Many Voices One World, also known as the MacBride report, was a UNESCO publication of 1980 but still relevant to understand contemporary communication issues. The publication is a classic in the study of communication. The commission was chaired by Irish Nobel laureate Seán MacBride. Among the problems the report identified were concentration of the media, commercialization of the media, and unequal access to information and communication. The commission called for democratization of communication and strengthening of national media to avoid dependence on external sources, among others. Subsequently, Internet-based technologies considered in the work of the Commission, served as a means for furthering MacBride’s visions.
संचार जीवन को चलाता है और उसमें जान डाल देता है। यह सामाजिक गतिविधि और सभ्यता का संचालक तथा उसकी अभिव्यक्ति है, यह लोगों की खोज, नियंत्रण और आदेश की विभिन्न प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं के जरिए सहज वृत्ति से प्रेरणा की ओर ले जाता है। यह विचारों का साझा भंडार बनाता है, संदेशों के आदान-प्रदान के जरिए साहचर्य की भावना को मजबूत करता है और मानव जीवन के सबसे छोटे कार्यभार से लेकर सृजन या विनाश की सर्वोच्च अभिव्यक्तियों तक हर एक भाव और जरूरत को प्रकट करते हुए विचार को क्रिया में बदल देता है। संचार ज्ञान, संगठन और सत्ता को एकाकार कर देता है ताकि मनुष्य की आदिम स्मृतियों से लेकर उसकी सभ्यतम आकांक्षाओं तक को बेहतर जीवन के लिए उसकी निरंतर कोशिश के जरिए एक सूत्र में जोड़ देता है। जैसे-जैसे दुनिया आगे बढ़ी है वैसे-वैसे संचार का प्रकार्य भी उत्पीडऩ और भय से मानव जाति की मुक्ति में योगदान करना और उसे समुदाय तथा सहजीवन, एकजुटता तथा आपसदारी में एकताबद्ध करना। बहरहाल यदि कुछ बुनियादी ढांचागत परिवर्तन नहीं किए जाते तो तकनीकी और संचार संबंधी प्रगति के संभावित लाभों का उपयोग बहुसंख्यक मानव जाति शायद ही कर पाएगी।
1. अतीत जो वर्तमान है
मानव जाति को संचार की विभिन्न क्षमताएं जन्मजात प्रचुरतापूर्वक प्राप्त हैं। प्रजाति के बतौर उसकी सफलता का श्रेय उसकी संगठन क्षमता तथा इन प्राकृतिक देनों को सुधारने, विकसित और विस्तारित करने की कुशलता को जाता है जिनके कारण उसने अपने जैविकीय विकास को प्रभावित किया है। मनुष्य की शुरुआती चिंताओं में से एक अपने संदेशों का प्रभाव, उनकी विविधता और सुगमता बढ़ाने की रही है। इसी के साथ इन संदेशों को बीच में ही पकड़ लेने और उन्हें समझ लेने की क्षमता बढ़ाने की कोशिश भी वह करता रहा है।
समूचे इतिहास में मनुष्य ने अपने आस-पास के वातावरण के बारे में सूचना प्राप्त और एकत्र करने की अपनी शक्ति बढ़ानी चाही। इसी के साथ उसने सूचना प्रसारित करने के अपने तरीकों में गति, स्पष्टïता और विविधता भी बढ़ाई। यह पहले आसन्न खतरों की जानकारी कराने और फिर उन खतरों से निपटने की सामाजिक संभावना तलाशने के लिए जरूरी था।
मनुष्य ने अपनी शारीरिक रचना में ही निहित सरलतम आवाजों और भंगिमापरक संकेतों से शुरू किया, फिर तमाम तरह के अभाषिक साधन संदेश पहुंचाने के लिए विकसित कर डाले। संगीत और नृत्य, नगाड़े से संदेश, आग जलाकर संदेश देना, रेखांकन और ग्राफिक प्रतीक के अन्य रूप, पिक्टोग्राम फिर आइडियोग्राम जो खासकर महत्त्वपूर्ण था क्योंकि इसने किसी वस्तु की प्रस्तुति को किसी अमूर्त विचार के साथ जोड़ दिया। लेकिन जिस चीज ने मानव संचार को खासकर शक्तिशाली बना दिया और प्राणी जगत में मनुष्य को मुख्य जगह दी वह थी भाषा का विकास। इसका महत्त्व संचार की अंतर्वस्तु को विस्तार और गहराई देने तथा अभिव्यक्ति की सटीकता और फैलाव के मद्देनजर बहुत अधिक था। संचार के ये सभी तरीके और साधन एक साथ प्रयोग होते थे। ये साधन व्यक्तियों के अस्तित्व के लिए अपरिहार्य थे क्योंकि वे अपने आपको तरह-तरह के समाजों में संगठित कर रहे थे और इसलिए उन्हें एक-दूसरे के साथ तथा समुदायों के बीच सूचना के आदान-प्रदान के लिए दोनों ही तरीकों की जरूरत थी।
दरअसल मनुष्य द्वारा प्रयुक्त संचार के तरीकों की विविधता और उत्कृष्टïता असीम है। संचार के रूप और उसकी अंतर्वस्तु लगातार विकसित अैर विविधतापूर्ण होती गई है। दूरदराज के लोगों के बीच संपर्क के अभाव के कारण भिन्न-भिन्न भाषाओं का विकास हुआ। लेकिन इसकी खास वजह यह थी कि विभिन्न आर्थिक, नैतिक और सांस्कृतिक परम्परा वाले समाजों को अलग-अलग शब्द भंडार और भाषायी संरचना की जरूरत थी।
इसके साथ समुदायों के भीतर विभिन्न सामाजिक समूहों का अंतर-खासकर प्रभुत्वशाली अभिजन और व्यापक जनता के बीच का अंतर-मुहावरों और शब्द भंडार, शब्दों के अर्थ और उच्चारण में अंतर के रूप में प्रकट हुआ। आज लाखों लोग ऐसी भाषा बोलते हैं जिन्हें उनके पड़ोसी नहीं समझते। हालांकि उनके बीच घनिष्ठï सामाजिक और आर्थिक संपर्क स्थापित हो चुका है और आबादियों में तालमेल भी हुआ है। इस तरह एक विरोधाभास पैदा होता है। भाषाओं की समृद्धि और उनकी विविधता संचार को कठिन बना सकती है, जैसे इनका परिष्कार विशेषाधिकार को आगे बढ़ा सकता है।
बहुत शुरू से सामाजिक प्रकार्य के रूप में संचार किसी समाज या समाज के किसी हिस्से के अपने पारंपरिक नियमों, रिवाजों और विधि निषेधों के मातहत रहा है। इसलिए संचार के पारंपरिक साधन और उनकी आचार संहिता विभिन्न सभ्यताओं या संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न हैं। अतीत के और वर्तमान में भी मौजूद पारंपरिक समाजों का अध्ययन करने से पता चलता है कि पारंपरिक संचार का रूप उन विभिन्न तरीकों से बना, जिस तरह उन समाजों में सांस्कृतिक, कानूनी, नैतिक और धार्मिक संस्थाओं का विकास हुआ।
