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लुगदी या लोकप्रिय : मुख्यधारा के मुहाने पर

लुगदी या लोकप्रिय : मुख्यधारा के मुहाने पर

स्वतंत्र मिश्र
लुगदी कहकर जिस साहित्य को अब तक खारिज किया जाता रहा, उसे मुख्यधारा में तवज्जो मिलने लगी है।

वर्दी वाला गुंडा, पतझड़ का सावन, सूरजमुखी, प्सासी नदी, प्यासे रास्ते, झील के उस पार, शर्मीली, चिंगारी, पाले खां, चेंबूर का दादा, लाल निशान, नरक का जल्लाद, पिशाच का प्यार, तड़ीपार, काला अंग्रेज, पुलिस क्या करे, पुनर्जन्म कातिल, बहरूपिया, सुहाग और सिंदूर, सिंगला मर्डर केस, दहकते शहर… ये कुछ ऐसे उपन्यासों के नाम हैं, जिन्होंने लोकप्रियता के झंडे गाड़े और हिंदी पट्टी के युवा वर्ग पर अपनी बादशाहत कायम की। इन उपन्यासों के लेखक इब्ने शफी, रानू, गुलशन नंदा, सुरेंद्र मोहन पाठक, वेदप्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, कुशवाहाकांत, रीमा भारती, कर्नल रंजीत और दिनेश ठाकुर जैसे लेखक हैं। इन उपन्यासों की बिक्री सबसे ज्यादा रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड के बुक स्टॉल से हुआ करती थी।

1960-70 में इन किताबों की इतनी धूम थी कि लेखकों को अग्रिम रॉयल्टी दी जाती थी। अग्रिम रॉयल्टी दिए जाने के बारे में एक किस्सा बहुत मशहूर है। वह यह कि गुलशन नंदा जब दिल्ली या मुंबई के एयरपोर्ट से बाहर निकलते थे तो प्रकाशक रुपयों से भरी अटैची लेकर उनके पीछे-पीछे दौड़ता था। आलम यह था कि जो प्रकाशक गुलशन नंदा को बैग पकड़ाने में सफल हो जाता, वह अगले कुछ महीने चैन की नींद सो सकता था क्योंकि अगला उपन्यास नंदा उनके लिए ही लिखने वाले होते थे। यह वह दौर था जब गुलशन नंदा और राजेश खन्ना का कॅरियर अपने परवान पर था। गुलशन नंदा की कहानियों पर 35 से ज्यादा हिंदी फिल्में बनीं और करीब 25 फिल्में सुपरहिट रहीं। इन सुपरहिट फिल्मों में राजेश खन्ना अभिनीत बहुत सारी फिल्में शुमार रहीं। नंदा के बारे में एक किस्सा और प्रचलित है। कहा जाता है कि जब वह अपनी प्रसिद्घि के चरम पर थे तो अपना एक उपन्यास राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को भेंट करने पहुंच गए।दिनकर ने उनके उपन्यास को घटिया साहित्य कहकर कहकर फेंक दिया था। तब नंदा अपना-सा मुंह लेकर वापस लौटे थे।

‘सुरेंद्र मोहन पाठक के दोनों उपन्यासों के प्रिंट ऑर्डर 30 हजार हैं। ऑनलाइन रिटेल स्टोर ‘अमेजन’ पर उनकी किताब सर्वाधिक बिक रही है’

