शालिनी जोशी।
यहां लोगों का, मस्तिष्क, मस्तिष्क से संचार करता है
काला गोरे से नहीं, यहां कोई रंगभेद नहीं
आदमी औरत से नहीं, यहां कोई लिंगभेद नहीं
युवा बुज़ुर्ग से नहीं, यहां कोई उम्र सीमा नहीं
छोटा लंबे से नहीं,
ख़ूबसूरत साधारण से नहीं, यहां कोई रूप नहीं
यहां सिर्फ़ विचार का विचार से, सोच का सोच से संवाद है
सभी भेदभाव से परे है ये
यहां सिर्फ़ दिमाग हैं, सिर्फ़ और सिर्फ़ दिमाग
आख़िर ये कौन सी जगह है, क्या ये यूटोपिया है?
नहीं। नहीं।
ये इंटरनेट है। इंटरनेट और इंटरनेट।।
(एमसीआई कम्युनिकेशन कॉरपोरेशन का टीवी विज्ञापन,1997)
किसी संदेश का सबसे ज़्यादा दोहराव विज्ञापन में होता है और ये कहा जाता है कि बार-बार एक संदेश को देखने-सुनने से उस संदेश के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि विकसित नहीं हो पाती। आज अधिकांश लोग इंटरनेट का बखान लगभग ऐसे ही कर रहे हैं। क्या ये मान लिया जाए कि इंटरनेट वास्तव में यूटोपिया है? क्या इंटरनेट एक आदर्श समतामूलक और लोकतांत्रिक व्यवस्था का माध्यम है? इन प्रश्नों पर चर्चा करने के लिये सोशल मीडिया के संदर्भ में भी उन छह सवालों को उठाना प्रासंगिक होगा जो नील पोस्टमैन ने मीडिया की बदलती तकनीक के संदर्भ में उठाए थे। चर्चित पुस्तक “अम्युजिंग अवरसेल्फ़्स टू डेथ” के लेखक, अमेरिकी मीडिया स्कॉलर नील पोस्टमैन ने 1998 में एक व्याख्यान में ये मानीख़ेज़ सवाल उठाए थेः
1. वो कौन सी समस्या है जिसका समाधान इस नई तकनीक से होगा?
2. वो किसकी समस्या है?
3. पुरानी समस्या का समाधान करने से कौन सी नई समस्या पैदा होगी?
4. कौन से लोगों और संस्थाओं को इससे गंभीर रूप से नुकसान होगा?
5. इस तकनीकी परिवर्तन से किस तरह के भाषाई परिवर्तन हो रहे हैं?
6. आर्थिक और राजनैतिक सत्ता के कौन से नये स्त्रोत उभरेंगे?
नई मीडिया तकनीक के व्यापक प्रसार ने इन कुछ बेहद महत्त्वपूर्ण सवालों को जन्म दिया है और न सिर्फ़ अध्ययन के लिहाज से बल्कि जागरूक उपभोक्ता और नागरिक होने के नाते भी इन सवालों की पहचान करना ज़रूरी है।
परंपरागत मीडिया व्यवस्था में लोग सूचना और समाचार के लिये और विचार-अभिव्यक्ति के लिये समाचार संगठनों या जनसंचार संस्थाओं पर निर्भर हैं। इस व्यवस्था में रिपोर्टर-संपादक और मालिक की ‘गेटकीपिंग’ की चयन और उन्मूलन की (सेलेक्शन और ओमीशन) व्यवस्था से छनकर ही सूचना का प्रवाह होता है। इसमें कुछ लोगों और संस्थाओं के पास ही सूचना की संपन्नता है और शेष उसके प्राप्तकर्ता हैं। इस संदर्भ में नया मीडिया एक नये ‘सूचना-लोकतंत्र’ का वाहक है जिसमें सूचना के निर्माण, प्रसारण और वितरण में आम लोगों की भी भागीदारी है और ये एकतरफ़ा नहीं है। गेटकीपिंग से परे वो समाज में सूचना के मुक्त प्रवाह का माध्यम नज़र आता है और बहस और विमर्श की ये स्वतंत्रता लोकतंत्र के लिये आदर्श है। इंटरनेट के पहले अख़बार, टेलीविज़न और रेडियो पर लोगों के लिये इस तरह से स्थान उपलब्ध नहीं थे जहां वे अपनी ख़बरों, टिप्पणियों और विचारों को साझा कर सकते थे। लेकिन नया मीडिया उन्हें ये स्थान देता है और गेटकीपर की व्यवस्था की अधीनता से मुक्त करता है। इस तरह से तकनीकी दृष्टि से सबके लिये सुलभ इंटरनेट ने विचार और अभिव्यक्ति के लिये ‘जन संचार संस्थाओं’ पर निर्भरता को ख़त्म कर दिया है। वैश्विक स्तर पर देखें तो 2011 की अरब क्रांति हो या अमेरिका का ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन हो या 2014 में हॉंगकॉंग की अंब्रेला क्रांति- हर आंदोलन में इंटरनेट के एक प्रखर औजार बना है।
