डॉ. देवव्रत सिंह।
आजकल फिल्म निर्माता फिल्म के अंदर भी अनेक उत्पाद के विज्ञापन करने लगे हैं। ये विज्ञापन कहानी के साथ इस प्रकार गुंथे हुए होते हैं कि कई बार दर्शकों को ये अहसास तक नहीं होता कि उन्होंने विज्ञापन देखा है। अगर निर्माता पांच ब्रांडों को अपनी फिल्म के साथ जोड़ दे तो अच्छी धन राशि उसे निश्चित रूप से मिल जाती है
पिछले लगभग एक दशक के दौरान भारतीय सिनेमा पूरी तरह बदल गया है। अपनी स्थानीय पहचान को बरकरार रखते हुए एक हद तक ये ग्लोबल भी हो चुका है। इस दौरान भारतीय सिनेमा ने दुनिया में अपनी पहचान को निखारा है। साथ ही अपना कारोबार भी दुनिया भर में फैलाया है। बदलाव की आंधी ने भारतीय सिनेमा के लगभग सभी पहलुओं को ना केवल छूआ है बल्कि उन्हें नये रूप में ढ़लने को मजबूर कर दिया है। फिल्मों की कथा वस्तु, निर्माण तकनीक, वितरण एवं प्रदर्शन का ढ़ांचा सभी कुछ पहले की तुलना में बेहतर और आधुनिक बन गया है। निरंतर विस्तार लेते आय के स्रोतों से फिल्म उद्योग अब अधिक जोखिम भरा नहीं रहा।
नये कारोबारी समीकरण
आजादी के बाद भारतीय फिल्म जगत में तेजी से विस्तार हुआ। पूरे भारत में सिनेमा हॉल बड़ी तादाद में खुलने लगे। फिल्म वितरण का कारोबार भी एक व्यवस्थित ढंग से आकार लेने लगा। निर्माता फिल्म बनाता, वितरक फिल्मों का वितरण करता और देश भर में फैले सिनेमा हॉल के मालिक फिल्मों का प्रदर्शन करते। निर्माता-वितरक-प्रदर्शक की ये तिकड़ी ही सिनेमा की धुरी थे। वितरकों ने अपनी सुविधा के लिए देश को विभिन्न टेरिटेरी में बांटा हुआ था। लेकिन नब्बे के दशक तक आते आते इस कारोबारी समीकरण में बदलाव आने शुरू हो गये। अब फिल्म वितरण का काम चंद बड़ी कंपनियों के हाथों में सिकुड़ने लगा। इनमें प्रमुख हैं एड लेब्स, यूटीवी, इरोज इंटरनेशनल, सोनी पिक्चर्स, सहारा वन, जी टेलीफिल्म, बालाजी टेलीफिल्मस, मुक्ता आट्र्स, पीवीआर पिक्चर्स, परसेप्ट पिक्चर्स।
सबसे पहले निर्माताओं ने फिल्मों के बेहतरीन संगीत के महत्व को समझा और फिल्म रिजीज होने से पहले ही उसके म्यूजिक राइट्स बेचने लगे। सुभाष घई की फिल्म ताल का निर्माण कुल 18 करोड़ में किया गया था लेकिन उसके संगीत के अधिकार ही केवल नौ करोड़ में बिक गये। हालांकि इसके लिए पहली शर्त ये भी है कि फिल्म का संगीत कर्णप्रिय और लोकप्रिय हो। इसका एक लाभ ये भी होता है कि फिल्म के गीत और धुन लोगों की जुबान पर होने से लोग फिल्म का इंतजार करना शुरू कर देते हैं। संगीत फिल्म का प्रचार खुद करता है। आजकल फिल्मी गीतों की धुनो को रिंगटोन के रूप में भी काफी प्रचलित किया जाता है। निर्माता को रिंगटोन के अधिकार बेचने से भी मोटी कमाई होती है। इंटरनेट पर लोकप्रिय फिल्म साइटों को आने वाली फिल्म के पोस्टर और वॉलपेपर बेचकर भी निर्माता खूब कमाई करते हैं।
