दिलीप ख़ान |
मीडिया के पत्रकारिता और उद्योग के पक्ष को अलग–अलग कर नहीं देखने के चलते मिशन, सरोकार और भावुकता जैसे शब्दों को टीवी और प्रिंट के इस साम्राज्य में जब कोई तलाशता है तो उसे असफ़लता हासिल होती है। मीडिया कंपनियां शेयर बाज़ार में ठीक उसी तरह सूचीबद्ध है जैसे कोई टूथपेस्ट कंपनी
भारत में अख़बारों, रेडियो स्टेशनों और टीवी चैनलों की संख्या को आधार मानकर अगर मीडिया बहुलता की तलाश की जाए तो बेहद संतुष्ट करने वाले आंकड़े सामने होंगे। हर भाषा और हर प्रांत में बड़ी तादाद में ना सिर्फ़ अख़बार और टीवी चैनल निकल रहे हैं बल्कि साल-दर-साल इसकी संख्या बढ़ती जा रही है। इस वक़्त भारत में लगभग 800 टीवी चैनल्स, 82 हज़ार अख़बार और पत्रिकाएं निकल रहे हैं। लेकिन मीडिया के इन तमाम मंचों की अगर पहुंच और आकार पर नज़र दौड़ाएं तो फिर नई क़िस्म की तस्वीर उभरती है। हिंदी के जो शीर्ष 10 अख़बार हैं उनके मुकाबले हिंदी के बाकी सारे छोटे-बड़े अख़बारों को खड़ा कर दिया जाए तो उन दसों के एक चौथाई तक पहुंचना भी बाकियों के लिए आजीवन अभ्यास का मामला दिखता है। ये जो फासले का गणित है, वो ठीक मीडिया द्वारा आरोपित वर्चस्व के बराबर है।
हिंदी में शीर्ष स्थान पर काबिज दैनिक जागरण दसवें नंबर पर रहने वाले (राजस्थान) पत्रिका के मुकाबले 12 गुना से भी ज़्यादा प्रसार संख्या रखता है और अंग्रेजी में पहले स्थान पर रहने वाला द टाइम्स ऑफ इंडिया दसवें नंबर पर रहने वाले द न्यू इंडियन एक्सप्रेस (दी इंडियन एक्सप्रेस नहीं, रीडरशिप के लिहाज से दी इंडियन एक्सप्रेस अंग्रेज़ी के टॉप 10 अख़बारों की सूची से बाहर है!) से 15 गुना ज़्यादा विशालकाय है। कोई गलाकाट प्रतिस्पर्धा नहीं है। जो बड़ा है वो लगातार फैल रहा है। जब कोई कहता है कि देश में हज़ारों प्रकाशन हैं तो मनोवैज्ञानिक तौर पर इसका ये मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि पहुंच के मामले में सब बराबर है। खुले बाज़ार में जिस दिन ख़रीदने-बेचने वाला तैयार हो जाएगा उस दिन ऊपर का दो अख़बार नीचे के सात-आठ सौ को खड़े-खड़े ख़रीद लेगा। बहुलता का ये तर्क लगभग वैसे ही है जैसे एक तरफ़ अमेरिका, ब्रिटेन या फिर चीन संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं और दूसरी तरफ़ हैती, बुरुंडी और इथियोपिया भी हैं। ज़ाहिर है पहले तीनों को ख़ास शक्तियों से नवाज़ा गया है और बाद के तीनों देशों की आवाज़ पहले के तीन के मुक़ाबले झुनझुना ही साबित होगी। लेकिन विविधता को आंकड़ों के ज़रिए पुष्ट किया जा सकता है। एक देश, एक वोट।
भारत के मीडिया परिदृश्य में विविधता कमोबेस इसी तर्ज पर दिखाई देता है। इस लेख में मीडिया स्वामित्व के ज़रिए तीन-चार मुद्दों पर चर्चा की जाएगी। पहला, देश में मीडिया स्वामित्व की स्थिति। दूसरा, क्रॉस मीडिया ओनरशिप के भारतीय संदर्भ में मायने। तीसरा, मीडिया स्वामित्व और इनसे जुड़े मसलों पर अब तक हुए अध्ययन और चौथा सरकार और मीडिया घरानों द्वारा इस दिशा में अब तक उठाए गए कदम और तर्क।
मीडिया कारोबार के ट्रेंड
भारत में मीडिया कारोबार में मोटे तौर पर तीन तरह के ट्रेंड रहे हैं। पहला, जिन कारोबारियों ने बिजनेस, मिशन, सरोकार या किसी भी उद्देश्य से मीडिया में निवेश किया वो अपने फ़ैलाव के बाद धीरे-धीरे मीडिया के अलावा दूसरे धंधों में भी उतर गए। दूसरा, वो जो पहले से दूसरे धंधे में थे, लेकिन अलग-अलग वजहों से मीडिया में भी पूंजी लगा दी। तीसरा, राजनीतिक पार्टियों या राजनेताओं ने मीडिया को अपने मंच के तौर पर इस्तेमाल करने लिए इसमें निवेश किया। लेकिन दूसरे कारोबार से मीडिया की तुलना करें तो एक अजीब तरह की लुका-छिपा का खेल चलता दिखेगा। यानी जो निवेशक मीडिया में पैसा लगा रहे हैं उनमें से बड़ा तबका ऐसा है जो नहीं चाहता कि मालिक के तौर पर सीधे-सीधे उनका नाम जनता को पता चले। इसकी कई मिसालें लेख में आगे दी जाएगी।
एक छोटे उदाहरण से बात शुरू करते हैं। मार्च 2012 में सूवी इंफो मैनेजमेंट को जागरण प्रकाशन लिमिटेड ने तीन-चार महीने तक सौदेबाज़ी की चली प्रक्रिया के बाद 225 करोड़ रुपए में ख़रीद लिया। सूवी इंफो मैनेजमेंट के ही एक उत्पाद के तौर पर हिंदी दैनिक नई दुनिया मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और एनसीआर के पाठकों के बीच पहुंचता था। दोनों कंपनियों के बीच हुई इस डील के बाद नई दुनिया के अलावा संडे नई दुनिया और भोपाल से छपने वाला नव दुनिया सहित इसके वेबसाइट संस्करण का मालिक महेंद्र मोहन गुप्त वाला जागरण प्रकाशन लिमिटेड हो गया। इस प्रक्रिया में विनय छजलानी और सुनीता छजलानी वाली कंपनी नई दुनिया को घाटे की स्थिति में ख़रीदने के एवज में मिले 75 करोड़ रुपए की कर राहत के चलते जागरण की जेब पर महज 150 करोड़ रुपए का ही भार पड़ा। यानी छजलानियों ने पहले से डूब रही कंपनी को बचाने के लिए जागरण से कर्ज लिया और बाद में थोड़े और पैसे लगता हुए जागरण ने पूरा समूह ही ख़रीद लिया। ये मीडिया कारोबार की बहुत सामान्य परिघटना है जिसका सबसे बड़ा नजीर टीवी-18 समूह को ख़रीदते समय रिलायंस ने पेश किया।