हॉंगकॉंग में संपूर्ण लोकतंत्र की स्थापना के लिये चल रही अंब्रेला क्रांति के नवउभार में इंटरनेट तकनीक का अभूतपूर्व इस्तेमाल किया गया है। न सिर्फ़ फ़ेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम का बल्कि मेसेजिंग ऐप्स जैसे व्हाट्स अप, फ़ायर चार्ट और टेलीग्राम मेसेंजर का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा रहा है। चीन को हारकर फ़ोटो शेयरिंग साइट इंस्टाग्राम को ब्लॉक करना पड़ा। डिजीटल ऐक्टिविस्ट, आंदोलित अवाम को आकर्षित करने के लिये इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स के इस्तेमाल को लगातार बेहतर बना रहे हैं।
अवसर और संसाधन के असंतुलन
लेकिन सवाल ये है कि क्या ये अवसर सबके लिये समान है या सीमित लोगों तक ही सीमित है। सोशल मीडिया पर लोकतंत्र के कथित उत्सव के आड़े आता है डिजीटल विभाजन और मीडिया निरक्षरता। मीडिया साक्षरता का अर्थ है मीडिया का इस्तेमाल करने, उसका विश्लेषण करने और उसका मूल्यांकन करने की क्षमता और कौशल। (टाइनर,1998) भारत जैसे देश में जहां निरक्षरता ही अपनेआप में एक समस्या है वहां मीडिया साक्षरता दूर की कौड़ी है। डिजीटल मीडिया जहां सूचना के मुक्त प्रवाह का वाहक है वहीं उसने एक डिजीटल विभाजन भी पैदा किया है।
सवा अरब आबादी में अभी गहरा डिजीटल विभाजन है जो अधोगामी और ऊर्ध्वगामी दोनों ही है। 2014 के आंकड़ों के अनुसार 80 करोड़ की वयस्क आबादी में सिर्फ़ 20 करोड़ के पास ही इंटरनेट उपलब्धता है और इनमें से भी 10 करोड़ ही इंटरनेट के सक्रिय यूजर हैं। ये कोई उत्साहजनक तस्वीर नहीं है। महिलाएं जो कि आबादी का 49 फ़ीसदी हैं उनमें से कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश सार्वजनिक वजहों से सक्रिय नहीं है। इसका कारण हैं वे सामाजिक-आर्थिक बाधाएं जो महिलाओं को अक्षम और गौण बनाए रखती हैं।
जो लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कंप्यूटर या मोबाइल पर कर पाते हैं उनमें से भी सभी इतने सक्षम नहीं कि वे प्राप्त संदेशों का विश्लेषण और मूल्यांकन कर सकें। कह सकते हैं कि नये मीडिया ने एक स्तर पर सूचना की विषमता की समस्या का निदान किया तो दूसरे स्तर पर समाज में नया वर्ग भेद पैदा कियाः डिजीटल संपन्न और डिजीटल विपन्न लोगों का।
सोशल सामाजिकता की “अ-सामाजिकता”
नये मीडिया ने किस तरह की समस्या पैदा की है। अगर इस पर गौर करें तो इसने समाज में काफ़ी हद तक ध्रुवीकरण, अफ़वाह और गैरज़िम्मेदारी की प्रवृत्ति को बढ़ाया है। सोशल मीडिया के प्रभावों का अध्ययन कर रहीं वरिष्ठ पत्रकार पामेला फिलिपोज का कहना है कि, “2013 के मुजफ्फ़रनगर के दंगों में सांप्रदायिक विद्वेष भड़काने, उन्माद बढ़ाने और स्थानीय लोगों को गोलबंद करने में नये मीडिया का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया। नये मीडिया ने उस ग्रामीण क्षेत्र में एक लोकवृत्त बनाया। दूसरे उसके ज़रिये झूठ और अफ़वाह का बाज़ार बड़ी तेजी से गरम हुआ। एक क्लिक की देर थी और उससे अपुष्ट संदेशों और तस्वीरों का गुणात्मक ढंग से प्रसार हुआ। एक से अनेक और जन से जन तक के संवाद की इस नई मीडिया तकनीक में एसएमएस, ट्विटर और फ़ेसबुक के इस बेजा इस्तेमाल पर कोई रोक नहीं थी।” (14 जून 2014, डीएनए)