आजकल फिल्म निर्माता फिल्म के अंदर भी अनेक उत्पाद के विज्ञापन करने लगे हैं। ये विज्ञापन कहानी के साथ इस प्रकार गुंथे हुए होते हैं कि कई बार दर्शकों को ये अहसास तक नहीं होता कि उन्होंने विज्ञापन देखा है। अगर निर्माता पांच ब्रांडों को अपनी फिल्म के साथ जोड़ दे तो अच्छी धन राशि उसे निश्चित रूप से मिल जाती है। इसके अलावा निर्माता अपनी पब्लिसिटी के लिए अनेक मीडिया समूहों या चैनलों से अनुबंध कर लेते हैं। जैसे हर दूसरी फिल्म के किसी ना किसी सीन में टेलीविजन पत्रकार को जरूर दिखाया जाता है। ऐसे में फिल्म निर्माता उस चैनल से विज्ञापन का करार कर लेता है। इसी प्रकार रेडियो चैनलों को भी फिल्म निर्माता अपना पार्टनर बना लेते हैं। फिल्म में विज्ञापन के अलावा आजकल चैनल सोची समझी विज्ञापन रणनीति के तहत फिल्म रिलीज होने से पहले फिल्मकार और हीरो-हिरोइन को अपने स्टूडियो में साक्षात्कार के लिए आमंत्रित कता है। अक्सर इस प्रकार के कार्यक्रम आधे घंटे के विशेष प्रोग्राम होते हैं।
मार्केटिंग के नये नुस्खे
जब फिल्म सिनेमा हॉल में कमाई कर चुकी होती है तो फिल्म निर्माता वीडिया सीडी और डीवीडी के राइट्स भी बेचता है। क्योंकि आज भी भारतीय दर्शकों को एक बड़ा हिस्सा मल्टीप्लैक्स में जाकर फिल्म नहीं देखता। ये दर्शक इंतजार करता है कि फिल्म की सीडी या डीवीडी बाजार में आए तभी घर पर आराम से बैठकर फिल्म देखी जाए। निर्माता अकसर फिल्म की अधिकारिक वीसीडी और डीवीडी काफी देर से मार्केट में उतारते हैं। इसी कारण बड़ी मात्रा में पाइरेटिड सीडी और डीवीडी का कारोबार भी खूब फल फूल रहा है। इनमें से अधिकांश सीडी तो फिल्म के थियेटर प्रिंट होते हैं। यानी जैसे ही फिल्म सिनेमा हॉल में रिजीज होती है, फिल्म को गैरकानूनी ढंग से कैमरे से रिकोर्ड कर लिया जाता है और फिर उसकी सीडी बनाकर बाजार में बेचा जाता है। कई बार निर्माता फिल्में भारत से पहले विदेशों में रिलीज कर देते हैं। ऐसे में विदेशों से भी फिल्म की पाइरेटिड सीडी भारत में गैर कानूनी ढंग से भेजी जाती है।
जब निर्माता को लगता है कि फिल्म सिनेमा हॉल या मल्टीप्लैक्स में पूरा पैसा कमा चुकी है तो वो सैटेलाइट्स चैनलों और डीटीएच कंपनियों को फिल्म के अधिकार बेचता है। ये अधिकार एक निश्चित अवधि के लिए बेचे जाते हैं। जैसे किसी चैनल को केवल चैबीस घंटे के लिए ही फिल्म दिखाने के अधिकार बेचे जाते हैं तो कई बार केवल एक बार दिखाने का करार किया जाता है। पिछले दिनों तारे जमीं पर फिल्म के अधिकार जी की डीटीएच कंपनी डिश टीवी को बेचे गये। जिसे काफी समय तक डिश टीवी ने अपनी मूवी ऑन डिमांड सेवा में दर्शकों को पचास रूपये के भुगतान पर दिखाया।
ग्लोबल होता फिल्म बाजार