29 मार्च 2012 को नई दुनिया के दिल्ली संस्करण की आख़िरी प्रति छपी। बीते कुछ वर्षों से नई दुनिया के गिरते स्तर को उसी दिशा में आगे बढ़ाने के ज़िम्मेदार आलोक मेहता ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ 30 मार्च से ‘नेशनल दुनिया’ नाम का नया अख़बार शुरू किया। आलोक मेहता की टीम ने ‘वही हैं हम, वही है दुनिया’ के जरिए पाठकों और ख़ासकर हॉकरों के भरोसे को जीतने की कोशिश की और इसके विज्ञापन के लिए उस वक़्त टीवी चैनलों से लेकर सड़कों और गलियों तक प्रचार सामग्री पहुंचाई। दिल्ली के बड़े पाठक वर्ग के लिए ये कोई मायने नहीं रखता कि नई दुनिया के मुकाबले नेशनल दुनिया अपने कलेवर में उसी तरह का है कि नहीं? यहां की बड़ी आबादी न तो नई दुनिया पढ़ती थी और न नेशनल दुनिया ही पढ़ रही है। असल सवाल ये है कि क्या मीडिया बाज़ार में ख़रीद-बिक्री की ये प्रवृत्ति मीडिया उद्योग को मोनोपली (एकाधिकार) की तरफ़ मोड़ रही है? क्या बड़े पूंजीपतियों के बीच भी मीडिया का विकल्प चुनिंदा लोगों की जेब तले ढका जा रहा है? इस तरह के अधिग्रहण का असर किस रूप में पत्रकारिता पर पड़ रहा है या पड़ने जा रहा है? मीडिया बाज़ार में अधिग्रहण और निवेश के तौर पर कौन लोग पैसे लगा रहे हैं?
इससे पहले जागरण में जब अमेरिकी कंपनी ब्लैकस्टोन ने 12 फ़ीसदी शेयर यानी 225 करोड़ रुपए (ठीक उतना, जितने में नई दुनिया की डील हुई) निवेश किया था तो जागरण के अध्यक्ष महेंद्र मोहन गुप्त ने उसी समय ये कह दिया था कि ब्लैकस्टोन के पैसे का इस्तेमाल वो कंपनी के विस्तार के लिए करेंगे। जागरण ने ऐसा किया भी। उसने 2010 में तारिक अंसारी से मिड डे समूह ख़रीद लिया। इसमें अंग्रेजी टेबुलायड मिड डे, गुजराती मिड डे, उर्दू अख़बार इंकलाब और मिड डे डॉट कॉम शामिल था। फिर कारोबारी वजहों से दिसंबर 2011 में मिड डे का दिल्ली और बंगलुरू संस्करण बंद कर दिया। इंकलाब को चार नई जगहों, लखनऊ, कानपुर, बरेली और दिल्ली में उतारा और पंजाबी जागरण की शुरुआत की।
मीडिया में ख़रीद–बिक्री
असल में मीडिया में ख़रीद-बिक्री का धंधा बेहद रोचक है। 2007 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के दबाव में ब्लैकस्टोन ने इनाडु समूह की फादर कंपनी उषोदया इंटरप्राइजेज में से अपने 26 फ़ीसदी शेयर खींच लिए। रेड्डी उस समय इनाडु के समानांतर साक्षी को उतारने की योजना पर ज़ोर-शोर से काम कर रहे थे और रामोजी राव की कंपनी इनाडु में निवेश के तरीके को लेकर उस समय कई सवाल उठा रहे थे, ताकि कारोबारी बढ़त हासिल हो सके। बहरहाल,ब्लैकस्टोन के जाने के बाद उषोदया की हालत बेहद खस्ता हो गई तो मुकेश अंबानी ने दक्षिण भारत के सबसे बड़े समूहों में से एक इनाडु में पैसा लगाने का बेहतर मौका देखा। लेकिन तेल, गैस, पेट्रोलियम समेत बाकी उद्योगों के पक्ष में जब अंबानी के मातहत मीडिया समूह लॉबिंग के लिए खड़े हों तो आलोचकों की तरफ़ से तीखे सवाल न उठे इसलिए अंबानी ने सीधे-सीधे इनाडु में पैसा नहीं लगाया।
उन्होंने निवेश बैंकर नीमेश कंपानी के रास्ते ब्लैकस्टोन वाला 26 फ़ीसदी शेयर ख़रीद लिया। जेएम फाइनेंसियल चलाने वाले नीमेश कंपानी का रिलायंस और मुकेश अंबानी के साथ पुराना और नज़दीकी रिश्ता है। रिलायंस के बंटवारे के बाद जब पेट्रोलियम ट्रस्ट बनाया गया तो नीमेश कंपनी और विष्णुभाई बी. हरिभक्ति उसके ट्रस्टी थे। इस पेट्रोलियम ट्रस्ट में रिलायंस इंडस्ट्रीयल इन्वेस्टमेंट एंड होल्डिंग्स (आरआईआईएचएल) का 6.66 प्रतिशत शेयर है, जिसके मालिक मुकेश अंबानी है। तो नीमेश के जरिए मुकेश ने इनाडु में पैसा लगाया और इस करार को लेकर ठीक उसी तरह की चुप्पी साध रखी, जिस तरह महेंद्र मोहन गुप्त और विनय छजलानी ने जागरण-नई दुनिया डील को लेकर साधी। टाटा-टेटली और टाटा-जगुआर की तरह मीडिया खरीददारी में ढोल नहीं पीटा जाता और यही चुप्पी इसे तेल-साबुन और नमक के कारोबारी हितों से अलग करती है। यह चुप्पी दिखाती है कि मीडिया में निवेश करने के बाद चुप-चाप इसको अपने पक्ष में इस्तेमाल करके कहीं ज़्यादा बड़ा दांव खेला जा सकता है।