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धार्मिक नेताओं, विद्वानों या विजेताओं द्वारा लागू की गई कुछ एक भाषाओं को खास दर्जा हासिल हो गया, कभी-कभी वह सत्ता और विशेषाधिकार का आधार भी बन गई। मुट्ठी भर लोगों द्वारा बोली जाने वाली कोई भाषा विद्वता, अभिलेख संग्रह और धार्मिक रीति-रिवाज का माध्यम बन सकती है। मसलन भारत में संस्कृत या मध्यकालीन यूरोप में लैटिन। शासक और जमींदार बन चुके विजेताओं की भाषा वाणिज्य, प्रशासन और कानून में प्रयोग में आने लगती है। साम्राज्यवाद के दौर में शासक तबकों की भाषा उपनिवेशों में प्रशासन, लिखित कानून, उच्च शिक्षा, विज्ञान और तकनीक की भाषा बन गई तथा इन क्षेत्रों से बहिष्कृत पुरानी भाषाओं का विकास थम गया। एशिया और अफ्रीका के वर्तमान स्वतंत्र कुछ देशों में अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषाओं की कमोबेश यही स्थिति है। इसके कारण इन राज्यों में और पड़ोसी देशों में समस्याएं पैदा हो सकती हैं। खासकर पश्चिमी अफ्रीका और कैरेबियाई देशों में जो अलग-अलग देशों की गुलामी से मुक्त हुए।
शब्द मानव अनुभव के प्रतीक होते हैं और उनमें अंतर्निहित बोध समय बीतने के साथ तथा नई परिस्थितियों के समक्ष बदल जाते हैं। इसके अलावा सभी भाषाएं लगातार परिवर्तनशील स्थिति में रहती हैं। यह परिवर्तन कभी धीरे-धीरे आता है कभी तेजी से। वे चिंतन और ज्ञान, उत्पादन की तकनीकों, सामाजिक संबंधों, राजनीतिक और आर्थिक ढांचों में होने वाले विकास से प्रभावित होते हैं। इसलिए शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं और उनके नए प्रयोग होने लगते हैं, विशिष्टï तकनीकी शब्द आम चलन में आ जाते हैं, और नए शब्दों की खोज होती है। औपचारिक भाषा और रोजमर्रा की बोली के बीच तथा पुरानी और नई पीढ़ी की बोली के बीच हमेशा फर्क रहता है। यह प्रक्रिया हमें बताती है कि भाषा ज्ञान का संग्रह नहीं होती बल्कि, मुनष्य की जरूरतों के हिसाब से ढाला गया औजार होती है।
मनुष्य की दूसरी महान उपलब्धि लेखन है। यह बोले गए शब्दों को स्थायी बनाता है। बहुत पहले उत्सवों से संबंधित क्रियाकलाप व विधि-विधान तथा रीति रिवाजों को स्थायी रूप से मिट्टïी की पटरियों, पत्थरों पर उत्कीर्णन या ग्रंथ के जरिए दर्ज कर लिया जाता था क्योंकि ये समुदाय में निरंतरता बनाए रखते थे और उसकी अभिव्यक्ति के काम आते थे। लेखन के विकास के कारण सर्वाधिक सार्थक, प्रतीक आधारित संदेशों को सुरक्षित रखना आसान हो गया जो समुदाय के स्थायी अस्तित्व की गारंटी करते थे। हस्तलिखित और ग्रंथबद्ध किताबों का इतिहास तीन हजार साल पुराना लगता है। पुराने जमाने की कई महान सभ्यताओं में किताब चिंतन और ज्ञान की अमूल्य निधि बन गई थी। तकरीबन दो हजार साल पहले चीनी शासकों ने उस समय उपलब्ध तमाम वैज्ञानिक और ऐतिहासिक ज्ञान को किताबों की श्रृंखला के जरिए दर्ज कर लेने की योजना शुरू की थी, यही पहला विश्वकोष बना। हालांकि यह बात भी दिमाग में रखनी चाहिए कि प्राचीनकाल के महान पुस्तकालय सामान्य और धार्मिक विद्वानों के प्रयोग तथा प्रशासकों की सुविधा के लिए बनाए गए थे। बहुत दिन बाद ही इस विशेषाधिकार प्राप्त घेरे के बाहर किताबों के प्रसार की कोशिश की गई।
बहुत शुरू से सामाजिक प्रकार्य के रूप में संचार किसी समाज या समाज के किसी हिस्से के अपने पारंपरिक नियमों, रिवाजों और विधि निषेधों के मातहत रहा है। इसलिए संचार के पारंपरिक साधन और उनकी आचार संहिता विभिन्न सभ्यताओं या संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न हैं। अतीत के और वर्तमान में भी मौजूद पारंपरिक समाजों का अध्ययन करने से पता चलता है कि पारंपरिक संचार का रूप उन विभिन्न तरीकों से बना, जिस तरह उन समाजों में सांस्कृतिक, कानूनी, नैतिक और धार्मिक संस्थाओं का विकास हुआ।
सदियों तक और कहीं कहीं तो हजारों साल तक पृथ्वी के अधिकांश निवासी अपनी छोटी-छोटी सामाजिक इकाईयों (कबीला या गांव) के भीतर ही पूरी तरह सिमटे रहे। उनके बीच सामाजिक संपर्क का मुख्य रूप अंतर्वैयक्तिक संचार ही था। अजनबी लोग (यात्री, तीर्थयात्री, घुमक्कड़, सैनिक) कभी-कभी ही आते थे। इसके कारण इस संन्यासी जैसे जीवन की दिनचर्या बहुत कम भंग होती थी। बाहर से खबरों का आना सार्वजनिक जीवन परिणामस्वरूप व्यक्तिगत जीवन के कई पहलुओं के लिए जरूरी था। खासकर छोटे समुदायों में इस तरह का अंतर्वैयक्तिक संचार हमेशा बिना रुके मौजूद रहा और इसका कोई विकल्प नहीं था। अतीतकाल में इसने बाहरी सता द्वारा थोपे गए बिखराव को रोकते हुए साथीपन और सहकार के मूल्यों को मजबूत बनाने में मदद की होगी। जो भी हो इसमें हमेशा ही समाजीकरण का तत्त्व मौजूद रहा, सामूहिक सामंजस्यपूर्ण के महत्त्व को इसने प्रोत्साहित किया होगा, प्राकृतिक शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष में और सामूहिक निर्णय की प्रक्रिया में इसने लोगों को एकजुट रखा होगा। मानव संचार के क्षेत्र में अब भी इसकी जगह कोई नहीं ले सकता।
धीरे-धीरे पारंपरिक समाजों में भी संचार का उसी तरह संस्थानीकरण हुआ जैसे बाद के समाजों में। अंतर्वैयक्तिक संचार और नियमों तथा रिवाजों के प्रसारण के रूप में सार्वजनिक संस्थानीकृत संचार साथ-साथ ही चलते रहे। जैसे संचार का संस्थानीकरण हुआ, उसी तरह ऐसे पेशेवर लोग सामने आए जो सामूहिक स्मृति के संरक्षक थे और कुछ खास तरह के संदेशों का प्रसारण करते थे- मौखिक इतिहासकार, चारण, ओझा, कबीला सरदार, घुमन्तू, व्यापारी, पंचायत सरपंच, स्थानीय प्रशासक, नर्तक, मुंशी इत्यादि। संचार का शुरुआती संस्थानीकरण अधिकाधिक जटिल होते समाजों के विकास के समानान्तर चलता रहा और इस विकास को उसने बढ़ावा भी दिया।