हिंदी आलोचकों ने लोकप्रिय और सस्ता होने की वजह से इसे लुगदी साहित्य का नाम दिया। हिंदी के आलोचकों के इस दृष्टिकोण को युवा कथाकार व जानकीपुल ब्लॉग के मॉडरेटर प्रभात रंजन सामंती करार देते हैं। वे बताते हैं, ‘हिंदी साहित्य का सबसे ज्यादा नुकसान आलोचकों ने किया है। यही वजह है कि अब आलोचकों की भूमिका खत्म हो रही है। अब लेखक, पाठक और प्रकाशक बच गए हैं। खांचेबाजी का आलम देखिए कि नामवर सिंह ने हिंदी साहित्य के बड़े उपन्यासकार-कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु को आंचलिक कहकर खारिज करने की कोशिश की थी।’ हिंदी प्रकाशन का नजरिया अब बदल रहा है और गंभीर साहित्य छापने वाले प्रकाशक भी इन लुगदी सितारों की किताबें छापने लगे हैं। हार्पर कॉलिन्स प्रकाशन ने सुरेंद्र मोहन पाठक के दो उपन्यास ‘कोलाबा कॉन्सपिरेसी’ और ‘जो लड़े दीन के हेत’ छापे हैं। हार्पर कॉलिन्स मूलतः अंग्रेजी का प्रकाशक है लेकिन पिछले कुछ सालों से हिंदी की किताबें भी छाप रहा है। इस प्रकाशन ने लुगदी के पहले लेखक इब्ने सफी को भी छापना शुरू किया है। हार्पर कॉलिन्स की संपादक मीनाक्षी ठाकुर ने ‘तहलका’ से बातचीत में बताया, ‘सुरेंद्र मोहन पाठक के दोनों उपन्यासों के प्रिंट ऑर्डर 30 हजार हैं। इन किताबों को बहुत अच्छा रिस्पाॅन्स मिल रहा है। ऑनलाइन रिटेल स्टोर ‘अमेजन’ पर सुरेंद्र मोहन पाठक की किताब सर्वाधिक बिक रही है।’ हिंदी के बड़े प्रकाशकों ने अभी तक लुगदी साहित्य से दूरी बनाई हुई थी लेकिन पिछले कुछ सालों से उन्हें भी इस साहित्य या इसके आसपास के साहित्य की लोकप्रियता और बाजार पर पकड़ बनाने का मोह सताने लगा है।

Literature1हालांकि लुगदी साहित्य के बारे में वरिष्ठ साहित्यकार असगर वजाहत कहते हैं, ‘लुगदी साहित्य, गंभीर साहित्य के लिए जरूरी है। पहले भी लुगदी में ईमानदारी, नेकी, देश प्रेम जैसे मूल्य आधारित विषय होते थे और आज भी जो लिखा जा रहा है उसमें भी कुछ मूल्य होते हैं।’ राजकमल प्रकाशन समूह के अधिकारी सत्यानंद निरूपम ‘तहलका’ से बातचीत में कहते हैं, ‘राजकमल प्रकाशन ने लुगदी साहित्य का जब-तब प्रकाशन किया है। हमारे यहां चंद्रकाता और चंद्रकांता संतति का प्रकाशन पहले किया जा चुका है, जिसे पाठकों की ओर से अच्छा रिस्पाॅन्स मिला है। समूह ने बीच-बीच में लुगदी साहित्य को कई बार छापने की कोशिश की है। अब हम इस तरह का साहित्य छापने के लिए ‘फंडा’ नाम का उपक्रम शुरू करने जा रहे हैं।’ इस उपक्रम के बारे में वह कहते हैं, ‘हिंदी समाज में मास लिटरेचर के पाठक हमेशा से बहुत रहे हैं। उनकी बहुत बेकद्री भी हुई है। सिर्फ आम पाठकों के लिहाज से हम इस साल सितंबर तक एक और नया उपक्रम ‘फंडा’ नाम से ला रहे हैं, जिसमें स्तरीय जीवनोपयोगी साहित्य और स्वस्थ मनोरंजन प्रधान साहित्य छापा जाएगा। हम जब फिक्शन छापेंगे तो जाहिर है उसके तहत जासूसी उपन्यास भी प्रकाशित होंगे।’

