर्स इन मास कम्यूनिकेशन के नाम से दो साल की मास्टर डिग्री का पाठ्यक्रम तैयार किया। जिसका मूल उद्देश्य मार्गदर्शन के साथ-साथ एक आधार उपलब्ध कराना था। इसके बाद अनेक विश्वविद्यालयों ने भी अपने पाठ्यक्रमों का नामकरण एम.ए.एम.सी कर लिया और अपने पाठ्यक्रमों को भी मॉडल पाठ्यक्रम की तर्ज पर ढाल लिया। दरअसल, इससे पहले नेट का सिलेबस देशभर में पाठ्यक्रम के लिए एक दिशा देने का काम करता था। मॉडल पाठ्यक्रम के बाद अनेक विश्वविद्यालयों ने नामकरण और सामग्री के मामले में यूजीसी को अपनाया। इसके परिणामस्वरूप एम.ए.एम.सी. डिग्री देश का सबसे लोकप्रिय नॉमनक्लैचर बन गयी।
सन् 2007 में यूनेस्को ने भी एशियाई विकासशील देशों में मीडिया शिक्षा को दिशा देने के लिए एक मॉडल पाठ्यक्रम तैयार किया। काफी विस्तरित और आधुनिक पाठ्यक्रम होने के बावजूद ये पाठ्यक्रम एशियाई कम पश्चिमी अधिक लगता है। भारतीय परिवेश और आवश्यकताओं से बेखबर इस पाठ्यक्रम में अंतरराष्ट्रीय तत्व अधिक है लेकिन स्थानीय आवश्यकताओं को नजरअंदाज किया गया है। इसके बावजूद ये व्यवस्थित पाठ्यक्रम तैयार करने वालों की मेहनत को दर्शाता है।
दरअसल, मानकीकरण के नाम पर पूरे भारत में भी एक ही प्रकार का मीडिया पाठ्यक्रम थोंपना न्यायसंगत नहीं होगा। इससे बौद्धिक रचनात्मकता पर कुठाराघात होगा। विश्वविद्यालय अपनी प्रकृति से ही स्वायत संस्थाएं हैं और प्रत्येक विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले प्रोफेसर स्थानीय जरूरतों के मुताबिक पाठ्यक्रम का निर्माण करते हैं। उदाहरणस्वरूप असम के तेजपुर विश्वविद्यालय में मीडिया की पढ़ाई का खाका उत्तर या दक्षिण भारत के प्रोफेसरों द्वारा दिल्ली के यूजीसी आॅफिस में बैठकर तय करना निश्चित तौर पर गलतियों को आमंत्रण देना होगा। इस प्रकार व्यापक एकरूपता के साथ-साथ स्थानीय आवश्यकताओं और रचनात्मकता को भी स्थान देने से ये समस्या हल हो जाएगी।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग साल में दो बार नैट की परीक्षा आयोजित करता है। इस समय मीडिया के विषय का नाम पत्रकारिता एवं जनसंचार है जो बीस साल पहले विद्वानों ने तय किया था। देशभर में एम.एस.सी इलेक्ट्रोनिक मीडिया की तरह अनेक विशेषीकृत मीडिया पाठ्यक्रम चलाये जा रहे हैं। यूजीसी को भी एक नहीं बल्कि कई विशेषकृत नैट परीक्षाएं आयोजित करनी चाहिए। जो पत्रकारिता, संचार अध्ययन और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में हो सकती है। पत्रकारिता विषय में सभी माध्यमों में की जाने वाली पत्रकारिता पर फोकस हो। संचार अध्ययन सिद्धान्त और शोध पर केन्द्रित हो और इलेक्ट्रोनिक मीडिया, मीडिया प्रोडक्शन और न्यू मीडिया के इर्दगिर्द रहे। वैसे भी अनेक बार विद्वान नैट के इस नामकरण- पत्रकारिता एवं जनसंचार पर आपत्ति उठा चुके हैं। क्योंकि पत्रकारिता तो जनसंचार की ही एक अंग है।
7. विभागों में तकनीकी सुविधाएं सब समस्याओं का हल हैं?