लेकिन संचार का देशगत विस्तार धीमी गति के कारण सीमित रहा। मनुष्य की आवाज वहीं तक पहुंचती थी जहां तक सुनाई दे और लिखित संदेश किसी धावक, घोड़े, चिडिय़ा या पानी के जहाज जितना ही तेज चल सकता था। यह सही है कि इस सुस्त चाल के बावजूद ज्ञान और विचार जहां पैदा हुए वहां से बहुत दूर जड़ जमा सके। दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में हिंदू मंदिर विचारों की इस गतिशीलता और सूचना प्रवाह के ज्वलंत उदाहरण हैं, बुद्ध, ईसा मसीह और मुहम्मद साहब की शिक्षा का प्रसार प्रभावी ढंग से उस समय दूर-दूर हुआ जब यात्राएं धीमी, कष्टï साध्य और खतरनाक हुआ करती थीं। लाखों लोगों के चिंतन और विश्वास में बदलाव के लिए विद्युत-चुम्बकीय लहरों की जरूरत नहीं पड़ी। फिर भी अधिकांश समाजों में और ऐसे समाजों में भी जहां का सांस्कृतिक स्तर बहुत ऊंचा था, बदलाव की रफ्तार सुस्त रही और इसका संबंध संचार की धीमी गति से है। इन समाजों के भीतर और उनके बीच आपस में भी यह धीमी गति कायम रही।
बहरहाल, इस प्रारंभिक स्थिति में भी समाचार प्रसार हर एक संगठित समाज का एक पहलू था जिसमें सामाजिक जीवन के कई पहलू समाहित थे। समाचार प्रसार के बगैर उस प्रगति की कल्पना असंभव है जो प्रशासन, व्यापार, शिक्षा, अर्थतंत्र और सैनिक क्षेत्रों में की गई लेकिन इन समाचारों का क्षेत्र विस्तार सीमित था, इनके स्रोत और श्रोता दोनों ही अव्यवस्थित थे, ये परंपरा और शासक सत्ता को बल पहुंचाते थे, निष्क्रियता और भाग्यवाद को प्रोत्साहित करते थे, स्थापित व्यवस्था-शासक और देवताओं तथा बहुधा दैवीय गुणों से विभूषित सत्ता को मजबूत करते थे। अत: संचार समाजों के भीतर और उनके बीच महान विचारों के प्रसार, शासकों और व्यापक जनता के बीच संबंध तथा समाजों के संरक्षण और स्थायित्व के लिहाज से निश्चय ही महत्त्वपूर्ण था।
अतीत की ओर यह संक्षिप्त दृष्टिï अकारण नहीं डाली गई। ऐसा यह दिखाने के लिए किया गया कि आधुनिक संचार की बीमारियों और उसके लाभों की जड़ें सुदूर अतीत में हैं। लेकिन यह ऐसा अतीत है जो अब भी हमारे साथ है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में प्रयुक्त संचार के साधनों के मामलों में और उस सामाजिक विरासत के मामले में भी जो संचार के विकास का कारण और उसका परिणाम दोनों है। संचार के पारंपरिक साधन न सिर्फ कुछ स्थितियों में आज भी उपयोगी हो सकते हैं बल्कि वे सामान्यत: आधुनिक संचार की विकृतियों को सुधार भी सकते हैं। जिन राहों से गुजरकर संसार का विकास हुआ, अतीत में जो रूप इसने धारण किए और इसके लक्ष्यों तथा इसके साधनों की व्यापकतर समझ इसके भविष्य के प्रति हमें आशावान बना सकती है। हमारे सर्वेक्षण की इस शुरुआती स्थिति में भी उन मुद्दों की पहचान संभव है जो हमारी रिपोर्ट में बार-बार सामने आएंगे।
ये मुद्दे हैं- (क) जो संचार को नियंत्रित और निर्देशित करते हैं उनकी शक्ति, (ख) सामाजिक मान्यताओं और परिणामस्वरूप सामाजिक गतिविधि पर इसका प्रभाव, (ग) प्रत्येक समाज में विभिन्न समूहों और वर्गों के बीच असमानता, (घ) औपनिवेशिक शासन द्वारा थोपी गई अधीनता या कम से कम जल्दी और तेजी से विकसित होने से प्राप्त लाभ। लेकिन अगर आज हम इन समस्याओं के सामने खड़े हैं तो उन्हें ज्यादा सकारात्मक और आशाजनक दिशा में मोड़ भी सकते हैं। यह कल्पना संभव है कि (क) संचार की प्रक्रिया तक व्यापक जनता की पहुंच और भागीदारी के जरिए सत्ता का विकेंद्रीकरण हो, (ख) शिक्षा और समाजीकरण की शक्ति के बतौर संचार के लाभों का फायदा उठाया जाए, (ग) लोकतंत्रीकरण के जरिए असमानताओं में कमी लाई जाए, (घ) अधीनता के अवशेषों का अंत हो जाए और पूर्ण राष्टï्रीय स्वाधीनता सच्चाई में बदल जाए।
2. वर्तमान की जड़ें
संचार के आधुनिक युग की शुरुआत आमतौर पर छपाई के आविष्कारों से मानी जाती है। हालांकि यह मान्यता सही है फिर भी दो बातों का ख्याल रखा जाना चाहिए। पहली महतवपूर्ण बात तो यह है कि जो चित्र और लेख पहले पत्थर या लकड़ी पर उत्कीर्ण थे उनको छपाई के जरिए अधिक संख्या में पुनरूत्पादित करने की तकनीक तकरीबन ढाई हजार साल पहले आई। दूसरी जैसा कि बाद में ज्ञात हुआ इस आविष्कार का प्रभाव जन सूचना के विकास की बजाय किताबों के जरिए ज्ञान और विचारों के प्रचार प्रसार के क्षेत्र में ज्यादा प्रकट हुआ।
चीनी, भारतीय, ग्रीको रोमन और मिस्र की सभ्यताओं में किताब चिंतन और ज्ञान का अमूल्य खजाना थी। इसने कम जगह में और स्थायी रूप से काफी मात्रा में सूचनाओं को एकत्र करने का साधन मुहैया कराया। किताब के उत्पादन में पहली महत्त्वपूर्ण प्रगति कागज के आविष्कार के साथ आई। कागज ने पपीरस और चर्मपत्र को पीछे छोड़ दिया। चीन में कागज का प्रयोग पहली शताब्दी में शुरू हुआ, अरब में आठवीं शताब्दी में और यूरोप में चौदहवीं शताब्दी में किताब खरीते की बजाय कागज के ग्रंथबद्ध पन्नों से बनती थी जिसके कारण संदर्भ के लिए उसका प्रयोग काफी आसान हो गया। पत्थर या लकड़ी के बने सांचों के जरिए पुनरूत्पादन की तकनीक लगभग 500 ई.पू. की है। आगे की ओर दूसरी बड़ी छलांग छपाई के आविष्कार के साथ लगाई गई। यह तकनीक चीन में नवीं शताब्दी में शुरू हुई और फिर यूरोप में पंद्रहवीं शताब्दी में। अब हाथ से नकल उतारने की कठिन प्रक्रिया अपनाए बगैर एक ही किताब की कई प्रतियों का उत्पादन संभव हो गया। क्रमश: कुछ महत्त्वपूर्ण किताबें एक हद तक शिक्षा प्राप्त लोगों का साझा बौद्धिक अस्त्र बन गईं। उनकी उपलब्धता ने साक्षरता को प्ररेणा प्रदान की। कुछ देशों में सोलहवीं शताब्दी तक शहरी आबादी का एक बड़ा हिस्सा साक्षर हो चुका था।
ये परिवर्तन धार्मिक या राजनीतिक सिद्धांतों की पृष्ठïभूमि के बगैर नहीं आए। सार्वजनिक व निजी सत्ताओं तथा स्वतंत्र चेतना के बीच चिंतन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर हमेशा संघर्ष जारी रहा। अशोक कालीन भारतवर्ष में स्वतंत्रता की सीमाओं पर बहस-मुबाहिसे की जानकारी मिलती है, विक्षुब्ध हिब्रू संप्रदायों ने गुफाओं में छिपकर अपनी पुस्तकें बचायीं, एथेंस में सुकरात ने ‘नौजवानों को भ्रष्टï’ करने की कीमत अपनी जान देकर चुकायी। छपाई के आविष्कार और इस संभावना के कारण यह विवाद और तीखा हो गया कि ‘खतरनाक विचार’ अपने प्रवर्तकों के तात्कालिक प्रभाव से बहुत दूर तक भी फैल सकते हैं।
