– आनंद प्रधान
(एसोशिएट प्रोफ़ेसर, भारतीय जनसंचार संस्थान ),
लगता है कि भारतीय पत्रकारिता और पत्रकारों का समय कुछ अच्छा नहीं चल रहा है. जैसे ‘अच्छे दिन’ के बजाय उनके ‘बुरे दिन’ आ गए हों. पिछले कुछ महीनों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिससे न सिर्फ पत्रकारिता की साख पर कुछ और धब्बे लगे हैं, तस्वीर कुछ और मैली हुई है बल्कि उसके छींटे पत्रकारों पर भी पड़े हैं. उदाहरण के लिए, कारपोरेट जासूसी मामले में कुछ पत्रकारों की गिरफ्तारी हुई है जिनपर आरोप है कि वे आर्थिक–वित्तीय रूप से महत्वपूर्ण मंत्रालयों के महत्वपूर्ण दस्तावेजों को बड़े देशी–विदेशी कारपोरेट समूहों को बेचते थे.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका से यह तथ्य सामने आया कि एक बड़े कारपोरेट समूह– एस्सार से छोटे–बड़े लाभ लेनेवालों में नेताओं के साथ कुछ पत्रकार भी शामिल हैं. यह निश्चित तौर पर पत्रकारों की नेताओं और कार्पोरेट्स के साथ हद से ज्यादा बढती नजदीकियों और एक–दूसरे का इस्तेमाल करने की अनैतिक प्रवृत्ति का एक और उदाहरण है. दूसरी ओर, अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी पर सत्तातंत्र से लेकर ताकतवर हित समूहों का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है. सत्ता प्रतिष्ठान की उग्र दक्षिणपंथी–राष्ट्रवादी वैचारिकी के इर्द–गिर्द ‘सहमति निर्मिती’ (मैन्युफैक्चर्ड कंसेंट) और उस मुख्यधारा के दायरे से बाहर या उसे चुनौती देनेवाली हर अभिव्यक्ति के प्रति असहिष्णुता और आक्रामकता बढती ही जा रही है.
आश्चर्य नहीं कि फिल्मों–किताबों–डाक्यूमेंटरी पर इस या उस बहाने प्रतिबंध लगाने से लेकर फिल्मकारों–लेखकों–कामेडियनों–सोशल मीडिया पर तीखा लिखने–बोलनेवालों को निशाना बनाया जा रहा है. यहाँ तक कि कार्पोरेट और याराना पूंजीवादी विकास माडल के आलोचकों और विरोधियों की ‘देशभक्ति’ पर सवाल उठाते हुए उन्हें ‘देशद्रोही’ और ‘राष्ट्रविरोधी’ साबित करने में कोई कसर नहीं उठा रखी गई है. सत्ता प्रतिष्ठान और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसियों के साथ मुख्यधारा के कार्पोरेट न्यूज मीडिया का एक हिस्सा भी खुलेआम इस मुहिम में शामिल हो गया है. कल तक आई.टी कानून की धारा 66 A के आलोचक रहे आज उसके प्रशंसक बन गए हैं.
तीसरी ओर, इक्का–दुक्का अपवादों को छोड़कर देश के सभी बड़े और मंझोले अखबार समूह श्रमजीवी पत्रकार कानून और सुप्रीम कोर्ट को ठेंगा दिखाते हुए पत्रकारों के लिए घोषित मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को बेमानी बनाने में कामयाब दिख रहे हैं. अच्छी बात यह है कि निराशा के इस दौर में भी उम्मीदें खत्म नहीं हुई हैं. ये उम्मीदें उन संघर्षों से बन रही हैं जो अभिव्यक्ति और लोकतान्त्रिक विरोध की आज़ादी से लेकर पत्रकारों के लिए घोषित वेतनमान को लागू कराने के लिए हो रही हैं. ये उम्मीदें उन लोकतान्त्रिक आवाजों से भी पैदा हो रही हैं जो मुख्यधारा के कार्पोरेट न्यूज मीडिया की एजेंडा सेटिंग और उसकी वैचारिक तानाशाही को चुनौती दे रही हैं.