मुकेश अंबानी को इस फन में महारत हासिल है। 2008 में जब रामोजी राव की उषोदया इंटरप्राइजेज़ में जब नीमेश कंपानी के ज़रिए रिलायंस ने 2600 करोड़ लगाया तो बदले में कंपनी के 40 फ़ीसदी के मालिक नीमेश हो गए। उस वक़्त उषोदया के पास प्रिंट मीडिया, ई टीवी के अलावा प्रिया फुड्स नाम के तीन अलग-अलग कारोबारों में शेयर थे। लेकिन, मीडिया वाले हिस्से पर अंबानी की रुचि बढ़ती गई। नतीजा ये हुआ कि साल 2011 में रामोजी राव ने अपनी समूची मिल्कियत में निवेश का नए सिरे से संतुलन बनाया। नए हालात में रामोजी राव ने उषोदया इंटरप्राइजेज़ को प्रिंट और खाने-पीने वाली प्रिया कंपनी का 100 फ़ीसदी हिस्सा हस्तांतरित कर दिया। साथ ही तेलुगू चैनल का 50 फ़ीसदी भी। अब नीमेश कंपानी के ज़रिए रिलायंस के पास अब 5 ग़ैर-तेलूग न्यूज़ चैनल, 5 ग़ैर-तेलुगू मनोरंजन चैनल का 100 फ़ीसदी मालिकाना हक़ आ गया। यहां से रिलायंस ने नेटवर्क-18 की तरफ़ कदम बढ़ाने शुरू किए। रिलायंस ने पांच ग़ैर-तेलुगू न्यूज़ चैनल का 100 फ़ीसदी हिस्सा और पांच ग़ैर-तेलुगू मनोरंजन चैनल का 50 फ़ीसदी हिस्से के अलावा कुछ और चैनलों में अपनी हिस्सेदारी टीवी-18 समूह को 2100 करोड़ रुपए में बेच दी।
कारोबार का गणित ज़रा उलझाऊ है इसलिए इसको इतमिनान से समझने की ज़रूरत है। जब रिलायंस ने उषोदया के शेयर टीवी-18 समूह के मालिक राघव बहल को बेचा तो बहल के पास इसे ख़रीदने के लिए पैसे की कमी आई। बदले में रिलायंस के ही ‘इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट’ ने बहल की मदद की और आख़िरकार मदद के एवज में 4000 करोड़ रुपए लगाकर टीवी-18 और नेटवर्क-18 समूह को रिलायंस ने ख़रीद लिया। यानी ई-टीवी जो पहले रिलायंस का था वो बाद में टीवी-18 का हो गया और अंतिम डील होने के बाद ई-टीवी सहित समूचा टीवी-18 वापस रिलायंस का हो गया। अब इंडिपेंड मीडिया ट्रस्ट का नेटवर्क-18 में 78 फ़ीसदी और टीवी-18 में 9 फ़ीसदी हिस्सेदारी है। इसके साथ ही सीएनएन-आईबीएन, आईबीएन-7, सीएनबीसी-आवाज़ और कलर्स जैसे चैनल रिलायंस के कब्जे में आ गए।
छोर बदल-बदलकर निवेश करने का चलन मीडिया में इन दिनों बढ़ा है। इससे पहले 2009 में पीटर मुखर्जी और उनकी पत्नी इंद्रानी की कंपनी आईएनएक्स मीडिया, जो न्यूज़ एक्स नाम से एक अंग्रेजी समाचार चैनल चलाती थी, के घाटे की भरपाई भी मुकेश अंबानी ने की। ‘संयोग’ को अगर ‘दिलचस्प’ का पर्याय मान लिया जाए तो मीडिया कारोबार में इस शब्द का बार-बार इस्तेमाल होना चाहिए। जिस समय मुकेश अंबानी ने पीटर मुखर्जी को पैसा दिया उस वक़्त नई दुनिया मीडिया प्राइवेट लिमिटेड यानी सूवी इंफो मैनेजमेंट द्वारा न्यूज़ एक्स को ख़रीदने की चर्चा ज़ोरों पर थी। विनय छजलानी और जहांगीर पोचा ने इंडी मीडिया नाम का एक समूह बनाया था ताकि आईएनएक्स मीडिया को ख़रीदा जा सके। लेकिन, मुकेश ने पीटर का हाथ थाम लिया। इस तरह देखें तो बुरे वक्त में ‘डूबते को मुकेश का सहारा’ बनते हुए अंबानी कई चैनलों के बड़े शेयरधारक बन गए हैं। मोटे तौर पर इस समय देश के लगभग 25 से ज़्यादा टीवी चैनलों में मुकेश अंबानी के पैसे लगे हैं। एक तरह से इन 25 चैनलों के दर्शकों के बीच तो मुकेश अंबानी ने अपनी ‘धवल छवि’ को लगातार सफ़ेद रखने तरीका निकाल ही लिया है। और बाकी चैनलों के लिए हथियार के तौर पर विज्ञापन है ही! जब राघव बहल के साथ मुकेश अंबानी की डील चल रही थी तो उस समय बहल की Firstpost.com पर को लेकर लगातार लेख लिखे जा रहे थे।
मुकेश अंबानी के कुछ शेयर पर बात कर लेते हैं। राजीव शुक्ला और अनुराधा प्रसाद को 76 करोड़ की भुगतान कर हाई ग्रोथ डिस्ट्रीब्यूशन प्राइवेट लिमिटेड ने बीएजी फिल्म्स एंड मीडिया लिमिटेड का 12 फ़ीसदी, बीएजी न्यूज़लाइन नेटवर्क लिमिटेड का 15 फ़ीसदी, बीएजी ग्लैमर लिमिटेड का 15 फ़ीसदी शेयर ख़रीद लिया। न्यूज़ 24 चैनल इसी कंपनी का है। इस हाई ग्रोथ डिस्ट्रीब्यूशन प्राइवेट लिमिटेड के मालिक मुकेश अंबानी ही है। छोटी-छोटी कंपनियां खोलने के बाद मुकेश इनके जरिए मीडिया में सेंधमारी कर रहे हैं। हाई ग्रोथ डिस्ट्रीब्यूशन प्रा. लि. का दफ़्तर कोलकाता में है और वहां के जरिए इसने बीएजी में पैसा लगाया ताकि लोग भ्रम में रहे कि कोलकाता का कोई सेठ बीएजी से खेल रहा है! इसी तरह इंडिया टीवी चलाने वाली कंपनी इंडिपेंडेंट न्यूज़ सर्विस प्राइवेट लिमिटेड में 23 फ़ीसदी हिस्सा श्याम इक्विटीज़ प्राइवेट लिमिटेड का है। इस श्याम इक्विटीज में टैली सॉल्यूशंस ने निवेश किया और टैली सॉल्यूशंस को मुकेश अंबानी समूह और भरत गोयनका समूह नियंत्रित करते हैं। इस तरह सीधे आरआईएल के नाम से निवेश करने में मुकेश लगातार कतरा रहे हैं। या कहिए कि चालाकी बरत रहे हैं। जिस नई दुनिया के बिकने की चर्चा शुरू में की गई, वो लगातार घाटे की स्थिति में चल रही थी। सूवी इंफो (नई दुनिया की फादर कंपनी) के 2006-07 की बैलेंसशीट यह दिखाती है उसे आर्थिक कमर्शियल्स प्राइवेट लिमिटेड की तरफ़ से 38 करोड़ का ऋण दिया गया। और आर्थिक कमर्शियल्स के मालिक मुकेश अंबानी हैं। इस तरह नई दुनिया की डील भी मुकेश अंबानी के हाथों के नीचे हुआ।
मीडिया उद्योग में निवेश पर सतही नज़र डालने से ही पता चल जाएगा कि या तो रियल एस्टेट, तेल, गाड़ी, बैंकिंग सहित अन्य धंधों के खिलाड़ी इसमें पैसा लगा रहे हैं या फिर मीडिया का कारोबार करने वाले व्यवसायी धीरे-धीरे अन्य धंधों में अपने पैर पसारने लग गए हैं। उदाहरण के लिए सुभाष चंद्रा ने अपने एस्सेल ग्रुप (ज़ी समूह की फ़ादर कंपनी) को विस्तार देने के लिए आख़िरी मार्च को हैदराबाद स्थित इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनी आईवीआरसीएल (IVRCL) का 10.2 फ़ीसदी शेयर ख़रीद लिया। इन्फ्रास्ट्रक्चर या बाकी किसी भी उद्योग के साथ मीडिया के जुड़ाव का क्या असर पड़ता है इसको उसी दिन सेंसेक्स के आंकड़ें बयां कर रहे थे। मीडिया का हाथ पड़ते ही बांबे स्टॉक एक्सचेंज में आईवीआरसीएल का प्रदर्शन निखरने लगा। जिस दिन सुभाष चंद्रा ने 10 फ़ीसदी शेयर ख़रीदा उस दिन सेंसेक्स में आईवीआरसीएल को 8 प्रतिशत का उछाल मिला। इस कंपनी में सबसे बड़ा शेयर 12.2 फ़ीसदी है इसका मतलब एस्सेल एक तरह से आईवीआरसीएल में दूसरा (पहले से महज़ दो फ़ीसदी के अंतर के साथ) सबसे बड़ा शेयर धारक हो गई है। सुभाष चंद्रा को आईवीआरसीएल में निवेश की सलाह देने वाली कंपनी का नाम जेएम फाइनेंसियल है, जोकि एक इनवेस्टमेंट बैंकिंग कंपनी है। इसका ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि मुकेश अंबानी ने जिस नीमेश कंपानी के मार्फ़त उषोदया इंटरप्राइजेज़ में पैसा लगाया था, वो नीमेश कंपानी इसी जेएम फाइनेंसियल के अध्यक्ष हैं। सुभाष चंद्रा का टी-20 क्रिकेट टूर्नामेंट आईसीएल बुरी तरह पिट गया, हालांकि बीसीसीआई जैसी भीमकाय संस्था के बरकअक्स पिटना ही उसकी परिणति थी। लेकिन इस तरह के उपक्रम ये दिखाते हैं कि सुभाष चंद्रा की रुचि मीडिया से बाहर किस सीमा तक पसरी हुई है। आजकल एस्सेल समूह की शाखा कंपनी डिश टीवी अजमेर सहित राजस्थान के कई शहरों में शॉपिंग मॉल की श्रृंखला खोलने जा रही है। इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू हो चुका है।
मीडिया के जरिए अन्य उद्योगों के पक्ष में होने वाली लॉबिंग की बेहतरीन मिसाल के तौर पर 2जी स्पेक्ट्रम का प्रकरण हम देख चुके हैं। लेकिन यदि बड़े पत्रकारों के दलाल वाली भूमिका को बातचीत के दायरे से निकालते हुए कारोबारी हित की बात की जाए तो मीडिया-उद्योग-राजनेता के गठजोड़ और ज़्यादा खुलकर सामने आएंगे। मीडिया और रिलायंस के बीच के ताल्लुकात को समझने वाले लोग एक और तथ्य जान लें। 2010 में रिलायंस ने इंफोटेल ब्रॉडबैंड को 4800 करोड़ रुपए में ख़रीदा और 2-जी स्पेक्ट्रम नीलामी में इंफोटेल एकमात्र कंपनी रही जिसे बी़डब्ल्यूए स्पेक्ट्रम हासिल हुआ।
कितने और कारोबर ?
अगर डीबी कॉर्प (दैनिक भास्कर) हिंदी और अंग्रेज़ी में अख़बार और पत्रिका निकालने के साथ-साथ भोपाल में शॉपिंग मॉल, महाराष्ट्र में सोयाबीन तेल और छत्तीसगढ़ में बिजली संयंत्र का धंधा कर रहा है तो इस प्रचलन को महज हिंदी भाषी मीडिया के उस एक समूह तक सिमटा नहीं माना जाना चाहिए। असल में इसी विस्तार को लक्ष्य किए बाकी मीडिया समूह भी बाज़ार में ज़ोर लगा रहे हैं। जागरण प्राइवेट लिमिटेड दैनिक जागरण के अलावा आई नेक्स्ट और सिटी प्लस नाम का अख़बार तो निकालती ही है, साथ में सहारनपुर में चीनी मिल भी चलाती है। इसी कंपनी का जगमिनी माइक्रो नेट (प्रा.) लिमिटेड नाम से नेटवियर फैक्ट्री है जिसमें मोजें (जुराब) बनते हैं। कानपुर और नोएडा में कई सारे स्कूलें हैं। इनमें कानपुर में पूर्वांचल विद्या निकेतन नाम का सीबीएससी से मान्यता प्राप्त स्कूल और नोएडा में जेपीएस नाम का स्कूल प्रमुख हैं। नोएडा में ही जागरण JIMMC नामक संस्थान से पत्रकार पैदा करता है। कंपनी का चैनल-7 जेटीवी नाम का 24 घंटे का सैटेलाइट चैनल भी है। दिसंबर 2014 ख़त्म होते-होते दैनिक जागरण प्राइवेट लिमिटेड ने देश की बड़ी एफ़ एम चैनल कंपनी म्यूज़िक ब्रॉडकास्ट प्राइवेट लिमिटेड (एमबीपीएल) को ख़रीद लिया। एमबीपीएल देश के अलग-अलग 20 शहरों में रेडियो सिटी नाम से एफ़एम चैनल चलाती है। 350 से 400 करोड़ रुपए के बीच की ये डील बताई जा रही है।