अक्सर तकनीकी प्रगति को खतरे के बतौर देखा गया, कई बार छापे खानों को प्रतिबंधित कर दिया गया और फिर लाइसेंस लेकर ही उन्हें छपाई की अनुमति दी गई, कभी-कभी उन्हें नष्टï भी कर दिया गया। दर्शन या प्राकृतिक विज्ञानों में नए चिंतन को अपवित्रता या ईश द्रोह कहकर बदनाम किया गया। जिन्हें आजकल श्रद्धापूर्वक युग प्रवर्तक बुद्धिजीवी कहा जाता है उन्हें किताबें छपाने से रोका गया, विश्वविद्यालयों से निकाला गया, गंभीर दंड की धमकी देकर अपने विचारों को छोड़ देने का आदेश दिया गया, जेल में ठूंस दिया गया या मौत के घाट तक उतार दिया गया। जो आविष्कार अरब या फारस में पहले हो चुके थे उन्हें मध्ययुगीन यूरोप की संकीर्णता ने बहुत दिनों तक अपने यहां आने से रोके रखा। जब छपाई का युग आया और पुस्तकों का प्रसार व्यापक रूप से होने लगा तो अधिकारियों का कोई भी फरमान इस लहर को नहीं रोक सका और उन परिवर्तनों का रास्ता साफ हो गया जो पुनर्जागरण और सुधार युग तक पहुंचे।
सत्रहवीं शताब्दी में किताबों के बाद समसामयिक पैंपलेट छपने लगे और फिर अखबार प्रकट हुए। कुछ शुरुआती अखबारों की स्थापना व्यापार, माल जहाजों की आवाजाही इत्यादि से संबंधित सूचनाएं देने के लिए की गई। उदीयमान पूंजीवादी व्यवस्था के लिए आवश्यक सेवाएं उन्होंने प्रदान कीं। कुछ अन्य अखबारों में भंडाफोड़, लोकापवाद और सामाजिक तथा राजनैतिक परिदृश्य के बारे व्यंग्यपूर्ण टिप्पणियां छपती थीं। कुछ और अखबारों ने किसी लोकप्रिय मुद्दे के पक्ष में जनमत तैयार करने का लक्ष्य तय किया। इस तरह आज जितने प्रकार की पत्रकारिता दिखाई पड़ती है उसके बीज हम यहां देख सकते हैं। व्यवसायिक प्रेस, सनसनीखेज प्रेस, जनमत तैयार करने वाला प्रेस और अभियान परक या आंदोलनात्मक प्रेस। लेकिन जब राजनैतिक टकराव की स्थिति होती और खासकर जब स्थापित व्यवस्था को चुनौती दी जाती तो प्रेस अक्सर किसी लोकप्रिय मुद्दे के प्रवक्ता की भूमिका अख्तियार कर लेता। मसलन टॉमस पेन के कामनसेंस ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ अमेरिकी उपनिवेश के विद्रोह को नैतिक समर्थन दिया। इसी तरह लैटिन अमरीका में प्रेस के एक हिस्से की अंतर्वस्तु और उसकी जिम्मेदारी की भावना स्पेनी अधीनता के खिलाफ चलने वाले संघर्ष से घनिष्ठï रूप से जुड़ी हुई है जिसके कारण उपनिवेशों को स्वाधीनता प्राप्त हुई। दुनिया के इस हिस्से में आज भी जिन विषयों की रिपोर्टिंग होती है और अखबार से जुड़े लोग अपनी सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारी को जिस तरह महसूस करते हैं उसकी ऐतिहासिक परंपरा को देखा जा सकता है।
शुरुआती अखबारों में व्यक्तिगत स्वर स्पष्टï है- पाठकों और लेखकों, संपादकों और प्रकाशकों (जो एक ही व्यक्ति हो सकते थे) के बीच कई तरह के संपर्क थे। एक ही लेखक द्वारा शुरू से अंत तक लिखे गए और खुलेआम उसके नाम से छपे किसी लेख का असाधारण प्रभाव पड़ सकता था। ऐसे पत्रकार चाहे सुशिक्षित गपोडि़ए हों या गॉसिप लेखक वे ही आने वाले समाज के विधि निर्माता और शिल्पी थे, तद्युगीन नैतिकता और शक्तिशाली लोगों की बुराईयों के कटु निदंक थे, अंधविश्वास व धर्मगुरुओं के शत्रु थे तथा अधिकांशत: सामाजिक कल्याण के प्रति साहसपूर्वक और गंभीरता से समर्पित थे। अधिकारियों के प्रति उनमें कोई श्रद्धा नहीं थी और उनकी गतिविधियां सत्ता के लिए परेशानी व खतरा भी पैदा करती थीं। सरकारों ने उन्हें गिरफ्तार किया, गैरकानूनी करार दिया, निरोधक कानूनों के तहत उन पर मुकदमा चलाया और कभी-कभी संपादकों को जेल भी भेजा।
अठारहवीं सदी के अंत तक सिद्धांतत: प्रेस की स्वतंत्रता की लड़ाई ब्रिटेन, अमेरिका और क्रांतिकारी फ्रांस में जीत ली गई, हालांकि इसे रोकने और सीमित करने के प्रयास बहुत बाद तक जारी रहे और आज भी जारी हैं। जिन ऐतिहासिक परिस्थितियों में प्रेस की स्वतंत्रता की धारणा पैदा हुई उन पर गौर से निगाह डालना उपयोगी होगा। सत्ताधीश सेंसरशिप या दूसरे साधनों के जरिए नियंत्रण के अधिकार का दावा करते थे उनकी अवहेलना करने वाले विरोधी विचारों के प्रचार का मुख्य माध्यम प्रिंटिंग प्रेस था। अत: विरोधियों ने प्रिंटिंग प्रेस के स्वतंत्र उपयोग और उसमें व्यक्त विचारों के मुक्त प्रचार की मांग की। इस तरह एकदम शुरू में ही संचार का राजनैतिक आयाम मुख्य हो गया और उद्देश्य बना स्थापित सत्ता की पकड़ से अपनी गतिविधियों के एक माध्यम को छीन लेना। इस महत्त्वपूर्ण तकनीक पर अधिकार हासिल कर लेने का मतलब था सत्ता को उसके प्रभाव के एकाधिकार से वंचित कर देना।
अगर हम फ्रांस में 1789 में घोषित मनुष्य के अधिकारों की घोषणा की भाषा में कहें तो मूल मांग थी ‘चिंतन और अभिमत’ का प्रचार प्रसार तथा उसकी अभिव्यक्ति। प्रेस की स्वतंत्रता मूलत: विचारों के सर्जकों और प्रचारकों के लिए विचारों की स्वतंत्रता थी। इसलिए यह एक तरह की अभिजात स्वतंत्रता थी जिसके चलते राजनैतिक व बौद्धिक नेताओं से जनता तक ऊपर से नीचे संचार होता था। इसके बावजूद इसमें बहुत ऐसे लोगों की मदद की जो छपी हुई सामग्री पढ़ सकते थे। हर एक पाठक के समक्ष वैचारिक स्पेक्ट्रम खुल गया जिसके कारण व्यक्तिगत चुनाव व आलोचनात्मक चुनाव की संभावना बढ़ी। इस शुरुआती समय में यह स्वतंत्रता समृद्ध लोगों तक ही सीमित नहीं थी। छापेखानों का चरित्र दस्तकारी जैसा था। इसके कारण यह उन लोगों की पहुंच के परे नहीं था जो उतने समृद्ध नहीं थे। उन दिनों छपने वाले हैंडबिलों, पैंफलेटों और घोषणा पत्रों के वितरण से यह स्पष्ट है। इसीलिए तकनीकी विकास की उस स्थिति में प्रेस की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष मुख्यत: निरंकुश शासकों के विरुद्ध लड़ाई थी जो गैर पारंपरिक मतों और विचारों के प्रचार के खतरों से अनजान नहीं थे। उन्नीसवीं सदी और शुरुआती बीसवीं सदी में निरंकुश शासन वाले मुल्कों, मसलन जारकालीन रूस में प्रेस की कोई स्वतंत्रता नहीं थी। इसके अलावा एशिया और अफ्रीका के अधिकांश हिस्सों में भी प्रेस की कोई वास्तविक स्वतंत्रता नहीं थी। ये देश औपनिवेशिक गुलामी झेल रहे थे।
