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सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव और चुनावी राजनीति

सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव और चुनावी राजनीति

शालिनी जोशी।

चुनाव 2014 नये मीडिया और जनसंचार और पत्रकारिता के छात्रों और शोधकर्ताओं और पेशेवरों के लिए एक टर्निंग प्वायंट की तरह है, एक ऐसा पड़ाव जहां मीडिया के नये पैमानों को परखने का एक बेहतर मौक़ा मिल जाता है। इस बहाने ये भी पता चलता है कि नया मीडिया किस तरह आम राजनैतिक उथलपुथल और हलचल में कभी प्लेटफ़ॉर्म तो कभी सक्रिय भागीदार की तरह शामिल रहने लगा है। मीडिया अध्ययनों में ये एक नई प्रविधि जुड़ी है।

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनावों में नये और पुराने मीडिया का इस्तेमाल देखने लायक होता है। भारत के चुनावों में भी 2014 में यही कहा गया कि इसे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों की तर्ज पर रखने की कोशिश की जा रही है। बहुत हद तक ऐसा हुआ भी। चुनाव 2014 की सबसे ख़ास बात ये थी कि इसमें नये मीडिया का ऐसा भरपूर इस्तेमाल हुआ कि आने वाले चुनावी समयों के लिए ये एक लकीर खींच गया। इन चुनावों में हमने सोशल मीडिया ध्रुवीकरण और तीव्र मीडिया प्रबंधन की नई रणनीतियों और नई चतुराइयों के बारे में भी जाना। अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत आलेख के ज़रिए शालिनी जोशी ने चुनाव 2014 की विशद और व्यापक छानबीन की है। और नये मीडिया के पैमानों पर उसे परखा है।

2014 के चुनाव भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे ज्यादा मीडिया संचालित चुनाव थे। इन चुनावों में मीडिया संस्कृति और राजनीति के गठजोड़ के विविध आयाम देखने को मिले और कई मामलों में इनकी विभाजन रेखा लुप्त हो गई। राजनैतिक पंडितों ने विज्ञापन विशेषज्ञों के सान्निध्य में ये सीखा कि किसी राजनैतिक उत्पाद को मीडिया में कैसे बेचा जा सकता है और प्रत्याशी और मुद्दों को टेलीविज़न, विज्ञापन और सिनेमाई तर्ज पर प्रचारित किया गया।

राजनीति द्वारा मीडिया के इस उपयोग और प्रबंधन में इंटरनेट का अभूतपूर्व इस्तेमाल हुआ और सोशल नेटवर्किंग साइट्स और इंटरनेट टेक्नोलॉजी ने भारतीय लोकतंत्र की चुनावी संस्कृति को बदल डाला। ट्विटर, फ़ेसबुक और लिंक्डइन जैसी साइट्स ने युवाओं के संचार और संवाद के तरीक़ों को जिस तरह से बदल दिया है- राजनीति ने इसे पहचाना और इसे भी कि अगर एक नेता सोशल मीडिया पर दस यूजर्स को प्रभावित करता है तो वे दस यूजर्स, दस और लोगों को प्रभावित कर सकते हैं। राजनीति, दलों, नेताओं और उनके विचारों के प्रति नज़रिया बनाने में ऑनलाइन मीडिया का बड़ी चतुराई से इस्तेमाल किया गया।

हैशटैग वॉर राजनीति के नये अखाड़े बने। परंपरागत प्रचार, भाषणों और रैलियों और सभाओं के समांतर इंटरनेट मीडिया पर अति सक्रिय और सघन अभियान चलाया गया। राजनीतिज्ञों के परस्पर और नागरिकों के साथ उनके संचार में सोशल मीडिया असरदार माध्यम बन गया और इससे समकालीन राजनैतिक संचार के ढांचे और तरीकों को नया रूप मिला।

नेताओं की शख़्सियत और उनकी लोकप्रियता और सामयिक मुद्दों को लेकर ऑनलाइन सर्वे किये गये। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने यहां तक कि बुजुर्ग नेताओं को भी इंटरनेट साक्षर बनने के लिये मजबूर किया और उन्होंने भी फ़ेसबुक और ट्विटर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगाया। इंटरनेट साइट्स पर राजनीतिक गतिविधियां मुख्यधारा के मीडिया के लिये ख़बरों का स्रोत बनीं और कई बार हेडलाइन भी। जैसे कि बीजेपी ने जब आतंकी सरगना माने जाने वाले को टिकट दिया तो पार्टी के वरिष्ठ नेता मुख़्तार अब्बास नक़वी ने ट्विटर पर फ़ौरन रोष जताया, टीवी न्यूज़ ने उसे वहीं से उठाया और दिन भर इस पर इतनी बहस हुई कि अंतत: बीजेपी को अपना फ़ैसला वापस लेना पड़ा।

सोशल मीडिया के इस चुनावी परिदृश्य में निर्विवाद रूप से सबसे मज़बूत ऑनलाइन फ़ेनोमिना थे बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी। उन्हें आक्रामक रणनीति के साथ-साथ सोशल मीडिया पर पहल का भी लाभ मिला। अगस्त 2013 में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिये मोदी के चयन के बाद बीजेपी और नरेंद्र मोदी ने इसके इस्तेमाल में पूरा ज़ोर भी लगा दिया।