हिंदी में लुगदी साहित्य की शुरुआत इब्ने सफी के उपन्यासों से हुई। इब्ने सफी, इब्ने सईद और राही मासूम रजा तीनों दोस्त थे। एक दिन बातचीत के दौरान उनके बीच जासूसी उपन्यासों पर चर्चा निकल पड़ी। तब बातों ही बातों में राही मासूम रजा ने कहा कि बगैर सेक्स का तड़का डाले जासूसी उपन्यास लोकप्रिय नहीं हो सकता है। असरार अहमद उर्फ इब्ने सफी ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और बगैर किसी सेक्स प्रसंग के पहला उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम’ लिखा। यह उपन्यास जबरदस्त हिट साबित हुआ। फिर तो इब्ने सफी ने जासूसी उपन्यासों की दुनिया में तहलका मचा दिया। वरिष्ठ कथाकार असगर वजाहत भी इब्ने सफी की रचनाओं के प्रशंसक रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘इब्ने सफी जासूसी उपन्यासों के उस्ताद थे। उनके उपन्यास में सामाजिकता का पुट होता था।’ इब्ने सफी के इमरान सीरीज के उपन्यासों की बदौलत उनके मित्र अली अब्बास हुसैनी ने भी अपना एक प्रकाशन गृह खोल लिया। उनकी एक किताब का अनुवाद अंग्रेजी के मशहूर प्रकाशन रैंडम हाउस ने प्रकाशित किया। हार्पर कॉलिन्स ने उनकी 15 किताबों को प्रकाशित कर एक तरह से जासूसी उपन्यासों के इस पहले भारतीय लेखक की ओर ध्यान आकर्षित करने का काम किया। सफी की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके बारे में एक दौर में कहा जाता था कि ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ ने बड़े पैमाने पर हिंदी के पाठक तैयार किए, जिस जमीन पर हिंदी साहित्य की विकास यात्रा शुरू हुई।

रहस्य और रोमांच से भरे कथानक वाले उपन्यासों की धूम इस कदर मची कि रानू और गुलशन नंदा तो हिंदी पट्टी के तकरीबन हर घर में पहुंचने लगे थे। रानू और गुलशन नंदा महिलाओं और कॉलेज छात्र-छात्राओं की पहली पसंद हुआ करते थे। गुलशन नंदा ने जब 1962 में अपना पहला उपन्यास लिखा तो उसकी 10 हजार प्रतियां छपीं। ये प्रतियां बाजार में आते ही खत्म हो गईं और मांग को देखते हुए दोबारा दो लाख और प्रतियां छपवानी पड़ी थी। पहले उपन्यास की सफलता से उत्साहित प्रकाशक ने भविष्य में गुलशन नंदा के उपन्यासों का पहला संस्करण ही पांच लाख का छपवाना शुरू कर दिया था। उस दौर में उन उपन्यासों की कीमत पांच रुपये हुआ करती थी और सारा खर्चा काटकर भी प्रकाशक को हर प्रति पर एक रुपये का मुनाफा होता था, जो कि उस वक्त के लिहाज से बेहतरीन मुनाफा माना जाता था। इस तरह के उपन्यासों की मांग यात्राओं के दौरान बेहद ज्यादा होती थी। छोटी और लंबी यात्रा करने वाले पांच से दस रुपये तक का यह उपन्यास खरीदते और अपने गंतव्य तक पहुंचने से पहले इसे पढ़ जाते थे। इनकी लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि सुरेंद्र मोहन पाठक का उपन्यास ‘पैंसठ लाख की डकैती’ की अब तक 25 लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। भले ही 40 साल में ये आंकड़ा हासिल हुआ हो, लेकिन हिंदी के लिए यह स्थिति अकल्पनीय है। इस तरह के उपन्यासों की लोकप्रियता को देखते हुए कई घोस्ट राइटर्स ने भी पैसे की खातिर लिखना शुरू कर दिया। ‘मनोज’ ऐसा ही काल्पनिक नाम था जिसकी आड़ में कई लेखक लिखा करते थे। ‘वर्दी वाला गुंडा’ जैसे लोकप्रिय उपन्यास के लेखक वेद प्रकाश शर्मा भी स्वीकारते हैं कि उन्होंने लगभग दो दर्जन उपन्यास बतौर ‘घोस्ट राइटर’ लिखे हैं। जासूसी और हल्की रोमांटिक कथाओं के बड़े बाजार बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और कुछ-कुछ राजस्थान के अलावा दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर भी थे। इन रोमांटिक उपन्यासों में जिस तरह का हल्का-फुल्का सेक्स प्रसंग होता था, जिसने इन्हें लोकप्रिय बनाने में मदद की। साठ और सत्तर के दशक में भारतीय समाज में सेक्स प्रसंगों को लेकर इस तरह का खुलापन नहीं था, जैसा अब है।

