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सूचना क्रांति के युग में फिल्में समाज के आईने के बजाय संस्था बनीं

सूचना क्रांति के युग में फिल्में समाज के आईने के बजाय संस्था बनीं

कपिल शर्मा।

फिल्मकारों को ये बात समझनी होगी कि समाज की सच्चाई दिखाने से आगे बढ़कर फिल्में समाज के लिए मानकों और आदर्शो का निर्माण भी करती है। ऐसे में फिल्मकार दिशानिर्देशक की भूमिका में है और समाजविज्ञान के गुणा गणित से अनभिज्ञ आम दर्शक को सामाजिक परिवर्तन कर सामाजिक निर्माण के लिए ले जाना उनका उत्तरदायित्व है

कुछ दिनों पहले किसी राष्ट्रीय चैनल द्वारा लिए गए एक पुराने इंटरव्यू के दौरान गुलजार साहब एंकर को बता रहे थे कि वास्तविकता में फिल्में समाज का आईना होती है। उनकी बात को सुनते ही मुझे अनिल कपूर अभिनीत साहिब फिल्म का वो बेरोजगार नायक जो अपनी बहन की शादी के लिए अपनी किडनी बेच देता है।

पंकज कपूर अभिनित फिल्म रुई का बोझ फिल्म में अपने बेटे-बहू के परिवार में जगह बनाने के लिए संघर्षरत बूढ़ा बाप और हजार चौरासी की मां का वहन व युवक किरदार याद आया जो पूंजीपति की औलाद होने के बावजूद नक्सलवाद का दामन थाम लेता है। यहीं नहीं कई प्रचलित फिल्मों जैसे गर्म हवा, अछूत कन्या, मातृभूमि, बैंडिट क्वीन, प्रहार, दो बीघा जमीन, चांदनी बार, प्यासा के ढेरों किरदार अपनी चीख पुकारों के साथ मेरे ईद-गिर्द घूमते से दिखे। तब मुझे अहसास हुआ कि गुलजार साहब की बात में कितनी सच्चाई है। फिल्में समाज का आईना ही तो होती है, समाज की सच्चाई ही तो दिखाती है।लेकिन देखा जाए तो यह अधूरी बात है। सूचना क्रांति के इस युग में फिल्में समाज के आईने से बहुत आगे बढ़कर एक संस्था बन चुकी है, जो समाज का चेहरा ही नहीं दिखाती बल्कि समाज में नए मूल्यों, आदर्शो और जीने के तरीकों को भी स्थापित करती है।

एक नए बौद्विक आदोंलन के जरिए समाज के निर्माण में प्रभावी भूमिका निभाती है। इसलिए फिल्मों की जिम्मेदारी समाज के प्रति ठीक उसी तहर से निर्धारित होनी चाहिए जैसे धार्मिक, राजनैतिक और शैक्षिक संस्थाओं की होती है। लेकिन बॉलीवुडिया फिल्मकारों में इस समझ की खासी कमी दिखाई देती है। अब इसका कारण चाहे ज्ञान की कमी हो या मुनाफा कमाने के लिए बाजार का दबाव।गौर किया जाए तो सन् 2000 के बाद बॉलीवुड में फिल्मकारों का स्वाद काफी बदल गया है। नई कहानियां आई है, नए किरदार गढ़े गए है, नई छवियां बनाई गई है। अब देख लीजिए इस दौरान शहरी महिला किरदार की छवि जो बनी है वो छोटे और कम कपड़े पहनती है, बीच-बीच में अंग्रेजी में बात करती है, प्रेम संबधों के बाद ही शादी करती है। अगर ये किरदार शहरी गरीब है, तो गरीबी दूर करने के लिए जालसाजी, धोखाधड़ी और वेश्यावृत्ति करने से भी गुरेज नहीं करती। पैसे की कमी होने पर पति से अपना संबध तोड़ने में देर नहीं लगाती।

परिवार से ज्यादा इन्हें अपनी स्वतन्त्रता प्रिय होती है। सेक्स के लिए खुले विचारों वाली, नग्नता पंसद होती है। इस तरह के शहरी महिला किरदार हालिया फिल्मों मर्डर, मर्डर 2, मर्डर 3, जहर, जिस्म, जिस्म 2, कलयुग, धोखा, रोग, लव सेक्स और धोखा, रागिनी एमएमएस, डर्टी पिक्चर और में देखे जा सकते है।