बीजेपी ने नई दिल्ली में नेशनल डिजीटल ऑपरेशन केंद्र (एन-डॉक) की स्थापना की। अरविंद गुप्ता इसके अध्यक्ष थे जो बीजेपी की आईटी सेल के भी अध्यक्ष थे। कई एजेंसियों ने अलग अलग तरीक़ों से चुनाव के दौरान इस सेल के लिये काम किया। बीजेपी ने ऐसी 155 सीटों की पहचान की थी जहां हार-जीत में सोशल मीडिया का महत्त्वपूर्ण योगदान माना गया था।

एक नजर डालते हैं बीजेपी की डिजीटल ब्रिगेड पर-बीजेपी की डिजीटल ब्रिगेड के अंग-

1. नमो नंबर- इसमें मतदाताओं को मतदाता सूची, मतदाता केंद्र और मतदान दिवस की जानकारी मिल सकती थी।
2. वाट्स अप- मोदी को बढ़ावा देनेवाले और कॉंग्रेस की काट करते हुए मैसेज भेजे जाते थे।
3. ई-मेल गठजोड़- बल्क में लोगों को मेल भेजे जाते थे कि मोदी कहां रैली करनेवाले हैं और उन्होंने रैली में क्या कहा।
4. सोशल मीडिया- नरेंद्र मोदी सहित बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा विश्लेषणात्मक पोस्ट भेजी जाती थी जिसमें सम सामयिक मुद्दों पर राय बनाने की कोशिश की जाती थी।
5. इंडिया 272- इस वेबसाइट के संचालक थे राजेश जैन और साइट के ज़रिए उन स्वयंसेवियों की भर्ती की जाती थी जो मोदी और उनके संदेश के प्रचार के लिये काम करना चाहते थे।
6. नमोजैक- ये एक प्रतीकात्मक प्रयास था और इसमें नरेंद्र मोदी का पोट्रेट बनाने के लिये समर्थकों से फ़ोटो आमंत्रित किये जाते थे।
7. वीडियो- एक विशेष टीम बनाई गई जिसका काम था मोदी और बीजेपी को बढ़ावा देने के लिये वीडियो बनाना जिन्हें पार्टी की वेबसाइट, ट्विटर, फ़ेसबुक और वाट्स अप पर अपलोड किया जाता था। मई 2014, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
चुनाव के दौरान एक औसत दिन में नरेंद्र मोदी की निजी वेबसाइट www.narendramodi.in को 27000 हिट्स मिला करते थे और ढाई लाख प्रतिक्रियाएं। मोदी को हर रात 11.30 बजे ऑनलाइन गतिविधियों का विस्तृत विवरण दिया जाता था। हर दिन सुबह 7:30 बजे सुबह अख़बारों की सुर्खियों का लेखा-जोखा।

इन चुनावों में वेबसाइट्स चुनावी ख़बरों और चर्चाओं के नये अखाड़े थे।

जैसा कि बीजेपी के अंदरूनी सूत्रों ने साझा किया- ऑनलाइन सेना तीन श्रेणियों में विभाजित थी- एक बुद्धिजीवियों की टीम जो बुद्धिजीवी वर्ग-अकादमिक विशेषज्ञों,पत्रकारों और सूचनाकर्मियों को लक्षित करती थी और उनसे राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों पर विमर्श करती थी, दूसरी श्रेणी जो साधारण कर्मियों के साथ संचार और संवाद कायम करती थी जैसे कि गुजरात के विकास पर उनकी ही भाषा में – मैं बिहार से हूं मैंने देखा है कि गुजरात की सड़कें बहुत अच्छी हैं। तीसरी श्रेणी थी कुख्यात हूलिगन्स की जो मोदी के आलोचकों के साथ इंटरनेट पर हमेशा ही दो-दो हाथ करने को तत्पर रहते थे।

कई युवा वोटर्स जो पहली बार मतदान का उपयोग करनेवाले थे और जिन्होंने गैर कॉग्रेसी सरकार कभी देखी ही नहीं थी, उनके लिये मोदी की जयकार एक फ़ैशन भी बन गया। उन्हें लगा कि मोदी एक बेहतर इंडिया दे सकते हैं या देंगे- किसी कॉरपोरेट के सीईओ की तरह उन्हें पेश किया गया जो अपनी कंपनी को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा सकता है। कॉरपोरेट वर्ग से आने वाले युवाओं के लिए यही एक छवि उन्हें मोदी की ओर मोड़ने के लिए काफ़ी थी।

“द बिग कनेक्ट: पॉलिटिक्स इन द एज ऑफ़ सोशल मीडिया” की लेखिका शैली चोपड़ा कहती हैं कि, “सोशल मीडिया का योगदान ये है कि इसने राजनीति की चर्चा को सेक्सी बना दिया।” (एफैक्स डॉट कॉम, 8 मई,2014) इसी इंटरव्यू में शैली कहती हैं, “सोशल मीडिया राजनीति, मार्केटिंग और ब्रांड स्ट्रैटजी के केंद्र में है। अगर आज की राजनीति को ब्रांड निर्माण की कसरत के तौर पर देखें तो राजनीतिज्ञों को अपने आपको ऐसे ही पेश करना है जिससे कि उनकी छवि और शख़्सियत का निर्माण हो। जिस तरह से शहरी युवा इस माध्यम का इस्तेमाल कर रहा है राजनीतिक दलों के लिये ये ज़रूरी हो गया है कि वे अपनी ऑनलाइन उपस्थिति को मज़बूत करें जिससे वे अपने बारे में प्रचार कर सकें और अपने राजनीतिक ब्रांड का निर्माण कर सकें।”

