राजदीप सरदेसाई
समाचार4मीडिया ब्यूरो
इन दिनों टीवी पर परोसी जा रही न्यू्ज और असली न्यू ज के बीच बहुत बड़ा अंतर है। न्यूतज के नाम पर कई चैनल कुछ भी दिखा रहे हैं। अधिकांश चैनल आपको शोरशराबा, एंटरटेनमेंट और ब्रेकिंग न्यूयज परोस रहे हैं। क्या वे घटना का संदर्भ, उसका विश्लेीषण और जानकारीपरक चीज उपलब्ध् करा पा रहे हैं? वे ऐसा नहीं करते हैं। ऐसे में टीवी के ईकोसिस्ट्म में कमी के कारण पैदा हुए इस गैप को भरने के लिए प्रिंट कंटेंट के पास बड़ा अच्छाम अवसर है। बड़े मुद्दों के बारे में अपनी जानकारी को बढ़ाने के लिए मैं अगले दिन का अखबार पढ़ना चाहता हूं ताकि चीजों को और अच्छी तरह से समझ सकूं
11वीं इंडियन मैगजीन कांग्रेस (IMC) में ‘इंडिया टुडे’ (India Today) के कंसल्टिंग एडिटर राजदीप सरदेसाई ने अपनी पुरानी यादों को भी ताजा किया। दिल्ली- में आयोजित कार्यक्रम में सरदेसाई ने उन पुराने दिनों को याद किया जब वे ‘टाइम्सि ऑफ इंडिया’ (Times of India) के लिए काम करते थे। सरदेसाई ने कार्यक्रम में मौजूद लोगों को बताया, ‘मैंने प्रिंट में अपने कॅरियर की शुरुआत 1988 में की थी और इसके बाद 1994 में टीवी मीडिया की ओर रुख किया।1980 के दशक में ‘टाइम्सु ऑफ इंडिया’ बहुत बड़ा नाम था और शायद आज भी है। लेकिन अंतर सिर्फ इतना है कि यह टीवी में ब्रेकिंग न्यूयज से पहले का युग था। उस जमाने में न ज्यालदा टीवी था, न इंटरनेट और न ही मोबाइल फोन, ऐसे में न्यूसज पर हमारा एकाधिकार होता था। न्यूनज को लेकर जितना इस समय शोरशराबा होता है, उतना तब नहीं था और उस समय ज्याजदा सुकून भी था।’
मैंने न्यू ज के क्षेत्र में काफी लंबा सफर तय किया है। प्रिंट में वर्ष 1988 से शुरुआत करने के बाद वर्ष 1994 में मैं टीवी में आ गया था। उस समय अखबार के पहसले पेज पर जब मेरी बाइलाइन स्टोउरी छपती थी तो यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। उस समय ऐसी खबरें छपती थीं कि कोलाबा बस स्टेइशन पर स्ट्रीपट लाइट काम नहीं कर रही हैं अथवा वीटी स्टे शन के पास सड़क पर हुए गड्ढे नहीं भरे गए हैं, इन खबरों पर तुरंत एक्शन होता था, जिससे काफी संतुष्टि मिलती थी।अब समय बहुत बदल गया है। आजकल के समय को ‘मीडिया 360’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
यानी आप किसी से भी पल भर में संपर्क साध सकते हैं और मिनटों में कहीं से भी दुनियाभर की न्यूयज जुटा सकते हैं। न्यूपज के क्षेत्र में इतनी तेजी से बदलाव हो रहे हैं कि इन दिनों जो न्यूयज दिखाई जा रही है, अक्सेर करीब एक घंटे बाद ही वह पुरानी हो जाती है यानी इतिहास बन जाती है और उसकी जगह दूसरी न्यूपज ले लेती है।इस उदाहरण के द्वारा इसकी बानगी भी देखी जा सकती है।18 दिसंबर को जब गुजरात विधानसभा चुनाव के परिणामों की घोषणा हुई थी, उस दिन सुबह छह बजे से दोपहर के करीब एक बजे तक मैं टीवी पर चुनाव परिणामों के प्रसारण में जुटा हुआ था।
दोपहर में एक से डेढ़ बजे तक मैंने पहले हिन्दी में और इसके बाद अंग्रेजी में ‘फेसबुक लाइव’ किया था। इसके बाद ‘हिन्दुनस्ता न टाइम्सज’ (Hindustan Times) और ‘डेलीओ’ (DailyO) ने मुझसे ओपिनियन आर्टिकल लिखने के लिए कहा, ऐसे में यह दूसरा काम था। हालांकि यह करते हुए मैं पूरा दिन ट्वीट करता रहा था।ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्याि प्रिंट की दुनिया ऐसी दुनिया के लिए प्रासंगिक हो सकती है, जहां पर हर समय ट्विटर मौजूद है। जहां पर लाइव टीवी पर एफआईआर दर्ज की गई है और जहां पर लाखों वेबसाइट्स लगातार आपके ऊपर सूचनाओं की एक तरह से बमबारी कर रही हैं यानी आपके पास सूचनाओं का अपार भंडार मौजूद है।
आज के दौर में जब न्यूबज सचमुच आपकी हथेली में है तो ऐसे में सवाल उठता है कि क्यार ऐसे दौर में मैगजीन के लिए भी कोई जगह है?
