विकास कुमार।
श्रीराम सेंटर के गेट से निकलते ही सामने सड़क किनारे लगी किताबों की एक दुकान पर नजर बरबस ही ठहर जाती है। एक अधेड़ उम्र की महिला ग्राहकों को किताबें दिखाने और बेचने में व्यस्त है। कुछ साल पहले जिंदगी ऐसी नहीं थी। श्रीराम सेंटर के अंदर वाणी प्रकाशन की दुकान में कभी वे नौकरी करती थीं। दुकान बंद हुई तो वाणी प्रकाशन ने उनसे किनारा किया। फिर ज्ञानपीठ प्रकाशन में नौकरी लग गई लेकिन यहां भी उनसे किनारा कर लिया गया। इन घटनाओं ने उन्हें अपनी जिंदगी की इबारत अपने दम पर लिखने को मजबूर कर दिया और सड़क किनारे ही उन्होंने साहित्य की दुकान सजा ली
राजधानी दिल्ली का सांस्कृतिक केंद्र है मंडी हाउस और उसके आसपास का इलाका। शाम के वक्त यह इलाका एक साथ कई अलग-अलग तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों से गुलजार रहता है। ऐसी ही एक शाम को मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर के बाहर काफी चहलपहल है। स्ट्रीट लाइट की पीली रौशनी में कई अलग-अलग गुटों में खड़े लोग चाय-समोसे के साथ बातचीत में व्यस्त हैं। इसी पीली रोशनी के तले एक अधेड़ महिला तमाम साहित्यिक किताबों के साथ एक पेड़ के नीचे बैठी हंै। यह रौशनी उनके लिए काफी नहीं थी इसलिए उन्होंने चाइनीज लैंप भी जला रखा था। लैंप की रौशनी में वो किताबों को सजा रही हैं। उनके सामने कई ग्राहक खड़े हैं। कोई निर्मल वर्मा की ‘वे दिन’ मांग रहा है तो किसी को गालिब का संपूर्ण संकलन चाहिए। वो एक-एक कर सभी ग्राहकों को उनकी मांगी किताब पकड़ा रही हैं। खरीददारों की उनसे मोलभाव करने की परंपरा भी जारी है। इन सबके बीच रात हो चली है। आठ बजने को है। अब वह किताबों के बीच से निकलकर पास ही खड़ी अपनी स्कूटी पर आकर बैठ गई हैं।
मंडी हाउस के इस अति व्यस्ततम इलाके में करीब-करीब तीन हजार किताबों के साथ हर रोज बैठनेवाली इस महिला का नाम है, संजना तिवारी। 40 वर्षीय संजना अपने पति और दो बच्चों के साथ दिल्ली के करावल नगर में रहती हैं। कुछ समय पहले संजना श्रीराम सेंटर के अंदर स्थित वाणी प्रकाशन की दुकान में बतौर सेल्स इंचार्ज काम करती थीं। इसके लिए इन्हें वाणी प्रकाशन से हर महीने 4,500 रुपये मिलते थे। जिंदगी गुलजार थी, लेकिन 29 नवंबर 2008 को वाणी प्रकाशन की यह दुकान किन्हीं कारणों से बंद हो गई। इसी के साथ एक साधारण सेल्स इंचार्ज की जिंदगी में उताव-चढ़ाव और उथल-पुथल ने दस्तक दी।
इस उताव-चढ़ाव के बारे में बात करने से पहले संजना एक शर्त रखती हैं। वो कहती हैं कि शाम का वक्त है, ग्राहक आएंगे। जब आएंगे तो मैं आपको रोक दूंगी। इस शर्त के साथ हमारी बातचीत शुरू होती है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि आप इन साहित्यिक किताबों के साथ यूं सड़क किनारे बैठी हैं। वो कहती हैं, ‘वाणी प्रकाशन की दुकान बंद हुई तो मैं 2009 के फरवरी महीने में ज्ञानपीठ प्रकाशन में काम करने लगी। वहां छह महीने काम भी किया। लेकिन एक दिन ज्ञानपीठवालों ने कहा कि मैं एक कागज पर यह लिख दूं कि इस नौकरी की मुझे जरूरत नहीं है और मैं अपनी मर्जी से यह नौकरी छोड़ रही हूं। हालांकि तब मुझे उस नौकरी की बहुत जरूरत थी लेकिन मैंने उन लोगों के मन मुताबिक काम किया और नौकरी छोड़ आई।’
