जयश्री एन. जेठवानी और नरेन्द्र नाथ सरकार।
मीडिया के नये परिदृश्य में जन-संपर्क को व्यवहार में लाने वालों के लिए न केवल संवाद में कुशल बल्कि अच्छा रणनीतिकार और समय प्रबंधक भी होना चाहिए। नयी सदी में गति ही सब कुछ होगी। किसी ने ठीक ही कहा है बीसवीं सदी नवीनता की थी इक्कीसवीं सदी सायबर दुनिया और सायबर स्पेस की होगी
भारत में मीडिया परिदृश्य जितना उत्साहजनक उतना ही विरोधाभासी है। समाचार पत्रों की संख्या और गुणवत्ता बढ़ रही किन्तु प्रसार संख्या में वृद्धि की गति नीचे आ रही है। दूसरी तरफ दिन प्रतिदिन सैटेलाइट चैनलों की संख्या, उनके दर्शक और विज्ञापन दरें बढ़ती जा रही है। लेकिन एक साथ अनेक कार्यक्रमों के प्रसारण और दर्शकों की संख्या उसी अनुपात में न बढ़ने के चलते प्रति कार्यक्रम दर्शकों की संख्या कम हो रही है। जो कार्यक्रम अधिक पसंद किया जाता है, उसे विज्ञापन भी अधिक मिलते हैं। साथ ही चैनल सर्फिंग का भी खतरा है क्योंकि जब विज्ञापनों का समूह होता है, दर्शक अन्य चैनलों पर आ रहे कार्यक्रमों को देखने के लिए चैनल सर्फ करते हैं। इस कारणवश मीडिया प्लानरों की नींद उड़ गई है।
रेडियो जिसके 98 प्रतिशत भूभाग तक पहुंच और कवरेज का दावा किया जाता रहा है के श्रोताओं की संख्या में तेजी से कमी आ रही है। नेशनल रीडरशिप सर्वे (एनआरएस) के नीवनतम आंकड़ें आकाशवाणी की 30 प्रतिशत से भ कम श्रोता संख्या की ओर संकेत करते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है स्वतंत्रता की आधी सदी बीत जाने के बाद भी इस जीवंत माध्यम पर सरकार का नियंत्रण है। इलैक्ट्रानिक मीडिया के लिए स्वायत्ता अभी भी दूर की कौड़ी है।
हालांकि सरकार द्वारा संचालित दूरदर्शन (प्रसार भारती बोर्ड की स्थापना के बावजूद) के संदर्भ में यह अधिक महत्व का नहीं रह गया है क्योंकि निजी चैनल दर्शक संख्या के मामले में उससे कड़ी प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।
प्रिंट मीडिया
भारत में लगभग 40,000 समाचारपत्र और पत्र-पत्रिकायें हैं, यह संख्या दुनिया में सर्वाधिक है। भारत फिर भी अपनी दर्जनों भाषाओं और अनेक बोलियों के चलते संवाद करने वालों के लिए दुस्वप्न की तरह है। जहां इसकी धार्मिक और सांस्कृतिक विभिन्नता इसे जीवंत माध्यम बनाती है, वहीं जटिल भी। एक बिलियन से भी अधिक जनसंख्या वाले देश में साक्षरता दर महज 50 प्रतिशत से अधिक है।
प्रेस की पहुंच महानगरों को मिलाकर 67 प्रतिशत जनसंख्या तक है। एनआरएस 98 क आंकड़ों के अनुसार कुल मिलाकर देश भर में इस माध्यम की पहुंच मात्र 34 प्रतिशत है।
हिन्दी और क्षेत्रीय समाचार पत्र अंग्रेजी समाचार पत्रों से आगे है, मिथक जिसे मीडिया प्लानरों को समझना बाकी है।
