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Home Contemporary Issues

चैनलों की शेरचाल या भेड़चाल

Reverse Agenda-setting: Politics in the Time of Facebook

प्रियदर्शन

एक जंगल है, एक इंसान है और कई शेर हैं। शेर इन्सान के साथ खेल रहे हैं। इतने लाड़ से कि यह शख्से उनके बाजुओं, पंजों और पांवों के बीच मुश्किल से दिखाई पड़ रहा है।

शाम चार बजे के आसपास एक टीवी चैनल में टिमटिमाता है यह दृश्यर, अपनी अहमियत से बेखबर, सिर्फ दो मिनट में कुछ दिलचस्प लम्हे मुहैया कराकर विदा हो जाने की नीयत और नियति के साथ, लेकिन अगले दो मिनटों में सारे टीवी चैनलों पर यही शेरचाल है। और उसके बाद अगले दो घंटों तक बाकी सारी खबरें स्थलगित हैं, खबरों के छोटे परदे पर सिर्फ वनराजों की यह टोली है।

वैसे यह हिन्दी खबरों की दुनिया में टीआरपी के लिए चल रही मारामारी का जाना-पहचाना चेहरा है। चैनल चला रहे लोग बड़ी बेबसी के साथ बताते हैं कि हिंदी में टीवी-खबरों की दुनिया इतनी प्रदूषित हो गई है कि इस भेड़चाल या शेरचाल के अलावा कोई चारा नहीं है। वे सब बड़ी संजीदा पत्रकारिता करने आए थे, लेकिन अपने चैनल को पिटता देख यह तमाशा करने को मजबूर हैं। निश्च़य ही एक ईमानदार कैफियत है। यह तमाशा उन्हेंह अच्छा नहीं लगता। करना पड़ रहा है तो इसलिए कि दूसरे कर रहे हैं, लेकिन यह ईमानदार कैफियत एक अधूरी कैफियत भी है। इस कैफियत में जितनी सफाई है, उतनी सच्चाई नहीं।

ज्यादातर संपादक यह समझ नहीं पा रहे कि टीवी चैनल देखनेवाले लोगों को 24 घंटे ऐसी जरूरी खबरें कैसे दी जाएं, जो उन्हें रास आएं? उनकी स्प ष्टन मान्यरता है और काफी हद तक सही भी कि राजनीति अब पहले की तरह नहीं बिकती। नेता नायक नहीं रहे, विदूषक हो गए हैं। वे भरोसा कम जगाते हैं, ऊब ज्यापदा पैदा करते हैं।

उनके मुताबिक राजनीति ही नहीं, समाज भी बदल गया है। राजनीति स्वांर्थकातर हुई है तो समाज आत्मिकेंद्रित हो गया है। वह सिर्फ बाहर और ऊपर देखता है और वही देखता है, जो ऊपर वाले दिखाते हैं। वह दिल्ली् में बैठकर लंदन और न्यूहयार्क देखता है और वहां से जो पाकिस्ता न-अफगानिस्ताकन दिखाई पड़ता है, उसे देखता है। कश्मी र में जल रहे मकान, छत्ती्सगढ़ में गल रहे इन्सान, आंध्र में चल रहे आंदोलन और पाखंड में पल रही नाराजगी टीवी देखने वालों के संसार, सरोकार से बाहर है।

एक हद तक ये वास्तरविक संकट हैं, लेकिन वास्तलविक संकटों के पार खड़े हैं। समाज बदला है, लेकिन इस तरह बदला है कि उसे सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन चाहिए, कोई खबर नहीं। लेकिन तब इस समाज में इतने सारे आंदोलन, उद्वेलन क्योंा हैं, नक्ससली हिंसा से लेकर आतंकी हताशा तक कई परतों में दिखने वाला असंतोष क्यों है?