साल भर के अंदर ही संजना दोबारा सड़क पर आ गई थीं। इस बार कई साल लग गए नौकरी खोजने में लेकिन नौकरी नहीं मिली। इस दौरान संजना ने कम्प्यूटर चलाने के साथ उस पर किताब का पेज बनाना भी सीख लिया। फिर भी नौकरी नहीं मिली। दिन गुजरे 2009 से 2013 आ गया। लेकिन संजना अपने लिए एक नई नौकरी नहीं खोज सकीं। इन पांच सालों के दौरान परिवार की हालत भी लगातार खराब होती गई। इस बारे में बात करते हुए संजना हल्के से मुस्कुराते हुए कहती हैं, ‘जब तक जिंदगी है तभी तक संघर्ष है। एक बार जिंदगी खत्म हो गई तो सारा का सारा संघर्ष भी खत्म हो जाएगा। सो मुझे अपने संघर्ष से कोई निराशा नहीं है। इस दुनिया में अपने परिवार को पालना सबसे मुश्किल काम है। मेरे दो बच्चे हैं और मैं उन्हें एक पल के लिए भी निराश नहीं देख सकती। शायद कोई भी मां अपने बच्चों को उदास नहीं देख सकती।’
वे आगे कहती हैं, ‘…लेकिन जब ज्ञानपीठ प्रकाशन से मेरी नौकरी गई और मैं बेरोजगार थी तो घर चलाने में बहुत दिक्कत होने लगी। बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होने लगी। फिर मैंने फैसला किया, जो पिछले कई सालों से लेना चाह रही थी लेकिन एक अनजाने डर की वजह से बार-बार रुक जाती थी। अपना काम शुरू करने का मन था और फिर श्रीराम सेंटर के बाहर सड़क किनारे किताबों की दुकान लगाने का फैसला कर लिया’। पिछले साल 14 अगस्त को अंजना से पहली दफा कुछेक किताबों के साथ अपना काम शुरू किया।
आज इनके पास तीन से चार हजार किताबें हैं। वो हर रोज अपनी स्कूटी से आती हैं और पास के एक कमरे से सभी किताबें लाकर यहां अपनी दुकान सजाती हैं और रात में किताबें समेटकर वापस घर लौट जाती हैं। संजना बताती हैं, ‘हर रोज इतनी किताबों को लाना, लगाना और फिर इन्हें उठाकर रखना आसान काम तो है नहीं लेकिन कर भी क्या सकते हैं। अब तो मुझे इस काम में मजा आने लगा है। अब इसमें कोई परेशानी भी नहीं होती। यहां लोग भी बहुत अच्छे हैं, अगर दिन में थोड़ी देर के लिए मुझे इधर-उधर जाना होता है तो मैं इनलोगों के भरोसे दुकान छोड़कर चली जाती हूं। रात को नौ-दस बजे मैं अपनी दुकान बढ़ाती हूं लेकिन आजतक किसी ने किसी भी तरह से परेशान नहीं किया। हां, जब एक-दो दफा दिल्ली पुलिस के लोग आए तो इन्हीं बच्चों ने मेरी दुकान बचाई। यही लोग मेरे ग्राहक हैं और इन्हीं लोगों की मदद से मैं अपनी दुकान चला पा रही हूं।’
हर बात मुस्कुराते हुए बोलनेवाली संजना के मन में किसी के लिए कोई कड़वाहट नहीं है। न तो उन्हें वाणी प्रकाशन से नौकरी जाने की शिकायत है और न ही ज्ञानपीठ प्रकाशन से नौकरी छोड़ने का मलाल। वे कहती हैं, ‘शिकायत क्या करना। उनकी नौकरी थी सो जब उन्हें ठीक लगा हटा दिया। अगर वे ऐसा न करते तो आज मैं अपना काम करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। जो हुआ अच्छा हुआ।’
कहानी में कविता-सी लय हो और कविता में कहानी हो। पुराने लेखकों के लेखन में इसकी झलक मिलती है लेकिन आज किताबों में वैसा असर नहीं होता।
मूलत: बिहार के सीवान जिले से आनेवाली संजना की खुद की पढ़ाई-लिखाई केवल 12वीं तक हुई है। इसके बाद घरवालों ने उनकी शादी राधेश्याम तिवारी से करवा दी थी। 50 वर्षीय राधेश्याम तिवारी देश के एक बड़े हिंदी अखबार में पिछले कई सालों से पत्रकार हैं लेकिन उनकी तनख्वाह इतनी नहीं कि वह अकेले परिवार का खर्च चला सकें। संजना के मुताबिक, ‘वे एक ऐसे इंसान हैं जिसकी वजह से वह यह सब कर पा रही हैं।’ इस तरह खुले में दुकान लगाने से परिवार या पति को कोई एतराज, के सवाल पर वे कहती हैं, ‘नहीं… मेरे पति या मेरे बच्चों को कभी कोई एतराज नहीं हुआ। हां, कुछ साल पहले सीवान में रह रहे मेरे छोटे भाई को इससे दिक्कत हुई थी और उसने मुझसे कहा था कि मैं किसी को न बताऊं कि मैं उसकी बहन हूं। हालांकि वो मुझसे बहुत छोटा है और मुझे उससे यह सब सुनना अच्छा भी नहीं लगा था लेकिन मैंने उसे तभी कह दिया था। ठीक है, मैं नहीं कहूंगी।’