बीते कुछ सालों की मीडिया डील पर नज़र दौड़ाए तो आप पाएंगे कि यहां ख़रीदा वहां बेचा वाला धंधा शेयर बाज़ार की तरह ही मीडिया मंडी का भी चरित्र बनता जा रहा है। लेकिन आख़िरकार समूचा बाज़ार लगातार कुछ लोगों के हाथों में सिमटता जा रहा है। यानी एकाधिकारवाद की तरफ़ बढ़ रहा है। लेकिन ख़रीद-बिक्री और शेयर का बंदरबांट इतनी तेज़ी से होता है कि मीडिया उद्योग पर महीने भर अगर कोई नज़र ना दौड़ाए तो मालिक बदल भी सकता है। मिसाल लीजिए। यूटीवी ने विजय टीवी को यूनाइटेड ब्रेवेरिज से ख़रीदा और स्टार के हाथों बेच दिया। फिर हंगामा टीवी खरीदा और इसका शेयर वॉल्ट डिज़्नी के हाथों बेच दिया। इस तरह हंगामा टीवी, बिंदास, यूटीवी एक्शन, यूटीवी मूवीज, यूटीवी वर्ल्ड मूवीज और यूटीवी स्टार्स सहित वितरण और विपणन की कंपनियों पर भी वॉल्ट डिज़्नी का अधिकार हो गया। इसके अलावा ईएसपीएन स्टार स्पोर्ट्स में भी वॉल्ट डिज़्नी के कुछ शेयर हैं।
ख़रीद-बिक्री के साथ-साथ इन कंपनियों का विदेशी कनेक्शन को जानना बेहद महत्वपूर्ण है। लगभग हर बड़ी कंपनी का कोई न कोई विदेशी गठजोड़ है, जिसके बारे में पाठक-दर्शक लगभग न के बराबर जानते हैं। मिसाल के लिए नेटवर्क-18 के कुछ ब्रांड अमेरिकी कंपनी वायाकॉम के साझा उपक्रम (ज्वाइंट वेंचर) है, तो टाइम्स समूह की पत्रिका फ़िल्मफेयर और फेमिना बीबीसी मैग्ज़िन की साझा उपक्रम है। स्टार के सारे चैनलों के मालिक रुपर्ट मर्डोक की कंपनी न्यूज़ कॉरपोरेशन है। इमेजिन टीवी, पोगो, एचबीओ, कार्टून नेटवर्क और वर्ल्ड मूवीज के मालिक अमेरिकी कंपनी टाइम वार्नर-टर्नर प्राइवेट लिमिटेड है। ऐसे दर्ज़नों उदाहरण हैं। आप जिसे अब तक देसी समझते रहे उसमें विदेशी मिलावट भी है, ये जानना बेहद ज़रूरी है।
हिंदुस्तान टाइम्स समूह के साथ बिड़ला के रिश्ते और बिजनेस स्टैंडर्ड में कोटक-महिंद्रा के शेयर के बारे में ज़्यादातर लोग वाकिफ़ हैं। लेकिन मुकेश के साथ-साथ अनिल अंबानी पर चर्चा करनी ज़रूरी है। अविभाजित रिलायंस के भीतर मीडिया में निवेश करने का प्रचलन अनिल अंबानी की जिद्द से ही शुरू हुआ, जब इंडियन एक्सप्रेस से नाराज होकर अनिल अंबानी ने एक स्वतंत्र बिजनेस दैनिक निकालने का फैसला किया और इसी क्रम में 1989 में रिलायंस ने (बिजनेस एंड पॉलिटिकल) आब्जर्बर को ख़रीद लिया। उसी समय टाइम्स समूह ने विजयपत सिंघानिया से इंडियन पोस्ट खरीदा था, जिसे बाद में बंद कर दिया गया।
अनिल अंबानी ने तब से मीडिया और दूरसंचार में बेतरह रुचि दिखाई है। लगभग दर्ज़न भर अंग्रेजी मनोरंजन चैनल चलाने वाली अमेरिकी कंपनी सीबीएस के साथ अनिल का समझौता है। बिग सिनर्जी नाम से अनिल धीरू भाई अंबानी ग्रुप (एडीएजी) एक प्रोडक्शन हाउस चलाता है। ब्लूमबर्ग यूटीवी में 18 फ़ीसदी और टीवी टुडे में 13 फ़ीसदी शेयर धारक होने के अलावा नेटवर्क-18 (इसमें दोनों अंबानी के पैसे हैं) सहित कई टीवी चैनलों में अनिल अंबानी के पैसे लगे हैं। बिग एफएम के 45 स्टेशन, फिल्म प्रोडक्शन और विपणन की बड़ी कंपनी, बिग सिनेमा, बिग डीटीएच, बिगअड्डा डॉट कॉम सहित केबल उद्योग में भी अनिल का बड़ा हस्तक्षेप है।
इस तरह मीडिया के पत्रकारिता और उद्योग के पक्ष को अलग-अलग कर नहीं देखने के चलते मिशन, सरोकार और भावुकता जैसे शब्दों को टीवी और प्रिंट के इस साम्राज्य में जब कोई तलाशता है तो उसे असफ़लता हासिल होती है। मीडिया कंपनियां शेयर बाज़ार में ठीक उसी तरह सूचीबद्ध है जैसे कोई टूथपेस्ट कंपनी। हिंदुस्तान टाइम्स ने मुंबई में कारोबार फ़ैलाने और टाइम्स ऑफ़ इंडिया को चुनौती देने के लिए शेयर का रास्ता नापा तो वहीं दक्कन क्रॉनिकल शेयर बाज़ार की तरफ़ गया ताकि पैसा बनाकर हिंदू के गढ़ चेन्नई और दक्कन हेराल्ड के दबदबे वाले बंगलौर में खुद को मज़बूती से उतार सके। इसी तरह दैनिक जागरण ने शेयर बाज़ार से कमाए हुए पैसों से चैनल-7 जेटीवी नामक सैटेलाइट चैनल लांन्च किया।
