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Home Contemporary Issues

जिंदगी के कुछ सबक को पहले ही पढ़ाए जाएं

जिंदगी के कुछ सबक को पहले ही पढ़ाए जाएं

उमेश चतुर्वेदी…

वो किताबों में दर्ज था ही नहीं,

सिखाया जो सबक जिंदगी ने….

मिशनरी भाव लेकर तमाम इतर प्रोफेशनल को छोड़ कर समाज बदलने की चाहत लेकर जिन्होंने पत्रकारीय कर्म को अख्तियार किया है, उन्हें पत्रकारीय जिंदगी में पग–पग पर जिस तरह के अनुभवों से दो–चार होना पड़ता है, उससे वसीम बरेलवी का यह शेर बार–बार याद आना स्वाभाविक ही है। अनुभवों की जमीन हर बार खुरदरी ही होती है, किताबों की आध्यात्मिक और इहलौकिक दुनिया से इतर असल जिंदगी में अलग अनुभव होने ही चाहिए…उसकी जमीन खुरदरी भी होनी चाहिए…ताकि किताबों से हासिल ज्ञान के जरिए उस खुरदुरापन को दूर किया जाए और जिंदगी को और बेहतर बनाया जाए। हतभाग्य, पत्रकारिता की असल दुनिया अतीत जितनी शानदार नहीं रही। जिंदगी की दूसरी विधाओं की तरह पत्रकारिता में ईमान और मिशनरीभाव वाले लोग आज हाशिए पर हैं। कहां समाज बदलने का सपना लेकर पत्रकारिता में आए थे, लेकिन खुद उन्हें ही बदलने की लगातार शिक्षा मिल रही है। बदलना भी क्या, कि दुनिया की रौ में बह जाओ। दुनिया की रौ है भी क्या…यह कि दलाली करो, राजनीति की चमचागिरी करो, कारपोरेट की कहानियों में जीवनरस खोजो। जिंदगी के असल सवालों से किनारा करते हुए निकल जाओ। मिशनरी भाव वाले पत्रकारों को सुझाव भी मिलते हैं कि भूल जाओ डी आर मनकेकर की पत्रकारिता, भूल जाओ आक्रामकता का भाव, सामने दिख रहा हो कि लोग भूखे मर रहे हैं, सामने कोई बड़ा एक्सीडेंट क्यों न हुआ हो, सामने राजनीति बड़ी घपलेबाजी क्यों न कर रही हो, लेकिन इन सवालों से– इन घटनाओं से जूझो मत। कलम चलाने की तो सोचो भी मत। तुम अपना ध्यान लगाओ कि किस तरह के होठों पर किस तरह और रंग का लिपस्टिक उचित रहेगा, घरों को सजाने के लिए क्या किया जा सकता है, ट्यूशन पढ़ाना किस संस्थान में अच्छा रहेगा, किस बिल्डर का घर सस्ता है और उसे किस तरह बुक कराया जा सकता है, दफ्तर में आगे बढ़ने के लिए बॉस को कैसे सेट किया जाए, सच बोलने से परहेज करते हुए किस तरह बॉस को अपनी तरफ आकर्षित किया जाय, शहर के रईसों के बेटों के मयपान और उनकी बेटियों के फैशन के नाम पर अर्धनग्न फोटो कैसे लिए जायं  और उन्हें किस तरह अपने प्रोडक्ट में प्रसारित किया जाय। आज की पत्रकारिता का सच यही है। टीवी हो या अखबार, हर जगह इन्हीं विषयों को नवाचार यानी इनोवेशन के नाम पर पेश किया जा रहा है। मार्केटिंग के दबाव में इन विषयों पर केंद्रित पत्रकारिता हो रही है। और यह सब हो रहा है, अप मार्केट के नाम पर। अप मार्केट मतलब खरीद क्षमता वाले उस मध्यवर्ग का, जिसके सपनों का वितान लगातार बढ़ता जा रहा है। वह रईसों की तरह महंगा मयपान करना चाहता है, अपनी औकात से ज्यादा की खरीददारी करना चाहता है, फैशन के नाम पर अर्धनग्नता में ही प्रगतिशीलता ढूंढ़ता है। चूंकि उपभोग और खर्च आधारित अर्थ व्यवस्था में इसी चलन के सहारे बाजार को बढ़ाने की सोच बढ़ी है, मध्यवर्ग के सपनों को विस्तारित करने की कोशिशें तेज हुई हैं ताकि वह अपनी कमाई से साठ फीसदी ज्यादा तक खर्च करने के लिए ना सिर्फ प्रेरित हो, बल्कि उतावला भी हो जाए। उच्च वर्ग वालों की संख्या तो बहुत कम है। जाहिर मध्यवर्ग के पास न तो उच्च वर्ग की तरह पैसे वाला बन पाने का मौका है और न ही ऐसा हो पाना मुमकिन ही है। इसके बावजूद अगर सपनों को बेचा जा रहा है, अप मार्केट के नाम पर विमर्शी विषयों से इतर बाजारोन्मुख विषयों पर पत्रकारिता केंद्रित होती जा रही है तो उसके पीछे मध्यवर्ग को लालची बनाने, बचत की अर्थव्यवस्था से पीछे हटाने और उपभोग केंद्रित सांचे में ढालने की कोशिश हीतो है।