आज की तारीख में संजना के पास हर वो किताब है जिसे मंडी हाउस आने-जानेवाला व्यक्ति खोज या मांग सकता है। महीने में वे 70 से 75 हजार रुपये की किताबें बेच लेती हैं। बतौर मेहनताना इन्हें इस पर 20 प्रतिशत मिलता है। क्या इंटरनेट के आने से लोग किताबें खरीदना पसंद नहीं कर रहे हैं? इसके जवाब में वे कहती हैं, ‘मुझे ऐसा नहीं लगता। आज से आठ साल पहले जब मैं यहीं वाणी प्रकाशन की नौकरी करती थी तो महीने में 30 या 40 हजार रुपये की किताबें बिकती थीं आज मैं 70 से 75 हजार रुपये की किताबें बेच रही हूं।
अगर इंटरनेट की वजह से फर्क पड़ना होता तो बिक्री घटनी चाहिए थी न? लेकिन ऐसा नहीं हुआ? मैं पहले से ज्यादा किताबें बेच रही हूं। मुझे लगता है कि आज भी पाठक किताब खरीदने से पहले उसे हाथ में उठाकर उलटना-पलटना चाहता है।’ संजना ऐसी पुस्तक विक्रेता हैं जो न सिर्फ किताबें बेचती है, बल्कि उन्हें पढ़ना भी पसंद है। निर्मल वर्मा, प्रेमचंद, रेणु से लेकर तुलसीराम और टीवी पत्रकार रवीश कुमार की हालिया किताब ‘इश्क में शहर होना’ को उन्होंने पढ़ा है। सारी किताबें पढ़ने के सवाल पर संजना कहती हैं, ‘न, न… सारी नहीं कुछेक तो जरूर पढ़ती हूं। इसका दोहरा फायदा है। एक, किताब के बारे में पाठकों को अच्छे से समझा पाती हूं और दूसरी, राधेश्याम जी किताबों की समीक्षा भी लिखते हैं सो उनकी भी मदद कर देती हूं, जिससे उनका काम आसान हो जाता है।’
तकरीबन ढाई-तीन घंटे उनकी दुकान पर रहने पर एक बात साफ समझ आ जाती है कि वहां आनेवाले ज्यादातर ग्राहक आज भी प्रेमचंद, गुलजार, गालिब, इस्मत चुगताई और मंटो की किताबें खोज रहे हैं। हाल में प्रकाशित किताबों को कोई खोजता हुआ नहीं दिखता। सिर्फ पुराने लेखकों की ही किताब रखने के सवाल पर वे तंज कसते हुए कहती हैं, ‘पुराने लेखक? हिंदी में यही लेखन है और यही लेखक हैं। नया तो कुछ लिखा ही नहीं जा रहा है। कुछेक लेखकों को छोड़ दें तो बाकी तो पुस्तकालयों में सहेजने के लिए ही लिखा और छापा जा रहा है।’ वे आगे कहती हैं, ‘देखिए… हम पाठक को तभी बांध सकते हैं जब लेखन में दम हो। कहानी में कविता-सी लय हो और कविता में कहानी हो।पुराने लेखकों के लेखन में इसकी झलक मिलती है लेकिन आज की ज्यादातर किताबों में वैसा असर नहीं होता।’
संजना का दावा है कि हाल के वर्षों में प्रकाशित किताबों में तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ और व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी का व्यंग्य ‘हम न मरब’ पाठकों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। वहीं टीवी पत्रकार रवीश कुमार की किताब ‘इश्क में शहर होना’ की भी पूछपरख है। फिलहाल संजना को बरसात के दिनों में अपनी दुकान लगाने को लेकर परेशानी का सामना करना पड़ता है। पिछले साल दिसंबर की बेमौसम बरसात में इनकी काफी किताबें भीग गई थीं। आज भी वे सारी बेकार पड़ी हैं। संजना बरसात से बचने का रास्ता जरूर खोज रही हैं लेकिन इससे वे परेशान बिल्कुल नहीं हैं। वे कहती हैं, ‘हर छोटी, बड़ी बात पर परेशान नहीं हुआ जाता। परेशानी में समस्या का हल खोजना मुश्किल होता है। यह आराम से किया जा सकता है। वैसे भी पिछले कई वर्षों में इतनी परेशानियां आईं कि उनके आगे ये सब तो छोटी लगती हैं।’
संजना के चेहरे पर एक बार फिर वही हल्की मुस्कान छा जाती है जिसके साथ मैं उन्हें पिछले कई घंटो से देख रहा हूं। इसी मुस्कान के साथ वो द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की कविता ‘वीर तुम बढ़े चलो’ की कुछ पंक्तियां बोलती हैं- सामने पहाड़ हो / सिंह की दहाड़ हो / तुम निडर डरो नहीं / तुम निडर डटो वहीं / वीर तुम बढ़े चलो! (साभार: “तहलका” पत्रकारिता विशेषांक)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)