शहरी महिलाओं की ये नकरात्मक छवि कहीं न कहीं उस पुरुषवादी सोच को सही ठहराने का आधार बनाती है, जो महिलाओं के जीवन को अपने बाप की बपौती समझते है। उन पर अपना अधिकार थोपती है। महिलाओं की इन छवियों को ही वास्तविकता मानकर शहर की गलियों में कोई महिलाओं और लड़कियों से मार-पीट, छीटाकंशी, छेड़खानी और बलात्कार करता दिख जाएं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कई बार तो फिल्मों में दिखाई गई महिलाओं की छवि यह भी माहौल बनाती है कि जो औरते छोटे कपड़े नहीं पहनती, अंग्रेजी नहीं बोल पाती वे आधुनिक हो ही नहीं सकती, कैरियर को लेकर महत्वकां़क्षी नहीं होती, अपने हक की लड़ाई नहीं लड़ सकती। मध्य वर्गीय, निम्न वर्गीय और ग्रामीण परिवारों से आने वाली महिलाओं में इस कुंठा को आप आसानी से भांप सकते है। ग्रामीण महिलाओं के चित्रण में तो बॉलीवुड फिल्मकार एक कदम और आगे है।

फिल्मों में ग्रामीण महिलाएं ज्यादातर घर के कामकाज में बंधी, पढ़ाई लिखाई से दूर, पति के प्यार में स्वर्ग ढूंढने वाली एक भावनात्मक मूर्ख दिखाई जाती है। महिला सशक्तीकरण, भूमंडलीकरण और सामाजिक आदोंलनों से कोई लेना- देना नहीं रखने वाली, गर्भ निरोधक उपायों से अंजान एक ऐसी महिला है जो अक्सर शहर से आए लड़के या गांव के प्रतिष्ठित जमींदार के लड़के के प्रेम में पड़कर पेट से हो जाती है। क्या भारतीय फिल्मकारों ने ग्रामीण समाज में इसी तरह की महिलाएं देखी है जो उनकी इस तरह की छवियां गढ़ दी गई है।

निश्चित तौर पर यह बॉलीबुड फिल्मकारों में एक तरह का पूर्वाग्रह दिखातेहै। ग्रामीण महिला चरित्रों को गढ़ते समय उन्हे क्यों गुलाबी गैंग की महिलाएं नजर नहीं आती, गांव से निकलकर अंतराष्ट्रीय पहचान बनाने वाली तीजनबाई, एमबीए पास सबसे कम उम्र की महिला सरपंच छवि राजावत उनके किरदार क्यों नहीं बनती। ग्रामीण समाज भी महिलाओं के ऐसे ही उदाहरणों से भरा हुआ है। लेकिन ऐसे किरदारों की बॉलीवुड में उपस्थिति नदारद है।

असल में ग्रामीण महिलाओं के जीवन में आ रहें बदलाव को बॉलीवुड अभी भी स्वीकार नहीं कर रहा है और ग्रामीण महिलाओं की घर में सिमटी छवि को ही जीवित रखना चाहता है। ये बात तो सही है कि आज भी भारत में महिलाओं की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक तौर पर वंचित है, लेकिन ऐसा नहीं है कि उनके जीवन में किसी तरह का सामाजिक बदलाव नहीं आ रहा है। शैक्षिक और सामाजिक सुधारों के साथ पंचायती राज के जरिए ग्रामीण महिलाएं राजनैतिक तौर पर पहले से ज्यादा सजग है। किसान आदोंलन, भूमिग्रहण आदोंलन और आदीवासी आदोंलन में ग्रामीण महिलाओंकी बढ़ती भागीदारी इनकी पंरपरागत छवि को तोड़ रही है। ऐसे में ग्रामीण महिलाओं की बदलती छवि को बॉलीवुड को स्वीकार करना ही पड़ेगा। ताकि उस पुरुषवादी सोच को चुनौती दी जा सकें जो समतावादी समाज का एक बड़ा रोड़ा है।

महिलाओं से इतर 80 और 90 के दशक का वह फिल्मी किरदार भी अब पर्दे से गायब हो चुका है जो गांव से शहर काम की तलाश में आता है और शहरीकरण के जाल में फंस जाता है, अब उसकी जगह करण जौहर और यश चोपड़ा के उस हीरों ने ले ली है जो काम की तलाश में विदेश चला गया है, या विदेशी भारतवंशीयों का वंशज है और अब उसकी समस्या रोजगार या गरीबी नहीं बल्कि मूल्यों का संघर्ष हो गया है।कभी खुशी कभी गम, दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे, कल हो न हो, कभी अलविदा न कहना, माई नेम इज खान, सलाम नमस्ते सरीखी फिल्मों में ये संघर्ष उभर कर सामने आया है।