1970-90 तक ऐसे साहित्य के लिए हिकारत-सा माहौल था। वहीं जब इन उपन्यासों पर ‘कटी पतंग’ जैसी फिल्में बनतीं तो पूरा परिवार देखता था

हल्का-फुल्का कहे जाने वाले उपन्यासों की अग्रिम बुकिंग का भी अपना जलवा है। जासूसी उपन्यासों के सम्राट वेद प्रकाश शर्मा ने बताया, ‘पहले ही दिन मेरे उपन्यास वर्दी वाला गुंडा की 15 लाख प्रतियां बिक गई थीं।’ सच तो यह है कि इस उपन्यास को थ्रिलर उपन्यास में क्लासिक का दर्जा हासिल है। इस उपन्यास की अब तक 8 करोड़ से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। सुरेंद्र मोहन पाठक का उपन्यास ‘पैंसठ लाख की डकैती’ की भी 25 लाख से ज्यादा कॉपियां बिकीं। हिंदी साहित्य में किसी लेखक की कोई कृति इस आंकड़े को छूने की बात तो दूर आसपास भी नहीं पहुंची होगी। हिंदी के बड़े लेखक खुद ही बताते हैं कि प्रकाशक हमारी किताब की चार या पांच सौ प्रतियां छापते हैं।

1970-90 तक खुद को सभ्य और संस्कारी कहलाने वाले घरों में लुगदी साहित्य को लेकर हिकारत-सा माहौल बना दिया गया था। वहीं जब उन्हीं उपन्यासों पर बनीं ‘कटी पतंग’ और ‘झील के उस पार’ जैसी फिल्मों को दूरदर्शन पर प्रसारित कराया जाता या ये शहर-कस्बों के सिंगल स्क्रिन पर लगते तो पूरा परिवार देखने साथ जाता था। और तो और किसी भावुक कर देने वाले दृश्य पर सबकी आंखों से एक साथ आंसू झरते और फिल्म की कहानी पर कई-कई दिनों तक चर्चा में पूरा परिवार मशगूल रहता। स्लेटी कागजों और चटख रंग के कवर वाले इन उपन्यासों को छोटे शहरों के रेलवे स्टेशन पर विक्रेता छुपाकर रखता था और अपने खास ग्राहकों के आते ही इधर-उधर नजरें घुमाता और मौका पाते ही हाथ में उपन्यास पकड़ाते हुए कहता, ‘भैया, परसों 150 कॉपी आई थी। बस एक कॉपी आपके लिए बचाकर रखा था।’ घर में इन उपन्यासों के पाठक भी इसे घर में बिस्तर के नीचे, पुआल में दबाकर या छप्पर या कनाती में खोंसकर रखते थे ताकि किसी की नजर न पड़े। छिपकर या चोरी से इन उपन्यासों को पढ़ने की वजह युवा कथाकार संदीप मील बताते हैं, ‘हमें इसे चोरी से इसलिए पढ़ना पढ़ता था क्योंकि हमारे घरवालों को लगता था कि हम पाठ्यक्रम की पढ़ाई से दूर न हो जाएं। दरअसल इन उपन्यासों का नशा बड़ा जोरदार होता था। एक बार उपन्यास पढ़ना शुरू करता तो उसे खत्म करके ही दम लेता था।’ क्या आपने कुछ ऐसे उपन्यास भी पढ़े जो अश्लील थे? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘हां, कुछ लेखक सेक्स बेचते हैं। ऐसे लोग लुगदी में भी हैं और तथाकथित गंभीर और तथाकथिक स्त्री विमर्श रचनाकारों में भी। अगर इन आलोचकों को अश्लीलता की फिक्र है तो होली और शादी-ब्याह के मौके पर भौंडे गीतों का कारोबार बंद करवाएं। अब काशीनाथ सिंह की काशी का अस्सी को किस श्रेणी में रखा जाए? खुशवंत सिंह के किस्सों को क्या माना जाए?’