मीडिया विभागों में बदलती आवश्यकताओं के अनुसार सुविधाओं का इतना अकाल रहा है कि शिक्षकों को छोटी-छोटी चीजों के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन से काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है और उनकी अधिकांश उर्जा तो इन्हीं कामों में खर्च हो जाती है। उदाहरण के लिए मीडिया छात्रों के लिए कम्प्यूटर आवश्यक है। अब विभाग में अपनी कम्प्यूटर लैब स्थापित करना विभागाध्यक्ष के लिए एक बड़ी चुनौती है। लैब बन जाये तो उसे बनाये रखने के लिए एक लैब सहायक जरूरी है जिसकी अनुमति प्रशासन अकसर मुश्किल से देता है। लंबे समय तक इस प्रकार की कोशिश में लगे रहने से शिक्षकों को लगने लगता है कि उनकी अकादमिक उपलब्धि विभाग को भाषा विभाग से अलग करवाना, विभाग की इमारत बनवाना, नये पाठ्यक्रम आरंभ करवाना, तकनीकी सुविधाएं उपलब्ध करवाना, विभाग का विस्तार करना इत्यादि तक ही सीमित हैं। ऐसा सोचना इसलिए स्वाभाविक कहा जायेगा क्योंकि उनका अधिकांश रचनात्मक समय इसी सब में गुजर गया। लेकिन इस माहौल में ये शिक्षक शोध, लेखन और कुछ हद तक अध्यापन से भी कट गये। मजेदार तथ्य ये है कि विभाग चलाते-चलाते कुछ अध्यापक तो क्लर्क में तब्दील हो जाते हैं।
इस संबंध में एक चूक शिक्षकों से भी हो रही है। तकनीकी सुविधाएं जुटाते-जुटाते अनेक मीडिया शिक्षक इस भ्रम को सच मानने लगे हैं कि संस्थान में कम्प्यूटर, कैमरे, रिकोर्डर इत्यादि होने से शिक्षण की गुणवत्ता स्वयं सुधर जायेगी। ऐसा विद्यार्थी सोचें तो समझ में आता है लेकिन शिक्षकों को ये नहीं भूलना चाहिए कि आखिरकार शिक्षा की गुणवत्ता इस बात से निर्धारित होती है कि शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच क्या चल रहा है। तकनीक आकर्षक जरूर लगती है लेकिन उसके भरोसे मीडिया शिक्षा नहीं छोड़ी जा सकती। मीडिया की विषय वस्तु तकनीक नहीं मीडियाकर्मियों के मस्तिष्क बनाते हैं। डिजीटल कैमरे और कम्प्यूटर रखना अब कोई बड़ी बात नहीं रह गयी। ये सब काफी सस्ता हो गया है। अब मुद्दा उसके सही प्रयोग का है। जो संस्थान तकनीक का सही और बेहतर इस्तेमाल सिखा सकते हैं भविष्य में वही लंबा सफर तय करेंगे। सभी प्रकार के मीडिया प्रोडक्शन बौद्धिक कार्य हैं। इसलिए मीडिया शिक्षण में विचार पक्ष सदा ही तकनीक पर भारी रहेगा।
8. मीडिया संस्थानों की आंतरिक चुनौतियां कौन सी हैं?
देशभर में विभागों की आंतरिक कलह और शिक्षकों के बीच आपसी खींचतान ने भी मीडिया शिक्षण को बुरी तरह प्रभावित किया है। मीडिया शिक्षण में इस नकारात्मक धारा ने हाल के दिनों में काफी मुखर रूप धारण कर लिया है। कुछ मीडिया विभाग तो मुकद्दमेबाजी के अड्डे बने हुए हैं। वहीं कुछ शिक्षक सारे अकादमिक काम छोड़कर केवल अखबारबाजी और मुकद्दमेबाजी में पूरी उर्जा लगा रहे हैं। नयी नियुक्तियां, प्रोनोन्नतियां या विभागाध्यक्ष बनना या फिर विभाग के छोटे-छोटे निर्णय, ऐसा लगता है जैसे मिलजुल कर काम करने की कार्य संस्कृति का लोप होता जा रहा है। इन सब के पीछे तुच्छ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के अलावा कुछ शिक्षकों में मौजूद घोर अहंकारभाव भी एक कारण है। मीडिया संस्थान दरअसल पढ़ाई-लिखाई के स्थान पर निम्न स्तरीय टांग खिंचाई और गुटबाजी के अखाड़े बन गये हैं। इधर कुछ लोग ईमेल और ब्लॉग के सहारे भी कथित मीडिया शिक्षा बचाने के अभियान के तहत कुछ प्रतिष्ठित मीडिया प्रोफेसरों के खिलाफ आधारहीन निंदा अभियान छेड़े हुए है।
गंभीर अकादमिक कार्यों के इच्छुक शिक्षक इस पूरे वातावरण से बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। यहां तक कि इस माहौल से कुछ शिक्षक निराशा और मानसिक अवसाद के शिकार हो चुके हैं तो वहीं दूसरी तरफ राजनीति में तल्लीन लोग पूरे माहौल पर भारी पड़ रहे हैं। युवा शिक्षकों के सामने आदर्श का संकट पैदा हो गया है। उनमें से कुछ को लगने लगा है कि आगे बढ़ने के लिए पढ़ाई-लिखाई छोड़कर इस आंतरिक राजनीति का हिस्सा बनना अधिक लाभकारी है। मीडिया शिक्षा में अखिल भारतीय स्तर पर एक नजर डाली जाये तो ये एक दम साफ हो जायेगा कि प्रत्येक विभाग या संस्थान में कुछ लोग ऐसे हैं जो सारे विपरीत हालात के बावजूद स्वयं को नकारात्मक भावों से बचाते पठन-पाठन और लेखन में जुटे हुए हैं क्योंकि वे जानते हें कि रचनात्मकता ही नकारात्मक का सही जवाब है।
मीडिया शिक्षकों के लिए सुझाव –
1. अधिकाधिक समय मीडिया का नवीनतम ज्ञान अर्जित करने में लगाएं।
2. नूतन मीडिया ज्ञान की चर्चा अगली पीढ़ी के अध्यापकों से जरूर करें।
3. कम्प्यूटर समेत नवीनतम मीडिया तकनीक में सहज बनें।
4. मौलिक संचार शोध करें।
5. मीडिया अवधारणाओं को भारतीय संदर्भ में पढ़ाएं।
6. परिवर्तनशील भारतीय सामाजिक परिवेश से जुडे़ रहें।
7. छात्रों में भाषा, कंटेंट और तकनीक की समझ विकसित करने पर बल दें।
8. मीडिया शिक्षण की रोचकता बनाए रखें।
9. प्रशासनिक व्यस्तताओं के बावजूद क्लासरूम अध्यापन से निरंतर जुडे़ रहें।
10. नये मीडिया विषयों पर कम-से-कम एक टेक्सट बुक जरूर लिखें।
डॉ. देव व्रत सिंह झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय, रांची में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।
Dear sir,
Briefly focus on the Educational aspect of Media research. well written article.