सुभाष धूलिया
पत्रकारिता और स्रोत के आपसी संबंधों से ही किसी भी समाज में पत्रकारिता का स्वरूप निर्धारित होता है। प्रेस की स्वतंत्रता का अर्थ ही यही है कि समाचारों के विविध और बहुत स्रोत उपलब्ध होते हैं और उनके द्वारा दी गई सूचना और जानकारी को प्रकाशित या प्रसारित करने की स्वतंत्रता होती है। किसी व्यवस्था में प्रेस की स्वतंत्रता के न होने का मतलब यही होता है कि वहां के मीडिया में छपने वाले हर समाचार और इसमें शामिल हर सूचना का स्रोत सरकारी होगा। इसलिए इस तरह के मीडिया में सरकारी पक्ष के अलावा कोई दूसरा पक्ष नहीं होगा।
मीडिया में विविधता के लिए आवश्यक है कि समाचार के स्रोत भी विविध हों। हालांकि हाल के वर्षों में मीडिया में विविधता को लेकर अनेक सवाल उठाए गए हैं और कुछ अनुसंधान इस ओर इशारा कर रहे हैं कि मीडिया में विविधता की कमी आ रही है और इसका मुख्य कारण इसकी बने-बनाए स्रोत और पकी-पकाई सूचनाओं पर बढ़ती निर्भरता है। दूसरे खाड़ी युद्ध के दौरान जडि़त पत्रकारिता पर काफी चर्चा हुई है और इस संदर्भ में पत्रकारिता के आदर्शों और मानदंडों को लेकर सवाल उठाए गए हैं। संक्षेप में यही कह सकते हैं कि पत्रकार अमेरिकी सेना के साथ संबंद्ध हो गए और अमेरिकी सैनिक सूत्रों से मिली सूचनाओं के आधार पर ही वे समाचार भेजते थे। इस तरह वे अमेरिकी सेना के साथ संबंद्ध जडि़त थे। इस तरह के पत्रकार युद्ध की वस्तुपरक और संतुलित रिपोर्टिंग नही कर पाए क्योंकि उनका एकमात्र स्रोत अमेरिकी सेना थी और उनका इस्तेमाल काफी हद तक सैनिक प्रोपेगेंडा के लिए किया गया।
जाहिर है हर युद्ध में हर सेना प्रोपेगेंडा युद्ध को जीतना भी आवश्यक समझती है। पहले और दूसरे दोनों ही खाड़ी युद्धों के सूचना स्रोतों में विविधता न होने के कारण लोगों को युद्ध की पूरी तस्वीर नहीं मिल पाई। इन दोनो युद्धों के कवरेज में युद्ध की बर्बरता और आम लोगों के कष्टों की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया और आधुनिक युद्ध के ‘हाई टैक’ चरित्र पर खूब जोर दिया। इससे शायद मानव इतिहास में पहली बार कोई युद्ध वीडियों गेम की तरह मनोरंजन का साधन बना। वियतनाम युद्ध में मीडिया के स्रोत विविध थे और पत्रकार अपने ही बल पर अपने स्रोतों को विकसित करते थे। वियतनाम युद्ध का कवरेज खाड़ी के दोनों ही युद्धों से कहीं अधिक विविध था। हालांकि तब संचार और इसी के अनुरूप मीडिया क्रांति का आगमन नहीं हुआ था। इस तरह समाचार के स्रोत पत्रकारिता की दिशा और दशा में अहम भूमिका अदा करते हैं।
स्रोतों को नियमित कर कवरेज को नियमित किया जा सकता है। समाचारों में विविधता के लिए स्रोतों में विविधता आवश्यक है और स्रोत तभी विविध हो सकते हैं जब पत्रका पूल या एक झुंड के रूप में रिपोर्टिंग तभी करेंजब कोई अन्य विकल्प न हो।
स्रोत की पहचान का सवाल
पत्रकारिता में सूचनाओं का अंबार लगा होता है और वह हर सूचना जिसका समाचारीय मूल्य अधिक होता है वह कहीं न कहीं, किसी न किसी पर चोट करती है। इसी तरह के समाचारों को लेकर सबसे अधिक विवाद होते हैं। इस तरह की सूचनाओं के स्रोत आमतौर पर अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहते। वैसे तो आदर्श स्थिति यही है कि हर सूचना के स्रोत का मसाचार में नाम हो। लेकिन अधिकांश महत्वपूर्ण और संवेदनशील सूचनाएं ऐसे स्रोतों से प्राप्त होती हैं जो स्वयं गुमनाम रहना चाहते हैं। अमेरिका के वाटर गेट कांड में स्रोतों की अहम भूमिका से सभी वाकिफ है। आज तक यह पता नहीं है कि वह स्रोत कौन था जिसे ‘डीप थ्रोट’ नाम दिया गया था।
