डॉ. सुशील उपाध्याय।
मीडिया को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बांट सकते हैं-श्रव्य, दृश्य-श्रव्य और पठ्य। लेकिन, तकनीकी तौर पर इसे दो हिस्सों में ही बांटना चाहिए। वो है- लिखित मीडिया और दृश्यमान मीडिया
मनुष्य के रूप में हमारी सबसे बड़ी खूबी है-पांच इंद्रियों के माध्यम से संचार करना। इनमें से सबसे ज्यादा उपयोग देखने का करते हैं और उसके बाद सुनने का। कभी-कभी इसमें पढ़ने को जोड़ लिया जाता है, लेकिन पढ़ना भी एक प्रकार से देखने की ही गतिविधि है। मीडिया के इस्तेमाल के मामले में कई बार छठी इंद्री के प्रयोग की बात भी सुनने को मिलती है, इसे हम फीलिंग की तरह भी देख सकते हैं। ये एक प्रकार का फीडबैक भी होता है। छठी इंद्री अक्सर उन बातों को समझने में मदद देती है जो भौतिक तौर पर मौजूद नहीं है। जो मौजूद नहीं है, उसे मीडिया की भाषा में ‘बिटविन द लाइन्स’ के तौर पर समझा जाता है।
जब सोशल मीडिया की बात करते हैं तो इसे छोड़कर अन्य सभी प्रकार का मीडिया परंपरागत है। इसमें रेडियो, टीवी, अखबार सभी कुछ शामिल है। यह तुलना सापेक्षिक है। वैसे, तो विकास के क्रम में हरेक मीडिया अपने पूर्ववर्ती की तुलना में आधुनिक है और एडवांस भी है। पर, जब परंपरागत मीडिया की बात करते हैं तो उसे कुछ प्रवृत्तियों और विशेषताओं के आधार पर समझना होता है।
उदाहरण के लिए परंपरागत मीडिया टाइम शेड्यूलिंग पर आधारित है। यह ग्राह्यता के स्तर पर पैसिव है, इसमें जो भी कुछ है, एकतरफा है। हालांकि, इसे दुतरफा-मीडिया में बदलने के लिए प्रयास होते रहे हैं, लेकिन यह उस प्रकार टू-वे मीडिया नहीं है, जिस प्रकार आज के दौर का न्यू मीडिया है। परंपरागत मीडिया में पाठक, दर्शक या श्रोता के लिए बेहद सीमित प्रतिक्रिया की संभावना बनती है। इसमें जो कुछ भी प्रस्तुत किया जाता है, उसे तत्काल ग्रहण करना होता है। जैसे, पुराने दौर के टीवी पर इस वक्त जो कार्यक्रम ब्रॉडकास्ट हो रही है, उसे बाद में नहीं देखा-सुना जा सकता है। इस मीडिया में कन्वर्जेंस की सुविधा सीमित है और यह कुछ खास उपकरणों के साथ ही काम करता है।
परंपरागत मीडिया की तुलना में न्यू मीडिया या सोशल मीडिया को देखें तो इसे भी किसी भी वक्त, कहीं पर भी अपनी सुविधा के अनुरूप प्रयोग किया जा सकता है। उदाहरण के लिए स्मार्ट मोबाइल फोन या स्मार्ट टीवी। खास बात यह है कि सोशल मीडिया एक ही समय में पर्सनल मीडिया भी है और मास मीडिया भी। गैर तकनीकी तौर पर देखें सोशल मीडिया कोई नई अवधारणा नहीं है। एक इंसान के तौर पर हमारी कोई भी सामूहिक गतिविधि एक प्रकार का सोशल मीडिया ही है। यह गतिविधि चाहे विवाह हो या किसी का दाह संस्कार। पार्क में हंसने का योग करने वाले लोग भी सोशल प्लेटफार्म पर ही होते हैं। केवल इतना अंतर आया है कि इसे फिजिकल लेवल से डिजिटल लेवल पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। सोशल मीडिया पर हर किसी की डिजिटल पहचान है। सोशल मीडिया इसी वर्चुअल पहचान को वर्चुअल वर्ल्ड पर स्थापित करता है।
सोशल मीडिया की खूबियां ही उसकी सबसे बड़ी पहचान है। इस मीडिया पर यूजर ही कंटेंट का क्रिएटर भी है। जबकि, परंपरागत मीडिया में क्रिएटर और यूजर, दो अलग-अलग समूह होते हैं। सोशल मीडिया का जो कंटेंट है, वो उसके उपयोगकर्ताओं ने तैयार किया है। ये तमाम लोग मिलकर ही एक कम्युनिटी बनाते हैं। रोचक बात यह है कि इस कम्युनिटी का कोई भौतिक स्वरूप नहीं है। यह वर्चुअल है, इसे किसी अखबार-पत्रिका की तरह भौतिक तौर महसूस नहीं किया जा सकता। जब, हम वर्चुअल मीडिया की बात करते हैं तो उसके तीन तरह के प्लेटफार्म सामने होते हैं- सामान्य वेबसाइट्स, जिन पर एक तरफा संवाद हो सकता है।