एक तरह से कहा जाए तो प्रवास गांव से शहर की ओर न दिखाकर, विदेशों की ओर ज्यादा केन्द्रित किया गया है। लेकिन वास्तविकता यही है कि आज भी अंतराष्ट्ीय प्रवास बढ़ने के बावजूद देश में अंदरुनी प्रवास कई गुना तेजी से बढ़ा है। जिसकी अपनी समस्याएं अलग स्तर की है। इनमें क्षेत्रीय भावनाओं को भड़क उठना बड़ा आम है। महाराष्ट् में बिहारी समस्या, उत्तर पूर्व के राज्यों में हिंदी भाषियों पर हमले, कर्नाटक और महाराष्ट् में उत्तर पूर्व के लोगों पर हमले इन मामलों की गंभीरता को दिखाते है। लेकिन बॉलीवुड फिल्मकारों की नजर से ये विषय भी ओझल ही है। वैसे देशद्रोही नाम की एक सतही फिल्म इस विषय पर जरुर आई थी।

यहीं नहीं आज की फिल्मों में बेरोजगार युवक नौकरी के लिए ज्यादा भटकता सा नहीं दिखता। मुश्किल से ही आप व्यवस्था से लड़ते प्यासा के गुरुदत्त, तेजाब के अनिल कपूर या अर्जुन के सनी देयोल की बेरोजगारी को हालिया फिल्मों में देख पाएंगे। शायद उदारवाद के बाद आए निजीकरण ने फिल्मकारों को ये चेता दिया है कि आज के पढ़े लिखे युवा ने पैसा कमाने के नए रास्ते खोज लिए है और बेरोजगारी अब उनके लिए उतनी बड़ी समस्या नहीं रही है। जन्नत का सटोरिया, रॉकेट सिंह सेल्समैन या विक्की डोनर का वीर्य बेचने वाला नायक हो। सभी रोजगार के नए रास्ते जानते है। लेकिन इन सबसे दूर फिल्मकार उस बेरोजगार को नई देख पा रहे है। जो मनरेगा या बेरोजगारी भत्ते के लिए भी घूस दे रहा है। जिसके अंदर उबलता नाकामी का अवसाद देश में अपराध,नक्सलवाद और अलगाववाद को मजबूत कर रहा है।

वैसे तो महिला शरीर को उभारना फिल्मकारों की शुरु से ही यूएसपी रही है। लेकिन सूचना क्रांति ने बाजारी लाभ पाने के लिए फिल्मकारों को आइटम सांग की होड़ में डाल दिया है। इंटरनेट, फेसबुक, आर्कुट, यूट्यूब, ट्विटर के जरिये ज्यादा से ज्यादा दर्शकों के बीच पहुंच बनाई जा रही है और औरत के शरीर की सप्लाई की जा रही है। शीला, मुन्नी, शालू, चमेली की अपार सफलताको देखते हुए कई नई युवतियों में फिल्मी पर्दे में आने की जबर्दस्त होड़ लगी है। सन्नी लियोन, शर्लिन चोपड़ा और पूनम पांडे सरीखी तो अच्छी खासी मार्केट बनाने में भी सफल रही है। आम युवतियों में इसके चलते एक मिथ्याचेतना का जन्म हुआ है, जिसमे वे शारीरिक उभार को असली टैंलेट समझ कर वास्तविक कला को किनारे कर बैठी है। इन हालातों के चलते नारीवादी फिल्मकारों से खासे नाराज भी लगते है। उनका तर्क है कि फिल्मकार महिला शरीर के इतर अगर महिला शिक्षा और लिंग असमानता जैसे विषयों पर ध्यान लगाए तो महिलाओं के हालातों में व्यापक बदलाव लाए जा सकते है।लेकिन दूसरी ओरऔरतों के उभरे शरीर और घटिया सेक्स सीनों से बोर हो चुका एक नया दर्शक वर्ग कुछ नये की तलाश में है। जिसे कैश कराने के लिए फिल्मकारों की एक नई पीढ़ी हिंसा, खून-खराबा, गाली गलौज का एक नया फार्मूला लेकर आया है। खून खराबे, गोली, कट्टे, बंदूकों का महिमा मंडन, गालियों को लोक कहावतों के तौर पर प्रयोग कर फिल्मों की जरिए इनकी सामाजिक स्वीकार्यता को बढ़ाया जा रहा है। रक्त चरित्र, गैंग्स ऑफ वासेपुर, वांटेड ऐसी ताजातरीन फिल्में है।