चुनावी नतीजे आने से काफ़ी पहले ही कॉंग्रेस पिछड़ती दिखाई दी। उसके आईटी सेल के संयोजक रोहन गुप्ता ने चुनावों के दौरान बिजनेस लाइन को दिये एक इंटरव्यू में स्वीकार किया कि, “मोदी सोशल मीडिया के जरिये ऑनलाइन ऑडियेंस तक पहुंच चुके थे, उस समय जब दूसरों ने इस मीडिया को संज्ञान में भी नहीं लिया था।”

आम आदमी पार्टी (आप) के बारे में तो कहा जा सकता है कि उसका असाधारण उभार एक तरह से सोशल मीडिया की ही पैदाइश थी। हालांकि टेलीविज़न ने भी उसे सींचा। सोशल मीडिया पर लगातार आलेख, सेल्फ़ी, फोटोग्राफ़ और वीडियो अपलोड कर बीजेपी ही नहीं आम आदमी पार्टी ने भी माहिरी से अपने पक्ष में ऑनलाइन मीडिया का इस्तेमाल किया था। सिर्फ़ अपना प्रचार ही नहीं बल्कि लोगों के मुद्दे और उनके हितों पर बहस और चर्चा का निर्माण करना उनकी रणनीति का एक अहम् हिस्सा बन गई थी। आप ने सोशल मीडिया के टूल्स को ऑडियेंस से कनेक्ट करने और उन्हें मोबिलाइज़ करने के लिये उपयोग किया, लोगों से संपर्क साधा, उन्हें सदस्य बनाया और चंदा लिया। क्या ये संभव था कि किसी मुख्यधारा के मीडिया चैनल के ज़रिए आप ये सब कुछ कर पाती। कतई नहीं।

अनुमान के अनुसार 2014 में भारत के लोकसभा चुनावों में राजनीतिक पार्टियों के प्रचार के कुल चार हज़ार से पांच हज़ार करोड़ रुपये के बजट में डिजीटल मीडिया पर कम से कम पांच सौ करोड़ तो ख़र्च किये ही गये थे। चुनाव में सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर भारत के मुख्य निर्वाचन आयोग को दिशा-निर्देश जारी करने पड़ गए। राजनैतिक दलों से कहा गया कि वो इंटरनेट पर अपने खातों और खर्चों को सार्वजनिक करें।

अपने निर्देश में आयोग ने पांच विभिन्न प्रकार के सोशल मीडिया की पहचान कीः

  • सहयोगपूर्ण प्रोजेक्ट (विकीपीडिया)
  • ब्लॉग और माइक्रोब्लॉग्स (ट्विटर)
  • कंटेंट समुदाय (यूट्यब)
  • सोशल नेटवर्किंग साइटें (फ़ेसबुक)
  • वर्चुअल गेम्स (एप्लीकेशन)

इस अवसर पर जारी निर्वाचन आयोग की विज्ञप्ति में कहा गया कि, “चुनाव प्रचार से जुड़े क़ानूनी प्रावधान सोशल मीडिया पर भी उसी प्रकार से लागू होते हैं जिस प्रकार से वो किसी अन्य मीडिया पर लागू होते हैं।”

चुनाव 2014 के सोशलमीडियाकरण पर कुछ सवाल
इन चुनावों में इंटरनेट के इस्तेमाल के मद्देनज़र कई सवाल प्रासंगिक हो उठते हैं। वे कौन से कारण थे जिन्होंने राजनैतिक दलों को सोशल स्पेस की ओर आकर्षित किया। क्या इंटरनेट हमें एक नये क़िस्म के लोकतंत्र का विकल्प देता है या यहां भी प्रभु वर्ग का ही क़ब्ज़ा है और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां इसे सीमित करती हैं। क्या इंटरनेट पर मुक्त स्थान पूर्व नियोजित एजेंडे को ही प्रोत्साहित करने का माध्यम है या ये वास्तव में ही राजनीतिक विचारों और मतों के स्वतंत्र विमर्श का मंच है। क्या वे लोग नुकसान में हैं जो इंटरनेट पर सक्रिय नहीं और क्या ये उनकी भावी संभावनाओं पर असर डालेगा। क्या इंटरनेट की बढ़ती उपयोगिता ने मतदाताओं के रुझान और मतदान के तरीक़ों को भी प्रभावित किया।