इन गुलाम देशों में जो अखबार शुरू किए गये उनके मालिक और संपादक यूरोपीय थे। वे सूचना संबंधी जरूरतों को पूरा करते थे और शासक समुदाय के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते थे क्रमश: एशियाई व अफ्रीकी मालिकों के अखबार सामने आए जिन्होंने राष्ट्रीय स्वाधीनता और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए चलने वाले आंदोलन में योगदान किया। उन्हें सभी तरह के दमनात्मक कदमों को झेलना पड़ा और असंतोष के दिनों में इन्हें रोक या बंद कर दिया जाता था। इसके अलावा संचार के ढांचे पर औपनिवेशिक सत्ता ने यूरोपीय देशों की तर्ज पर मजबूत प्रभाव डाले। ऐसे प्रभाव तब भी जारी रहे जब इन्हें राजनीतिक स्वाधीनता हासिल हो गई या जब किसी और देश ने वृहत्तर आर्थिक राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर संचार के साधनों पर नियंत्रण कर लिया। जहां कहीं ये प्रभाव मौजूद हैं वे ही आज की अनेक समस्याओं की जड़ हैं।
इन सब कमियों के बावजूद राष्ट्रवादी , क्रांतिकारी या परिवर्तनवादी पत्रों ने अपना असर छोड़ा। वे पूंजीवादी दुनिया में समाजवादी आंदोलनों, निरंकुश मुल्कों में लोकतांत्रिक विपक्ष और उपनिवेशवाद विरोधी विद्रोह के प्रवक्ता के बतौर काम करते थे। कैबूर का अलरिसर्जीमेंटो, लेनिन का इस्का और गांधी का हरिजन उन अनेक अखबारों में से थे जिन्होंने विचारों में क्रांति की अगुवाई की और निष्क्रिय पड़े लाखों लोगों को जगाकर और गोलबंद करके स्थापित सत्ता को धूल चटा देने में मदद की। इन स्थितियों में पत्रकारिता पेशे की बजाय मिशन बन गई। न केवल ये अखबार हाथों हाथ बांटे जाते थे बल्कि साक्षर लोग निरक्षरों के बीच इन्हें जोर-जोर से पढ़ते थे। इसी कारण उनका प्रभाव मामूली बिक्री के बावजूद बहुत अधिक था।
समृद्ध देशों में अब अखबार इतनी बड़ी संख्या में छपने लगे कि व्यापक बिक्री (मांस सर्कुंलेशन) वाले प्रेस का उदय हुआ। शिक्षा में प्रगति के कारण साक्षरता में वृद्धि हुई और अधिकाधिक लोग अखबार खरीदने लगे क्योंकि मजदूरी में बढ़ोत्तरी हुई थी और अखबार सस्ते थे। व्यापक प्रसार वाले प्रेस की स्थापना में जिन अन्य तत्त्वों ने मदद की वे थे- छपाई की ऐसी तकनीक अपनाना जिससे बहुत बड़ी संख्या में अखबार छपने लगे, रेलवे से वितरण, विज्ञापन से मिलने वाली आर्थिक मदद और टेलीग्राफ के जरिए ताजा तरीन खबरों की बढ़ती हुई आमद।
ज्यादातर खबरें समाचार एजेंसियां ही मुहैया कराती थी। इनका विकास उन्नीसवीं सदी के शुरू में हो चुका था और इनका कारोबार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैला हुआ था। इन समाचार एजेंसियों के नेतृत्वकारी प्रयासों में मास दैनिक प्रेस के विकास में योगदान किया और उसका अनुगमन भी किया। व्यापार और वाणिज्य को आगे बढ़ाने तथा दुनिया को और भी छोटी जगह बनाने के मामले में इनका प्रभाव उल्लेखनीय था। चूंकि यह उपनिवेशवाद के उभार का दौर था इसी के साथ उन्होंने औपनिवेशिक शक्तियों के हितों को बढ़ावा दिया, मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को बनाए रखने तथा विश्व की बड़ी शक्तियों के व्यापारिक और राजनीतिक हितों को विस्तारित करने में मदद की।
जहां मास प्रेस विकसित हो रहा था वहां उसका प्रभाव उन देशों में बदलती हुई सामाजिक प्रक्रियाओं और संरचनाओं के साथ घुल मिल गया। उन लंबे युगों का खात्मा हो रहा था जब अज्ञान के कारण व्यापक जनता राजनीतिक जीवन से बहिष्कृत थी। घनी आबादी वाले औद्योगिक शहरों व देहातों तक में मजदूर वर्ग को पहले के मुकाबले ज्यादा जानकारी हो रही थी और वे विवादास्पद मुद्दों के बारे में अपनी राय बना सकते थे। आज जिस अर्थ में हम जनमत की बात करते हैं वह उदीयमान सच्चाई बन गया था।
बाद के दिनों में प्रेस को ‘चौथा खंभा’ कहा गया लेकिन उसी समय वह आधुनिक संवैधानिक राज्य व्यवस्था का अखंड हिस्सा बन गया था। इस व्यवस्था में सरकारें आमतौर पर चुनाव परिणामों से बदलती थीं न कि अभिजन समुदाय के भीतर किसी जोड़-तोड़ या किसी तानाशाह की झक से। अब अखबार इतने मजबूत हो गए थे कि शासकों के दबाव की अवहेलना कर सकते थे, यह विचार सर्वमान्य सिद्धांत बन गया था कि उन्हें अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने का अधिकार है और दरअसल यह उनका कर्तव्य भी है। बहरहाल सरकारी हस्तक्षेप से आजादी तो उन्हें हासिल हो गई जिससे प्रेस की स्वतंत्र सत्ता स्थापित हुई लेकिन उसे नियंत्रित करने वाले जो निजी हित थे उनसे उतनी ही स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सकी।
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संचार में विकास सिर्फ तकनीकी आविष्कारों के कारण नहीं होता बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या आध्यात्मिक अवसरों और आवश्यकताओं की चेतना के कारण भी होता है। संचार पर नियंत्रण रखने वाले मुट्ठी भर लोगों और इससे प्रभावित होने वाली व्यापक जनता के बीच अंतराल बढ़ रहा है। समाज और राज्य में अधिकाधिक तालमेल होता जा रहा है तथा सरकारी एजेसिंया और संचार माध्यम निजी जीवन पर
कब्जा करते जा रहे हैं।
