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समाचार: सिद्धांत और अवधारणा समाचार लेखन

समाचार: सिद्धांत और अवधारणा समाचार लेखन

सुभाष धूलिया

परंपरागत रूप से बताया जाता है कि समाचार उस समय ही पूर्ण कहा जा सकता है जब वह कौन, क्‍या, कब, कहां, क्‍यों, और कैसे सभी प्रश्‍नों या इनके उत्‍तर को लेकर लोगों की जिज्ञासा को संतुष्ट करता हो। हिंदी में इन्‍हें छह ककार के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी में इन्‍हें पांच ‘डब्‍ल्‍यू; हू, व्‍हाट, व्‍हेन, वहाइ वे तलाशना और पाठकों तक उसे उसके संपूर्ण अर्थ में पहुंचाना सबसे बड़ी चुनौती का कार्य है। यह एक जटिल प्रक्रिया है। पत्रकारिता और समाचारों को लेकर होने वाली हर बहस का केंद्र यही होता है कि इन छह प्रश्‍नों का उत्‍तर क्‍या है और कैसे दिया जा रहा है। समाचार लिखते वक्‍त भी इसमें शामिल किए जाने वाले तमाम तथ्‍यों और अंतर्निहित व्‍याख्‍याओं को भी एक ढांचे या संरचना में प्रस्‍तुत करना होता है।

समाचार संरचना

सबसे पहले तो समाचार का ‘इंट्रो’ होता है। यह कह सकते हैं कि असली समाचार है जो चंद शब्‍दों में पाठकों को बताता है कि क्‍या घटना घटित हुई है। इसके बाद के पैराग्राफ में इंट्रों की व्‍याख्‍या करनी होती है। इंट्रो में जिन प्रश्‍नों का उत्‍तर अधूरा रह गया है उनका उत्‍तर देना होता है। इसलिए समाचार लिखते समय इंट्रो के बाद व्‍याख्‍यात्‍मक जानकारियां देने की जरूरत होती है। इसके बाद विवरणात्‍मक या वर्णनात्‍मक जानकारियां दी जानी चाहिए। घटनास्‍थल का वर्णन करना, इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि यह घटना के स्‍वभाव पर निर्भर करता है कि विवरणात्‍मक जानकारियों का कितना महत्‍व है। मसलन अगर कहीं कोई उत्‍सव हो रहा हो जिसमें अनेक सांस्‍कृतिक और सामाजिक कार्यक्रम चल रहे हों तो निश्‍चय ही इसका समाचार लिखते समय घटनास्‍थल का विवरण ही सबसे महत्‍वपूर्ण है। मसलन अगर कहीं कोई उत्‍सव हो रहा हो जिसमें अनेक सांस्‍कृतिक और सामाजिक कार्यक्रम चल रहे हों तो निश्‍चय ही इसका समाचार लिखते समय घटनास्‍थल का विवरण ही सबसे महत्‍वपूर्ण है। अगर कोई राजनीतिज्ञ प्रेस सम्‍मेलन करता है इसमें विवरण देने (प्रेस सम्‍मेलन में व्‍याप्‍त माहौल के बारे में बताने) के लिए कुछ नहीं हेाता और सबसे महत्‍वपूर्ण यही होता है कि राजनीतिज्ञ ने जो कुछ भी कहा और एक पत्रकार थोड़ा आगे बढ़कर इस बात की पड़ताल कर सकता है कि राजनीतिज्ञ का प्रेस सम्‍मेलन बुलाकर यह सब कहने के पीछे क्‍या मकसद था जो उसने मीडिया (यानी जनता) के साथ शेयर की और जिन बातों को उसने सार्वजनिक किया।

इसके बाद अनेक ऐसी जानकारियां होती हैं जो ‘पांच डब्‍ल्‍यू और एक एच’ को पूरा करने के लिए आवश्‍यक होती हैं और जिन्‍हें समाचार लिखते समय पहले के तीन खंडों में शामिल नहीं किया जा सका। इसमें पहले तीन खंडों से संबंधित अतिरिक्‍त जानकारियां दी जाती हैं। हर घटना को एक सही परिप्रेक्ष्‍य में प्रस्‍तुत करने के लिए इसका पृष्‍ठभूमि में जाना भी आवश्‍यक होता हैं। ‘क्‍यों’ और ‘कैसे’ का उत्‍तर देने के लिए घटना के पीछे की प्रक्रिया पर भी निगाह डालनी आवश्‍यक हो जाती है। इसके अलावा पाठक इस तरह की घटनाओं की पृष्‍ठभूमि भी जानने के प्रति जिज्ञासु होते हैं। मसलन अगर किसी नगर में असुरक्षित मकान गिरने से कुछ लोगों की मृत्‍यु हो जाती है तो यह भी प्रासंगिक ही होता है कि पाठकों को यह भी बताया जाए कि पिछले एक वर्ष में इस तरह की कितनी घटनाएं हो चुकी हैं और कितने लोग मरे। इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए क्‍या कदम उठाए गए और वे कहां तक सफल रहे हैं और अगर सफल नहीं हुए तो क्‍यों? यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि नगर की कितनी आबादी इस तरह के असुरक्षित घरों में रह रही हैं और इस स्थिति में किस तरह के खतरे निहित हैं आदि।

एक समाचार की संरचना को मोटे तौर पर इन भागोंमें बांट सकते हैं:

