डॉ॰ राम प्रवेश राय।
हर वर्ष 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इस संदर्भ मे आयोजित अनेक गोष्ठियों और विचार विमर्श में पत्रकारिता के गिरते मूल्यों पर घोर चिंता भी व्यक्त की जाती है। पिछले वर्ष भी अनेक स्थानो पर गोष्ठियाँ आयोजित की गई और विद्वानो ने अपने विचार माथे पर खिची चिंता की लकीरों के साथ व्यक्त की। जो खबरे अखबारो मे आई उसमे ‘पत्रकारिता को सकारात्मक, मूल्यनिष्ठ आदि होनी चाहिए’ जैसी स्टाइल की अधिक हेडलाइन्स थी। यानि वर्तमान पत्रकारिता को लेकर चिन्ताएं अधिक हैं। इन चिंताओं और विचारो के मंथन का कितना असर श्रोताओं पर है ये तो शोध का विषय है। इस तरह की खबरों मे मुझे विचार कम और विद्वानो के नाम अधिक दिखते है। अतः इनके पाठक भी किसी गोष्ठी मे उपस्थित श्रोता की तरह हल्की-हल्की नीद के साथ ही अपना ज्ञानार्जन करते है। इस प्रकार के आयोजनकर्ताओं की पहली समस्या खबर छपवाने की होती है फलतः प्रेस रिलीज़ भेज कर फोन आदि किए जाते है।
अनेक बार मैंने देखा है कि एन.जी.ओ., प्राइवेट कंपनी, राजनीतिज्ञ आदि कोई कार्यक्रम आयोजित करने के बाद उसमे आये पत्रकारों को गिफ्ट के साथ प्रेस रीलिज़ सौपते है और इसको फोन आदि करके फालो भी करते है, न्यूज़ छपवाने की यही चाहत जब बढ़ाने लगती है तब शुरू होती है पेड न्यूज़ की कहानी। प्रस्तुत लेख मे पेड न्यूज़ और पुराने समय की निर्भीक पत्रकारिता के कुछ अंशो पर विमर्श प्रस्तुत किया गया है और साथ ही स्वर्गीय प्रभाष जोशी की पत्रकारिक मूल्य की चर्चा तथा बनारस की दबंग पत्रकारिता का उदाहरण भी प्रस्तुत किया गया है।
पेड न्यूज़
हम सभी जानते है कि भारत मे अखबार का जन्म ही सत्ता से लड़ने के लिए हुआ था। जेम्स आगस्टस हिक्की के कुछ बिल सरकारी कार्यालय मे रुक गए थे जिसके लिए रिश्वत मांगी जा रही थी, इसके विरोध मे हिक्की ने भारत मे पत्रकारिता की शुरुआत कर दी। इस साहस को देखकर ‘खींचो न कमान न तलवार निकालो, जब टॉम मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो…’ वाली लाइन याद आती है। धीरे-धीरे भाषाई और हिन्दी पत्रकारिता का विकास हुआ और पत्रकारों के साहसी कार्यों से पत्रकारिता ने कीर्तिमान स्थापित किए और पत्रकारिता के सिधान्त भी निर्मित हुए। भारतेन्दु जी कि उद्येश्यपरक और प्रयोगधर्मी पत्तरकारिता, मालवीय जी की दृढ़ निश्चय वाली पत्रकारिता, गांधी जी की सहृदय, विद्यार्थी, युगल किशोर, तिलक, रघुवीर सहाय, राजेंद्र माथुर आदि प्त्रकारों की निर्भीक पत्रकारिता तो आज एक हस्ताक्षर बन कर रह गई है। इन महान प्त्रकारों ने किसी पत्रकारिता स्कूल से पढ़ाई नहीं की लेकिन अपने कार्यों से पत्रकारिता के कोर्स मे आ गए और आज इन्ही कोर्सो को पूरा कर पत्रकार बनने वाले इनके सिद्धांतों का पालन भी नहीं कर पा र्राहे है। किन्तु मूल बात है वास्तविक पत्रकारिता की बड़ी चुनौती ‘ पेड न्यूज़’।