इस तरह की परिस्थितियों में एक पत्रकार का प्रोफेशनल कौशल ही है जो उसे विभिन्न सूचनाओं का मूल्यांकन करने की क्षमता प्रदान करता है। गुमनाम स्रोत अहम समाचारों का खुलासा भी करते हैं ‘स्कूप’ देते हैं लेकिन चंद मौकों पर गलत सूचनाएं भी देते हैं, जिनका मकसद कुछ खास उद्देश्यों की पूर्ति करना होता है। ‘पलांटेड स्टोरीज’ और ‘मिसइर्न्फोमेशन कंपेन’ इसी तरह के गुमनाम और अनाम सूत्रों के माध्यम से चलाए जाते हैं। संभव है अनेक मौकों पर सरकार या कोई भी अन्य संस्था किसी खास घटना के घटित होने के प्रभाव का जायजा लेना चाहते हों तो एक रास्ता यही है कि खबर छपने के बाद आने वाली प्रतिक्रिया देखी जाए। प्रतिक्रिया से उस घटना के वास्तविक रूप से घटित होने का मूल्यांकन किया जा सकता है।
इन दिनों राजनीतिक प्रोपेगेंडा और आर्थिक युद्ध के लिए खबरों को ‘प्लांट’ करने का सिलसिला तेज हुआ है। ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब तमाम प्रोफेशनलिज्म और बौद्धिक कौशल के बावजूद एक पत्रकार को सरकार का एक उच्च पदस्थ जानकार सूत्र कोई सूचना देता है जिस पर कोई संदेह करने की गुंजाइश नहीं होती। लेकिन अंतत: वह समाचार ‘प्लांटेड’ होता है- किसी खास मकसद को हासिल करने के लिए।
इस तरह के स्रोतों का आमतौर पर ‘जानकार सूत्रों’, ‘उच्च पदस्थ सूत्रों’, ‘आधिकारिक सूत्रों’ ‘राजनयिक सूत्रों’ के रूप में उल्लेख किया जाता है। इस तरह के स्रोतों से प्राप्त समाचारों के बिना तो समाचारपत्र नीरस हो जाएंगे हालांकि कभी-कभार ऐसे स्रोत मीडिया की सवारी भी कर लेते हैं।
ब्रीफिंग
एक पत्रकार के लिए ‘ब्रीफिंग’ का अत्यंत महत्व होता है। ब्रीफिंग दो तरह की होती है: ऑन द रिकॉर्ड और ऑफ द रिकार्ड। ‘ऑन दि रिकॉर्ड’ से आशय है कि स्रोत जो जानकारी दे रहा है उसका समाचार में इस्तेमाल किया जा सकता है। मसलन अगर कोई राजनेता प्रेस सम्मेलन कर रहा है तो वह ‘ऑन रिकॉर्ड’ है यानि वह जो कुछ भी कह रहा है उसे प्रकाशित या प्रसारित किया जा सकता है। आमतौर पर जब कोई स्रोत पत्रकार से बातचीत करता है तो शुरू में ही यह तय हो जाना चाहिए कि वह ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ है या ‘ऑन रिकॉर्ड’ ताकि अनावश्यक विवादों से बचा जा सके। वैसे तो आमतौर पर स्रोत और पत्रकार के बीच एक विश्वास का रिश्ता होता है और एक पत्रकार अपने स्रोत की रक्षा करता है। लेकिन एक पत्रकार के लिए ‘ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग’ अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि इन दिनों हमारे देश में इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
दरअसल, यही वह ब्रीफिंग है जिससे स्रोतके माध्यम से एक पत्रकार ‘जानकार’ बना रहता है, उसके पास अपने ‘बीट’ की सारी सूचनाएं होती हैं, जो उसे मीडिया से तो मिलती ही हैं लेकिन इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण जानकारियां उसे ‘ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग’ से मिलती है। जानकारी के इस स्तर के कारण ही अगर उसकी बीट में कोई घटना होती है तो वह तत्काल उसके महत्व का आकलन कर लेता है और एक सही परिप्रेक्ष्य में इसकी रिपोर्टिंगकर सकता है। एक पत्रकार अगर इस तरह से ‘जानकार’ नहीं है तो यह खतरा हमेशा बना रहता है कि व घटना के सामाचारीय महत्व को उसकी संपूर्णता के साथ नहीं परख पाएगाया वह उस घटना को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत नहीं कर पाएगा।
विशिष्ट रिपोर्टिंग के लिए इस तरह के स्रोतों की जरूरत पड़ती है जिन्हें एक प्रक्रिया के तहत विकसित करना पड़ता है और आपसी विश्वास का संबंध पैदा करना होता है। दरअसल, किसी समाचार संगठन को एक विशेष पहचान देने में विशेष रिपोर्टिंग की अहम भूमिका होती है। इसके अलावा एक पत्रकार को ‘जानकार’ और ‘सूचित’ बने रहने के लिए उन तमाम सूचनाओं से भी अवगत रहना जरूरी है जो पहले ही किसी न किसी रूप में सार्वजनिक हो चुकी हैं। इस तरह ‘सूचित’ और ‘जानकार’ रहकर ही एक पत्रकार यह तय कर सकता है कि कौन सी सूचना और जानकारी ‘समाचार’ है और कौन सी नही?
साभार: समाचार लेखन अवधारणा और लेखन प्रक्रिया, भारतीय जन संचार संस्थान, 2004