वे कौन से कारक थे जिन्होंने राजनैतिक दलों को सोशल मीडिया की ओर आकर्षित किया

सोशल मीडिया राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों को संभावित मतदाताओं के साथ निजी संवाद क़ायम करने का अवसर देता है। ये राजनीतिज्ञों को नागरिकों के नज़दीक अत्यंत तेज़ी से और लक्षित तरीके से मास मीडिया के किसी माध्यम और हस्तक्षेप के बगैर सीधी पहुंच का अवसर देता है और इसी तरह से मतदाताओं को भी दलों और नेताओं के समीप लाता है और मतदाता और राजनीतिज्ञों के बीच नया आधार बनाता है। ऑनलाइन प्रतिक्रियाएं, फ़ीडबैक, वार्ता और विमर्श तो होते ही हैं वे ऑफ़लाइन गतिविधियों और घटनाओं के लिए भी आधार प्रदान करते हैं। निजी नेटवर्क पर पोस्ट किये गये संदेश गुणात्मक रूप से बढ़ जाते हैं जब उन्हें साझा किया जाता है। (न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में सोशल मीडिया और राजनैतिक भागीदारी पर हुए सेमिनार के अंश, 10-11 मई, 2013)

कॉमर्शियल मीडिया का ढांचा और कार्यप्रणाली भी एक वजह थी जिसने दलों और नेताओं और मतदाताओं को सोशल मीडिया के विकल्प के भरपूर इस्तेमाल की ओर आकर्षित किया और एक नये पब्लिक स्पेस का निर्माण किया।

राजनीतिक दल और नेता अब अपनी बात रखने के लिये मुख्यधारा के मीडिया के गेटकीपरों और उनके न्यूज लॉजिक का मोहताज नहीं रह गये थे। मुख्यधारा के मीडिया के एजेंडा और जिस मीडिया पर्यावरण को अब संदिग्ध और पूर्वाग्रहग्रस्त माना जाने लगा है उसमें सोशल मीडिया एक ताज़ा लहर के समान था जिसके ज़रिए वो टेक प्रेमी उस युवा मतदाता तक पहुंचने लगा जो पुराने अनुभवों के बोझ तले नहीं दबा हुआ था। (माया रंगनाथन, द हूट डॉट ओर्ग, एक अप्रैल 2014)

राजनीति ने सोशल मीडिया को हाथोंहाथ लिया क्योंकि यहां मुख्यधारा के संपादकों और रिपोर्टरों का हस्तक्षेप नहीं था। नेता और दल अपनी बात, वादों, दावों और नारों को जनता तक निर्बाध पहुंचा सकते थे। उन्हें कवरेज के लिए मुख्यधारा के मीडिया की कथित मिन्नत या जनसंपर्क टीम को पसीना बहाने की ज़रूरत नहीं रह गई थी। ये उनके लिये एक निरंतर मंच था जहां वे लगातार अपने फ़ॉलोवर बना रहे थे, उनके साथ वार्ता कर रहे थे, उन्हें संबोधित कर रहे थे, मुद्दों पर बहस कर रहे थे और वर्चुअल रैलियां आयोजित की जा रही थीं। अख़बार और टेलीविज़न जिन सामग्रियों को गैर-ख़बर बताकर ख़ारिज कर देते वे ऑनलाइन मीडिया पर डाउनलोड और अपलोड की जा सकती थीं।

सोशल साइट्स ने कम संसाधनों वाले दलों और उम्मीदवारों के मुद्दों और प्रचार के लिये प्वायंट ऑफ़ सेल के समान तात्कालिक प्रतिक्रिया प्रदान की। ज़मीन पर जो काम किया उसे सोशल मीडिया ने गुणात्मक रूप से बढ़ाया और दूसरी तरफ़ सोशल मीडिया में जो काम किया गया उसे ज़मीन पर बढ़ाया गया। ये एक तरह से प्रचार का द्विपक्षीय विस्तार था।

क्या सोशल मीडिया एक नया वोटिंग ब्लॉक है

15 अप्रैल 2014 को अरविंद केजरीवाल ने एक ट्वीट किया कि राहुल और मोदी से लड़ने के लिये ईमानदार पैसा चाहिये। दो दिन में आप नेता की इस अपील पर एक करोड़ रूपये जमा हो गए। चुनावों में सोशल मीडिया के उपयोग का ये एक असाधारण उदाहरण था।

‘81 करोड़ चालीस लाख मतदाताओं में माना गया कि 20 करोड़ इंटरनेट को एक्सेस कर सकते हैं और क़रीब 10 करोड़ फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल साइट्स पर सक्रिय हैं। 18 से 22 साल की उम्र के क़रीब दस करोड़ मतदाता थे जो पहली बार वोट डाल रहे थे। 2009 के चुनावों में 543 सीटों में से 54 सीटों पर वोट का अंतर 10,000 से भी कम मतों का था। चुनाव प्रचार एजेंसियां इन सीटों के युवा मतदाताओं को लक्षित करने की कोशिश में थीं। आंतरिक और थर्ड पार्टी के अध्ययनों के अनुसार 543 में से करीब 160 सीटों पर हार-जीत सोशल मीडिया से प्रभावित हो सकती थी।’ (इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसियएशन ऑफ़ इंडिया और इंडिपेंडेट आयरिस नॉलेज फाउंडेशन की रिपोर्ट)

क्या ये नये क़िस्म का लोकतंत्र है या डिजीटल विभाजन है

क्या इंटरनेट ने प्रगतिशील लोकतांत्रिक मूल्यों और सार्थक राजनीति को बढ़ावा दिया या सामाजिक-आर्थिक विभेद से जुड़कर अलोकतांत्रिक भावना और विद्वेष को बढ़ावा दिया।