उदाहरण के लिये एक ग्राफ़िक वीडियो उस दौरान ख़ूब वायरल हुआ जिसमें कथित रूप से मुसलमान भीड़ द्वारा दो हिंदू लड़कों को हत्या करते दिखाया जाता है। ये बाद में पुष्ट हुआ कि वास्तव में ये पाकिस्तान की एक घटना का वीडियो था जिसे इंटरनेट से उठाया गया था। चार साल पहले डकैती के आरोप में उन दो युवकों को भीड़ ने मार डाला था। न सिर्फ़ इस वीडियो की सीडी बनाकर मुफ़्त में बांटी गई बल्कि नेताओं ने भी अपने फ़ेसबुक में इसे साझा किया और स्थानीय अख़बारों ने बिना जांचे-परखे उसे दंगे की अधिकृत फ़ोटो के तौर पर छापा।
बंगलुरू में पूर्वोत्तर के लोगों के ख़िलाफ़ मोबाइल फ़ोन पर एसएमएस और उससे जुड़ी अफ़वाहों से कैसी अराजकता फैल गई थी और पूर्वोत्तर के लोग रातों-रात वहां से भागने लगे थे। इस विस्फोटक स्थिति को भूला नहीं जा सकता। भारत जैसे देश में जहां इतनी अधिक सामुदायिक और जातीय बहुलता है कि असामाजिक तत्वों के हाथ में सोशल मीडिया के दुरुपयोग की आशंका बनी रहती है। माना जाता है कि अधिकांश ऑनलाइन फ़ोरम लोकतंत्र से ज़्यादा अराजकता और अधिनायकवाद के सादृश्य हैं। (स्मिथ और कोलोक, 1999, कम्यूनिकेशन, कल्चरल एंड मीडिया स्टडीज, की कंसेप्ट्स।)
समझा जा सकता है कि एक दशक पहले तक जिन असामाजिक तत्वों के समक्ष अख़बार, पंफलेट और पोस्टर जैसे ही माध्यम थे आज उनके पास मोबाइल फ़ोन, डीवीडी और इंटरनेट के रूप में एक असीमित संभावनाओं वाला सस्ता लेकिन बेहद कारगर पहुंच का माध्यम है। मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे इस बात का प्रतीक हैं कि सांप्रदायिकता को आज साइबरस्पेस से भी ख़ूब खाद-पानी मिल रहा है।
इसलिये ये संदेह बार बार उभरता है कि जिस मीडिया को हम सोशल कह रहे हैं दरअसल वो अपनी तकनीक और संरचना में भले ही “सामाजिक” हो लेकिन भावना और विचार के स्तर पर उसे सामाजिकता को बढ़ावा देनेवाला समझना जल्दबाज़ी होगी।
सोशल मीडिया के विचलन और सर्वरों का एकाधिकार
सोशल मीडिया और इंटरनेट पर सूचना विस्फोट ने मानव सभ्यता के चरण में उत्तेजना, असामाजिकता, विलगाव, हताशा, ध्यानभग्नता, गोपनीयता और बेचैनी की एक नई समस्या पैदा की है। देहरादून में एक 17 साल का बच्चा फ़ेसबुक पर अपना सुसाइड नोट लिखकर जाता है, उसके दोस्त उसे लाइक करते रहते हैं, हंसी मज़ाक में ताने देते रहते हैं, जब तक उन्हें गंभीरता समझ में आती है वो किशोर अपने कमरे में लगे पंखे से झूल चुका होता है। उस किशोर के फ़ेसबुक पर सैकड़ों दोस्त थे लेकिन क्या वजह थी कि वो इतना अकेला हो गया कि आत्महत्या ही एक रास्ता बचा। साइबर-साइकोलॉजी, बिहेवियर एंड सोशल नेटवर्किंग जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया पर जुड़ने वाले संबंधों की उम्र ज़्यादा नहीं होती। इनमें आपसी भरोसा और प्रगाढ़ता का अभाव रहता है। (दैनिक भास्कर 30.9.14)
बच्चों में इंटरनेट के असुरक्षित उपयोग के दुष्प्रभावों देखते हुए यूनीसेफ़ और इंटरनेशनल टेलीकम्यूनिकेशन यूनियन ने इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर, ऐप डेवलपर्स और मोबाइल ऑपरेटर्स को दिशा निर्देश जारी करके कहा है कि वे अपने समस्त प्रबंधकीय और प्रशासकीय कामकाज में बाल अधिकारों का सम्मान करें। उनसे कहा गया है कि यौन शोषण से जुड़ी सभी सामग्री इंटरनेट से हटा दी जाए ताकि बच्चे इसका शिकार नहीं बनाए जा सकें। (बिजनेस लाइन,17 सितंबर,2014)