अभी कुछ वर्षो पूर्व ही एक भारतीय उद्योगपति पर आधारित फिल्म ‘ गुरु’ आई थी जिसमे मुख्य भूमिका अभिषेक बच्चन ने निभाई थी, इस फिल्म मे मिथुन चक्रवर्ती एक अखबार के संपादक थे जो पेड न्यूज़ को पहले ही भाँप लेते थे, लेकिन पेड न्यूज़ के वाइरस से अपने पत्रकारों को नहीं बचा सके। पेड न्यूज़ का एक अच्छा उदाहरण इस फिल्म मे है।
खबर छपवाने के लिए पैसा या प्रलोभन देना या पैसा लेकर या और किसी प्रलोभन से ग्रसित होकर खबर छापना ही पेड न्यूज़ है। अब तो इसको प्री-पेड और पोस्ट-पेड मे भी बंता जा सकता है। मेरी राय मे इस तरह की खबर मात्र विज्ञापन है जो समाचार का चोला पहन कर आती है जनता मीडिया पर विश्वास करके भ्रमित होती है। ये एक प्रकार का वाइरस है जो पूरे मीडिया के लिए खतरनाक है क्योंकि इससे मीडिया की आत्मा (विश्वसनीयता) ग्रसित होती है। डॉ॰ बी॰ आर॰ गुप्ता ने एक गोष्टी मे कहा था-
News is the property of society and selected by the reporter.
पेड न्यूज़ समाज की नहीं स्वार्थ की पूंजी है।
स्व॰ प्रभाष जोशी के पत्रकारिक मूल्य
अब कहा जाता है कि परिवेश और स्थिति बादल गई है और पुरानी परंपरा नहीं चल सकती किन्तु वर्तमान परिवेश मे ही पुरानी परम्परा और मूल्यनिष्ठ सिध्दांतों को जीवित रखने का नाम स्व॰ प्रभाष जोशी है। “जोशी जी अपनी पत्रकारिता मे जो पुश्तैनी सम्पदा लेकर आए थे उसमे मालवा के पठारों की कंकरीली सपाटता, होठ चटखा देने वाली जिज्ञासाओं की अनबूझ प्यास, लाल-लाल मिट्टी की सोंधी उर्वरता और सामान्य आदमी को हंसा देने वाली परेशनीया एवं समस्याएँ थी। इसी के साथ अर्जित सम्पदा मे उन्हे भूदानी विनोबा भावे का क्षेत्र सन्यास और गांधी दर्शन से प्रेरित वह सादगी मिली जिसने लोक सत्ता के प्रति उनके जुनून को परवान चढ़ा दिया। राजा-महाराजाओं वाले मध्य प्रदेश की सामंती सोच वाली विद्रूपता ने उनके स्वाधीन चिंतन मे ऐसी खलल पैदा की कि वर्चस्ववाद के खिलाफ उनके मन मे हमेशा के लिए नफरत हुई लेकिन ये नकारात्मक न होकर उन्हे लोकतान्त्रिक मूल्यों का अडिग पैरोकार बनती गई। लोकतान्त्रिक मूल्यों ने उन्हे इतनी गहराई से पकड़ा कि कोई भी प्रलोभन न तो उन्हे खरीदने की जुर्रत कर सका और न ही निजी बाध्यता उन्हे बिकने की हद तक पतित कर सकी। यही वजह थी कि वो काजल की कोठारी से बेदाग निकालने वाले पत्रकार सिध्ध हुए।”
बनारस की पत्रकारिता