सतही तौर ऐसा लग सकता है कि इन सभी घटनाओं, मुद्दों और प्रक्रियाओं के बीच कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है लेकिन सच यह है कि इनके बीच गहरा सम्बन्ध है और वे एक–दूसरे से जुडी हुई हैं. असल में, इन सभी का सम्बन्ध उस विशाल पूंजीवादी प्रचार तंत्र से हैं जो देश में पूंजीवादी कार्पोरेट विकास के माडल के पक्ष में एक आक्रामक ‘सहमति निर्माण’ करने में जुटा है. इसके लिए वह नव उदारवादी और उग्र हिन्दू राष्ट्रवादी–दक्षिणपंथी–अनुदार वैचारिकी के घातक काकटेल का सहारा ले रहा है. इसके जरिये देश में राजनीतिक–वैचारिक असहिष्णुता एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जिसमें लगभग हर असहमत और विरोधी आवाज़ निशाने पर है.
यही नहीं, इस ‘राजनीतिक–वैचारिक सहमति निर्माण’ के लिए साम–दाम–दंड–भेद सभी तौर–तरीके आजमाए जा रहे हैं. इसके लिए एक ओर बड़ी कारपोरेट पूंजी और भ्रष्ट/आपराधिक पूंजी को समाचार माध्यमों पर बेलगाम दबदबा बनाने की छूट दे दी गई है जो बदले में समाचार माध्यमों को कार्पोरेट विकास माडल के अहर्निश गुणगान का भोंपू बनाने में जुटी हुई है. दूसरी ओर, पारदर्शिता और सूचनाओं की साझेदारी के दावों के बीच सूचनाओं खासकर कार्पोरेट विकास माडल और याराना पूंजीवाद के गठजोड़ को उजागर करनेवाली सूचनाओं को दबाने–छुपाने के लिए गोपनीयता का अभेद्य आवरण तैयार किया जा रहा है.
इसके साथ ही, ‘सूचनाओं का प्रबंधन’ के लिए तेजी से बढ़ते जनसंपर्क (पब्लिक रिलेशंस) उद्योग और कार्पोरेट समूहों के कार्पोरेट संचार तंत्र का समाचार माध्यमों के न्यूजरूम में घुसपैठ और प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है. आश्चर्य नहीं कि एक ओर संपादकों/पत्रकारों को सत्ता और कार्पोरेट के एजेंट या प्रवक्ता में बदलने के लिए लुभावने आफरों की भरमार है और दूसरी ओर, जो संपादक/पत्रकार इसके लिए तैयार नहीं हैं उन्हें समाचार माध्यमों से बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है. ज्यादातर समाचार कक्षों में पत्रकारिता और पत्रकारों को ‘साहस, दृढ़ता, स्वतंत्रता और असहमति’ के बजाय ‘समझौता, समर्पण, सहमति और स्वीकार्यता’ में बाँधने की कोशिश हो रही है.
ऐसा नहीं है कि यह सब पिछले कुछ महीनों में शुरू हुआ है और उससे पहले पत्रकारिता और समाचार माध्यमों का कोई आदर्श दौर था. सच यह है कि भारतीय समाचार माध्यमों के कारपोरेट टेकओवर की यह प्रक्रिया लम्बे अरसे खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पिछले डेढ़ दशकों से जारी थी जिसमें पिछले पांच–सात सालों में और तेजी आई है लेकिन पिछले कुछ महीनों में यह प्रक्रिया अपनी परिणति पर पहुँचती हुई दिखाई दे रही है. यही नहीं, एक बड़ा फर्क यह भी है कि इसे स्वाभाविक मान लिया गया है और इस परिणति को लेकर सवाल और आलोचना के सुर भी मंद पड़ने लगे हैं.
कारपोरेट जासूसी और पत्रकारिता
उदाहरण के लिए इन दिनों सुर्ख़ियों में छाई कार्पोरेट जासूसी और उसमें कुछ पत्रकारों के शामिल होने के मामले को ही लीजिये. रिपोर्टों के मुताबिक, पुलिस ने केंद्र सरकार के विभिन्न आर्थिक–वित्तीय मंत्रालयों खासकर पेट्रोलियम, खान, वित्त, स्टील, बिजली, उद्योग आदि में नीति निर्माण और महत्वपूर्ण फैसलों से जुड़े संवेदनशील दस्तावेजों की चोरी और उसे बड़े कार्पोरेट समूहों को बेचने के मामले में कुछ निम्न स्तर के सरकारी कर्मचारियों, कार्पोरेट अधिकारियों, कंसल्टेंट्स और दो पूर्व पत्रकारों की गिरफ्तारी की है. समाचार रिपोर्टों के अनुसार, ये पत्रकार कार्पोरेट समूहों के लिए उनके एजेंट की काम कर रहे थे और मंत्रालयों तक अपनी सहज पहुँच का इस्तेमाल करके उनके लिए सूचनाएं लीक करते थे.