चैनलों में इंटरव्यू और सामूहिक फिल्मी चर्चाओं के दौरान फिल्मकारों से जब इस बाबत सवाल किया जाता है कि उन्होंने अपनी फिल्मों में महिलाओं की नग्नता, नृशंस हिंसक दृश्यों और गाली भरे संवादों का जी भर कर प्रयोग क्यों किया तो अक्सर फिल्मकार ये कहकर पल्ला झाड़ते नजर आते है कि वे वही दिखाते है जो समाज में हो रहा है। कई बार तो फिल्मकार सवाल पूछले वाले को ही नासमझ, अश्लील और घिनौनी सोच वाला बनाने में तूल जाते है। लेकिन फिल्मकारों का ये जवाब उतना ही गैर जिम्मेदाराना और साजिश से भरा है, जितना सत्ता में आने के लिए एक नेता द्वारा की गई राजनैतिक साजिशें।

वैसे इन बातों से हटके इस दौर में राकेश ओमप्रकाश मेहरा, अनुराग कश्यप,दिंबाकर बैनर्जी, प्रकाश झा, तिग्मांशु धूलिया, फरहान अख्तर, आशुतोष गोवारिकर, मीरा नायर, राजकुमार हिरानी, नीरज पांडे जैसे फिल्मकारों की एक नई पौध मजबूत हुई है जो कहानियों को समाज के भीतर से लाकर पर्दे में ढाल रही है। जिनकी कहानियां लोगों की ही कहानियां है। सलाम बांबे,रंग दे बंसती, अपहरण, गंगाजल, चक्रव्यूह, छात्र राजनीति पर आधारित हासिल, पान सिंह तोमर, ब्लैक फ्राइडे, थ्री इडियट, लगे रहो मुन्ना भाई, मातृभूमि, परजानियां, ओह माय गॉड, पीके कुछ बेहतरीन फिल्में है जो समाज में चल रही उथल पुथल को दिखाने के साथ समस्या के केंद्रबिंदु तक दर्शक को ले जाने का एक अच्छा प्रयास है।

लेकिन इसके बावजूद फिल्मकारों को ये बात समझनी होगी कि समाज की सच्चाई दिखाने से आगे बढ़कर फिल्में समाज के लिए मानकों और आदर्शो का निर्माण भी करती है। ऐसे में फिल्मकार दिशानिर्देशक की भूमिका में है और समाजविज्ञान के गुणा गणित से अनभिज्ञ आम दर्शक को सामाजिक परिवर्तन कर सामाजिक निर्माण के लिए ले जाना उनका उत्तरदायित्व है। अब फिल्मकारों को समाज में छुपी उन अधूरी कहानियों को भी सामने लाना ही होगा जो बदलते सामाजिक और आर्थिक हालातों में आदीवासी, किसान और श्रमिक की आह में छुपकर कहीं न कहीं उपेक्षा का शिकार रही है। साथ ही यह भी समझना होगा कि व्यवसायिक लाभ और बाजारी दबाव के चलते फिल्म को हिट कराने के लिए नग्नता, हिंसा और गाली गलौज को ग्लैमरस बना उनकी स्वीकार्यता बढ़ाना समाज के शरीर में सकं्रमित खून चढ़ाने के समान ही घातक हो सकता है। जिसका खामियाजा किसी छोटी सी बात में किसी की हत्या करने वाला कोई आवेशित किशोर ताउम्र जेल की सलाखों के पीछे या कोई निर्भया बलात्कार का शिकार होकर भुगत सकती हैं। और शायद तब इस घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेने कोई फिल्मकार कभी आगे न आएं।

कपिल शर्मा भारतीय जनसंचार संस्थान एंव बिजनेस स्टैंडर्ड हिन्दी से जुड़ाव रहा है, वर्तमान में निर्वाचन एंव प्रशासनिक सुधारों से जुड़े विषयों पर कार्यरत है। संपर्क kapilsharmaiimcdelhi@gmail.com, 9631855475

Tags: FilmsInformation revolutionKapil SharmaSociology of Hindi Cinemaआईनाकपिल शर्माफिल्मसमाजसूचना क्रांति
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