यह पराड़कर जी जैसे दबंग पत्रकारों की नगरी वाराणसी की बात है। ‘काफी समय पहले प्रदेश के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस (उस समय पुलिस विभाग में सबसे ऊँचा पद) बनारस आये थे और कोतवाली थाने में उनकी एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित थी. पत्रकार वहाँ जुटे थे। एक घंटा इंतजार करने के बाद परेशान होकर सभी पत्रकार वहां मौजूद एक बड़े पुलिस आफिसर के पास पहुंचे और पूछा- कब आयेंगे साहब तो जवाब मिला इंस्पेक्टर जनरल है इनके कार्यक्रम में देरी होती ही रहती है। ये जवाब पत्रकारों के गले नहीं उतरा उन्होंने कशी पत्रकार संघ के अध्यक्ष को फोन किया। उस समय श्री राज कुमार जी अध्यक्ष थे। वे कोतवाली पहुंचे और सभी पत्रकारों से विचार विमर्श करने के बाद ये तय हुआ कि इंस्पेक्टर जनरल के आने तक रुका जय और उनके आने के बाद प्रेस कांफ्रेंस का त्याग कर दिया जाय। अंततः यही हुआ सभी पुलिस अफसरों के चेहरे बदरंग हो गए. रात में इंस्पेक्टर जनरल ने खुद ही फोन से पत्रकरों से बात की और दूसरे दिन ही दो बड़े आफिसर बदल दिए गए।’ अब तो कही ऐसा वाकया सुनने में नहीं आता।
निष्कर्ष एवं चर्चा
वर्तमान मे समाचार की स्थिति को इस प्रकार दर्शाया जा सकता है –
1. News
2. Views
3. Advertisement
जबकि पूर्व में ये तीनो अवयव एकदम अलग अलग थे। समाचार में किसी प्रकार का पक्षपात न हो सके और वह तथ्य परक ही बना रहे इसलिए विचार भी उससे अलग ही रखे जाते थे किन्तु आज तो समाचारों मे विज्ञापन अपनी घुसपैठ बनाने लगा है जैसा कि उपरोक्त चित्र से स्पष्ट हैA हल्के फुल्के विचार भी अब समाचारों में शामिल होने लगे है किन्तु ये ज़्यादातर प्रश्न शैली में होते है जो समाचार को एक नया एंगल देते है। ऐसा कहा जाने लगा है कि पत्रकारों का वो अड़ियल रुख, दुर्वाषा जैसी अग्नि कही न कही मध्धिम पड़ती दिख रही है हालाँकि टीवी पर आने वाले और सम्पादकीय पृष्ठ पर आने वाले अनेक पत्रकारों में मुझे यह तेज अभी भी दिखता है लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पेड न्यूज़ का चलन पत्रकारो के इस तेज के लिए एक बाधा है। पेड न्यूज़ के कारण मे जाए तो उपभोगतावाद, लोबिंग, सोषण, नौकरी के रूप मे पत्रकारिता आदि अनेक कारण सामने आते है किन्तु यह कहना सही होगा कि समाचार ही पत्रकारिता कि जान है और सामान्य जनता मे किसी अखबार या न्यूज़ चैनल कि पहचान तथा विश्वसनीयता उसकी समाचार प्रस्तुति शैली से ही है। अतः अंत मे मुझे सिर्फ एक ही प्रश्न पूछना है कि करोड़ो रुपये खर्च करने वाले इस अमीर विज्ञापन को समाचार जैसे निर्धन के घर आने की जरूरत क्यों पड़ रही है?
संदर्भ:
• मीडिया विमर्श- जनवरी-मार्च 2010, श्री अष्टभुजा शुक्ला
• पत्रकार स्वर्ण जयंती अंक 1998, काशी पत्रकार संघ
डॉ॰ राम प्रवेश राय हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय के जन संचार एवं एलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं. मीडिया स्कोलर के रूप में उनकी अनेक पुस्तकें और लेख प्रकाशित हो चुकें हैं . संपर्क: Email: rprai1981@gmail.com, Mob. +91-88945-62222 Facebook: www.facebook.com/dr.rprai