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टीवी विज्ञापनों में महिलाएं : आजादी या उपभोक्तावाद

टीवी विज्ञापनों में महिलाएं : आजादी या उपभोक्तावाद

दीक्षा चमोला दीक्षित।

महिलाओं की भूमिका हर क्षेत्र में तेज़ी से बदल रही है. राजनीति से लेकर शिक्षा, कंप्यूटर से लेकर कॉर्पोरेट जगत में महिलाएं अपना लोहा मनवा रही हैं। पर क्या महिलाओं की स्थिति हमारे समाज में सुधर पाई है? क्या मीडिया में उसके प्रस्तुतिकरण में कोई परिवर्तन आया है? महिलाएं हमेशा से विज्ञापन का एक महत्वपूर्ण अंग रही है, चाहे वो घरेलू वस्तुओं का प्रचार हो चाहे पुरुषों की रोज़मर्रा की ज़रूरत की वस्तुओं का प्रचार। महिलाओं को हमेशा से ही विज्ञापनों में एक प्रभावशाली यंत्र की तरह इस्तेमाल किया गया है।

शुरुआती दौर में विज्ञापनों में महिलाओं को एक पत्नी और मां के रूप मे ही देखा जाता था। वह एक कमज़ोर और आश्रित शक्सियत की तरह पेश की जाती थी। उसे पारंपरिक रूप मे विज्ञापन में प्रस्तुत कर लगभग हर उत्पाद का प्रचार किया जाता था। परंतु उसका चित्रण भी समय के साथ परिवर्तित होता चला गया। जैसे अस्सी के दशक के सर्फ के विज्ञापन में समझदार गृहणी ललिताजी हो, नब्बे के दशक मे कैङवरी के प्रचार में क्रिकेट मैदान पर खुलकर नाचती महिला, या फिर आज की स्कूटी या कार बेचती महिलाएं। विज्ञापनों में महिलाओं को भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत किया गया है। कर्इ प्रस्तुतिकरण हमारी संस्कृति के अनुकूल होते है तो कई पाश्‍चाय सभ्यता से प्रभावित। परंतु यह कहीं न कहीं सीधे महिलाओं के प्रस्तुतिकरण से उत्पाद की बिक्री पर कोई ख़ासा असर पड़ता है। चलचित्र लोगों के विचार धारा और दिमागों पर ख़ासा असर डालते हैं।

एक्शन जूतों के विज्ञापन में प्रोफेशनल रेणुका शाहने का चित्रण, लक्मे के प्रचार में आतमविश्वास से पूर्ण महिलाएं या फिर लिरील के विज्ञापन में झरने में नहाती प्रीती ज़िंटा ने विज्ञापनों में महिलाओं के प्रस्तुतीकरण को एक नया रूप दिया। परंतु कुछ महिलाओं का प्रस्तुतीकरण समय से काफ़ी आगे और निर्भीक भी था। मिस्टर कॉफी के विज्ञापन में मल्लाइका अरोरा और अरबाज़ ख़ान का कामुक चित्रण या फिर मधु स्प्रे और मिलिंद सुमन का टफ जुतों का अधनंगा चित्रण। नब्बे के दशक में सुषमा स्वराज जब सूचना और प्रसारण मंत्री थी तो उन्होंने काफ़ी टेलीविजन विज्ञापनों पर रोक लगाई, जिसमें से एक वीङियोकोन बेज़ूका टीवी का विज्ञापन जिसमें महिमा चौधरी की ड्रेस टीवी के वूफर की वजह से ऊपर उठ जाती है।

इक्कीसवी सदी में विज्ञापनों ने एक नया ही रूप ले लिया था। जहां एक दशक पहले की उदार अर्थव्यवस्था ने उपभोक्तावाद को बढावा दिया। जिसके चलते बाज़ार में एक तरह के कई उत्पादों ने जन्म लिया। जिससे कई उत्पादों का एकाधिकार ख़त्म हुआ, जैसे कोला ड्रिंक के क्षेत्र में पेप्सी का एकाधिकार, कोका-कोला के भारत में वापस आने से कम हुआ। कार के क्षेत्र में मारुति को मुकाबला देने के लिए हुंडई तथा अन्य ब्रांड्स ने मोर्चा संभाला। इसी सब के फलस्वरूप कई उत्पादों को महिलाओं को उपभोक्ता बनाना पड़ा। इंडिका वी2 के विज्ञापन में चार महिलाएं पहली बार सक्रिए रूप से कार चलाती और बेचती नज़र आई। उसी भांति स्कूटी के प्रचार में बॉलीबुड की काफ़ी नामी अभिनेत्रियों (प्रियंका चोपडा, अनुष्का शर्मा, दीपिका पादुकोण, आलिया भट्ट) ने भाग लिया और स्कूटी को महिलाओं के वाहन और आज़ादी से जोड़ा। कई विज्ञापनों में महिलाओं का प्रस्तुतिकरण काफ़ी काल्पनिक होता है, समाज की सच्चाइयों से दूर एक ऐसे महिला का चित्रण किया जाता है जो असल ज़िंदगी में मौजूद नही होती है।

महिलाओं को अधिकतर गोरा ही दर्शाया जाता है, या फिर अगर वो गोरी नही है तो उसकी शादी में अर्चन आ ही रही होती है या नौकरी नही मिल पाती है। परंतु फेयरनेस क्रीम के लगाते ही जैसे उसकी दुनिया बदल जाती है। इस तरह की मानसिकता रखने वाले लेखक और विज्ञापनकर्ता समाज में बसी कुरितियों को और मज़बूत कर रहे हैं। अब भी कई ऐसे विज्ञापन हैं जिसमें महिलाओं को पारंपरिक रूप में ही दर्शाया जाता है जैसे हर केश तेल के विज्ञापन में महिला का होना ज़रूरी हो। जैसे पुरुषों को तेल से परहेज़ है या फिर महिला के अधिकतर लंबे बाल होना जैसे मानो छोटे बालों वाली महिलाएं तेल लगाती ही ना हों। वहीं कईं घरेलू उत्पादों के टीवी विज्ञापनों में पुरुष को महिला के साथ घर के काम में हाथ बटाते हुए भी दर्शाया गया है।