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इस नयी परिस्थिति में एक तरफ तो ‘गंभीर’ या ‘गुणवत्ता’ वाले अखबारों तथा ‘लोकप्रिय’ अखबारों के बीच अंतराल के भी दर्शन हुए। गंभीर पत्रों को मुख्यत: शिक्षित लोग पढ़ते थे और उनका प्रभाव वितरण संख्या के अनुपात में बहुत अधिक था। दूसरी तरफ लोकप्रिय पत्र राजनीतिक या सामाजिक खबरों के मुकाबले अपराध, सनसनीखेज और उत्तेजक घटनाओं की खबरों को प्रधानता देते थे। धनी लोग अधिकांशत: इस धंधे में पाठकों की संख्या बढ़ाने और पैसा बनाने के लिए थे और अक्सर अपने खरीददारों की रुचियों और समझ के बारे में गलत अनुमान लगाते थे।
बीसवीं सदी में जिन देशों में समाजवादी राजनैत्-िआर्थिक व्यवस्था कायम हुई वहां प्रेस का मालिकाना, उसका चरित्र और लक्ष्य तदानुसार कमोबेश बदले। वहां न सिर्फ पाठकों में व्यापक आबादी शामिल हुई बल्कि व्यापारिक उद्देश्यों से रहित मास प्रेस का भी विकास हुआ। ऐसा प्रेस पैदा हुआ जिसका प्राथमिक उद्देश्य शासक शक्तियों द्वारा सूत्रबद्ध सरकारी और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए लोगों को शिक्षित करना और जनमत बनाना, समर्थन जुटाना था न कि विविध सूचनाओं का प्रसार, विभिन्न दृष्टिïकोणों का प्रचार और आलोचनात्मक स्वतंत्र पाठक समुदाय का विकास।
जब व्यापक प्रसार वाले प्रेस अपनी पराकाष्ठïा की ओर बढ़ रहा था उसी समय का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू बिजली के प्रयोग से विकसित होने वाले संचार माध्यमों-टेलीग्राफ, टेलीफोन, रेडियो, सिनेमा का उदय और विकास है। ये नई तकनीकें प्रेस के अस्तित्त्व और अनुभव तथा बने बनाए ढांचे का फायदा उठाकर उससे ज्यादा तेजी से सीधे जनसंचार और जन उपभोग के औद्योगिक उपयोग में पहुंच गईं। इन तकनीकों का विकास कई देशों के भीतर और विश्व स्तर पर हो रहे व्यापक राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों के साथ-साथ हुआ।
इस संक्षिप्त ऐतिहासिक सर्वेक्षण में हमने लिखित संचार को मुट्ठी भर लोगों से बढक़र आम जनता तक पहुंचते देखा। हमने देखा कि प्रेस ने कम से कम अपनी पहुंच और अपील के मामले में अभिजात मूल से विस्तृत होकर लोकतांत्रिक शैली अपनाई और हमने यह भी देखा कि जिन देशों में व्यापक प्रसार वाले प्रेस का जन्म हुआ वहां लगातार व्यापारिक संरचना और व्यापारिक दृष्टिïकोण हावी होता गया। बहरहाल इन सारे परिवर्तनों की गति ने विभिन्न देशों के बीच और उनके भीतर नुकसानदेह असमानता पैदा की लेकिन इसी के साथ विभिन्न विकास स्तरों पर मौजूद और भिन्न-भिन्न सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था वाले देशों में विविधतामूलक, बहुलतावादी और भांति-भांति की संचार पद्धतियों का विकास हुआ। अंतत: हम कह सकते हैं कि इस विकास में दरअसल वर्तमान की जड़ें थीं तथा इन पर गंभीर चिंतन मनन होना चाहिए ताकि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्यवाही की प्ररेणा मिल सके।
3. भविष्य का निर्माण
आधुनिक काल में संचार खासकर संकेत और संदेश प्राप्त तथा प्रसारित करने के नए संसाधनों, तकनीकों और तकनीकी औजारों का विकास तेज हुआ है। एक के बाद एक खोजें तेजी से हुई हैं। पिछली सदी के उत्तराद्र्ध के शुरू में एडीशन ने फोनोग्राफ का आविष्कार किया। सर चाल्र्स व्हीटस्टोन और सैमुअल मोर्स ने 1840 के आस-पास टेलीग्राफी की खोज की। 1844 में पहला सार्वजनिक टेलीग्राफिक संदेश प्रसारित हुआ। 1876 में बेल ने तार के जरिए पहला टेलीफोन संदेश भेजा। 1895 के आस-पास मारकोनी और पोपोफ ने अलग-अलग सफलतापूर्वक वायरलैस संदेश प्रसारित और प्राप्त किए। 1906 में फे सेंडर ने रेडियो के जरिए मनुष्य की आवाज प्रसारित की। 1839 में दाग्वेर ने फोटोग्राफी की व्यावहारिक पद्धति निकाली। 1844 में पहली बार फिल्म परदे पर आयी। 1904 में फोटो टेलीग्राफिक उपकरण (बेलिन सिस्टम) के जरिए पहली तस्वीरों का प्रसारण हुआ। 1923 में पहली तस्वीर टेलीविजन पर आयी। 1920 के दशक में पहले रेडियो प्रसारण नेटवर्क स्थापित हुए। टेलीविजन प्रसारण 1930 के दशक में शुरू हुआ। रंगीन टेलीविजन का नियमित प्रसारण 1954 में शुरू हो गया। 1857 में अमेरिका और यूरोप के बीच पानी के नीचे टेलीग्राफ केबिल डाली गई और उसके सहारे तीव्र अंतरमहाद्वीपीय संचार शुरू हुआ। 1956 में अटलांटिक के आर-पार पहली बार टेलीफोन सेवा शुरू हो सकी जबकि अंतरमहाद्वीपीय रेडियो, टेलीफोन और टेलीग्राफ व्यवस्था 1929 से ही नियमित रूप से कार्य कर रही थी। 1930 के दशक के शुरू में टेलीप्रिंटिंग ने काम करना चालू कर दिया। अंतत: अर्लीबर्ड नामक व्यवसायिक संचार वाली पहली सेटेलाइट 1962 में स्थापित हुई।
बीसवीं सदी के पहले दशक में रेडियो के आविष्कार ने दूरसंचार का ऐसा साधन पैदा किया जो प्रेस की तरह छपाई या जमीनी ट्रांसपोर्ट पर निर्भर नहीं था और श्रोताओं तक पहुंचने के लिए उनके साक्षर होने की कोई जरूरत इसे नहीं थी। विशेषकर संकट के समय, राष्टï्रीय नेताओं को यह फायदेमंद लगा कि वे सीधे जनता से बात कर लें बजाय इसके कि वे अपने वक्तव्य के अखबारों में छपने का इंतजार करें। शुरुआती दिनों में रेडियो मुख्यत: मनोरंजन का साधन था, इसने खासकर संगीत और नाटक के प्रचुर नए श्रोताओं को पैदा किया। लेकिन 1930 के दशक से रेडियो के जरिए न्यूज रिपोर्टिंग महत्त्वपूर्ण हो गई और पत्रकारिता के पेशे में एक नई शाखा पैदा हुई।
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संचार के संसाधनों को वस्तुत: मनुष्य के लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा या नहीं यह उन निर्णयों पर निर्भर है ये निर्णय कौन, किस मंशा से और किसके हित में लेगा। हरेक समाज को अपनी पसंद खुद तय करनी होगी और विकास में बाधा पहुंचाने वाले भौतिक, सामाजिक और राजनैतिक बंधनों पर विजय पाने के रास्ते खोजने होंगे।