भारतीय फिल्मकार दुनियाभर में फैले भारतीय दर्शकों के महत्व को भी पहचान चुके हैं। अनेक फिल्मों के प्राथमिक दर्शक तो अनिवासी भारतीय ही होते हैं। ये फिल्में भारत से पहले अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और आस्ट्रेलिया में रिलीज की जाती हैं। इन फिल्मों की कहानी भी उन्हीं की रूचि के मुताबिक होती है और अनेक फिल्मों की शूटिंग विदेशों में ही की जाती है। स्वाभाविक है कि विदेश में रिलीज करने से निर्माताओं को अच्छी कमाई होती है। भारतीय फिल्म कारोबार अपना चेहरा पूरी तरह बदल चुका है। अब ये करोड़ों का जूआ ना होकर सोचा समझा निवेश बन चुका है। एक जमाना था कि फिल्म कारोबार की अनिश्चितता के कारण लोग इमें पैसा लगाने से डरते थे। इसलिए बड़ी मात्रा में काला धन इस कारोबार में लगने लगा था। फिल्मों के बढ़ते बजट के कारण ही अंडरवर्ल्ड का पैसा भी इसमें लगना शुरू हो गया था। लेकिन जबसे सरकार ने सन् 2000 में फिल्म को उद्योग का दर्जा दिया है, बैंकों ने फिल्मों के लिए कर्ज मुहैया कराना आरंभ कर दिया। अब फिल्म कंपनियां पहले से अधिक पारदर्शी और व्यवस्थित हो चली हैं। फिल्म निर्माता अब सलीके से फिल्म को एक उत्पाद के रूप में बाजार में उतारती है। उसके लिए विज्ञापन और मोर्केटिंग की रणनीति बनाती हैं और फिल्म रिलीज होने से पहले ही ये सुनिश्चित करती हैं कि फिल्म कम से कम अपनी लागत तो आसानी से निकाल ही लें।
अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण का एक रूप फिल्मों में ग्लोबल निवेश के रूप में देखने को भी मिल रहा है। भारतीय फिल्म कंपनियां दुनिया के दिग्गज फिल्म समूहों से निर्माण के क्षेत्र में मेलजोल कर रही हैं। ये अनुबंध तकनीक का भी है तो निवेश का भी। अमेरिका की प्रसिद्ध फिल्म कंपनियां स्टूडियोज-वार्नर, एमजीएम, कोलंबिया, ट्वंटीथ सेंचुरी फॉक्स और वाल्ट डिजनी भारतीय फिल्म उद्योग में निवेश कर रही हैं। संजय लीला भंसाली की फिल्म सांवरिया में सोनी-कोलंबिया ने निवेश किया। हाल ही में रिलीज हुई यश चैपड़ा की एनिमेशन फिल्म रोड़ साइड रोमियो को वाल्ट डिजनी के साथ मिलकर बनाया गया है। अनेक हॉलीवुड फिल्मों में साउंड और वीडियो इफेक्ट्स का काम भारतीय कंपनियों को आऊटसोर्स किया जा रहा है। हैदराबाद, चैन्नई, बंगलूरू, मुम्बई और पूना में इस तरह के काम में अनेक छोटी-छोटी कंपनियां लगी हुई हैं।
मल्टीप्लैक्स क्रांति
नब्बे के दशक के अंत में दिल्ली के एक पॉश इलाके में देश का पहला मल्टीप्लैक्स खुला। तब शायद किसी को ये अनुमान भी नहीं था कि ये मल्टीप्लैक्स आने वाले समय में देश में मल्टीप्लैक्स क्रांति का जनक बनेगा। पीवीआर अनुपम के नाम से खुला ये मल्टीपलैक्स जल्दी ही दिल्ली में चर्चा का केन्द्र बन गया और फिल्म प्रेमियों का केन्द्र भी। हालांकि आरंभ में दर्शकों को इसकी टिकट काफी महंगी लगी। लेकिन दर्शकों ने मल्टीप्लैक्स के आरामदायक माहौल को देखकर धीरे-धीरे महंगी टिकट को भी स्वीकार कर लिया। पिछले दस साल के दौरान देश के सभी बड़े शहरों में मटीप्लैक्सों की संख्या तेजी से बढ़ी है। भारतीय सिनेमा जगत में मल्टीप्लैक्स क्रांति ने अनेक समीकरणों को पूरी तरह बदल दिया है।