कानपुर जैसे शहर से निकलने वाले जागरण का विस्तार हैरतअंगेज़ है। इसके मालिक महेंद्र मोहन गुप्त जागरण प्रकाशन (प्रा.) लिमिटेड के अध्यक्ष और मैनेजिंग डायरेक्टर के अलावा चाहें तो पूर्व राज्यसभा सदस्य कह सकते हैं और शाकुंभरी सुगर एंड एलाइड इंडस्ट्री लिमिटेड का अध्यक्ष भी हैं। जागरण लिमिटेड के निदेशक के साथ-साथ जागरण माइक्रो मोटर्स लिमिटेड के निदेशक के तौर पर भी लोग उन्हें जानते हैं। श्री पूरनचंद्र स्मारक ट्रस्ट और कंचन चैरिटेबल ट्रस्ट के संस्थापक सचिव और कोषाध्यक्ष का ओहदा भी उनके नाम हैं और इंडियन न्यूज़ पेपर सोसाइटी तथा इंडियन लैग्वेज़ न्यूज़ पेपर एसोसिएशन की कार्यकारी समिति के वो सदस्य हैं। मिसाल के लिए आप उन्हें इंडियन न्यूज़पेपर सोसाइटी, इंडियन लैंग्वेज़ न्यूज़पेपर एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष के तौर पर भी संबोधित कर सकते हैं और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया तथा ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन का सदस्य भी बता सकते हैं। यूएनआई के भी वो अध्यक्ष रहे हैं और सितंबर 2014 में पीटीआई का भी अध्यक्ष उन्हें चुना गया।
बेनेट एंड कोलमैन यानी टाइम्स समूह, एचटी मीडिया लिमिटेड, एस्सेल समूह (ज़ी वाले), सन टीवी नेटवर्क, इंडिया टुडे ग्रुप जैसी विशालकाय मीडिया समूहों के सामने जागरण प्रकाशन लिमिटेड बेहद छोटा दिखता है, लेकिन खुले बाज़ार का जो प्रचलन है उसमें या तो जागरण को भी लगातार अपना विस्तार करते रहना होगा या फिर भविष्य में इसे भी कोई बड़ा घराना ख़रीद लेगा। जागरण अपने विस्तार को फिलहाल भास्कर के बरअक्स देख रहा है और दोनों के बीच गहरी प्रतिस्पर्धा चल रही है। इसलिए जिस दिन जागरण ने नई दुनिया ख़रीदा उसके दो दिन के भीतर यानी 31 मार्च 2012 को भास्कर ने सोलापुर में दिव्य मराठी का पांचवा संस्करण लॉन्च किया। क्षेत्रीय भाषा में बड़ी कंपनियां लगातार घुसपैठ कर रही है। भास्कर ने दिव्य मराठी के पहले संस्करण की शुरुआत मई 2011 में औरंगाबाद से की थी लेकिन एक साल के भीतर ही उसने पांचवा संस्करण बाज़ार में उतार दिया। औरंगाबाद और सोलापुर के अलावा यह नासिक, जलगांव और अहमदनगर से भी।
दूसरे कारोबारों को चमकाने का हुनर
1958 में क्षेत्रीय स्तर पर अखबार शुरू करने वाले दैनिक भास्कर समूह, जोकि पिछले तीन दशक में अकूत विस्तार पाकर 13 राज्यों में फैल चुका है और अब डीबी कॉर्प प्राइवेट लिमिटेड नाम से शेयर बाजार में सूचीबद्ध है, ने 2013 में नई दिल्ली में ‘तीसरा पावर विजन कॉनक्लेव’ का आयोजन किया। 28 मार्च को यह कार्यक्रम हुआ लेकिन उससे पहले के एक हफ्ते में इससे जुड़ी खबर डीबी कॉर्प समूह के मुख्य अखबार दैनिक भास्कर में तीन बार पहले पृष्ठ पर छपी। एक बार एक कॉलम में और दो बार दो-दो कॉलम में।
तीनों खबर में एक ही बात बताई गई कि 28 तारीख को ‘तीसरा पावर विजन कॉनक्लेव’ नई दिल्ली में होना है जिसमें ‘फोकस स्टेट’ मध्य प्रदेश होगा। खबर के लिहाज से देखें तो तीन बार दोहराए जाने के पैमाने पर यह खरा नहीं उतरती। लेकिन दैनिक भास्कर में न सिर्फ यह तीन बार छपी बल्कि हर बार इस खबर को पहले पन्ने पर जगह मिली। यह अपने समूह द्वारा होने वाले आयोजन का एक तरह से प्रचार था जिसे अखबार का मंच मुफ्त में उपलब्ध होने की वजह से बार-बार खबर बनाकर प्रस्तुत किया गया। लेकिन मजेदार यह है कि एक भी मौके पर दैनिक भास्कर में यह जानकारी नहीं दी गई कि इस समूह का पावर (ऊर्जा) के क्षेत्र के साथ आर्थिक हित जुड़े हैं।
फ़िलहाल देश में क्रॉस मीडिया स्वामित्व और आगे की तरफ़ बढ़ने वाला है और मीडिया आने वाले दिनों में चंद लोगों की जुबान बनकर रह जाएगा। भारतीय प्रतियोगिता आयोग, सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद की स्थाई समितियों की सिफ़ारिशें, रिपोर्ट्स और अवलोकन सरकार को संतुष्ट करने नज़र नहीं आते
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पाठकों को ये जरूर बताया गया कि इस कॉनक्लेव के प्रायोजक में सुकैम, जिंदल पावर, बंगाल ऐमटा, वेदांता और पहाड़पुर पावर शामिल हैं, लेकिन यह जानकारी छुपा ली गई कि दैनिक भास्कर समूह की डिलीजेंट पावर प्राइवेट लिमिटेड (इसको डीबी पावर प्राइवेट लिमिटेड भी कहा जाता है।) तापीय ऊर्जा के क्षेत्र में सक्रिय कंपनी है। इस तरह खबर को पढ़ने के बाद पाठकों को एकबारगी यही लगेगा कि भास्कर समूह देश की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए काफी हद तक चिंतिंत होने की वजह से यह आयोजन जनता के हित में कर रहा है।