पिछले एक दशक में रोचक तथ्य यह उभरकर आया है कि अर्थ जगत के समाचारों पर विशेष्ज्ञ जोर है। समाचार पत्रों में इकोनॉमिक टाइम्स, द फाइनेंशियल एक्सप्रेस और बिजनेस स्टैंडर्ड व पत्रिकाओं में बिजनेस इंडिया के सामने मुख्यधारा की प्रिंट मीडिया से किसी तरह की प्रतिस्पर्धा थी ही नहीं, जब ग्राहक को भारतीय अर्थव्यवस्था और व्यवसाय में रूचि रखने वाले तक पहुंच बनानी होती थी। उदारीकरण के बाद पाठकों की स्थिति बदल गई है। लगभग प्रत्येक मुख्यधारा के समाचारपत्र में अर्थ जगत के समाचारों के लिए अलग पृष्ठ आता है। इसके अलावा कुछ समाचारपत्र, पाठक विशेष आकर्षित करने के लिए आटोमोबाइल, आईटी, फैशन, विज्ञापन, विपणन आदि पर अलग से लेख प्रकाशित करने लगे हैं।
रंगीन समाचार पत्रों ने श्वेतश्याम समाचार पत्रों की जगह ले ली है। सप्ताहांत में प्रकाशित होने वाले परिशिष्टों के माध्यम से समाचारपत्र अधिकाधिक पाठकों तक पहुंच बनाने का प्रयास करते हैं। समाचारपत्र अब पिछले कुछ समय से बतौर ब्रांड बेचे जा रहे हैं। द टाइम्स् ऑव इंडिया और द हिंदुस्तान टाइम्स, इडिया टुडे और आउटलुक आदि के इस पूरे परिदृश्य में एक चुभती हुई बात यह है कि सामग्री की गुणवत्ता से अधिक अब समाचारों की पैकेजिंग पर ध्यान है। गंभीरता का अभाव झलकता है। समाचारपत्रों के फीचर पृष्ठ युवाओं को आकर्षित करते लगते हैं, ट्रेंड जिसका मीडिया प्लानर स्वागत कर सकते हैं। आईआरएस 2000 के अनुसार किशोर बड़ी संख्या में अर्थ एवं वित्त से जुड़े समाचारपत्र पढ़ रहे हैं।
इलैक्ट्रानिक मीडिया
टेलीविजन में बूम अचानक आया, सीएनएन ने जिस तरह से खाड़ी युद्ध के विभिन्न पहलुओं का प्रसारण विविधता के साथ किया, बहुतेरे लोग सैटेलाइट टेलीविजन के आकर्षण में बंध गए। भारत सैटेलाइट टेलीविजन की चुनौती के प्रति थोड़ा देर से जागा जिसे यहां ‘आकाश से हमला’ कहा गया। यह ‘कुटीर उद्योग’ से भरे-पूरे माध्यम का दर्जा ले चुका है और हजारों केबल ऑपरेटर सरकार के नियमितीकरण की प्रस्तावित योजना का विरोध करने के लिए एकजुट हो चुके थे। आज टेलीविजन की पहुंच 45 प्रतिशत परिवारों तक है। एक औसत परिवार की पहुंच 40 चैनलों और 750 घंटों की क्रमागत प्रोग्रामिंग तक है। दर्शक इससे अधिक कुछ और नहीं मांग सकते थे। सभी महानगरों में टेलीविजन की पहुंच कुल मिलाकर 93 प्रतिशत से अधिक है। हालांकि जब पूरे देश में पहुंच की बात की जाती है तो वह 45 प्रतिशत ही है, शहरी क्षेत्रों में 76 प्रतिशत और गांवों में 33 प्रतिशत।
1990 के आरंभ में ऐसा लगा जैसे सैटेलाइट चैनलों के लिए बूम टाइम आ गया। कई भारतीय खिलाड़ी भी मैदान में उतर गए। हिन्दुस्तान टाइम्स के होम टीवी और बिजनेस इंडिया प्रकाशन के बीटीवी के अलावा कई अन्य क्षेत्रीय खिलाड़ी जिनमें सन टीवी प्रमुख था सामने आ गए। सैटेलाइट चैनलों को हालांकि भारतीय ट्रासंपॉडरों के उपयोग की अनुमति नहीं थी। इस काम के लिए इन कंपनियों को अन्य एशियाई देशों के पास जाना पड़ा। फिर राज्य नियंत्रित टेलीविजन और रेडियो की स्वायत्ता का प्रश्न सामने आया। छह सरकारों के सामने यह प्रश्न आने के बाद भी स्वायत्ता आज तक सपना है। यहां तक कि, भाजपा की सरकार में पूर्व सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने एक ऐसी संस्था को जिसमें करदाताओं का 1,00,000 करोड़ रूपया लगा हुआ है को स्वायत्ता दिए जाने पर ही सवाल खड़ा कर दिया, विशेषकर तब, जब निजी क्षेत्र में पहले से ही कई निजी चैनल मौजूद हैं। अब वह कार्यों में स्वायत्ता की बात करते हैं।