हम इस समय मल्टीप्लैक्स क्रांति के दौर से गुजर रहे हैं। मल्टीप्लैक्स ने फिल्म देखने को शापिंग, रेस्टोरेंट और अन्य मनोरंजन के साधनों से जोड़ दिया है। अब मल्टीप्लैक्स एक मनोरंजन के केन्द्र के रूप में देखा जाता है ना कि सिनेमा हाल की तरह। इस समय देश में एडलैब्स (179), पीवीआर (101), आईनोक्स (84), सिनेमैक्स (62), और फेमइंडिया (61), पूरे देश में तेजी से अपने स्क्रीनों की श्रृंखला बढ़ा रहे हैं। मल्टीप्लैक्स क्रांति अब बड़े शहरों से निकल कर बी व सी क्लास शहरों में अपने पैर पसार रही है। मल्टीप्लैक्स का जादू अब भोपाल, लखनऊ, जयपुर, अमृतसर, कानपुर, इंदौर, नासिक इत्यादि शहरों में लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। एक अनुमान के मुताबिक इस समय पूरे देश में करीब 250 मल्टीप्लेक्सों में 800 स्क्रीन मौजूद हैं। हालांकि पश्चिम के मुकाबले अभी स्क्रीनों की संख्या काफी कम है लेकिन इस दिशा में विस्तार की गति को देखें तो आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले कुछ सालों में ही ये संख्या एक हजार को पार कर जाएगी।
मल्टीप्लैक्स क्योंकि छोटे और एक साथ कई स्क्रीन वाले होते हैं। टिकट खिड़की से अब भीड़ के कारण घर लौटना नहीं पड़ता आप एक नहीं तो दूसरी फिल्म देख सकते हैं। इसी कारण छोटे बजट की फिल्मों को भी अब दर्शक मिलने की आस जगी है। पोपलर थीम की फिल्मों के साथ लीक से हटकर रचनात्मक फिल्मों को भी अब दर्शक सिनेमा हाल में जाकर देख सकते हैं। अधिक स्क्रीन होने के कारण प्रत्येक मल्टीप्लैक्स को एक पोपुलर बड़े बजट की फिल्म के साथ छोटे बजट की फिल्मों को स्क्रीन करने का मौका मिलता है। शायद कुछ हद तक ये उनकी मजबूरी भी कही जा सकती है। लेकिन इसका परिणाम ये निकला कि भारतीय फिल्मकार अब कहानी में प्रयोग करने लगे हैं। नयी कथाओं को भी अवसर मिलने लगा है। अनेक छोटे बजट की फिल्मों ने तो जबरदस्त कारोबार किया है। उदाहरण के लिए पेज थ्री और इकबाल जैसी अनेक फिल्में अपने विशिष्ट दर्शक वर्ग के कारण काफी देखी गयी।
डिजीटल तकनीक का ग्लैमर