दैनिक भास्कर की फादर कंपनी डीबी कॉर्प प्राइवेट लिमिटेड द्वारा आयोजित यह तीसरा कॉनक्लेव था। सबसे पहले साल 2011 में समूह ने जो आयोजन किया था उसमें ‘फोकस स्टेट’ के तौर पर छत्तीसगढ़ और राजस्थान को शामिल किया गया फिर इसके बाद 2012 में हरियाणा पर केंद्रित करते हुए कार्यक्रम हुआ। डीबी पावर लिमिटेड का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। पांच साल से कम उम्र की इस कंपनी को उत्पादन के लिए तैयार करने के बाद दैनिक भास्कर समूह की गतिविधियों पर नज़र रखी जानी चाहिए। गौरतलब है कि पावर क्षेत्र में कंपनी की शुरुआत करने के बाद ही दैनिक भास्कर समूह ने ‘पावर कॉनक्लेव’ का आयोजन भी शुरू किया। पहले कॉनक्लेव के ‘फोकस स्टेट’ छत्तीसगढ़ में कार्यक्रम से पहले ही इस कंपनी ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिए थे और 2011 के उस कॉनक्लेव के बाद छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले में मौजूद इसके प्लांट में काम की गति तेज हो गई।
आज छत्तीसगढ़ में डीबी पावर के पास 1200 मेगावाट का प्लांट है। छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार की सिफारिश पर केंद्र ने कंपनी को दो कोयला ब्लॉक आवंटित किया था जिन्हें इसी पावर प्लांट के लिए इस्तेमाल में लाया जाना है। कोयला ब्लॉक आवंटन के चर्चित मुद्दे पर दैनिक भास्कर की रिपोर्टिंग पर गौर करे तो ये साफ लगेगा कि उस दौर में भास्कर ने बेहद चयनित होकर और भरपूर सावधानी से पूरे मसले को अपने पन्नों में जगह दी। कोयला ब्लॉक मामले में दैनिक भास्कर (जोकि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार है) के अलावा महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाने वाला लोकमत समूह भी शामिल था। महाराष्ट्र में मनोज जायसवाल के साथ मिलकर राजेंद्र दर्डा और उनके भाई, कांग्रेस सांसद एवं लोकमत मीडिया समूह के मालिक विजय दर्डा ने जस इन्फ्रास्ट्रक्चर कैपिटल प्राइवेट लिमिटेड में दांव खेला था।
मामले की तहकीकात के दौरान सीबीआई ने विजय दर्डा के बेटे देवेन्द्र दर्डा से भी पूछ-ताछ की थी। इसके अलावा प्रभात खबर की फादर कंपनी ऊषा मार्टिन को भी कोयले का पट्टा हासिल हुआ था। इन तीनों अखबारों में कोयला ब्लॉक आवंटन मुद्दे की रिपोर्टिंग अपने हितों को सुरक्षित रखते हुए दूसरी (प्रतिद्वंद्वी) कंपनियों पर निशाना साधने की कोशिश ज्यादा साफ दिखती है। कहने का मतलब ये कि ऐसी मीडिया कंपनियां जो दूसरे धंधों में उतरी हुई हैं वे उन्हें वैधता देने के लिए अपने मीडिया मंच का इस्तेमाल करती हैं।
छत्तीसगढ़ को फोकस स्टेट रखने के तुरंत बाद दैनिक भास्कर समूह की कंपनी डीबी पावर ने वहां पर प्लांट बनाया और यह महज संयोग नहीं है कि मध्य प्रदेश में जब डीबी पावर (डिलीजेंट पावर) 1,320 मेगावाट का बिजली संयंत्र लगाने की योजना पर काम कर रही थी तो ‘पावर कॉनक्लेव’ में फोकस स्टेट मध्य प्रदेश था। जाहिर है फोकस स्टेट के चुनाव में दैनिक भास्कर अपनी सिस्टर कंपनियों की हित को ध्यान में रखकर कॉनक्लेव का आयोजन करता है।
व्यावसायिक चिकनाई को बरकरार रखने की राह में यह काफी मददगार साबित होते हैं। यही कारण है कि जब छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में डीबी पावर प्राइवेट लिमिटेड को नौ करोड़ 16 लाख टन क्षमता वाला कोयला ब्लॉक मिला और अपनी बिजली परियोजना पर इसने काम करना शुरू किया उसी के आस-पास दैनिक भास्कर का रायगढ़ संस्करण भी लॉन्च किया गया।
छत्तीसगढ़ में मीडिया का यह तेवर महज भास्कर के मामले तक महदूद नहीं है बल्कि राज्य के दूसरे सबसे बड़े अखबार हरिभूमि की फादर कंपनी आर्यन कोल बेनीफिशिएशन है जो एक ट्रांसपोर्ट कंपनी और 30 मेगावाट क्षमता वाला एक पावर प्लांट चलाती है। यानी खनन, रियल एस्टेट, बिजली उत्पादन जैसे क्षेत्रों की कंपनियां या तो मीडिया की तरफ रुख कर रही हैं या फिर मीडिया की कंपनियां इन क्षेत्रों की तरफ। जाहिर है अगर कोई ठोस आर्थिक मुनाफे का मामला नहीं होता तो यह चलना इतना आम नहीं होता।
मुख्य व्यवसाय के तौर पर यह समूह अभी भी मीडिया को आगे रख रहा है लेकिन दैनिक भास्कर समूह बिजली उत्पादन, कपड़ा उद्योग, अयस्क निष्कर्षण, खाद्य तेल रिफाइनिंग और रियल एस्टेट में भी उतरा हुआ है। समूह की मुख्य कंपनी डीबी कॉर्प जोकि मीडिया की अगुवाई कर रही है उसका कुल राजस्व 1,246 करोड़ रुपए का है लेकिन इक्विटी के साथ मिलाकर डीबी पावर का राजस्व 6,640 करोड़ रुपए का है। आप खुद समझ सकते हैं कि ज्यादा बड़ा आर्थिक हित कहां जुड़ा हुआ है। धीरे-धीरे कौन कंपनी सहायक बनती जा रही है और कौन सी प्रमुख। भास्कर समूह का लक्ष्य है कि 2017 तक वो अपने बिजली उत्पादन क्षमता को बढ़ाकर 5,000 मेगावाट कर ले।
मुश्किल क्या है?