ख़बरों के मुताबिक, पुलिस और ख़ुफ़िया सूत्रों को और कई पत्रकारों खासकर बिजनेस और आर्थिक बीट कवर करनेवाले पत्रकारों पर शक है कि वे कार्पोरेट समूहों के लिए सूचनाएं लीक करने का काम करते हैं. जानकारों का मानना है कि इन आरोपों में काफी हद तक सच्चाई भी है. इसकी पुष्टि नीरा राडिया टेप प्रकरण से भी होती है जिसमें कई पत्रकारों/संपादकों को कार्पोरेट समूहों की लाबीइंग करनेवाली नीरा राडिया के इशारों पर काम करते या रिपोर्ट करते सुना गया था. यही नहीं, पिछले दो–ढाई दशकों में ऐसे अनेकों मामले सामने आये हैं जिसमें वरिष्ठ पत्रकारों/रिपोर्टरों/संपादकों ने पत्रकारिता छोड़कर कार्पोरेट समूहों के पीआर/कार्पोरेट कम्युनिकेशन/अफेयर्स विभाग को ज्वाइन कर लिया और उनके लिए पीआर/लाबीइंग करते हैं.
इसमें अनैतिक या गलत कुछ नहीं है लेकिन यह शक पैदा होता है कि कहीं यह हितों के टकराव (कनफ्लिक्ट आफ इंटरेस्ट) का मामला तो नहीं था? कहीं ये रिपोर्टर/संपादक पत्रकारिता करते हुए उन कार्पोरेट समूहों के लिए तो काम नहीं कर रहे थे? संभव है कि उनमें से कई उनके लिए काम न करते हों लेकिन ऐसे कई मामले हैं जिनसे इस आशंका को बल मिलता है कि अनेकों रिपोर्टरों/पत्रकारों ने पत्रकारिता में रहते हुए कुछ खास कार्पोरेट समूहों के लिए काम किया और बाद में उनके मुलाजिम बन गए.
ऐसे मामलों की कमी नहीं है जिनमें पत्रकारों/संपादकों ने किसी खास कार्पोरेट समूहों के अनुकूल स्टोरी करने से लेकर उनके हितों को आगे बढ़ानेवाली स्टोरी प्लांट करने तक और उनकी सरकार के अन्दर तक पहुँच सुनिश्चित कराने से लेकर उनके लिए सत्ता के गलियारों में लाबीइंग करने तक जैसे गैर पत्रकारीय और अनैतिक काम किए हों. कई जानकारों का मानना है कि यह एक व्यापक और सांस्थानिक रोग बन चुका है खासकर बिजनेस पत्रकारिता में. उनके मुताबिक, ईमानदारी और स्वतंत्र तरीके से काम करनेवाले रिपोर्टरों/पत्रकारों की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही है और उन्हें अपवाद माना जाना चाहिए.
हालाँकि इस दावे पर सहज विश्वास नहीं होता है लेकिन नीरा राडिया प्रकरण से लेकर अब तक यमुना में इतना पानी बह चुका है कि इस सच्चाई को नकारना आसान नहीं है. और अब कार्पोरेट जासूसी मामले से लेकर कार्पोरेट समूह– एस्सार से सुविधाएँ लेनेवाले पत्रकारों की सूची सामने आने के बाद इसे नकारना और मुश्किल हो गया है. यह सचमुच बहुत शर्मनाक और लोगों की निगाह में पत्रकारिता की साख को गिरानेवाला है. लेकिन क्या यह सिर्फ कुछ पत्रकारों/संपादकों के निजी विचलन हैं या यह एक सांस्थानिक विचलन का नतीजा है जिसके शिकार पत्रकार हो रहे हैं?