विभिन्न सरकारों की इस शक्तिशाली माध्यम का उपायोग प्रॉपगैंडा के लिए करने की आलोचना होती रही है। कुछ भी कहें दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों की दर्शक संख्या, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में सभी सैटेलाइट चैनलों की कुल दर्शक संख्या से कहीं अधिक है और यही तथ्य उसे जीवंतता प्रदान करता है। अधिकतर 24 घंटों के चैनलों में, व्यापार कार्यक्रम होते हैं जिनके लिए कॉरपोरेट स्टोरियां चाहिए होती है। जन-संपर्क को व्यवहार में लेने वाले लोग सक्रिय रहकर विभिन्न चैनलों की क्षमता और पहुंच को समझते हुए अपने संस्थान की सकारात्मक छवि प्रस्तुत करने के लिए इनका सहारा ले सकते हैं। इसी प्रकार कई सारे 24 घंटे के न्यूज चैनल हैं जिन्हें न्यूज बुलेटिनों के मध्य सॉफ्ट स्टोरी की दरकार रहती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है: किसी आपात स्थिति का इंतजार किए बिना, जिसे मीडिया कवर करना चाहेगा, बल्कि अपने संस्थान के बारे में रूचिकर स्टोरी पर ध्यान केन्द्रित करने के अवसर तलाशने चाहिए। यह उत्पादों में सुधार से मील के पत्थर और मानवीय कोण वाली स्टोरी हो सकती है। इतने सारे चैनलों के होते हुए, विभिन्न चैनलों में सही व्यक्तियों की पहचान और स्टेशनों की तकनीकी आवश्यकताओं का ज्ञान होना महत्वपूर्ण है।
एक समय में रेडियो की पहुंच 98 प्रतिशत थी लेकिन दुर्भाग्यवश वह लगातार कम होती जा रही है। आधिकरिक माध्यम होने के कारण, ऊपर बैठे लोगों के लिए यह स्वीकार करना बेहद मुश्किल है। हालांकि, इस माध्यम को खोने से बचाने के लिए प्रयास जरूरी है, जो संवाद का बड़ा उपकरण साबित होने की क्षमता रखता है।
नेशनल रीडरशिप सर्वे के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार रेडियो की पहुंच सभी महानगरों में कुल मिलाकर 25 प्रतिशत है। अखिल भारतीय स्तर पर यह 12 प्रतिशत जिसमें शहरी स्तर पर 31 और ग्रामीण स्तर पर 5 प्रतिशत है। विश्व में रेडियो स्वामित्व का स्तर सबसे न्यूनतम प्रति सौ मात्र 4.4 है।
एफएम रेडियो का प्रदर्शन बेहतर है लेकिन उसकी पहुंच महानगरों तक सीमित है। हालांकि इस सबके बीच भी उम्मीद की एक झलक है। वर्ष 2001-02 में 40 शहरों में 100 रेडियो चैनल थे। सिर्फ दिल्ली में आधे दर्जन से अधिक एफएम स्टेशन हैं।
जन-संपर्क को व्यवहार में लेने वाले अपना काम वैज्ञानिक तरीके से कर सकें इसके लिए उनकी मीडिया के डाटाबेस तक पहुंच होना जरूरी है।
जनगणना: प्रत्येक दस वर्ष में होने वाली जनगणना संभवत: भारतीयों के बारे में जानकारी प्रदान करने वाली सबसे वृहद डाटाबेस है। इसमें जनगणना, साक्षरता दर, परिवार का आकार-प्रकार, धर्म, जाति आदि दिया रहता है।
वार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण: यह डाटाबेस सामाजिक आर्थिक वर्गीकरण, आय और रोजगार पर आधारित औद्योगिक सर्वेक्षण कराती है।