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टेलीविजन के प्रसार में हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के कारण देर हुई लेकिन 1940 के दशक के अंतिम दिनों और 1950 के दशक में यह विकसित देशों के जीवन का अंग बन गया। इसने अपने दर्शक मुख्यत: इस कारण बनाए रखे क्योंकि रेडियो की तरह ही इसने सस्ते और सुविधाजनक रूप में मनोरंजन मुहैया कराया। बहरहाल, टेलीविजन पर समाचार प्रसारण का मजबूत प्रभाव इसलिए पड़ा क्योंकि दर्शक घटना को उसी रूप में देख सकते थे जैसे वह घटी। डाक्यूमेंट्री कार्यक्रमों (चाहे वह फिल्म के रूप में बने हों या वीडियो टेप पर) ने यथार्थ के लोकप्रिय अनुभव को आकार दिया, इसमें दूर देशों का यथार्थ भी शामिल था। पिछले दो दशकों में स्पष्टïता में सुधार, रंगीन तस्वीरों के उदय और वीडियो कैसेट के आविष्कार ने अनुभव की जीवंतता और टेलीविजन के प्रयोग की सीमा काफी बढ़ाई है।
इस तरह पिछली डेढ़ सदियों में संचार की तकनीकी सुविधाओं में आश्चर्यजनक परिवर्तन आया है। खासकर पिछले डेढ़ दशक अनुसंधान, उत्पादन और कल्पना की दृष्टिï से महत्त्वपूर्ण रहे हैं। इंटेलसेट और इंटरस्पुतनिक नामक दो बड़े अंतर्राष्टï्रीय सैटेलाइट सिस्टम क्रमश: 1965 व 1971 में शुरू हुए। मानवयुक्त और मानव रहित अंतरिक्ष यानों वाले अंतरिक्ष तकनीक ने 1969 में चद्रमा पर मनुष्य को पहुंचाया और हाल में शुक्र तथा मंगल पर वाहन उतारे। इस तकनीक ने संचार के लिए भी नई संभावनाओं का द्वार खोला। दूरसंचार के लिए भी नई संभावनाओं का द्वार खोला। दूरसंचार के लिए कक्षा में घूमने वाले दुनिया के पहले राष्टï्रीय सैटेलाइट सिस्टम का उद्घाटन 1978 में कनाडा में हुआ। यह सिस्टम जमीन पर सस्ते स्टेशनों और कम शक्ति के प्रसारकों के जरिए एक ही समय टेलीविजन कार्यक्रमों को प्राप्त और वितरित करने में सक्षम है। अगले साल अमरीका ने ङ्खश्वस्ञ्ज्रक्र ढ्ढ नामक सैटेलाइट छोड़ी जो प्रति सेकेंड 80 लाख शब्द प्रसारित करने में सक्षम है तथा इसमें आवाज, वीडियो, फेसिमाइल और आंकड़े प्रसारित करने की क्षमता है। 1977 में एक अलग तरह के सैटेलाइट नेटवर्क की सुविधा पैदा की गई जो मौजूदा सिस्टमों से अलग सीधे अंतिम उपभोक्ता तक आवाज, फेसिमाइल और डाटा पहुंचाएगा और वह भी साधारणतया वाहक टेलीफोन लाइनों के बगैर। संचार की एकदम अलग तकनीकों का आविष्कार हुआ है : मसलन- गैलियम आर्सेनाइड लेजर जो बाल जितने पतले फाइबर के जरिए असंख्य टेलीविजन कार्यक्रमों को प्रसारित करना संभव बना देगा। इसका परीक्षण 1970 में हो चुका है। 1976 में टेलीफोन के आवागमन और टेलीविजन संकेतों के लिए आप्टिकल फाइबर केबलों का प्रयोग किया गया। इसी के साथ जापान में कम्प्यूटर नियंत्रित अंत:क्रियापरक एक ऐसे आप्टिकल फाइबर नेटवर्क की योजना बनाई गई है जो दोतरफा घरों तक और घरों से वीडियो सूचना ले जाएगा और वापस पहुंचाएगा। दूसरी तरफ 1969 में वीडियो कैसेटों का आविष्कार हुआ, 1979 में पहला वीडियो डिस्क सिस्टम उपभोक्ताओं को उपलब्ध हो गया। पिछले दस सालों में तमाम तरह के माइक्रो प्रोसेसरों और ऐसी मशीनों का उत्पादन होने लगा है जो छोटे इलेक्ट्रानिक केलकुलेटरों का फेसिमाइल प्रसारण करेेंगी। ये खोजें आंकड़ों के संग्रह भंडारण, सुधार और प्रचार प्रसार के क्षेत्र में बड़ी आमद हैं।
इन्फार्मेटिक्स के नए बिसात में होने वाले विकासों से वर्तमान तकनीक का उपयोग करने वालों को जितनी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं उनकी मात्रा अपार रूप से बढ़ गयी हें। कम्प्यूटर और आंकड़ा बैंकों का उपयोग लाखों तरह की सूचनाओं को एकत्र करने और उनका प्रसारण करने के लिए किया जा सकता है। सिलिकान चिप के आविष्कार के कारण बहुत कम जगह की जरूरत इसके लिए पड़ती है। प्रसारण के बाइनरी कूटों ने एक नयी भाषा पैदा की है जिसके कारण देरी वस्तुत: खत्म हो गई है। इन विकासों ने न केवल सूचना और मनोरंजन के बल्कि विज्ञान, चिकित्सा, विद्वता और पेशेवर जीवन के सभी क्षेत्रों तथा आमतौर पर सामाजिक संगठन के संसाधनों को कई गुना कर दिया है। इस मात्रा में विकास की कल्पना भी अतीत में ही की जा सकती थी।
इन नई तकनीकों का प्रयोग अभी मुख्यत: कुछ देशों में केंद्रित है लेकिन संचार के नए युग का रास्ता इनसे खुल रहा है। दूरी अब कोई बाधा नहीं रह गयी है और अगल सामूहिक इच्छा से हो तो इस बात की संभावना है कि ऐसी भूमंडलीय संचार व्यवस्था बने जो पृथ्वी की किसी भी जगह को दूसरी जगह से जोड़ दे। जो उपकरण शुरू के दिनों में महंगे और भारी होते थे वे तेजी से सस्ते और अत्यंत लचीले हुए हैं। इलेक्ट्रानिक संचार लंबे दिनों तक दो व्यक्तियों के बीच संचार तक ही सीमित रहा। अब वह सामूहिक संचार में प्रयोग हेतु अधिकाधिक उपलब्ध होता जा रहा है। भूमंडलीय व्यवस्था की बजाय संचार नेटवर्कों के ऐसे जाल के बारे में कल्पना करना संभव हो गया है जो स्वायत्त या अद्र्धस्वायत्त, विकेंद्रित इकाईयों को एकजुट करें। संदेशों की अंतर्वस्तु को बहुत हद तक विविध, स्थानीय और व्यक्तिगत बनाया जा सकता है। ऐसी नयी तकनीकें मौजूद हैं जो सूचना केंद्रों को कई गुना बढ़ाने और व्यक्तियों के बीच आदान-प्रदान बनाए रखना संभव कर सकती है। टेली प्रोसेसिंग या टेलीमेटिक्स तथा दो या दो से अधिक सैटेलाइटों के बीच संपर्क और प्रसारण की स्थापना संभवत: व्यवस्थित एकरूपीकरण की अनन्त संभावनाओं का द्वार खोल देगी। बहरहाल वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में गरीब व हाशिए के लोग (जो कई समाजों में आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा हैं) अभी लंबे दिनों तक इस ‘नये युग’ से संपर्क नहीं बना पाएंगे। उनकी मुख्य समस्या अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करना और जीवन स्थितियों को सुधारना है, न कि भूमंडलीय संचार व्यवस्था संबंधी समस्याओं को हल करना।