यह बहुत महत्वपूर्ण और गंभीर सवाल है क्योंकि कार्पोरेट मीडिया समूह इसे निजी विचलन बताकर और कुछ पत्रकारों/संपादकों के खिलाफ कार्रवाई करके खुद को पाक–साफ़ बताने की कोशिश कर रहे हैं. सच यह नहीं है. सच यह है कि पत्रकारों/संपादकों के विचलन के लिए उनकी न्यूज मीडिया कंपनी कहीं ज्यादा जिम्मेदार है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस स्थिति के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार वजह समाचार माध्यमों का बढ़ता कारपोरेटीकरण और उनमें अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की होड़ है.
हैरानी की बात नहीं है कि एस्सार से लाभ लेने के मामले में ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ की जिस वरिष्ठ बिजनेस संपादक का नाम सामने आया है, उसने सवाल उठाया है कि अगर उसका एस्सार से अपने दोस्त के लिए रेंटल कार मांगना नैतिक विचलन है तो उसने अपने संपादकों और कंपनी के कहने पर कार्पोरेट समूहों से उनके लिए जो स्पोंसरशिप या मदद मांगी, वह नैतिक विचलन क्यों नहीं है? (http://scroll.in/article/710336/Hindustan-Times-staffer-named-in-Essar-case-accuses-senior-editors-of-blurring-ethical-lines-too ) यह सवाल बहुत वाजिब है. इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है.
असल में, हाल के वर्षों में कार्पोरेट मीडिया समूहों में इस प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा है जिसमें पत्रकारों/संपादकों का इस्तेमाल कंपनी के मुनाफे और हितों को बढाने के लिए संगठित तौर पर किया जा रहा है. मीडिया कम्पनियाँ पत्रकारों/संपादकों की पहुँच और प्रभाव का इस्तेमाल करके उनसे चैनल/अखबार के लिए विज्ञापन लाने से लेकर मीडिया कंपनियों की ओर से राजस्व जुटाने के विभिन्न कार्यक्रमों के लिए स्पांसर ढूंढने तक के लिए इस्तेमाल कर रही हैं. यहाँ तक कि कई कार्पोरेट मीडिया कंपनियों में रिपोर्टरों/संपादकों का इस्तेमाल उनके और उद्योग–धंधों के लिए लाइसेंस/परमिट दिलवाने के वास्ते लाबीइंग करने से लेकर उनके वैध/अवैध कामों को संरक्षण दिलवाना भी हो गया है.
हालत कहाँ तक पहुँच गई है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि कुछ कार्पोरेट–बिजनेस घरानों और चिट फंड जैसे धंधे चलानेवाली मीडिया कंपनियों में रिपोर्टिंग/संपादक के ऊपर के पदों तक नियुक्ति या पहुँचने की यह सबसे बड़ी शर्त हो गई है कि उस पत्रकार की सत्ता के गलियारों में किस स्तर तक पहुँच और प्रभाव है और वह कंपनी के बिजनेस हितों को कहाँ तक आगे बढ़ा सकता है? इसी तरह कई बड़े मीडिया समूहों ने स्थानीय स्तर पर अपने जिला संवाददाताओं को सालाना विज्ञापन/बिजनेस जुटाने का लक्ष्य दे दिया है जिससे उन्हें वेतन और कुछ कमीशन मिलता है.
जाहिर है कि अपनी मीडिया कंपनी के लिए विज्ञापन/स्पांसर जुटाते या उसके लिए लाइसेंस/परमिट की लाबीइंग करते हुए रिपोर्टर/पत्रकार/संपादक जिन नेताओं/मंत्रियों/अफसरों/कार्पोरेट्स से मदद मांगते हैं, क्या वे उनके खिलाफ कोई खबर लिख सकते हैं? साफ़ है कि यहाँ कोई चीज मुफ्त नहीं है (देयर इज नो फ्री लंच). यह एक तरह का अलिखित और अघोषित समझौता है. हालाँकि प्राइवेट ट्रीटी (ब्रांड कैपिटल) जैसी नैतिक रूप से विवादस्पद स्कीमों के जरिये ‘टाइम्स आफ इंडिया’ जैसी कई बड़ी कार्पोरेट मीडिया कंपनियों ने इसे लिखित समझौते का रूप भी दे दिया है.