आर्थिक और राजनैतिक सत्ता के नये केंद्र उभरे हैं। रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमिक पुतिन ने मई 2014 में एक बयान में कहा था कि इंटरनेट का जनक अमरीकी रक्षा विभाग है और इंटरनेट पर आज भी उसी का क़ब्ज़ा है। जब पुतिन ऐसा कहते हैं तो ये आक्षेप ज़रूर है लेकिन उनके ऐसा कहने के पीछे एक ठोस आधार भी है। आज अधिकांश इंटरनेट सर्वरों के केंद्र अमेरिका और कनाडा में हैं। वेबसाइट और सोशल मीडिया पर आप चाहे जितना भी आज़ाद दिखें सच्चाई ये है कि एक फ़ैसले से पलक झपकते ही ये सारे संपर्क और अंतर्संपर्क भरभराकर गिर सकते हैं, अगर अमेरिकी और कनाडियाई सर्वर ऐसा चाहें तो।
गूगल और फ़ेसबुक की गोपनीयता नीति और उसके सरकारी इस्तेमाल के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के नेता के गोविंदाचार्य ने जून 2014 में एक जनहित याचिका दाख़िल की थी। इसमें सोशल साइट्स के अनुबंध फ़ॉर्म, विषय वस्तु, कर चोरी, क़ानून और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे सवाल उठाए गये हैं। उनका कहना है कि प्रधानमंत्री और सरकार सोशल साइट्स का इस्तेमाल करके जाने अनजाने गूगल और फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे मंचों की मदद कर रहे हैं। जनहित याचिका में आरोप लगाया गया है कि सोशल मीडिया की इन साइट्स के ज़रिए भारत के संवेदनशील डैटा दूसरे देशों में जा रहे हैं जो कि पब्लिक रिकॉर्ड ऐक्ट के ख़िलाफ़ है। याचिका में ये भी सवाल उठाया गया है कि फ़ेसबुक अपना सर्वर भारत में क्यों नहीं लगा सकता। (25 अगस्त 2014, आउटलुक।)
वर्चुअल सामाजिकता का विरोध
सोशल साइट्स से अब लोग उकता भी रहे हैं जिस तरह से अमेरिका में टेलीविज़न को इडियट बॉक्स कहा गया और टेलीविजन के विनाश का आंदोलन चलाया गया उसी तरह से सोशल साइट्स के विरुद्ध भी कई तरह के छोटे बड़े प्रयास किए जा रहे हैं।
ऐंटी फ़ेसबुक सोशल साइट “इलो” की शुरुआत की गई है। अमेरिकी नागरिक पॉल बुडनित्ज इसके जनक हैं और उनका कहना है कि ये साइट अपनी ही तरह का नेटवर्क है जहां लोगों की निजता बनी रहेगी और न ही वे यहां किसी तरह के विज्ञापन का सामना करेंगे। जब ये साइट शुरू की गई तो हर घंटे औसतन 31000 लोगों ने इसकी सदस्यता के लिये आवेदन किया। (29 सितंबर 2014, बीबीसी डॉट कॉम।)
राजधानी दिल्ली में इसी तरह से ऐंटी इंटरनेट क्लब शुरू किया गया है जहां लोग आभासी संसार को अलविदा कहकर वास्तविक रूप में गतिविधियों में शिरकत करते हैं। आमने-सामने बैठकर खेलते हैं, गपशप करते हैं, कहानियां सुनाते हैं। सोशल साइट्स के अधिक इस्तेमाल से लोगों की उत्पादकता घटने के बारे में भी कई सर्वेक्षण आ चुके हैं जिसके बाद कई दफ़्तरों और कंपनियों में इसके इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है। निजी जीवन में अवसाद और निष्क्रियता की बढ़ती समस्या को देखते हुए कई जगहों पर इंटरनेट फ़्री वीक, सोशल मीडिया फ़्री टाइम, फ़ेसबुक फ़्री ज़ोन और नो नेटवर्क ज़ोन भी बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