इस प्रक्रिया की मौलिकता और महत्त्व केवल प्रसारण सुविधाओं और आच्छादन क्षेत्र के विस्तार में नहीं, बल्कि मुख्यत: इस बात में है कि इसने मानव संचार की भाषा को बुनियादी रूप से बदल दिया है। मनुष्य जब भोजन संग्रह और शिकार की अवस्था में था तो प्राकृतिक अवस्था से जुड़ी हुई संचार व्यवस्था का उपयोग करता था, लेकिन जब वह कृषि की ओर बढ़ा तो उसने सादृश्यमूलक संचार व्यवस्था विकसित की। औद्योगिक युग में उसने वर्णक्रमागत और संख्यात्मक सूचना तथा संचार व्यवस्था को बरतना सीखा। अब वह पूरी तरह से नए युग में प्रवेश कर चुका है जो इन्फार्मेटिक्स के बढ़ते हुए प्रभाव में है। फलस्वरूप उसे वर्तमान सादृश्य मूल तकनीकों से बाइनरी भाषा के विभिन्न रूपों की ओर तेजी से बढऩे की जरूरत पड़ी है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सादृश्यमूलक भाषाएं खत्म हो जाएंगीं। मनुष्य की तो प्राकृतिक संचार की क्षमता भी बची हुई है। संचार कमोबेश एक संचयी गुण है जिसमें हरेक नई भाषा पिछली भाषाओं को नष्टï किए बिना उन्हीें में जुड़ती चली जाती है।
अधिकांश विकासशील देश इन सभी तकनीकी विकासों का फायदा उठा सकें इसके लिए राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक परिवर्तन करने होंगे। अभी तो उनके लिए ये चीजें कुल मिलाकर सैद्धांतिक ही हैं। दरअसल कुछ परिस्थितियों में या अगर कुछ परिस्थितियां बना दी जाएं तो ये तकनीकें हरेक जगह के स्त्री-पुरुषों तथा विभिन्न समुदायों, विकासशील और साथ ही विकसित देशों के लिए बहुत फायदेमंद होंगी। बहरहाल, तात्कालिक रूप से इन पर केवल कुछ एक देशों और उनमें भी कुछ लोगों का ही अधिकार है। ये खोजें जिन देशों में हुई वे अभी भी अन्य देशों के मुकाबले भारी फायदा उठा रहे हैं। वंचित देशों में विकास अब भी कष्टïप्रद प्रक्रिया से हो रहा है। गरीबी के चलते उनके यहां आवश्यक बुनियादी ढांचा नहीं बन पा रहा है। चूंकि आज संचार और सूचना संपत्ति सृजन का स्रोत हो सकते हैं जैसा पहले कभी नहीं था इसलिए इस क्षेत्र में मौजूदा संचार संबंधी अंतराल और असमानता के लिए जिम्मेदार व्यवस्था अमीर और गरीब के बीच की खाई को और बढ़ा रही है।
संचार में विकास सिर्फ तकनीकी आविष्कारों के कारण नहीं होता बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या आध्यात्मिक अवसरों और आवश्यकताओं की चेतना के कारण भी होता है। संचार पर नियंत्रण रखने वाले मुट्ठी भर लोगों और इससे प्रभावित होने वाली व्यापक जनता के बीच अंतराल बढ़ रहा है। समाज और राज्य में अधिकाधिक तालमेल होता जा रहा है तथा सरकारी एजेसिंया और संचार माध्यम निजी जीवन पर कब्जा करते जा रहे हैं। देशों के भीतर और उनके बीच संपर्क और ज्ञान तथा विचारों के आदान-प्रदान की जरूरत पहले कभी के मुकाबले ज्यादा बढ़ गयी है। साथ ही यह खतरा भी दिखाई दे रहा है कि जिनके पास विशाल तकनीकी संसाधनों की शक्ति है वे दूसरों पर अपने विचार थोपें। विकासशील देशों में संचार स्वतंत्रता संघर्ष का हथियार था और बाद में सामाजिक संरचना को बदलने तथा आर्थिक समस्याओं को हल करने का सहायक बना। जो लोग राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ सांस्कृतिक स्वतंत्रता भी चाहते हैं वे संचार व्यवस्था की कार्य पद्धति से संतुष्टï नहीं हैं। वे व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से व्यापक लोगों तक संचार माध्यमों की पहुंच बनाना चाहते हैं। इस आकांक्षा को अक्सर निहित स्वार्थों और उत्पीडऩ के विभिन्न रूपों के जरिए दबा दिया जाता है। इस जटिल परिस्थिति के कारण अनेक जगहों पर नकार और आलोचना की प्रवृत्ति पैदा हुई है- व्यक्तियों द्वारा जन संचार माध्यमों का नकार, सामुदायिक और राष्ट्रीय स्तर पर सूचना व्यवस्था के काम से असंतोष और बाहरी प्रभुत्व का विरोध।
संचार के क्षेत्र में वर्तमान व निकट भविष्य की समस्या यह है कि जो अवसर सिद्धांतत: हैं लेकिन दुनिया के अधिकांश लोगों को हासिल नहीं हैं उन्हें उपलब्ध कराए जाए। दुनिया के उत्पादक समुदाय बुद्धिमत्तापूर्वक योजित श्रम प्रबंधन, तालमेल और अनुभव तथा आवश्यक सूचना के उपयोग पर अधिकाधिक निर्भर होते जाएंगे। भोजन, ऊर्जा और दीगर वस्तुओं का अभाव बड़ी मुश्किलें तो जरूर पैदा कर रहा है लेकिन संचार के संसाधन लगातार बढ़ रहे हैं। अब तक के समस्त इतिहास का अभाव प्रचुरता में बदल गया है। 1980 के दशक और इसके बाद की दुनिया अवसरों की दुनिया होगी। फिर भी विशेषकर विकासशील देशों में लाखों लोगों का जीवन कड़े और निरर्थक श्रम तथा प्रारंभिक आजीविका के स्तर का है मानो ये विशाल संसाधन हो ही नहीं। संचार के संसाधनों को वस्तुत: मनुष्य के लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा या नहीं यह उन निर्णयों पर निर्भर है ये निर्णय कौन, किस मंशा से और किसके हित में लेगा। हरेक समाज को अपनी पसंद खुद तय करनी होगी और विकास में बाधा पहुंचाने वाले भौतिक, सामाजिक और राजनैतिक बंधनों पर विजय पाने के रास्ते खोजने होंगे। लेकिन विकासशील और विकसित देशों में हरेक समुदाय के स्त्री-पुरुषों को बेहतर भविष्य प्रदान करने के लिए जो बुनियादी निर्णय करने हैं, वे सिद्धांतत: तकनीकी विकास के क्षेत्र में नहीं आते। मूलत: वे उन उत्तरों में निहित होते हैं जो हरेक समाज विकास की अवधारणात्मक और राजनीतिक बुनियादों के प्रसंग में देता है।
टिप्पणी
1. 1852 में द टाइम्स के संपादक जाने डेलान ने इस सिद्धांत को सूत्रबद्ध किया था, ‘‘इस बात को हम नहीं मान सकते कि अखबार का उद्देश्य राजनेताओं के काम में हाथ बंटाना है या कि वह भी उन्ही सीमाओं, उन्हीं कर्तव्यों और उन्ही जिम्मेदारियों से बंधा हुआ है जिनसे मंत्री महोदयगण बंधे होते हैं। इन दोनों शक्तियों के उद्देश्य और कर्तव्य हमेशा भिन्न-भिन्न हैं, आमतौर पर एक दूसरे से स्वतंत्र हैं, कभी-कभी एक दूसरे के खिलाफ भी हैं। प्रेस की गरिमा व स्वतंत्रता उसी क्षण खत्म हो जाएगी जब वह सहायक स्थिति को स्वीकार कर लेगा। अपने कर्तव्यों को पूरी स्वतंत्रता के साथ और परिणामस्वरूप जनता के सर्वोच्च हित में निभाने के लिए प्रेस मौजूदा शासकों के साथ कोई निकटस्थ या बंधनकारी संश्रय कायम नहीं कर सकता।’’