भूमंडलीकरण का असर अब तकनीक के स्तर पर भी साफ दिखने लगा है। भारतीय सिनेमा जगत में नये फिल्मकारों का एक ऐसा समूह उभर चुका है जो नवीनतम फिल्म तकनीक का दीवाना है। उसमें दुनिया के किसी भी कोने में उपयोग में लायी जाने वाली तकनीक को तुरंत ग्रहण करने का उत्साह भी है और क्षमता भी। सही मायने में अब फिल्मकारों के बीच एक प्रतिस्पर्धा जन्म ले चुकी है। एक तरफ तो वे विदेशी फिल्मों से दौड़ लगा रहे हैं दूसरी तरफ वे अपने समकालीन फिल्मकारों के साथ-साथ हर बार खुद को पीछे छोड़ने को तुले हुए हैं। इसे पश्चिम का असर ही कहा जाएगा कि हमारी फिल्में पहले से अधिक फास्ट हो गयी हैं। फिल्मों में कैमरा संचालन पहले से अधिक प्रयोगवादी और जोखिमभरा बन गया है। संपादन तकनीक में नये वीडियो और साउंड इफैक्ट्स इस्तेमाल किये जा रहे हैं। फिल्में अधिक सुंदर व तकनीक के स्तर पर निपुण बन रही हैं। ग्लैमरस बनाने के लिए हर संभव तकनीक का सहारा लिया जा रहा है। स्वाभाविक रूप से फिल्मों का बजट भी पहले की तुलना में बढ़ा है। एक-एक सीन के लिए महीनों मेहनत की जा रही है।
मल्टीप्लैक्स तो अपने पर्दे और साउंड की गुणवत्ता के लिए जाने जाते ही हैं पुराने सिनेमा हाल भी साउंड के क्षेत्र में डालबी और डीटीएस साउंड को अपना रहे हैं। उधर फिल्मकार भी साउंड पर पहले की तुलना में अधिक ध्यान दे रहे हैं। साउंड पर लगभग तस्वीर जितना ही मेहनत होने लगी है। पुराने सिनेमा हाल तेजी से डिजीटल प्रोजेक्टर खरीद रहे हैं। इस समय देश के 13000 सिनेमा हाल में से करीब 2000 स्क्रीन डिजीटल हो चुके हैं। सिनेमा प्रोजेक्टर के डिजीटल होने से न केवल पर्दे पर तस्वीर की गुणवत्ता बेहतर हुई है बल्कि इससे पाइरेसी रोकने में भी मदद मिली है। डिजीटल तकनीक को अपनाना मल्टीप्लैक्स क्रांति के दौर में स्वयं को बचाए रखने के लिए जरूरी भी है।
पूरे देश के सिनेमा हालों के लिए मुंबई से किसी भी लोकप्रिय फिल्म आरम्भ में अधिकतम 400 से 500 सेल्यूलाइड प्रिंट निकाले जाते हैं। स्वाभाविक रूप से पहले ये प्रिंट मैट्रो शहरों में दिखाये जाते थे। कुछ दिन चलने के बाद छोटे शहरों की बारी आती थी। और उन्हें बड़े शहरों के घिसे हुए प्रिंट ही देखने को मिलते थे। लेकिन डिजीटल प्रिंट के बाद अब छोटे शहरों में भी दर्शक उसी समय फिल्म का आनंद ले सकते हैं जब वो फिल्म दिल्ली मुंबई में रिलीज होती है। मजेदार बात ये है कि गुणवत्ता अच्छी होने के बावजूद डिजीटल प्रिंट की कीमत सेल्यूलाइड से कम होती है। मुक्ता आट्र्स और एडलैब्स जैसी बड़ी कंपनियां छोटे शहरों के सिनेमा हालों को डिजीटल बनाने में मदद कर रही है। बदले में ये कंपनियां फिल्म प्रदर्शन से होने वाली आय में भागीदारी से अपना पैसा वसूलती हैं। बेहतर गुणवत्ता वाली नयी फिल्में दिखाने से पुराने हालों में नयी रौनक लौट रही है और उनकी आय में पचास फीसदी तक का इजाफा हो रहा है।
भारतीय सिनेमा का भविष्य