सवाल यह है कि जब कार्पोरेट मीडिया कम्पनियाँ खुद अपने पत्रकारों/संपादकों को अपनी स्वतंत्र भूमिका छोड़कर समझौते करने और कंपनी के हितों को आगे बढ़ने के नामपर उनका इस्तेमाल कर रही हैं तो अगर रिपोर्टर/संपादक खुद भी लाभ लेने लगें और अपनी पहुँच/प्रभाव का इस्तेमाल अपने निजी हितों के लिए भी करने लगें तो इसके लिए किसे दोषी ठहराया जाना चाहिए? दूसरे, अगर न्यूज मीडिया कंपनी/संस्थान स्वतंत्र और ईमानदार हो तो वह उन पत्रकारों/संपादकों से बहुत आसानी से निपट सकता है जो अनैतिक कामों में लिप्त हैं. लेकिन अगर मीडिया कंपनी खुद पत्रकारों/संपादकों को अनैतिक कामों और समझौतों के लिए मजबूर करे तो क्या वहां किसी ईमानदार, स्वतंत्र और साहसी पत्रकार के लिए टिक पाना संभव होगा?
लीक बनाम खोजी पत्रकारिता
एक बार फिर कार्पोरेट जासूसी मामले पर लौटते हैं. यहाँ एक और सवाल उठाना जरूरी है जिसे जान–बूझकर नजरंदाज किया जा रहा है. यह ठीक है कि जो सरकारी कर्मचारी–अधिकारी–कार्पोरेट समूह–पत्रकार मंत्रालयों से महत्वपूर्ण और संवेदनशील दस्तावेज निजी हितों के लिए लीक या चोरी कर रहे थे, वह न सिर्फ अनैतिक बल्कि एक गंभीर अपराध है. लेकिन यहाँ सवाल यह है कि कार्पोरेट जासूसी के शोर–शराबे में कहीं सूचनाओं के प्रवाह को रोकने की कोशिश तो नहीं हो रही है? कहीं इस हंगामे की कीमत सरकार के अन्दर भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के बारे में जानकारी देनेवाले व्हिसल–ब्लोअर और वास्तव में, याराना पूंजीवाद का पर्दाफाश करनेवाले पत्रकारों/न्यूज मीडिया समूहों को तो नहीं चुकानी होगी?
याद रहे कि खोजी पत्रकारिता भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के मामलों का पर्दाफाश करने के लिए सबसे ज्यादा सरकार के अन्दर बैठे सूत्रों और गोपनीय सरकारी दस्तावेजों के लीक पर ही आश्रित रही है. अगर सरकार के अन्दर से ऐसी जानकारियां और दस्तावेज निकलने बंद हो जाएँ तो समझिये कि खोजी पत्रकारिता का भी अंत हो गया. यह सच है कि मीडिया समूहों के कारपोरेटीकरण के इस दौर में खोजी पत्रकारिता को खोजना वैसे भी मुश्किल हो गया है और इक्का–दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर न्यूज मीडिया कंपनियों ने खोजी पत्रकारिता से तौबा कर ली है. आश्चर्य नहीं कि सरकार के अन्दर से सूचनाओं के प्रवाह को सीमित करने और उसपर अंकुश लगाने का कोई मीडिया समूह विरोध नहीं कर रहा है.
लेकिन कार्पोरेट जासूसी मामले में जिस तरह से सरकार के अन्दर सूचनाओं को बाहर आने से रोकने के लिए व्यापक उपाय, दिशा निर्देश (http://indianexpress.com/article/india/india-others/waste-paper-to-phone-use-govt-revives-checklist-against-leaks/ ) और सख्ती की जा रही है और भय का माहौल बन गया है, उससे तय है कि बचे–खुचे खोजी पत्रकारों के लिए आनेवाले दिन और मुश्किल होने जा रहे हैं. विडम्बना यह है कि इससे सबसे ज्यादा फायदा भ्रष्ट नेताओं–अफसरों और कार्पोरेट्स को होगा क्योंकि गोपनीयता की आड़ में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार फलता–फूलता है. इस आशंका को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि बड़े देशी–विदेशी कार्पोरेट समूहों की सत्ता प्रतिष्ठान में ऊपर तक पहुँच है और उनके ताकत और प्रभाव को देखते हुए यह मानना मुश्किल है कि सरकार के गोपनीय और महत्वपूर्ण दस्तावेजों तक उनकी पहुँच नहीं होगी.