हालांकि मेरी नजर में इस सवाल का जवाब हां है। जब सभी स्टॉ कहोल्डकर्स तमाम तरह के बदलावों को स्वींकार करते हुए इसकी निरंतरता को सुनिश्चित रखें तो मैगजीन के लिए काफी स्पेतस है। मैं आपको क्रिकेट जगत के बदलाव से अवगत कराता हूं। आप प्रिंटेड मैगजीन को टेस्टन क्रिकेट सोचकर देखें। आज टी-20 का जमाना है और इसके सामने भी टेस्ट क्रिकेट अपनी उपयोगिता बनाए हुआ है। आज के समय में टेस्टे क्रिकेट की यूएसपी के लिए चार शब्दन कहे जा सकते हैं।
इनमें सबसे पहला है विरासत (legacy) यानी टेस्ट क्रिकेट 1870 के जमाने से चल रहा है, ऐसे में इसमें परंपरागत मूल्या भी जुड़े हुए हैं।
दूसरा है इसका रुतबा (stature) यानी टेस्टन क्रिकेट में बनाए जाने वाले रनों के आधार पर लोग खिलाड़ी का आकलन करते हैं, क्योंtकि उनके लिए यह खेल का उच्च तम स्वएरूप है।तीसरा है स्किल (skill) यानी वैसे तो क्रिकेट के किसी रूप में लिए खिलाड़ी के अंदर स्किल का होना बहुत जरूरी है लेकिन टेस्ट( क्रिकेटर के लिए निश्चित रूप से खास स्किल का होना बहुत ही आवश्य क है।
वहीं, चौथा है यूनिक (unique) यानी कोई भी स्पोनर्टिंग फॉर्मेट ऐसा नहीं है जो पांच दिन खेला जाता हो। यह एक तरह से खेल का मैराथन है।
आजकल ये सभी चीजें प्रिंटेड सामग्री खासकर मैगजीन पर बिल्कुिल सटीक बैठती हैं। उदाहरण के लिए विरासत (legacy) की बात करें तो ‘इंडिया टुडे’ ने कई वर्षों में अपनी यह स्थिति बनाई है और यह काफी पुराना ब्रैंड है। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब मैं हाईस्कूनल में था, तब ‘इंडिया टुडे’ पढ़ता था। इस ब्रैंड के साथ मेरे छात्र जीवन की स्मृातियां जुड़ी हुई हैं।अब बात करते हैं रुतबे (stature) की तो मैं प्रत्येनक सप्ताृह ‘The Economist’ मैगजीन को जरूर पढ़ता हूं क्योंतकि इसका कद काफी बड़ा है और इसे वैश्विक राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर लिखने का बेहतरीन उदाहरण माना जाता है। तीसरी बात स्किल (skill) की करें तो जब मैं न्यू-यॉर्कर ‘New Yorker’ में 20-20 पेज के आर्टिकल पढ़ता हूं तो मुझे पता चलता है कि आखिर कुशल लेखन क्याअ होता है। वहीं, यदि यूनिकनेस की बात करें तो मैं ‘New Yorker’ को इसलिए सबस्क्रा इब करता हूं क्योंहकि पूरी दुनिया में कहीं पर भी इसके जैसा दूसरा कोई नहीं है।
ऐसे में निश्चित रूप से काफी चुनौतियां हैं कि प्रिंट की दुनिया कैसे अपनी विरासत तैयार कर सकती है, कैसे वह अपना रुतबा बढ़ा सकती है, उसके स्किल मे कैसे इजाफा हो सकता है और कैसे वह दूसरों से खुद को अलग दिखा सकती है? अब सवाल यह उठता है कि ऊपर बताए गए मॉडल्सह में से अथवा कुछ अन्यो ऐसे मॉडल्सा हैं जो भारतीय परिदृश्यय के अनुकूल हैं और उन्हेंड स्वींकार किया जा सकता है?अक्समर मैं अपने आप से यह सवाल पूछता हूं कि आखिर क्योंै हमारे पास ‘The Economist’ जैसी ‘Indian economist’ नहीं है। यह ऐसी पत्रिका है जिसे आपके सिरहाने रखे जाने का सम्मासन मिलता है और आप इसमें फख्र महसूस करते हैं। इस पत्रिका की खासियत यह है कि आज के इंफोटेनमेंट के युग में इसे आपके ज्ञान में इजाफा करने के रूप में देखा जाता है।ईमानदारी से कहें तो इन दिनों टीवी पर परोसी जा रही न्यूकज और असली न्यूंज के बीच बहुत बड़ा अंतर है।
