भगवती प्रसाद डोभाल।
पत्रकारिता का पेशा अपनाने से पहले कुछ बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। कुछ वर्षों पूर्व पत्रकारिता के षिक्षण संस्थान बहुत कम थे। या कहें कि इतने बड़े देश और उसकी आवादी के हिसाब से पत्रकारिता शिक्षण संस्थान ना के बराबर थे। सहत्तर के दशक में इन गिने विश्वविद्यालयों में ही कोर्स थे। बनारस विश्वविद्यालय, आईआईएम दिल्ली, नागपुर आदि संस्थान थे, उनमें से गढवाल विश्वविद्यालय भी था। 1975-76 में हमारा पहला बैच था। जब हमनें पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा पास किया था। प्रैक्टिकल प्रशिक्षण के लिए स्वतंत्र भारत लखनऊ गये थे। लेकिन आज प्रशिक्षण की सुविधा तकरीबन सभी विश्वविद्यालयों ने शुरू कर दी है। यही नहीं कुकुरमुत्ते की तरह हर नुक्कड़ और गली में पत्रकारिता में कौशलता प्राप्त करने के प्रशिक्षण केंद्र खुल गये हैं।
इन निजी केंद्रों ने धन कमाने का यह धंधा खेला हुआ है। प्रशिक्षण में गुणवत्ता के हिसाब से ये खरे नहीं उतर रहे हैं। अच्छे अंक लाने और प्रतियोगिता के हिसाब से प्रतिभावान छात्र मान्यता प्राप्त प्रशिक्षण संस्थानों से प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं, लेकिन खाली मोटी फीस देकर इन छोटे मोटे संस्थानो से उन लोगों का पत्रकारिता का रुझान देखने को मिल रहा है जिन्हें कहीं अच्छे विषयों या कोर्सों में जगह नहीं मिल पा रही है। इस कारण पत्रकारिता का पेशा भी बदनाम हो रहा है। नौकरियों में इनकी होड़ लगी हुई है। लेकिन पत्रकारिता जिसे ‘जैक आफ आल ट्रेड’, कहा जाता है, वह स्थिति समाप्त हो रही है।
इसलिए पत्रकारिता संस्थानों के लिए एक चुनौती है कि वह अपने यहां से अच्छा प्रशिक्षण देकर पत्रकारिता क्षेत्र की आवश्यकता को पूरा करें। पत्रकारिता जगत और आने वाले पत्रकार का हर क्षण चुनौती भरा होता है। हर वक्त उसे कानून का ज्ञान होना आवश्यक है। किसी भी शब्द के प्रयोग करने पर कानून से निपटने का उसे ज्ञान होना चाहिए। अक्सर देखने में आ रहा है कि विशयों के पकड़ के अभाव में वे अपने पत्रकारिता के पेशे से न्याय नहीं कर पा रहे हैं।
यह भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि आपको नौकरी देने वाला यानि नियोक्ता आपके साथ पेशे के अनुरूप आपकी सेवाओं के प्रतिफल रोजगार मुहैया कर रहा है कि नहीं ? आपको आपके पेशे के अनुरूप आजिविका दे रहा है।
पत्रकारिता चाहे अखबार की हो, चाहे इलैक्ट्रोनिक मीडिया की पत्रकार को समाज के अलावा अपने प्रति भी जवाबदेह रहने की आवश्यकता है।
अखबारी दुनिया में आज नियोक्ता पत्रकार से चाहता तो बहुत कुछ है, पर बदले में उसे उसके कार्य के अनुरूप आजिविका चलाने की कोताही कर रहा है।
इसके प्रत्यक्ष उदाहरण आपके सामने है। पत्रकारों के लिए ‘वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट’ के अंर्तगत भारत सरकार वेजबोर्ड का गठन करती है। उस गठन में पत्रकार यूनियनों के प्रतिनिधि, नियोक्तओं के प्रतिनिधि और न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती है। यह वेजबोर्ड समय की मांग के हिसाब से पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए वेतन तय करता है। सबकी राय से सरकार के पास बोर्ड की सिफारिस भेजी जाती है। और तब भारत सरकार नोटिफिकेशन जारी कर अखबार मालिकों को नया बेतनमान देने को कहती है। पत्रकारिता के छात्रों को यह समझना आवश्यक है कि यह उनकी रोजी रोटी को सम्मान पूर्वक लेने का एक उपक्रम है। न्यूज चैनल अभी इस दायरे में नहीं आये हैं, लेकिन उनके नियोक्ताओं को भी यह एक आधार का काम करता है। पत्रकारों का शोषण न हो, यह भारत सरकार की ओर से व्यवस्था बनी है। यह पूरी तौर पर संवैधानिक व्यवस्था है।
लेकिन आज अफसोस की बात यह है कि वर्तमान मजीठिया वेजबोर्ड को लागू करने में खुद ही नियोक्ता बाधक बने हुए हैं।
सरकार के नोटिफिकेशन के बाद सारा अखबार उद्योग इसे रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय गया, लेकिन न्यायालय ने मजीठिया वेतन बोर्ड को लागू करने का आदेश दिया। फिर भी मालिक ना नुकुर करते हुए फिर सर्वोच्च न्यायालय पुर्नविचार के लिए गये। इस बार भी न्यायालय ने वेतन लागू करने का सख्ती से आदेश दिया।
इस आदेश की भी अबेहलना अखबार मालिक कर रहे हैं। ताज्जुब की बात तो यह है, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होते हुए भी, यह सारे लोकतंत्र के स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को नकार रहे हैं। अखबार मालिकों ने लोकतंत्र की सारी संस्थाओं की अवमानना की है। पत्रकार और पत्रकार यूनियनें सर्वोच्च न्यायालय अवमानना को लेकर गये हैं। न्यायालय के आदेश की बेसब्री से पत्रकारों को इंतजार है।
दुर्भाग्य की बात तो यह है, जो पत्रकार सामाजिक सुरक्षा के पहरेदार हैं, उनकी दुर्गति ये मालिक कर रहे हैं। उनकी ही नहीं सारी संवैधानिक संस्थाओं की अवहेलना करते हुए अराजकता का व्यवहार कर रहे हैं।
पत्रकारिता के पेशे में पैर रखने वाले नव पत्रकारों को इस मुख्य बात का ध्यान रखते हुए पेशे की गरिमा को बनाना होगा। और ऐसे लोगों से भी निपटना होगा जो अलोकतांत्रिक ढंग से अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।