याद रहे कि नीरा राडिया टेप से यह साफ़ हो चुका है कि कार्पोरेट समूह अपनी पसंद के मंत्री से लेकर अफसर नियुक्त कराने में कामयाब हैं. तथ्य यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के बाद से सरकारी नीतियों के निर्माण में कार्पोरेट क्षेत्र, बड़े उद्योगपतियों, उनके लाबी संगठनों, उनके पैसे पर चलनेवाले थिंक टैंक्स और उनके सलाहकारों की घोषित–अघोषित भूमिका और हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया है. प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति से लेकर नीति आयोग तक और संसदीय समितियों से लेकर टास्क फ़ोर्स और उच्च स्तरीय समितियों तक में बड़े कार्पोरेट समूहों और उद्योगपतियों की मौजूदगी किसी से छिपी नहीं है और न ही नीतियों को प्रभावित करने की उनकी क्षमता किसी से छिपी है.
ऐसे में, कार्पोरेट जासूसी पर अंकुश लगाने के दावे में कितनी आग है और कितना धुंआ इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है? इस कारण इस आशंका को ख़ारिज नहीं किया जा सकता है कि सरकार के अन्दर से सूचनाओं के प्रवाह के रुकने, पत्रकारों की पहुँच सीमित करने और व्हिसल–ब्लोअर पर सख्ती से सबसे ज्यादा फायदा याराना पूंजीवाद को होगा और उसकी सबसे ज्यादा कीमत आमलोग चुकायेंगे.
सेंसर और बैन युग?
आश्चर्य नहीं कि इन सबके बीच देश में कार्पोरेट विकास माडल का आलोचना करनेवाली हर आवाज़ को दबाने, डराने, खामोश करने और प्रतिबंधित करने की कोशिशें बढती ही जा रही हैं. इसके लिए राज्य की एजेंसियों के साथ–साथ गैर राज्य ताकतों की सक्रियता बढ़ गई है. असहमति और विरोध की आवाजों के प्रति इस बढती असहिष्णुता के अगुवा दस्ते में बड़े मीडिया समूह भी शामिल हैं जो खुलेआम सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलनों और उनके नेताओं–कार्यकर्ताओं के राष्ट्रवाद पर ऊँगली उठाने के अलावा उन्हें विकास विरोधी और देशद्रोही साबित करने के प्रचार अभियान में शामिल हैं.
हालाँकि यह भी एक कड़वा सच है कि इसी बीच देश में सांप्रदायिक और धार्मिक नफरत की भाषा बोलनेवालों (हेट स्पीच) और अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनानेवाले संगठनों और नेताओं/धर्मगुरुओं को जहरीला अभियान चलाने की खुली छूट सी मिल गई है. लेकिन दूसरी ओर, असहमति की आवाजों और लोकतान्त्रिक और शांतिपूर्ण जनांदोलनों को निशाना बनाया जा रहा है. यही नहीं, जिस तरह एक बहुसंख्यकवादी (मेजोरिटेरीयन) सोच और शासन को वैधता दिलाने और आगे बढ़ाने की कोशिश हो रही है, उसमें अभिव्यक्ति की आज़ादी से लेकर तमाम संवैधानिक हकों/प्रावधानों के बेमानी होने का खतरा बढ़ता जा रहा है.
अफसोस की बात यह है कि कार्पोरेट न्यूज मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इसे देखकर भी अनदेखा करने और कुछ मामलों में उसका सहभागी बनने में संकोच नहीं कर रहा है. उससे बहुत अपेक्षा करना भूल होगी. ऐसे में, नागरिक समाज की सचेतनता और सक्रियता के साथ–साथ राजनीतिक–सामाजिक जनसंगठनों के जनतांत्रिक संघर्षों में ही उम्मीद की किरणें दिखाई देती हैं. इसके लिए उन्हें वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करने पर भी सोचना होगा. उम्मीद पत्रकारों के उन छोटे और छिटपुट संघर्षों से भी बनी है जो ‘चुप्पी और भय’ के माहौल को तोड़कर अखबारों में मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू कराने के लिए बड़ी–मंझोली कार्पोरेट मीडिया कंपनियों से लड़ाई में उतर आये हैं. क्या कुछ महीनों पहले तक कोई इसकी उम्मीद कर सकता था? (http://www.caravanmagazine.in/vantage/how-dainik-jagran-employees-have-taken-their-management-over-majithia )
आनंद प्रधान
(संपर्क: anand.collumn@gmail.com और ट्विटर: @apradhan1968 )