एडवांस वेबसाइट, जिन पर मल्टी मीडिया की सुविधा होती है और दुतरफा संवाद संभव है।
सोशल साइट्स, इनकी सबसे बड़ी विशेषता यूजर जनरेटिड कंटेंट है।
सुदीर्घ चर्चाओं के बावजूद यह सवाल लगातार बना रहता है कि आखिर सोशल मीडिया क्या है? यह तो स्पष्ट ही है कि इंटरनेट सोशल मीडिया की रीढ़ है। इंटरनेट माध्यम पर ऐसा समूह जो अपने विचारों, भावों, सामग्री को दूसरों तक पहुंचाए और दूसरों की सामग्री तक पहुंच सके। फेसबुक, लिंक्ड-इन, इंस्टाग्राम, ट्विटर, ऑरकुट, यू-ट्यूब को सोशल नेटवर्किंग साइट कहेंगे। ये सब वेब-आधारित सेवाएं हैं। इनमें से ज्यादातर फ्री उपलब्ध हैं। इन सबकी कुछ खूबियों को आसानी से पहचाना जा सकता है।
जैसे-यहां टाइम और स्पेस की समस्या नहीं है। विचारों और भावनाओं को उजागर करने का सहज मौका देती हैं।सिंपल और फास्ट हैं।सिटिजन जर्नलिज्म का बड़ा मंच है। डिटिटल पहचान को अहसान बनाया जा सकता है। सोशल कनेक्शन को व्यापक करती है। नॉलेज को शेयर करने का अवसर देती है। ये मीडिया ऑफलाइन की सीमाओं से परे जाता है। एक ही वक्त पर कई जगह होने का अवसर देता। लिमिटेड सोशल सर्विलांस का मौका देता है।
संचार की लागत और कीमत बेहद कम है।सामाजिक संपदा को बढ़ाता है, जैसे किसी खास फील्ड का एक ग्रुप बनाना। वर्चुअल वर्ल्ड के लाभ रियल वर्ल्ड में मिलते हैं। विशिष्ट सेवाओं, सुविधाओं और लोगों तक पहुंच का अवसर देता है।
चुनौती और सीमाएं
सोशल मीडिया में एक से बढ़कर एक खूबियां हैं, लेकिन उनके साथ कई तरह की चुनौतियों से भी रूबरू होना पड़ता है। सबसे बड़ी चुनौती तो यह है कि ये अनरेगुलेटिड है। यहां कोई नियंत्रणकारी माध्यम ही नहीं है। सोशल मीडिया पर सामान्यतः आप अपनी पसंद का कंटेट, पिक्चर या दूसरा डेटा शेयर कर सकते हैं। इसके साथ खतरे भी जुड़े हैं। इससे निजता और सुरक्षा का सवाल भी पैदा होता है। ऐसा खतरा परंपरागत मीडिया से नहीं है। परंपरागत मीडिया माध्यमों, जैसे टीवी या अखबार पर न तो आप अपने स्तर पर कोई सामग्री जारी कर सकते और न ही उस सामग्री को किसी प्रकार तोड़-मरोड़ सकते। इसलिए सोशल मीडिया के मामले में यूजर अवेयरनेस बहुत जरूरी है। अन्यथा, निजता और सुरक्षा, दोनों पर खतरा खड़ा हो जाएगा। सोशल मीडिया के मामले में अभी गवर्नेंस लापता है, मॉनीटरिंग भी लगभग न के बराबर है, किसी तरह का सरकारी या सोशल कंट्रोल नहीं है और कानून भी अपर्याप्त हैं। इन तमाम चीजों को जानकार सहजता से अनुमान लगा सकते हैं कि सोशल मीडिया से किस प्रकार की चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं।
जब सोशल मीडिया की सीमाओं की बात करते हैं तो ये ध्यान रखना जरूरी है कि दुनिया में कुछ भी फ्री नहीं होता, चाहे वह वर्चुअल वर्ल्ड में हो या रिअल वर्ल्ड में। ये साइटें खुद को फ्री उपलब्ध बताती हैं, लेकिन आप उनके मॉडल का हिस्सा होते हैं। वे आपका उपयोग करती हैं और आप उसी फ्रेम में व्यवहार करते हैं जो फ्रेम आपको उपलब्ध कराया गया है। मसलन, जब सोशल मीडिया पर किसी लाइक करते हैं, किसी के समर्थन या विरोध में कमेंट करते हैं तो किसी न किसी स्तर पर यह हमारी रुचि को बताता है। यह एक डेटा है, इस डेटा का इस्तेमाल व्यापक संदर्भों में किया जा सकता है। इसी संदर्भ में कुछ और बातें हैं जो सोशल मीडिया की सीमाओं का निर्धारण करती हैं। इन्हें इस प्रकार देख सकते हैं-इस मीडिया पर सूचनाओं की गुणवत्ता और आधिकारिता हमेशा प्रश्न के घेरे में रहती है। ज्यादातर सूचनाएं प्रोपेगंडा और मानहानि की श्रेणी में आती हैं।