पश्चिम के अनुभव से सीखें तो भारत में भी अगली प्रतिस्पर्धा गुणवत्ता की ही होगी। भारतीय दर्शक भी धीरे-धीरे परिपक्व हो चले हैं। उन्हें ना केवल नयी विषयवस्तु की समझ हो चुकी है बल्कि युवा पीढ़ी तकनीक के बारे में भी बहुत कुछ जानती है। मल्टीप्लैक्स क्रांति के बूते अब दर्शकों की पसंद के रास्ते खुल गये हैं। पिछले दो तीन सालों की बाक्स आफिस रिपोर्ट ये कहती है कि अब दर्शक किसी एक निर्माता-निर्देशक की बनाई हुई फिल्म देखने नहीं जाते। ना ही वे किसी एक हीरो या हिरोइन के दीवाने हैं बल्कि वे तो कला के पारखी की तरह प्रत्येक फिल्म का विश्लेषण करते हैं। अगर उन्हें लगता है कि फिल्म वास्तव में दर्शनीय है तभी वो मल्टीप्लैक्स तक अपने चार घंटे निकाल कर जाते हैं। स्वाभाविक रूप से इंटेलीजेंट दर्शक इंटेलीजेंट फिल्म की उम्मीद करेगा।
हाल ही में रिलीज हुई बाहुबली और बजरंगी भाईजान ने कमाई के पुराने सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये हैं। बाहूबली में एनिमेशन, ग्राफिक्स और स्पेशल इफैक्ट्स का मेल उसे यादगार और अमेरिकी फिल्मों के बराबर खड़ा कर देता है तो बजरंगी भाईजान में कॉमेडी और भावनाओं का संगम उसे मानवीय सरोकारों से जोड़ता है। भारत में फिल्मे सांस्कृतिक दस्तावेज रहीं हैं। संतोष की बात ये है कि पिछले एक दशक में अनुराग कश्यप, दिबाकर बैनर्जी, तिग्मांशू धूलिया, विक्रमादित्य मोटवानी, रितेश बत्रा, सुजॉय घोष, आनंद गांधी आदि नये फिल्म निर्देशक प्रयोगधर्मी हैं और नयी समकालीन कहानियों को नये अंदाज़ में पेश कर रहे हैं। हिन्दी से इतर अन्य भारतीय भाषाओं में भी फिल्म निर्माता पहले से अधिक प्रयोगधर्मी हो रहे हैं।
दर्शकों को अब तीन और साढे़ तीन घंटे की फिल्म भी लंबी लगने लगी है। शायद व्यस्त युवा पीढ़ी सिनेमा देखना तो चाहती है लेकिन उसके पास इतनी लंबी फिल्म देखने का समय नहीं है। कुछ निर्माता समय की किल्लत को ध्यान में रखकर छोटी फिल्में बनाना आरंभ कर चुके हैं। इसके अलावा भारत में फिल्मों का इतनी बड़ी संख्या में निर्माण अब भी अचरज भरा है। कुछ निर्माता तो फिल्म निर्माण का काम जूता फैक्टरी की तरह कर रहे हैं। बिना किसी नये विषय और होम वर्क के फिल्मों का निर्माण अंततः घाटे का ही सौदा होता है।
पिछले कुछ सालों से बड़े कलाकार साल में केवल एक फिल्म ही करते हैं। इसी प्रकार कई निर्माता-निर्देशकों ने भी फिल्में बनाना पहले की तुलना में कम कर दिया है। उनका मानना है थोड़ी फिल्में बनाओं लेकिन बेहतर बनाओ। बाजार भी यही कहता है कि एक ही फिल्म से चार फिल्मों जितनी कमाई की जा सकती है। यदि वो दर्शकों के मन को छू ले और इसके लिए चाहिए नयी कथा वस्तु, नये विचार, नयी तकनीक, नयी पीढ़ी की समझ और गुणवत्ता के साथ निरंतर नया करने का आग्रह। भारतयी सिनेमा का नया दौर पुराने फार्मूलों से आज़ाद होने की छटपटाहट है और ये जद्दोजहद शुभ है।
डॉ. देव व्रत सिंह झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।