  • इंट्रो
  • व्‍याख्‍यात्‍मक जानकारियां
  • विवरणात्‍मक जानकारियां
  • अतिरिक्‍त जानकारियां
  • पृष्‍ठभूमि

एक समाचार की संरचना को दूसरे रूप में तीन मुख्‍य खंडों में भी विभाजित कर सकते हैं। पहला तो इंट्रो कि ‘क्‍या हुआ’ इसके बाद अन्‍य प्रश्‍नों के उत्‍तर दिए जा सकते हैं जो ‘क्‍या हुआ’ को स्‍पष्‍ट करते हों। फिर जो कुछ बचा और समाचार को पूरा करने के लिए आवश्‍यक है उसे आखिरी खंड में शामिल कर सकते हैं।

भाषा और शैली

इसके अलावा समाचार लेखन और संपादन के बारे में जानकारी होना तो आवश्‍यक है। इस जानकारी को पाठक तक पहुंचाने के लिए एक भाषा की जरूरत होती है। आमतौर पर समाचार लोग पढ़ते हैं या सुनते-देखते हैं वे इनका अध्‍ययन नहीं करते। हाथ में शब्‍दकोष लेकर समाचारपत्र नहीं पढ़े जाते। इसलिए समाचारों की भाषा बोलचाल की होनी चाहिए। सरल भाषा, छोटे वाक्‍य और संक्षिप्‍त पैराग्राफ। एक पत्रकार को समाचार लिखते वक्‍त इस बात का हमेशा ध्‍यान रखना होगा कि भले ही इस समाचार कI पाठक/उपभोक्‍ता लाखों हों लेकिन वा‍स्‍तविक रूप से एक व्‍यक्ति अकेले ही इस समाचार का उपयोग करेगा।

इस दृष्टि से जन संचार माध्‍यमों में समाचार एक बड़े जन समुदाय के लिए लिखे जाते हैं लेकिन समाचार लिखने वाले को एक व्‍यक्ति को केंद्र में रखना होगा जिसके लिए वह संदेश लिख रहा है जिसके लिए वह संदेश लिख रहा है जिसके साथ वह संदेशों का आदान-प्रदान कर रहा है। फिर पत्रकार को इस पाठक या उपभोक्‍ता की भाषा, मूल्‍य, संस्‍कृति, ज्ञान और जानकारी का स्‍तर आदि आदि के बारे में भी मालूम होना ही चाहिए। इस तरह हम कह सकते हैं कि यह पत्रकार और पाठक के बीच सबसे बेहतर संवाद की स्थिति है। पत्रकार को अपने पाठक समुदाय के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। दरअसल, एक समाचार की भाषा का हर शब्‍द पाठक के लिए ही लिखा जा रहा है और समाचार लिखने वाले को पता होना चाहिए कि वह जब किसी शब्‍द का इस्‍तेमाल कर रहा है तो उसका पाठक वर्ग इससे कितना वाकिफ है और कितना नहीं।

उदाहरएण के लिए अगर कोई पत्रकार ‘इकनॉमिक टाइम्‍स’ जैसे अंग्रेजी के आर्थिक समाचारपत्र के लिए समाचार लिख रहा है तो उसे मालूम होता है कि इस समाचारपत्र को किस तरह के लोग पढ़ते हैं। उनकी भाषा क्‍या है, उनके मूल्‍य कया हैं, उनकी जरूरतें क्‍या हैं, वे क्‍या समझते हैं और क्‍या नहीं? ऐसे अनेक शब्‍द हो सकते हैं जिनकी व्‍याख्‍या करना ‘इकनॉमिक टाइम्‍स’ के पाठकों के लिए आवश्‍यक न हो लेकिन अगर इन्‍हीं शब्‍दों का इस्‍तेमाल ‘नवभारत टाइम्‍स’ में किया जाए तो शायद इनकी व्‍याख्‍या करने की जरूरत पड़े क्‍योंकि ’नवभारतटाइम्‍स’ के पाठक एक भिन्‍न सामाजिक समूह से आते हैं। अनेक ऐसे शब्‍द हो सकते हैं जिनसे नवभारत टाइम्‍स के पाठक अवगत हों लेकिन इन्हीं का इस्‍तेमाल जब ‘इकानॉमिक टाइम्‍स’ में किया जाए तो शायद व्‍याख्‍या करने की जरूरत पड़े क्‍योंकि उस पाठक समुदाय की सामाजिक, सांस्‍कृतिक और शैक्षिक पृष्‍ठभूमि भिन्‍न है।

अंग्रेजी भाषा में अनेक शब्‍दों का इस्‍तेमाल मुक्‍त रूप से कर लिया जाता है जबकि हिंदी भाषा का मिजाज मीडिया में इस तरह के गाली-गलौच के शब्‍दों को देखने का नहीं है भले ही बातचीत में इनका कितना ही इस्‍तेमाल क्‍यों न हो। भाषा और सामग्री के चयन में पाठक या उपभोक्‍ता वर्ग की संवेदनशीलताओं का भी ध्‍यान रखा जाता है और ऐसी सूचनाओं के प्रकाशन या प्रसारण में विशेष सावधानी बरती जाती है जिससे हमारी सामाजिक एकता पर नकारात्‍मक प्रभाव पड़ता हो।

साभार: समाचार लेखन अवधारणा और लेखन प्रक्रिया, भारतीय जन संचार संस्‍थान, 2004

Tags: भाषा और शैलीसमाचार संरचनासुभाष धूलिया
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