भारत वार्षिकी: सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार इसे प्रत्येक वर्ष प्रकाशित करता है। यह शासन, प्रगति आदि के विभिन्न पहलुओं पर आंकड़ों की झलक देती है। आंकड़ें विभिन्न सरकारी स्रोतों से एकत्रित किए जाने के कारण विश्वास योग्य और सही माने जा सकते हैं।
इंफा : द इंडियन न्यूज एंड फीचर्स अलायंस इयर बुक जिसे उसके उपनाम इंफा से जाना जाता है, में विभिन्न समाचारपत्रों और मैगजीनों के बारे में विस्तृत जानकारी रहती है। इसके अंदर भारत के बारे में प्राथमिक जानकारी, प्रेस, विपणन और विज्ञापन में कौन क्या है दिया रहता है। इसमें प्रसार संख्या, विभिन्न संस्करणों, मेकेनिकल डाटा और विभिन्न प्रकाशनों में महत्वपूर्ण व्यक्तियों के बारे में जानकारी दी रहती है।
एबीसी: ऑडिट ब्यूरो ऑव सर्कुलेशन जो प्रकाशकों और विज्ञापन एजेंसियों के सहयोग से अस्तित्व में आया विज्ञापनदाताओं को अपने सदस्य प्रकाशकों के प्रसार संख्या के बारे में विश्वसनीय आंकड़ें उपलब्ध कराता है।
आईएनएस: इसे पहले इंडिया एंड इस्टर्न न्यूजपेपर सोसायटी हैंडबुक या आईईएनएसव के नाम से जाना जाता था, आईएनएस अपने सदस्य समाचारपत्रों के बारे में विस्तृत आंकड़ें उपलब्ध कराता है। आईएनएस कुछ नियमों व शर्तों के आधार पर विज्ञापन एजेंसियों को मान्यता प्रदान करता है। समाचार पत्रों से उन्हीं एजेंसियों को क्रेडिट सुविधा मिलती है जो आईएनएस से मान्यता प्राप्त है। आईएनएस में उसके सदस्य प्रकाशकों के मुख्यालय और पंजीकृत कार्यालयों के अलावा, विभिन्न प्रकाशनों के संस्करण, कवर प्राइस, जारी होने की तिथि, और विभिन्न केन्द्रों पर प्रतिनिधि प्रमुख व्यक्ति, प्रसार और विज्ञापन दरों से संबंधित जानकारी मिल जाती है।
एनआरएस: नेशनल रीडरशिप सर्वे उत्पाद-उपभोक्ता के मध्य संबंध, विभिन्न वर्गों के मध्य उपभोग और स्वामित्व पैटर्न एवं उनकी वरीयतायें, मीडिया को दिए जाने वाले घंटे और वर्गों के आधार पर पाठक संख्या और प्रत्येक वर्ग के आकार की जानकारी देता है।
आईएनएस: बहुत कुछ मिलता-जुलता लेकिन इंडियन रीडरशिप सर्वे एनआरएस से इस मायने में अलग होने का दावा करता है कि वह 12 वर्ष से अधिक आयु वालों का दृष्टिकोण सामने रखने के अलावा वर्ष के दस माह तक चलने वाला नियमित सर्वेक्षण है वह बहु-मीडिया मूल्यांकन और उत्पादन मीडिया संबंधों को सामने रखता है।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भी दो हैंडबुक प्रकाशित करता है- टीवी इंडिया और रेडियो हैंडबुक। टीवी -इंडिया में कलर और ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन सेटों की अनुमानित संख्या, ट्रांसमिशन केन्द्रों की सूची, उनके चालू होने की तिथि, उनकी कवरेज/पहुंच, निर्माण केन्द्रों की सूची, दूरदर्शन की आय और भविष्य की योजना दी रहती है।
रेडियो हैंडबुक में विभिन्न विविध भारती केन्द्र और उनकी पहुंच, प्रमुख चैनल और उनकी पहुंच, प्रोग्रामिंग विकल्प, विज्ञापन दरें, आकाशवाणी में कौन क्या है, नियम और प्रक्रियाएं, श्रोताओं की संख्या और चुने हुए आकाशवाणी केन्द्रों का ढांचा एवं आकाशवाणी की प्रसारण और विज्ञापन संहिता संबंधी जानकारी दी गई रहती है। इतनी सारी जानकारी होने पर जन-संपर्क के पेशे से जुड़ा कोई भी व्यक्ति आत्मविश्वास अनुभव करेगा और विभिन्न तरह के मीडिया और उनकी क्षमताओं के बारे में निश्चिंत रहेगा।