इसी तरह राजनीति में उदात्तं नायक भले न बचे हों, ऐसे मामूली लोग बचे हुए हैं, जिनकी अपने वक्त और समुदाय से पहचान बेहद खरी है और इसलिए वे भव्यतता के किसी पाखंड में फंसे बिना सियासत का ठेठ और कामयाब सौदा कर लेते हैं। इस सौदेबाजी की बदौलत ही कुर्सी उन समुदायों के हाथ जाती दिख रही है, जिन्हें पहले कुर्सी के आसपास खड़े हाने की भी इजाजत नहीं थी।

कायदे से यही वजह है कि समाज की तथाकथित समाचारविमुखता और सरोकारविहीनता के बावजूद ढेर सारे अखबार बिक रहे हैं और टीवी चैनल चल रहे हैं। बड़ी सौदेबाजियों के समांतर कई छोटी-छोटी लड़ाइयां हैं, जो अपने नायक बना रही हैं। मनोरंजन के नाम पर दिख रहे, सेक्सल और सिनेमा के विराट बाजार के पार लोकराग और लोकरंग की अपनी गलियां हैं, संगीत-नृत्यी, साहित्य और कलाओं के अपने बरामदे हैं, जहां कुछ लोगों और संवेदनाओं की आत्मी‍य आवाजाही है। जाहिर है छोटी-सी ही सही, लेकिन एक प्याेस है, जिसका वास्ता‍ आस-पास को जानने की, उसे पहचानने की, उसको सुख-दुख में साझा करने की इच्छाह से है।

समाचार चैनल यह प्यास नहीं बुझा पा रहे तो इसलिए कि उनके पास खबर का पानी नहीं है। ऐसा पानी समाज के जिन कुओं और तालाबों से मिल सकता है, उनकी उनको पहचान नहीं है। तालाब में यक्ष बैठा है और पांडवों से प्रश्न, पूछ रहा है, लेकिन अपने कंधों पर अपनी कीर्ति का गांडीव ढो रहे, अपने अहंकार की गदा सजाए भीम-अर्जुनों का उत्त र खोजना गवारा नहीं है। इस अकाल बेला में कुछ युधिष्ठिरों की जरूरत है, जो अपने अद्धर्सत्य के जाल में फंसने से पहले सवालों के जवाब देने का साहब करें और समाचारों की नए सिरे से व्या ख्या करें। (15 अप्रैल, 2009 : तहलका)

प्रियदर्शन ‘एनडीटीवी इंडिया’ में 2003 से सीनियर एडिटर के रूप में काम कर रहें हैं. इससे पहले वे हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ में सहायक संपादक और हिंदी दैनिक ‘रांची एक्सप्रेस’ में काम कर चुकें हैं.उनकी प्रकाशित किताबों में ज़िंदगी लाइव (उपन्यास), उसके हिस्से का जादू (कहानी संग्रह), बारिश, धुआं और दोस्त (कहानी संग्रह), नष्ट कुछ भी नहीं होता (कविता संग्रह), इतिहास गढ़ता समय (आलेख संग्रह), ख़बर बेख़बर (पत्रकारिता पर केंद्रित किताब), ग्लोबल समय में कविता (आलोचना), ग्लोबल समय में गद्य (आलोचना), नए दौर का नया सिनेमा (सिने केंद्रित पुस्तक), कविता संग्रह मराठी अनुवाद में प्रकाशित और उपन्यास ज़िंदगी लाइव (अंग्रेज़ी में अनूदित) शामिल हैं.
उन्होंने कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया है न जिनमे आधी रात की संतानें (उपन्यास, मिडनाइट्स चिल्ड्रेन, सलमान रुश्दी), क़त्लगाह (उपन्यास, टॉर्चर्ड ऐंड डैम्ड, रॉबर्ट पेन), बहुजन हिताय (द ग्रेटर कॉमन गुड, अरुंधती रॉय), पर्यावरणवादी पीटर स्कॉट की जीवनी, पर्यावरण प्रहरी (लेखों का संग्रह- द ग्रीन टीचर) और कुछ ग़मे दौरां (लेख संग्रह, के बिक्रम सिंह) शामिल हैं .उन्होंने कहानियां रिश्तों की: बड़े बुज़ुर्ग और पत्रकारिता में अनुवाद पुस्तकों का संपतान भी किया है.
पत्रकारिता और साहित्य में उन्हें अनेक पुरस्कार भी मिले हैं जिनमें कहानी संग्रह ‘उसके हिस्से का जादू’ के लिए स्पंदन पुरस्कार 2009, हिंदी अकादमी पत्रकारिता पुरस्कार 2015 और विजय वर्मा कथा सम्मान 2016 शामिल हैं.

Tags: News ChannelsTRPTV Journalism
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