इसलिये सोशल मीडिया की तमाम लोकप्रियता और उपयोगिता के बावजूद ये संदेह बार-बार उभरता है कि जिस मीडिया को हम सोशल कह रहे हैं दरअसल वो सामाजिक है भी या सामाजिकता का आभास भर है। वॉशिंग्टन यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, सीन मंसन, टेक्नोलॉजी और व्यवहार के अंतर्संबंध का अध्ययन कर रही हैं। उनका कहन है कि फ़ेसबुक, ट्विटर और लिंक्डइन जैसी सोशल मीडिया कंपनियां इस बात की कोशिश कर रही हैं कि यूजर्स उनकी साइट पर अधिक से अधिक समय बिताएं और अधिक से अधिक चहलक़दमी करें। ये कंसेप्ट यूजर्स को अपने साथ किसी तरह इंगेज या मुब्तिला रखने का है।
वॉशिंग्टन की प्रतिष्ठित आईवी लीग यूनिवर्सिटी में एक नया कोर्स शुरू किया गया हैः “वेस्टिंग टाइम ऑन द इंटरनेट।” इसमें छात्र स्क्रीन पर कुछ घंटे लगातार बिताएंगे और सिर्फ़ सोशल मीडिया चैट रूम के ज़रिए इंटरैक्ट करेंगे। पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी के अंग्रेज़ी विभाग में इस नाम से शुरू किए गए कोर्स में कहा गया है कि हम स्क्रीन पर इतना समय व्यतीत करते हैं तो क्या इन संदेशों, क्लिकिंग, मेसेजिंग, स्टेटस अपडेटिंग और रैंडम सर्फ़िंग को हम साहित्य के कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं? क्या हम अपनी आत्मकथा अपने फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल की मदद से तैयार कर सकते हैं जिस काम में लैपटॉप और वाईफ़ाई हमारे टूल हो सकते हैं। क्या इंटरनेट से हम एक कविता की रचना कर सकते हैं?
सर्च और सोशल
फ़ेसबुक ने इंटरनेट पर ख़बरों के उपभोग के पैटर्न और तरीकों को भी प्रभावित किया जाता है और इसके लिये फ़ेसबुक एल्गोरिथम के कोड और फ़ॉर्मूले का उपयोग कर रहा है। प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार 30 फ़ीसदी अमेरिकी वयस्क फ़ेसबुक के माध्यम से ही ख़बरें पाते हैं। किसी समाचार संगठन की सफलता और विफलता इस बात पर निर्भर करती है कि फ़ेसबुक के न्यूज़ फ़ीड पर उसका कैसा प्रदर्शन है।
वॉशिंग्टन पोस्ट में डिजीटल न्यूज़ के वरिष्ठ संपादक कोरी हैयक इसे “अनबंडलिंग ऑफ़ जर्नलिज़्म” कहते हैं। जिस तरह से संगीत उद्योग में अलबम की बजाय ऑनलाइन पर एक एक गाने की बिक्री होती है वैसे ही प्रकाशक भी अब पाठकों तक समग्र अख़बार की बजाय एक एक ख़बर के ज़रिए पहुंचता है। अब लोग ख़बरों के लिये वॉशिंग्टन पोस्ट या किसी और प्रतिष्ठित अख़बार के होम पेज को टाइप नहीं करते हैं। ये सर्च और सोशल का दौर है।
ग्रेग मार्रा, फ़ेसबुक में कार्यरत एक इंजीनियर हैं। वो और उनकी टीम फ़ेसबुक की न्यूज़फ़ीड को संचालित करते हैं। उनका कहना है, “हम सोचते हैं कि फ़ेसबुक पर आप जिस भी सामग्री से कनेक्टेड होते हैं उनमें से किसे पढ़ने और देखने में आपकी अधिक दिलचस्पी होगी। इसके लिए क़रीब हर सप्ताह कंप्यूटर के जटिल कोड को टीम व्यवस्थित करती है कि यूज़र जब लॉग ऑन करे तो उसके समक्ष किन सामग्रियों को प्रदर्शित करना है इसके लिये हज़ारों-हज़ार मेट्रिक्स का इस्तेमाल किया जाता है और इस बात का भी अध्ययन किया जाता है कि यूज़र ने किस डिवाइस का प्रयोग करके लॉग ऑन किया है, किन स्टोरीज़ को कितने लोगों ने पसंद किया, किस पर कितना समय बिताया गया। लक्ष्य इस बात का पता लगाना है कि यूजर्स सबसे ज्यादा क्या एन्जॉय करता है और ये पसंदगी दुनिया के हर इलाके में अलग अलग है। मिसाल के लिए भारत में एबीसीडी सबसे ज़्यादा पसंद की जाती है। एबीसीडी यानी एस्ट्रोलॉजी, बॉलीवुड, क्रिकेट और डिवाइनिटी।” (28 अक्टूबर, 2014, इकोनॉमिक टाइम्स।)