साल 2013 में तनिष्क़ ने अपने विज्ञापन में महिला के पुनर्विवाह को दर्शा कर सामाजिक कुरीतियों को फिर से उजागर कर पुनर्विवाह के लिए प्रेरित किया। वही टाइटन ने अपने प्रचार में ‘सिंगल वर्किंग वुमन’ को दर्शाते हुए समाज में हो रहे परिवर्तन को बखूबी दिखाया है। एरियल के नए विज्ञापन में महिलाओं के सदियों से प्रस्तुत हो रहे घरेलू रूप पे प्रश्न चिन्ह उठाए हैं।

एरियल के विज्ञापन में बखूबी दिखाया गया है की महिला चाहे जितनी सशक्त हो जाएं पर कुछ काम जैसे कि कपड़े धोना उसे ही करने पड़ते हैं. वही एयरटेल के एक विज्ञापन में जिसमें महिला को उसके पति का बॉस दिखाया गया है यह एक तरह से प्रगतिशील है और नारीवाद को बढ़ावा देता है, परंतु दूसरे ही पल जब वो महिला घर जाकर खाना बनाती है, तो उसका वो ही परम्परागत चित्रण दिखाई देता है। इसे सकारात्मक रूप से देखें तो यह तात्पर्य निकाला जा सकता है कि महिलाओं क़ो सभी कार्यों में निपुण दिखाने की एक कोशिश की गयी है। पर इस विज्ञापन को पूर्ण रूप से नारीवाद के हक़ में कह पाना मुश्किल होगा। वहीं नारी सशक्तिकरण पर बने वोग पत्रिका के विज्ञापन में दीपिका पादुकोण काफ़ी चर्चा मे रही। ‘माई चाइस’ थीम पर बने इस विज्ञापन में काफ़ी बातें ऐसी कही गईं, जिसे हम नारीवाद के हक़ में नहीं कह सकते।

नारीवाद समाज में महिला और पुरुष की बराबरी की बात करता है ना की पुरुष को नीचा दिखाकर महिला को बड़ा दिखना नारीवाद कहलाया जाता है। महिलाओं की आज़ादी को नकारात्मक रूप से इस विज्ञापन में दर्शाया गया है। हलांकि हैवेल्स के प्रचार में हास्यास्पद तरीके से गंभीर बात कही गई है। विज्ञापन में दर्शाया गया है की पति अपनी पत्नी को काम करने को कहता है जैसे कॉफी बनाना, कपड़े प्रेस करना इत्यादि और पत्नी हर एक काम से जुड़ा हैवेल्स का अप्लाइयेन्स लाकर खुद से काम करने को कहती है। इन सभी विज्ञापनों के बीच अब भी कुछ ऐसे विज्ञापन हैं जो महिलाओं को एक विषय वस्तु की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।

कहा जाता है की मीडिया और समाज एक दूसरे पर आश्रित हैं, महिलाओं का विज्ञापन में प्रस्तुतिकरण हमारे समाज का आईना है या फिर यह भी कहा जा सकता है कि विज्ञापन समाज को आईना दिखाते है। विज्ञापनकर्ता और विज्ञापन एजेंसी को किसी भी विज्ञापन को बनाते समय उसके प्रभाव के बारे सोचना चाहिए और विज्ञापन नीति का ध्यान रखना चाहिए। इसका एक समाधान यह भी है कि विज्ञापन बनाते समय महिलाओं की राय लेनी चाहिए। उनके प्रस्तुतिकरण पर सहयोगी महिलाओं या आम माहिलाओं से विचारःविमर्श करना आवश्यक है।

दीक्षा चमोला दीक्षित वर्तमान में मुम्बई विश्वविद्यालय के मिथिबाई कॉलेज के मास मीडिया विभाग में बतौर सहायक प्राध्यापक कार्यरत है। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत दिल्ली की री-डिफ्यूजन वाईएण्डआर से की। उसके बाद उन्होंने शैक्षिक क्षेत्र में कदम रखा जहां, उन्होने मीडिया मैनेजर, सांस्कृतिक प्रमुख आदि अनेक क्षेत्रों में उपस्थिति दर्ज कराई। उन्हें पूरे देश के बहुत से विश्वविद्यालयों में पढ़ाने का छहः वर्ष का अनुभव है। उन्होंने गुरु गोविन्द सिंह इंद्रप्रस्थ केंद्रीय विश्वविद्यालय, झारखंड, इग्नू और बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंचार का शिक्षण कार्य किया है। उन्होंने जनसंचार एवं विज्ञापन तथा जनसम्पर्क में स्नातकोत्तर की उपाधि धारण की है। साथ ही पत्रकारिता शिक्षा एवं सोशल मीडिया के क्षेत्र में कई शोध पत्र प्रस्तुत एवं प्रकाशित किए हैं। इन्हें विज्ञापन, जनसंपर्क, कॉरर्पोरेट संचार, संचार सिद्धांत एवं संचार शोध में विशेषज्ञता हासिल है। इनके अतिरिक्त वह एक प्रशिक्षित शास्त्रीय नृतकी एवं रंगकर्मी भी हैं।

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