वायरल कम्युनिकेशन से समाज को खतरा पैदा होता है।यह अतिगतिशील माध्यम है, इसके साथ चलने से कई प्रकार के मानसिक चुनौतियां पैदा होती हैं। भाषा एवं संस्कृति की बाधाएं भी इस मीडिया की चुनौतियां हैं। ये मीडिया भाषायी और सांस्कृतिक विशिष्टताओं के आधार पर अपने प्लेटफार्म में किसी प्रकार का बदलाव नहीं लाता। यह भी कहा जाने लगा है कि सोशल साइटें लोगों को बांटती हैं। इन्हें घृणा फैलाने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है।इसका भविष्य हमारे हाथ से बाहर है। ये हमारी बौद्धिक संपदा भी नहीं है।
सोशल मीडिया और खतरा
क्या सोशल मीडिया एक अनचिहा खतरा है? क्या ये मीडिया के नाम पर फ्री लेबर का ठिकाना है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम से ज्यादातर लोग अनजाने में ही जुकरबर्ग के मजदूर बन गए हैं। उसके लिए सूचनाएं जुटा रहे हैं, इसके बदले में लोगों को न कुछ मिल रहा है और न ही मिलने वाला है! इन सूचनाओं पर यूजर का कोई अधिकार भी नहीं है, जुकरबर्ग ही मालिक है, जब चाहे बाहर का रास्ता दिखा सकता है और जहां चाहे सूचनाएं बेच सकता है। परंपरगत मीडिया की तुलना में न्यू मीडिया ज्यादा खतरनाक है। फेसबुक और ट्विटर का डेटा यकीनन यूजर के नियंत्रण में नहीं है। परोक्षतः यूजर की हैसियत आउट साइडर की है, लेकिन फिर भी वह मालिक की तरह खुश हैं। ये तमाम स्थितियां ज्यादा चुनौतीपूर्ण हालात पैदा करने जा रहा है। इसका अंदाज उस दिन लगेगा जिस दिन फेसबुक या ट्विटर पर अपने अकाउंट को ओपन नहीं कर पाएंगे या इसके बदले हमसे शुल्क की मांग की जाएगी।
उम्मीदें और संभावनाएं
इस मीडिया की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसे कहीं भी इस्तेमाल किया जा सकता है। अपने स्वरूप में यह परंपरागत मीडिया का पूरक है। एक खास बात यह है कि दोनों के प्राइम टाइम में अंतर है। सामान्यतः टीवी के मामले में रात 8 से 10 बजे को प्राइम टाइम माना जाता है, जबकि अखबार का प्राइम टाइम सुबह के वक्त होता है। टीवी मोबाइल पर प्राइम टाइम लंच के समय या शाम को घर आते वक्त, ट्रैवल करते वक्त होगा। इस तरह सोशल मीडिया उस वक्त का उपयोग कर रहा है जो परंपरागत मीडिया के स्ट्रक्चर में प्राइम टाइम नहीं है। सोशल मीडिया बेहद क्षणिक है। आने वाले कल में यह मौजूदा रूप में रहेगा या नहीं, किसी को नहीं पता। ध्यान देने वाली बात यह है कि चीन में न गूगल और न फेसबुक। चीन सरकार ने बाकी दुनिया में लोकप्रिय सोशल साइटों को अपने यहां रोका हुआ है। इसके बावजूद उनका काम चल रहा है, इसका मतलब यह है कि सोशल मीडिया उतना अपरिहार्य नहीं हैं, जितना कि इसे बताया जा रहा है।
भविष्य का मीडिया
इसे भविष्य का मीडिया कहा जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि सोशल मीडिया पूरी तरह मीडिया के चरित्र को बदल देगा। जब चाहें, जहां चाहें इसका उपयोग करें, सामग्री का उपयोग पैसिव की बजाय एक्टिव होगा। कनर्वजेंस बढ़ेगा। कनवर्जेंस कंटेट और डिवाइस, दोनों स्तर पर होगा। सामग्री ज्यादा व्यक्गित स्तर की हो जाएगी। अलग तरह के मीडिया एक मंच पर आ जाएंगे-कैमरा, वीडियो, ऑडियो, रेडियो, सभी कुछ एक जगह पर होगा। मसलन, फिल्म देखते हुए संबंधित हीरो या हिरोइन की फिल्म पर क्लिक करके उसे किसी भी स्टोर से खरीद सकेंगे।
Dr.Sushil Upadhyay is Senior Assistant Professor & In-Charge Dept. of Linguistics & Translation Studies, Dept. of Journalism & Mass communication, Uttarakhand Sanskrit University, Haridwar (Uttarakhand)