इंटरनेट वेब पत्रकारिता और वेब विज्ञापन भविष्य का मीडिया है। एनआरएस 1999 के अनुसार शहरी भारत में 1.26 करोड़ से भी अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं। उद्योग के आंकडों में से एक के मुताबिक लगभग सौ ऐसी भारतीय/भारत आधारित साइटें हैं जिन्हें हर माह 1,00,000 पेज व्यू मिलते हैं, दर्शकों को आकर्षित करने के लिए अधिकतम आवश्यकता। इंटरनेट कनेक्शन लोगों के संवाद करने के तौर-तरीके बदल रहे हैं। वह मास मीडिया भले ही न बने लेकिन उनकी संवाद क्षमता को नकारने का व्यावसायिक जोखिम और लागत वैयक्तिक तौर पर ही उठाया जा सकता है। जन-संपर्क पेशेवरों को अपने संस्थान के लिए व्यवसाय व प्रतिभा आकर्षित करने के लिए वेब पेजों की योजना बनाना जरूरी है।
मीडिया के नये परिदृश्य में जन-संपर्क को व्यवहार में लाने वालों के लिए न केवल संवाद में कुशल बल्कि अच्छा रणनीतिकार और समय प्रबंधक भी होना चाहिए। नयी सदी में गति ही सब कुछ होगी। किसी ने ठीक ही कहा है बीसवीं सदी नवीनता की थी इक्कीसवीं सदी सायबर दुनिया और सायबर स्पेस की होगी।
प्रो. जयश्री जेठवानी दिल्ली विश्वविद्यालय, हिंदू कॉलेज की छात्रा रही हैं जहां से उन्होने राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर किया। उन्होनें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट किया। उनका शोधपत्र संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी तथा भारत में चुनाव अभियानों मे जनसंचार माध्यमों की भूमिका तथा प्रभाव, पर था। इस पर विस्तृत अनुसंधान के लिए उन्होनें उपर्युक्त देशों की यात्रा की। डॉ0 जेठवानी ने भारत तथा भारत से बाहर भी विज्ञापन, जन-सम्पर्क एवं पत्रकारिता का अध्ययन किया है। ”जन-सम्पर्क : संकल्पनाएं, रणनीतियां एवं उपकरण” की सहलेखिका होने के साथ-साथ उन्होनें ”विज्ञापन” (एडवर्टाइजिंग) नामक पुस्तक भी लिखी है जो विज्ञापन प्रबंधन के छात्रों के बीच पर्याप्त रूप से लोकप्रिय है। वर्तमान में डॉ0 जेठवानी बहुप्रतिष्ठित भारतीय जनसंचार संस्थान में विज्ञापन एवं जन-सम्पर्क विभाग में प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष हैं।
प्रो. नरेन्द्र नाथ सरकार एक अग्रणी ग्राफिक डिजाइनर हैं और दो दशकों से भी अधिक समय से आई आई एम सी में ग्राफिक्स और प्रोडक्शन पढ़ाते रहे हैं। व्यापक रूप से प्रशंसित पुस्तकों ”आर्ट ऐंड प्रोडक्शन” तथा ”डिजाइनिंग प्रिंट कम्युनिकेशन” के लेखक प्रो. सरकार को तकनीकी विषयों को छात्रों एवं व्यवसाय कर्मियों के बीच इतना रोचक बनाने का श्रेय प्राप्त है। प्रो0 सरकार अनेक विश्वविद्यालयों एवं संस्थाओं में ‘विजिटिंग फैकल्टी’ हैं। शिक्षण के क्षेत्र में प्रवेश से पूर्व 20 वर्षों से अधिक समय तक ग्राफिक डिजाइनर के कार्य व्यवसाय से सक्रिय तौर पर जुड़े रहे हैं।