लुगदी साहित्य के दीवानों में वे भी रहे जो ठीक से पढ़-लिख नहीं पाते थे। मेरे मित्र की दादी की पढ़ाई कक्षा एक के बाद ही छूट गई। वह लगभग अनपढ़ थीं, लेकिन उपन्यास को लेकर उनकी दीवागनी ऐसी थी कि वह एक-एक शब्द जोड़कर उसका अर्थ निकालती थीं। दरअसल कई छोटी-छोटी नदियां मिलकर एक बड़ी नदी और कई बड़ी-छोटी नदियों का जल इकट्ठा होकर सागर और महासागर बनता है। जीवन के किसी भी अनुशासन में विस्तार या व्यापकता इसी रास्ते आती है। मगर हिंदी के पुरोधा, समीक्षक और आलोचक कई तरह के भेदभावों को जिंदा रखते हुए साहित्य की समृद्घि और साहित्य जगत का विस्तार करना चाहते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि जाति, क्षेत्र, गुट, वरिष्ठ, कनिष्ठ के अलावा सस्ता, महंगा, लोकप्रिय, अलोकप्रिय, गंभीर, हल्का जैसे अनगिनत भेद के बने रहने के चलते हिंदी साहित्य का संसार समय के साथ बड़ा होने के बजाय सिकुड़ता जा रहा है। इन भेदभावों से न ही गंभीर साहित्य का भला हो पा रहा है और न ही पल्प (लुगदी) साहित्य का। हिंदी में इस परिपाटी के लिए कथाकार प्रभात रंजन कहते हैं, ‘सस्ता है, लोकप्रिय है तो लुगदी है। इस तरह की परिभाषा का क्या मतलब? मानो सस्ता होना या लोकप्रिय होना कोई अपराध हो?’ प्रभात लुगदी साहित्य लेखन की प्रतिबद्घता के बारे में बताते हैं, लुगदी साहित्य में एक बड़े लेखक ओमप्रकाश शर्मा हुए जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के मजदूर संगठन अखिल भारतीय मजदूर संघ (एटक) के सदस्य भी थे। ओमप्रकाश शर्मा दिल्ली में अंबा सिनेमा के निकट बिड़ला मिल में मजदूरी करते थे और शाम को प्रतिबद्घता के साथ मजदूरों के लिए उपन्यास लिखा करते थे। उनकी मान्यता यह थी कि इस तरह के साहित्य पढ़ने से उनमें पढ़ने की आदत डलती है और मजदूर अपराध से दूर रहते हैं। आज की तारीख में बता दीजिए कौन साहित्यकार इतनी प्रतिबद्घता के साथ मजदूरों के लिए लिख रहा है? आप उसे गंभीर और लुगदी के चक्कर में एक कौड़ी का लेखक मानने को तैयार नहीं है।’