आरोप तो लगा दिया जाता है कि इसके पीछे कारपोरेट का हाथ है, निगमित संस्थानों के अधीन आई मीडिया की बागडोर है। लेकिन यह तर्क का महज अकेला सिरा है। दूसरा सिरा तो शीर्ष पर बैठे पत्रकारों के चरित्र पर जाकर टिकता है। दिलचस्प यह है कि संघर्ष और दर्द की कहानियों को भुलाकर, विमर्शी विषयों को पीछे धकेलकर आगे लाने वाले कथित अपमार्केट वाले विषयों के पीछे पत्रकारिता के शीर्ष पर बैठे पत्रकारिता के ही लोग जिम्मेदार हैं। दिलचस्प बात यह है कि सबसे ज्यादा अनाचार वे लोग कर रहे हैं, जिन्होंने अपने जीवन के शुरूआती दौर में किसी न किसी विचारधारा का तमगा और गंडा हासिल किया था। इस जमात में वामपंथी भी हैं तो दक्षिणपंथी भी, समाजवादी भी तो कांग्रेसी भी। सबका अब एक ही धर्म रह गया है कि विमर्श को पीछे छोड़ो, संघर्ष और दर्द की कहानियों को विराम दो और कारपोरेटीकरण की आंधी में अपने मीडिया संस्थान को झोंक दो। इसी सोच के साथ वे सपनों को विस्तारित करने वाली कथित अपमार्केट की दुनिया को बढ़ाने में अपने मीडिया कर्मियों को टूल यानी औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। हां, इस दौरान उनके अपने ही संस्थान में उनके ही अधीन लोगों से आठ की जगह बारह घंटे की ड्यूटी कराई जाती है, उन्हें इसके लिए कोई ओवरटाइम नहीं मिलता, उन्हें वक्त पर कई बार तनख्वाहें भी नहीं मिलतीं, मेडिकल और दूसरी सुविधाएं तो खैर हैं ही नहीं ..लेकिन शीर्ष पर बैठे लोगों को इससे कुछ लेना–देना नहीं हैं..बस उनकी अपनी जेब भरती रहे..विचारधारा जाए भाड़ में, श्रम कानूनों का उल्लंघन उनके ही अपने अधीनस्थों का हो रहा है तो होता रहे…एक वामपंथी संपादक हैं, उनके दफ्तर में साप्ताहिक अवकाश तक का विधान नहीं हैं..एक संपादक को इस बात की चिंता ज्यादा रहती है कि उसके मातहत दो–तीन बार चाय क्यों पीने जाते हैं…

मीडिया के पतन की जब भी चर्चा होती है तो उसके पीछे सिर्फ पश्चिमी व्यवस्था, कारपोरेटीकरण, और पूंजीवाद को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। लेकिन अपने बीच के लोगों द्वार होते इस अनाचार को भुला दिया जाता है…कुछ उसी अंदाज में– जैसे सहारा रेगिस्तान का प्रतीक पक्षी रेत के अंधड़ों के बीच आंख बंद कर लेता है और यह समझ लेता है कि तूफान चला गया। अंग्रेजी राज के दौरान भी अगर इसी तरह की सोच रही होती तो फिर कोई गांधी आगे नहीं आता, वह यथास्थितिवाद में जुटा रहता। कोई पटेल नहीं आता, कोई नेहरू नहीं आता और कोई हेडगेवार भी नहीं आता…फिर देश गुलाम ही रहता क्योंकि यथास्थितिवाद के लिए तो जैसा अपना राज, वैसा अंग्रेजी राज।

जाहिर है, पत्रकारिता की असल जिंदगी के ये सबक किसी किताब में नहीं पढ़ाए जाते। मीडिया संस्थानों में पत्रकारिता की सिर्फ और सिर्फ रोमानी दुनिया और समाज बदलने के जज्बे के साथ कुछ तकनीकी जानकारीभर दे दी जाती है.. जिस देश के बारे में अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी कह चुकी हो कि 83 करोड़ 70 लाख लोग रोजाना बीस रूपए या उससे कम पर जीने को मजबूर हैं…उस देश की पत्रकारिता के लिए सवाल यह है कि क्या पत्रकारिता का मौजूदा रूख सही है…किताबों का सबक लेकर निकले शावक पत्रकार को यह सामाजिक बिडंबना कुछ ज्यादा ही मथती है..लेकिन इस आलोड़न के बीच लड़ने का उसे कोई किताबी सबक नहीं मिल पाया होता है तो वह या तो कुंठित हो जाता है या फिर देर–सवेर बदल जाता है और उसी कथित दलाली, अप मार्केटी दुनिया का अंग बन जाता है, जिसका विरोध ही पत्रकारिता का मूल चरित्र है…इससे नुकसान सिर्फ पत्रकारिता का ही नहीं होता, बल्कि समाज का भी होता है..क्योंकि विमर्शहीन समाज का कोई भविष्य नहीं होता, उधार की अर्थव्यवस्था को हाल के ही दिनों में मिले दो हिचकोलों ने भी साबित किया है कि इसका भी भविष्य सुरक्षित नहीं है। लिहाजा जरूरी है कि पत्रकारिता की खुरदरी–असल जिंदगी के सबक को भी पत्रकारिता के जिज्ञासुओं को पहले पढ़ाया जाय।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

Tags: उमेश चतुर्वेदीविशेष आलेख
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