ऐसा ज़रूर प्रतीत होता है कि इंटरनेट विचारों के मुक्त विनिमय का लोकतंत्र है, लेकिन अगर ग़ौर से देखें तो ये मंच काफ़ी हद तक सतही विचारों और चुटकुलों का लोकतंत्र है और गंभीर राजनीतिक विमर्श और विनिमय का कम। ये व्यक्तियों का उपहास उड़ाने और उनकी आलोचना करने का अवसर देता है और कई बार मुख्यधारा के मीडिया का भी मज़ाक उड़ाया जाता है।पप्पू और फेंकू जैसे शब्दों का प्रयोग मुद्दों के सतहीकरण का ही प्रयास रहा। पहुंच और ख़रीद भी एक मुद्दा है। स्टीफ़न लैक्स (2000) ने ये सवाल उठाया था कि ब्रिटेन में इंटरनेट की पहुंच कितनी है और कितने लोग इससे कनेक्टेड हैं। उनका कहना है कि इस बात के प्रमाण हैं कि समुदाय के भीतर अभिजात वर्ग ही एजेंडा को डोमीनेट करता है।

लैक्स इस बात के भी शोध को महत्त्व देते हैं कि तीन में से दो लोगों के पास इंटरनेट कनेक्शन नहीं है और न ही उनका ऐसा कुछ इरादा है। इस तरह से पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि नया मीडिया राजनीति और समाज दोनों की समरूप और सार्थक सेवा करता है। अगर ब्रिटेन के संदर्भ में ये कहा जा सकता है तो भारत जैसे अल्पविकसित और विषमताओं से भरे समाज में तो ये और भी प्रासंगिक हो जाता है।

भारत में व्यापक डिजीटल विभेद की स्थिति है जो अधोगामी और ऊर्ध्वगामी दोनों ही रूपों में मौजूद है। 80 करोड़ की वयस्क आबादी में सिर्फ़ 20 करोड़ के पास ही इंटरनेट उपलब्धता है और इनमें से भी 10 करोड़ ही इंटरनेट के सक्रिय यूजर हैं। ये कोई उत्साहजनक तस्वीर नहीं है। राजनीतिक दलों ने इन चुनावों में जिन युवा इंटरनेट प्रेमी मतदाताओं को लुभाने की कोशिशें कीं वे दिल्ली, मुंबई, बंगलुरू जैसे महानगरों में रह रहे हैं और जो टियर-2 या टियर-3 श्रेणी के शहरों में रह रहें हैं वे सोशल मीडिया के फ़ोरम में ज़्यादा सक्रिय नहीं हैं।

महिलाएं जो कि आबादी का 49 फ़ीसदी हैं उनमें से कुछ अपवादों को छोड़कर कोई भी न्यू मीडिया पर चल रही इस कसरत में शामिल थीं। इसका कारण वे सामाजिक-आर्थिक बाधाएं हैं जो महिलाओं को अक्षम और गौण बनाए रखती हैं।

इसलिए विचारों और मतों का विनिमय उसी समुदाय तक सीमित था जो राजनैतिक प्रक्रिया में शामिल है, पहले से ही इसका हिस्सा है और इसका उपयोग करना जानता है। साथ ही अधिकांश राजनैतिक दलों ने इसका उपयोग ‘एक से अनेक’ संचार के लिये किया, जहां संदेश एक लक्षित समूह को भेजे जाते हैं। टिप्पणियां मॉडरेट की गईं लेकिन उस पर कोई विमर्श या वार्ता होती नहीं दिखाई पड़ी। ट्विटर और फ़ेसबुक के पेज शख़्सियत केंद्रित थे न कि विचार या विचारधारा आधारित।

इस तरह से देखा जाए तो नई तकनीक की व्यावसायिक अनिवार्यता ने देश के राजनैतिक विभाजन को और गहरा किया है जहां नई तकनीक राजनैतिक पूर्वाग्रहों को और गहरा करने और विरोध के उन्मूलन का सशक्त उपकरण बन गई है।

क्या ये ध्रुवीकरण में मदद करता है

अमेरिका की शिकागो यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर मैथ्यू जेंटकोव ने जानेमाने अर्थशास्त्री जेस शैपिरो के साथ मिलकर एक अध्ययन किया ये जानने के लिए कि डिजीटल मीडिया ध्रुवीकरण में कितनी मदद करता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने पाया कि परंपरागत मुख्यधारा के माध्यमों की तुलना में इंटरनेट ज़्यादा तेज़ी से ध्रुवीकरण करता है। इस तरह से तकनीकी राजनैतिक ध्रुवीकरण में मददगार है। (वॉशिंगटन पोस्ट-द हिंदू, 25.4.2014)

माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्विटर जिसने लोगों के संचार का तरीका ही बदल दिया, उसके सह-संस्थापक और “थिंग्स ए लिटिल बर्ड टोल्ड मी” के लेखक बिज स्टोन कहते हैं कि माध्यम को हमेशा ही तटस्थ रहना चाहिये। भारतीय चुनावों में सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर उनका कहना है कि, “ट्विटर जोड़ता है लेकिन यदि बहुमत इस पर क़ब्ज़ा जमा ले तो ये विभाजनकारी भी हो सकता है। इंटरनेट पर जितना अधिक आपकी संख्या है उतना ही अधिक ऊंची आपकी आवाज़ है। दूसरे शब्दों में कहें कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। लेकिन ये भी सच है कि अगर सोशल मीडिया न होता तो ये किसी और माध्यम के ज़रिए ये ध्रुवीकरण होता। इसके प्रति नज़रिया ये होना चाहिये कि तटस्थ तरीके से, सच्चाई और उम्मीद से इसको नियमित करना और इसका सामना करना चाहिये।” (5 मई, 2014, इंडिया टुडे)

इस बात के सैकड़ों प्रमाण हैं कि इंटरनेट पर विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग 2014 के चुनावों के दरम्यान और उसके बाद भी, किस तरह से ख़ुद को नरेंद्र मोदी का समर्थक बताने वालों ने, अपने आलोचकों को अपमानित करने, धमकाने, गाली-गलौज और अश्लील बातें करने के लिये किया। वरिष्ठ पत्रकार सागरिका घोष ने “स्क्रॉल” को दिए इंटरव्यू में बताया था कि ट्विटर पर मोदी की आलोचना करने के लिये उन्हें सोशल मीडिया पर चौतरफ़ा हमले का सामना करना पड़ा। कई बार उन पर भद्दी और अशालीन टिप्पणियां की गईं। ट्विटर पर इतिहासकार और वरिष्ठ लेखक रामचंद्र गुहा को दिए एक जवाब में भी सागरिका ने इस बात की पुष्टि की। उन्होंने इंटरव्यू में ये भी कहा कि वो कॉंग्रेस और गांधी परिवार की भी आलोचना करती रही हैं लेकिन इसके लिये उन्हें न तो कभी जान से मारने की धमकी दी गई और न ही सार्वजनिक तौर पर अपमानित करने की धमकी।(10 फ़रवरी, 2014)।

सोशल मीडिया पर अधिकांश टिप्पणियों को देखकर लगता है कि उन्हें लिखते समय शायद ही सार्वजनिक मर्यादा का ध्यान रखा जाता है। जब किसी विषय पर असंतोष या असहमति जाहिर की जाती है तो वो इस तरीक़े से की जाती है कि वो कहीं से भी नागरिक विमर्श के अनुकूल नहीं होती। दुर्भाग्य से चुनाव की शुरुआत से ही ये सिलसिला चल पड़ा कि जिन्होंने भी वैचारिक लेख लिखे उन्हें मोदी की आलोचना के कारण इंटरनेट पर मोदी समर्थकों का कोपभाजन बनना पड़ा और उनकी ऐसी मानहानि हुई कि चुनाव के अंत तक आते-आते वे इस तरह के विमर्श से बचने लगे। इस तरह बहस और मत-मतांतर का स्थान गाली-गलौज, कुतर्क और धमकी और चेतावनी ने ले लिया।

5 मई, 2014 को द हिंदू अख़बार में अपने साप्ताहिक कॉलम में ए.एस.पन्नीरसेवन ने इंटरनेट पर ध्रुवीकरण की चर्चा करते हुए ब्रिटिश लेखिका हिलेरी मैंटल का उदाहरण दिया था। वो लिखते हैं कि इंटरनेट पर ध्रुवीकरण का शिकार होनेवाली हिलेरी मैंटल अकेली नहीं है। हिलेरी ने ब्रिटिश म्यूज़ियम में वहां की राजशाही के कमोडीफ़िकेशन पर एक व्याख्यान दिया था जिसे बाद में लंदन रिव्यू ऑफ़ बुक्स में भी प्रकाशित किया गया था। (फ़रवरी 2013)। कुछ ही समय में उनके ख़िलाफ़ विषाक्त प्रचार और कुतर्कों की बाढ़ आ गई।

न्यू स्टेट्समैन को दिये एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि, “सार्वजनिक विमर्श बहुत ही निम्नकोटि का हो चुका है। आप किसी भी मसले पर हेट कैंपेन का शिकार बनाए जा सकते हैं। अगर आप एक महिला हैं और सार्वजनिक तौर पर किसी मसले पर अपनी राय रखती हैं तो आपको विषय के इतर मोटी और काली कलूटी कहा जा सकता है।” (पाठक ये समझते होंगे कि पश्चिम में काली-कलूटी कहना कितनी भद्दी गाली और कितना अपमानजनक माना जाता है।) ज़्यादा चिंता इस बात की है कि तर्क कुतर्क के इस तूफ़ान को ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मान लिया गया है। काफ़ी हद तक राजनीतिक विमर्श, नागरिक वार्त्तालाप और सामुदायिक संवाद की जगह इसी ने ली है। हिलेरी की इस बात की तस्दीक हाल में हुई जब मशहूर हॉलीवुड अदाकारा एमा वाट्सन ने संयुक्त राष्ट्र में लैंगिक समानता का मसला उठाया तो उनकी किस तरह छीछालेदर की गई। हिंदी फ़िल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने अपने वीडियो को लेकर जब एक अख़बार से आपत्ति जताई तो उनके बारे में अश्लील टिप्पणियां फ़ेसबुक और अन्य सोशल मीडिया में की जाने लगीं।