हिंदी के गंभीर उपन्यासों की तुलना में सुरेंद्र मोहन पाठक और वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास ज्यादा बिकते हैं। दरअसल वेद प्रकाश शर्मा और सुरेंद्र मोहन के उपन्यास के किरदार बहुत सामान्य या असफल किस्म के लोग होते हैं। किसी उपन्यास का पात्र मामूली इंश्योरेंस एजेंट, वकील, पत्रकार होता है। वेद प्रकाश के उपन्यास पर एक सीरियल ‘केशव पंडित’ बना है जिसका मुख्य पात्र केशव वकील हैं। उसने वकालत की कोई पढ़ाई नहीं की है लेकिन अदालत में उसके तर्कों के आगे बड़े-बड़े वकीलों के पसीने छूटते हैं। केशव के तर्कों का जवाब देने के लिए जजों को किताब पढ़ना पढ़ता है। आप ट्रेन या बस में सफर करते हुए अकसर लोगों को ऐसी बातचीत करते हुए सुना होगा कि नेता तो बेकार हैं। इन नेताओं से ज्यादा राजनीति तो मैं जानता हूं। वास्तव में ऐसे सामान्य जीवन के संवाद इन उपन्यासों में मिलते हैं जो आसानी से ‘लूजर क्लास’ के मन में एक किस्म का ‘सेंस ऑफ एचीवमेंट’ पैदा करते हैं।

वेद प्रकाश शर्मा का वर्दी वाला गुंडा उपन्यास लुगदी साहित्य का संभवतः अंतिम सर्वाधिक हिट उपन्यास रहा है। यह उपन्यास राजीव गांधी की हत्या को केंद्र में रखकर लिखा गया है। हालांकि वेद प्रकाश शर्मा इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया के बारे में बताते हैं, ‘मैं एक दिन शाम को घूम रहा था तब एक चौराहे पर पुलिस चौकी के आसपास भीड़ जमा थी और एक पुलिस वाला एक आदमी को डंडा दिखा रहा था। पुलिस के इस तरह के आतंक को लेकर वर्दी वाला गुंडा उपन्यास अस्तित्व में आया।’ इस उपन्यास के प्रचार-प्रसार के लिए उत्तर भारत के शहरों में होर्डिंग्स लगाए गए थे। अग्रिम बुकिंग हुई थी। हालांकि इस तरह के साहित्य का वह स्वर्णिम दौर टीवी पर ढेर सारे जासूसी और फैमिली ड्रामा वाले धारावाहिकों के प्रसारित होने से अब कमजोर होने लगा है। वेद प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक और रीमा भारती का बाजार अभी भी है। हिंदी के बड़े प्रकाशक इस साहित्य को लेकर योजनाएं शुरू कर रहे हैं। इसका मतलब यह लगाया जाना चाहिए कि गंभीर कहा जाने वाला साहित्य पाठकों से दूर हुआ है जबकि लुगदी साहित्य में अभी भी मुनाफे की संभावनाएं बची हुई हैं। वरिष्ठ साहित्यकार और ‘समयांतर’ के संपादक पंकज बिष्ट का कहना है कि आप साहित्य और लुगदी साहित्य को एक-दूसरे के विरोध में खड़ा करके देखें, यह ठीक नहीं है। इस समय लोगों की पढ़ने की आदत ही खत्म हो रही है। गुलशन नंदा के साहित्य में ही नहीं बल्कि उस दौर के किसी भी लेखक की रचनाओं में अश्लीलता नहीं है। आजकल जो साहित्य रचा जा रहा है, वह गुलशन नंदा की रचनाओं से कमतर है। हिंदी में बेस्ट टैलेंट नहीं आ रहा है। मीडियॉकर लोग आ रहे हैं, जो साहित्य में कब्जा जमा रहे हैं। मध्यवर्ग हिंदी सहित अपनी-अपनी भाषाओं से दूर होकर अंग्रेजी में लिखना और बोलना अच्छा समझने लगा है। (साभार: “तहलका” पत्रकारिता विशेषांक)

स्वतंत्र मिश्र अनेक मीडिया संस्थानों में पढ़ाते हैं। वे एक वरिष्ठ और संवेदनशील पत्रकार हैं। लेखों की किताब ‘जल, जंगल और जमीन : उलट, पुलट, पर्यावरण’ प्रकाशित हो चुकी है।

Tags: BooksMainstream LiteraturePopulist LiteratureSwatantra Mishraकिताबेंलुगदीलोकप्रियस्वतंत्र मिश्र
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