न्यू ज के नाम पर कई चैनल कुछ भी दिखा रहे हैं। अधिकांश चैनल आपको शोरशराबा, एंटरटेनमेंट और ब्रेकिंग न्यूहज परोस रहे हैं। क्याभ वे घटना का संदर्भ, उसका विश्लेपषण और जानकारीपरक चीज उपलब्धc करा पा रहे हैं? वे ऐसा नहीं करते हैं। ऐसे में टीवी के ईकोसिस्टरम में कमी के कारण पैदा हुए इस गैप को भरने के लिए प्रिंट कंटेंट के पास बड़ा अच्छाा अवसर है। बड़े मुद्दों के बारे में अपनी जानकारी को बढ़ाने के लिए मैं अगले दिन का अखबार पढ़ना चाहता हूं ताकि चीजों को और अच्छी तरह से समझ सकूं।उदाहरण के लिए- यदि हाल में जजों के बीच हुए विवाद की बात करें इसे एक या दो बाइट के आधार पर पूरी तरह नहीं समझा जा सकता है, इसके लिए विस्ताार की आवश्येकता होती है। इसके अलावा जब भी आपको लगे कि प्रिंटेड सामग्री सही प्रदर्शन नहीं कर पा रही है तो आप इसे मल्टीयमीडिया में तब्दीलल कर सकते हैं, इसके बाद आपको अहसास हो जाएगा कि शब्दों की ताकत कभी खत्म नहीं होती है और शब्दल कभी नहीं मरते हैं। यह सिर्फ इतना ही है कि टेक्नोंलॉजी के द्वारा कंटेंट के प्लेहटफॉर्म्सश बदल रहे हैं। आजकल के पत्रकार को विभिन्ना प्लेतटफॉर्म्स् पर सूचनाओं और जानकारियों को उपलब्ध कराने के लिए तैयार रहना होगा। बड़ी मैगजींस अब वेबसाइट भी तैयार कर रही हैं जो नए यूजर्स का बेस तैयार करती हैं और सबस्क्रिप्शान मॉडल द्वारा बड़े रेवेन्यूर का बेस भी तैयार करती हैं।
हां, एक आर्टिकल की तुलना में विडियो के वायरल होने की ज्यारदा संभावना है लेकिन कौन कहता है कि एक अच्छा, लिखा हुआ आर्टिकल लाखों लोगों द्वारा शेयर नहीं किया जाएगा। हालांकि कमाई को लेकर एक चुनौती हो सकती है लेकिन वॉट्सएप और सोशल मीडिया पर शेयर की वैल्यूय और प्रभाव को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।उदाहरण के लिए यदि जज लोया की बात करें तो यह स्टोरी The Caravan मैगजीन की वेबसाइट ने ब्रेक की थी, यह ऐसी मैगजीन है जिसका सर्कुलेशन काफी सीमित है, पर ये स्टो री चर्चा का केंद्र बिंदु बनी।यदि भाजपा अध्यलक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह की स्टोीरी की बात करें तो यह भी ‘The Wire’ वेबसाइट पर ब्रेक हुई थी और इसने काफी सुर्खियां बटोरी थीं। आधार डाटा लीक होने की खबर भी ‘द ट्ब्यिून’ ने प्रकाशित की थी। चंड़ीगढ़ का यह अखबार इस स्टोंरी के द्वारा देश भर में चर्चित हो गया।
अस्वाशभाविक रूप से, जो टेक्नोालॉजी प्रिंटेड सामग्री के लिए चुनौती के रूप में देखी जा रही है वह विभिन्ना प्लेाटफॉर्म्सप पर इसके प्रभाव को बढा़ने का काम भी कर रही है। इसलिए यदि आप प्रभावी पत्रकारिता करने के लिए तैयार हैं तो प्रिंटेड सामग्री अभी भी काफी प्रासंगिक है। आखिर में इसके लिए कंटेंट अच्छीा क्वॉिलिटी का होना चाहिए क्योंभकि अच्छीग गुणवत्ता वाला कंटेंट हमेशा प्रासंगिक रहेगा और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करेगा।आखिर में मैं एक बात और बताना चाहता हूं कि समय के साथ मुझे पहले पेज पर बाइलाइन मिलने के अवसर बढ़ते गए, टीवी पर बड़ी न्यू ज स्टोेरी को करने का अवसर भी मिला और मेरे ट्विटर फॉलोअर्स की संख्याढ में भी काफी इजाफा हुआ। इसके अलावा मुझे अच्छीह किताबें लिखने का भी अवसर मिला। ऐेसे में क्याय मैं किसी एक माध्य म को छोड़कर दूसरे का चुनाव करूंगा। ऐसा नहीं है और न ही आपको यह करना चाहिए। इस बारे में चिंता करने की बजाय कि अखबार और मैगजीन अप्रासंगिक हैं, आओ उन चुनौतियों को गले लगाएं कि कैसे प्रत्येेक माध्यरम को और प्रासंगिक बनाना है।
साभार : समाचार4मीडिया.कॉम
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