चुनावी कवरेज और सोशल मीडिया पर अपनी बुनियादी थीम पर लौटें तो हम पाते हैं कि भारत में भी इंटरनेट पर चुनाव और राजनीति से जुड़ा अधिकांश विमर्श और गतिविधियां गालीगलौज और अश्लील बातों से भरा है।

ये भी देखा गया कि समाचार और विचार प्रधान वेबसाइटों पर उपलब्ध हर इंटरैक्टिव विकल्प का उपयोग मोदी समर्थक टिप्पणियों से भरा रहता था। उनमें भी जो किसी और मसले से जुड़ी ख़बरें होती थीं। जैसे कि जर्मन प्रसारण सेवा डॉयचे वेले की हिंदी वेबसाइट में मशहूर पेंटर मक़बूल फ़िदा हुसेन पर लिखे गए एक ब्लॉग में भी मोदी के महिमामंडन के कमेंट डाल दिये गए। कहा जा सकता है कि ये अनायास नहीं बल्कि सुनियोजित थे यानी कि इंटरनेट पर मौजूद हर स्पेस का उपयोग गोलबंद तरीके से किया गया।

आज ये महसूस किया जा रहा है कि संकीर्ण, ध्रुवीकरण करने वाले मुद्दों पर पर इंटरनेट का विशाल प्रभाव है। सोशल मीडिया ने जिस तरह का फ़ोरम बनाया है उसे संयमित करना मुश्किल हो गया है।

प्रारम्भिक और मुख्य प्रभाव

हालांकि अभी प्राथमिक प्रभावों की चर्चा करना जल्दबाज़ी होगी, ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं उनके बाद के यानी मुख्य या सेकेंडरी प्रभाव। सोशल मीडिया ने मुख्यधारा के मीडिया कवरेज और टेलीविजन चैनलों के समाचार एजेंडा को व्यापक ढंग से प्रभावित किया है। सोशल मीडिया के यूजर्स एक स्विंग फैक्टर के तौर पर देखे जा सकते हैं।

राजनैतिक विमर्श किस बात पर हो और कैसा हो- ये तय करने में सोशल मीडिया ने निर्णायक भूमिका निभाई। राजनीतिज्ञों ने राजनीतिक निर्णयों और वक्तव्यों पर अपनी तत्काल प्रतिक्रिया ज़ाहिर करने के लिये सोशल मीडिया को चुना। सोशल मीडिया ने एक ऐसा फ़ोरम बनाया है जहां राजनैतिक भागीदारी की जा सकती है और स्थापित राजनैतिक अधिसत्ता को चुनौती दी जा सकती है। धार्मिक और जातीय विविधता के अध्ययन के लिये स्थापित जर्मनी के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट में मीडिया स्कॉलर सहाना उदुपा कहती हैं कि, “शिक्षित युवा इस बात से उत्साहित हैं कि सोशल मीडिया उन्हें ऐसा अवसर दे रहा है जहां उनकी बात सुनी जा रही है और असाधारण स्तर पर प्रसारित हो रही है।” सोशल मीडिया का मुख्य प्रभाव ये है कि ये राजनैतिक विमर्श को स्थापित करता है। जब निर्वाचन क्षेत्रों में प्रचार अभियान चलाए जा रहे हों, सोशल मीडिया चुनाव प्रचार का एक ‘उत्तेजक उपकरण’ है।

क्या सोशल मीडिया की उपेक्षा करने का नुक़सान हुआ

चुनाव 2014 के दौरान सोशल मीडिया पर बीजेपी के प्रधानंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी सबसे बड़ी सेलेब्रिटी थे जिनके फ़ेसबुक पर एक करोड़ दस लाख से अधिक लाइक्स थे और ट्विटर पर 30 लाख से अधिक फ़ॉलोवर थे। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के 10 लाख 60 हज़ार फ़ॉलोवर थे। कॉग्रेस के सभी दिग्गज जहां फ़ेसबुक और ट्विटर से ग़ायब थे वहीं शशि थरूर जैसे नेता के 20 लाख फ़ॉलोवर थे तो कपिल सिब्ब्ल और अजय माकन उस शून्य को भरने की असफल कोशिश कर रहे थे।

सोशल मीडिया को एक ताकतवर हथियार समझने और उस पर अपनी लोकप्रियता के बावजूद नरेंद्र मोदी ने 3 मार्च 1914 को निर्धारित फ़ेसबुक के टॉक्स लाइव कार्यक्रम से आखिरी समय में पांव खींच लिए। वैसे भी वो पत्रकारों और प्रश्नों से बचने के लिये ख्यात रहे हैं। हालांकि मोदी के पीछे हटने के इस क़दम की चर्चा कम ही हुई क्योंकि वो दूसरे फ़ोरम पर लगातार सक्रिय रहे। उधर कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी और पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने चुनावी राजनीति में नये संचार माध्यमों और नयी संचार प्रोद्योगिकी का उपयोग करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह भी अध्ययन का विषय है कि ऐसा क्योंकर हुआ। इस उदासीनता के पीछे आखिर वजह क्या थी।