एक मीडिया घराने के पास देश में फ़िलहाल ये विकल्प है कि वो अपने प्रतिद्वंदी को ख़रीद ले। इस तरह कई घराने ऐसे हो गए हैं जिनके पास टीवी, अख़बार, पत्रिका और रेडियो के अलावा वेबसाइट भी हैं। यानी भारत में क्रॉस मीडिया स्वामित्व पर पाबंदी के लिए कोई क़ानून नहीं है, लिहाजा इसका फ़ायदा बड़े कॉरपोरेट उठा रहे हैं। मोटे तौर पर क्रॉस मीडिया स्वामित्व के दो वर्गीकरण किए गए हैं। पहला, अगर एक ही मीडिया घराने का प्रसारण और वितरण दोनों में शेयर है तो ये वर्टिकल ओनरशिप माना जाएगा। मिसाल के लिए ज़ी समूह के पास चैनलों के अलावा वितरण के लिए डिश टीवी भी है। सन ग्रुप के पास सुमंगली नाम का केबल वितरक है। इसी तरह होरिजोंटल स्वामित्व उसको कहते हैं जिसमें एक ही समूह के पास एक से अधिक मीडिया का मालिकाना हक़ हो। मिसाल के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया। इसके पास अख़बार भी है, टाइम्स नाऊ नाम का चैनल भी रेडियो मिर्ची भी। लोकतांत्रिक बहुलता की मीडिया में बहुलता की ज़रूरत को बल देती कई रिपोर्ट्स सामने आईं हैं, लेकिन उनपर अमल नहीं हो पाया। इसी तरह कई और मसले हैं जो सीधे तौर पर मीडिया स्वामित्व की इस संरचना से जुड़े हैं। मसलन, निजी संधियां (यानी विज्ञापन के बदले पैसा ना देकर ख़ुद की कंपनी में शेयर दे देना) और पेड न्यूज़ (पैसे देकर ख़बरों की शक्ल में विज्ञापन पेश करना) जैसी समस्याओं को कई संस्थाओं ने हल करने के सुझाव दिए। दुनिया के कई देशों में क्रॉस मीडिया स्वामित्व पर पाबंदी है, लेकिन भारत में अब यही नियम बनता दिख रहा है।
निदान की कोशिश
भारत में सिर्फ़ वितरण और एफ़एम रेडियो में क्रॉस मीडिया होल्डिंग पर पाबंदी है। यानी कोई भी कंपनी एक से अधिक डीटीएच का मालिक नहीं बन सकती और ना ही एक से अधिक एफएम रेडियो चला सकती है। इसी तर्ज़ पर मीडिया में भी इसे लागू करने के उद्देश्य से एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज ऑफ़ इंडिया (आस्की) ने साल 2009 में एक रिपोर्ट जारी की। लेकिन संसद की स्थाई समिति में आलोचना के बाद ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इसे वेबसाइट पर जगह दी। इसमें विस्तार से क्रॉस मीडिया स्वामित्व के ख़तरों को गिनाया गया था, जिसका बड़ा हिस्सा टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में भी दर्ज किया गया। इसके अलावा 2013 में संसद की स्थाई समिति ने ‘पेड न्यूज़’ पर लंबी-चौड़ी रिपोर्ट दी, जिसका बड़ा हिस्सा क्रॉस मीडिया स्वामित्व पर केंद्रित था। केबल टेलीविज़न (नियामक) नेटवर्क संशोधन विधेयक 2011 में क्रॉस मीडिया के बढ़ते चलन को प्रमुखता से रेखांकित किया गया। लेकिन सारी रिपोर्ट्स और सिफ़ारिशें ठंडे बस्ते में अब तक पड़ी हुईं हैं।
ट्राई ने 2014 में जो अंतिम सिफ़ारिश सौंपी उसके मुताबिक़ किसी भी मीडिया घराने को प्रिंट या फिर टीवी में एक सीमा तक ही शेयर रखने की अनुमति मिली चाहिए। अगर किसी कंपनी का प्रिंट में 32 फ़ीसदी शेयर है तो टीवी में शेयर 20 फ़ीसदी से कम होना चाहिए। या फिर टीवी में 32 फ़ीसदी है तो प्रिंट में 20 फ़ीसदी से कम होना चाहिए। 32 फ़ीसदी के शेयर को ‘वर्चस्व’ माना गया। 12 भाषाओं के आधार पर 20 राज्यों को इसमें चिह्नित किया गया है। अंग्रेज़ी और हिंदी को इससे अलग रखा गया है। बाज़ार की परिभाषा भी इसी आधार पर तय की गई है। तर्क ये है कि अगर किसी कंपनी का तेलुगू के किसी चैनल में पैसा है तो उसे तेलुगू बाज़ार के भीतर स्वामित्व के दायरे में देखा जाएगा क्योंकि इससे हिंदी या गुजराती चैनलों में प्रतिद्वंदी कंपनियों पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
इस तर्क को विस्तार दे तो ऐसा लगता है कि बड़े कॉरपोरेट समूहों को इससे कोई ख़ास नुकसान नहीं होने वाला। वो एक साथ हर भाषा में शेयर रख सकता है। मुश्किल छोटे कारोबारियों को आएगी। ट्राई की इस रिपोर्ट के बाद मीडिया समूहों में मोटे तौर पर नकार का भी भाव दिखा। ट्राई की इस रिपोर्ट में आस्की की गहरी छाप है। इसमें विज्ञापन की समय-सीमा निर्धारित करने की भी बात कही गई थी। लेकिन, पहला जे एस वर्मा मेमोरियल भाषण देते हुए सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने सिफ़ारिशों को लागू करने में हिचकिचाहट दिखाई। यानी जिस मंत्रालय ने रिपोर्ट तैयार करने की ज़िम्मेदारी ट्राई को सौंपी थी और जिस मंत्रालय ने विज्ञापन पर समय-सीमा निर्धारित करने वाली बात पर सहमति जताते हुए 2013 में चैनलों को निर्देश भी जारी कर दिया था, अब वही मंत्रालय टाल-मटोल की हालत में दिख रहा है।
इन हालातों को देखकर ये साफ़ लग रहा है कि फ़िलहाल देश में क्रॉस मीडिया स्वामित्व और आगे की तरफ़ बढ़ने वाला है और मीडिया आने वाले दिनों में चंद लोगों की जुबान बनकर रह जाएगा। भारतीय प्रतियोगिता आयोग, सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद की स्थाई समितियों की सिफ़ारिशें, रिपोर्ट्स और अवलोकन सरकार को संतुष्ट करने नज़र नहीं आते। मीडिया पर जिस तरह राजनेताओं का हस्तक्षेप बढ़ा है और जिस तरह देश के हर कोने में राजनेता मीडिया में निवेश करते जा रहे हैं उससे ऐसा लग रहा है कि राजनीतिक पार्टियों के बीच इस पर सहमति नहीं बन पाएगी। स्वतंत्र मीडिया के ज़रिए अपना प्रचार करना पार्टी मुखपत्र से कहीं ज़्यादा बेहतर विकल्प बनकर सामने आ रहा है। लिहाजा राजनीतिक, धार्मिक और कॉरपोरेट मीडिया स्वामित्व भारत की हक़ीक़त में तब्दील हो गया है।
दिलीप ख़़ान: राज्य सभा टीवी में पत्रकार। dakhalkiduniya.blogspot.in के मॉडरेटर। राज्य सभा टीवी के कार्यक्रम “मीडिया मंथन‘ के डेढ़ सौ से ज़्यादा एपिसोड्स के प्रोड्सूर। पहले राजस्थान पत्रिका में सब–एडिटर। मीडिया शोधार्थी। मीडिया पर अलग–अलग किताबों, पत्रिकाओं और अख़बारों में दर्जनों लेख प्रकाशित। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से एमए। सम्पर्क: +91-9555045077 इमेल: dilipkmedia@gmail.com