बीजेपी का विज्ञापन बजट ही पांच हज़ार करोड़ रुपये का था। अमेरिका में राष्ट्रपति ओबामा ने 2012 में दूसरे कार्यकाल के लिए हुए चुनावों में 6000 करोड़ खर्च किए थे।

सोशल मीडिया को महत्त्व देने के बावजूद सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए राजनेताओं ने चुनाव अभियानों के लिये परंपरागत माध्यमों का समांतर उपयोग जारी रखा। आख़िरकार भारत में बहुदलीय प्रणाली का लोकतंत्र है। यूरोपीय संघ के चुनावों के संदर्भ में ऐंडी विलियमसन ने जो कहा है वो भारत के संदर्भ में भी लागू है।

“सोशल मीडिया पार्टी ब्रांड से ज्यादा पार्टी के व्यक्तियों के लिये महत्त्वपूर्ण है। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों की तुलना में जहां सीधे विकल्प हैं, बहुदलीय प्रणाली में सोशल मीडिया उतना महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता है जहां अनेक दल हैं, अनेक समूह हैं, व्यक्ति हैं और यहां तक कि वोटरों में भी भारी विविधता है। (ऐंडी विलियमसन, डिजीटल इंगेजमेंट के सलाहकार और ब्लॉगर।)

चुनाव अभियानों और राजनैतिक प्रचार के लिये नये मीडिया ने एक और फ़ोरम प्रदान किया और युवाओं को आकर्षित करने का ये एक बेहद प्रभावशाली तरीक़ा था। लेकिन इस बात पर अभी सहमति नहीं बनाई जा सकती है कि 2014 के चुनाव नतीजों को इसने किस हद तक प्रभावित किया होगा। ये कहना अपरिपक्वता होगी कि ये एक ‘सोशल मीडिया चुनाव था’। वास्तव में ये चुनाव भी राजनीति का एक कारोबार ही था जैसे कि इसके पहले के चुनाव रहे थे। ये ज़रूर है कि इंटरनेट ने प्रचार का एक नया और अपेक्षाकृत निर्बाध माध्यम दिया।

लोकसभा चुनाव 2014 एक तरह से विभाजन रेखा थी। बीजेपी से बेहतर किसी और दल ने सोशल मीडिया की ताकत को न तो पहचाना और न ही उसका इस्तेमाल किया। ऑनलाइन मीडिया पर नज़र रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि केजरीवाल ने ऑनलाइन युद्ध में अपने विरोधियों को पछाड़ा ज़रूर लेकिन व्यापक असर में मोदी बाज़ी मार ले गए। क्योंकि उनकी पार्टी और वो ख़ुद बड़े पैमाने पर मीडिया मैनेजमेंट में दूसरों की तुलना में बीस निकले। यह एक अभूतपूर्व मीडिया प्रबंधन था। इसी व्यापक प्रबंधन का एक हिस्सा सोशल मीडिया भी बना।

सोशल मीडिया के दौर के इस चुनाव में आज भले ही आम आदमी पार्टी या बीजेपी को नये मीडिया के भरपूर इस्तेमाल करने वाली राजनैतिक पार्टियां माना जाता हो लेकिन कई साल पहले भी एक दल ऐसा था जिसने अपनी राजनीति में लोगों को मोबोलाइज़ करने के लिए नये मीडिया के एक उपकरण यानी मोबाइल फ़ोन को सबसे पहले ज़रिया बनाया था।

‘सेलफ़ोन नेशन’ के लेखक और सिंगापुर नेशनल यूनिवर्सिटी में इंस्टीट्यूट ऑफ़ साउथ एशियन स्टडीज़ में विजिटिंग प्रोफ़ेसर रॉबिन जेफ़री कहते हैं कि भारत में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) पहली राजनीतिक पार्टी थी जिसने लोगों को संगठित करने के लिये सस्ते मोबाइल फ़ोन के प्रसार का लाभ उठाया। हज़ारों लोगों को मल्टीपल मेसेज भेजने से संभवत: उतना लाभ नहीं होता। लेकिन पार्टी के कार्यकर्ताओं ओर पार्टी की विचारधारा से सहानुभूति रखने वाले लोगों को जोड़ने और एकजुट करने में मोबाइल फ़ोन एक मज़बूत हथियार है। ये लोगों को प्रेरित नहीं करता लेकिन प्रेरित लोगों को नाटकीय ढंग से संगठित करता है। (द चीप मोबाइल फ़ोन इज़ ए टॉप फ़ाइव इंवेंशन, आउटलुक, 3 नवंबर, 2014)।

ज़ीटीवी, आज तक टीवी समाचार चैनलों और बीबीसी रेडियो में 18 साल के पत्रकारीय अनुभव के बाद शालिनी जोशी इन दिनों मीडिया अध्यापन, लेखन और शोध से जुड़ी हैं। वो फिलहाल जयपुर स्थित हरिदेव जोशी जनसंचार और पत्रकारिता विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत हैं।

उपरोक्त आलेख पेंग्विन इंडिया (मई 2015) से प्रकाशित, लेखक द्वय शालिनी जोशी और शिवप्रसाद जोशी लिखित किताब, “नया मीडियाः अध्ययन और अभ्यास” में भी बतौर अध्याय शामिल किया गया है।

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