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टेलीविज़न जर्नलिज्म: नए दौर में स्क्रिप्टिंग और पैकेजिंग की चुनौतियां

टेलीविज़न जर्नलिज्म: नए दौर में स्क्रिप्टिंग और पैकेजिंग की चुनौतियां

अतुल सिन्हा |

टेलीविज़न में स्क्रिप्टिंग को लेकर हमेशा से ही एक असमंजस की स्थिति रही है। अच्छी स्क्रिप्टिंग कैसे हो, कौन सी ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जाए जो दर्शकों को पसंद आए और भाषा के मानकों पर कैसी स्क्रिप्ट खरी उतरे, इसे लेकर उलझन बरकरार है। हम लंबे समय से यही कहते आए हैं कि भारत में टेलीविज़न प्रयोग के दौर से गुज़र रहा है। ये धारणा बना दी गई है कि भाषा से लेकर, स्क्रिप्टिंग और पैकेजिंग तक में हमारे चैनल अभी कच्चे हैं और हमें उन चैनलों से सीखना चाहिए जिन्होंने विदेशों में लंबे समय से अपनी धाक जमा रखी है। भारतीय मीडिया घरानों के लिए पहले आदर्श चैनल बीबीसी था, फिर फॉक्स न्यूज़ हो गया और यहां तक कि कई बार अल जज़ीरा तक को भी कुछ चैनलों ने क्वालिटी और कंटेंट के लिहाज़ से बेहतरीन मान लिया। दरअसल हिन्दुस्तान में विदेश को लेकर जो पूर्वाग्रह है और जिस तरह का आकर्षण है, वह यहां की सोच में बार बार झलकता है। बाज़ारीकरण हो, जीवन शैली हो या फिर मीडिया घरानों के बड़े बड़े सपने… खुद को पिछड़ा और दोयम दर्जे का मान लेने की हीन भावना शायद हमें खुद को समृद्ध नहीं करने देती।

आज हम बात कर रहे हैं मूल रूप से स्क्रिप्टिंग की। मीडिया के तमाम संस्थानों में स्क्रिप्टिंग के कुछ पिटे पिटाए तरीके पढ़ाए जाते हैं। पैकेज का मतलब वीओ और बाइट होता है और इसी तरह के दो या तीन वीओ के पैकेज लिखना बच्चों को सिखाया समझाया जाता है। न तो उन्हें एंबिएंस या नैट साउंड के बारे में पता होता है और न ही पैकेज के परंपरागत तरीके से बाहर निकलना पता होता है। कोई पैकेज बाइट से या नैट साउंड से भी शुरू हो सकता है, कम ही बच्चे जानते हैं… पीटीसी (पीस टू कैमरा) के आधार पर भी पैकेज बनाए जा सकते हैं और बगैर बाइट के भी कोई पैकेज हो सकता है… ये बच्चों को आम तौर पर नहीं सिखाया जाता। कुछ मीडिया संस्थानों में पढ़ाते हुए ये देखकर ताज्जुब होता है कि तकरीबन 90 फीसदी बच्चे पैकेज लिखने या स्क्रिप्टिंग के अलग अलग तरीकों के बारे में जानते तक नहीं। स्पॉट रिपोर्टिंग करते हुए भी पैकेजिंग कैसे हो सकती है और कोई अच्छा और असरदार पैकेज लिखने के लिए विजुअल्स देखना कितना ज़रूरी है, ये आज न तो बच्चों को पता है और न ही तमाम चैनलों में बैठे हुए तथाकथित वरिष्ठ लोग इसे लेकर गंभीर हैं। इसीलिए आप पाएंगे कि आज तमाम चैनलों में कॉपी डेस्क जैसी कोई चीज़ नहीं रह गई, किसी की कॉपी चेक करने का चलन खत्म हो गया है और किसी तरह फटाफट विजुअल्स काटकर, कामचलाऊ जानकारी वाली स्क्रिप्ट लिखकर अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है।

दरअसल फटाफट टेलीविज़न और खबरों के नाम पर महज किसी तरह सूचना भर दे देने की हड़बड़ी ने टीवी में लिखने और बेहतर विजुअल ट्रीटमेंट की परंपरा को खत्म कर दिया है। शायद ये बदलती हुई तकनीक की वजह से भी है क्योंकि पहले टेप के ज़माने में जिस तरह विजुअल्स की लॉगिंग सिखलाई जाती थी और टेप प्रिव्यू करना ज़रूरी माना जाता था (ताकि आप अच्छे विजुअल्स या बाइट निकाल सकें), वो अब खत्म हो गया है। विजुअल्स अब सीधे आपके सिस्टम में इंजेस्ट होते हैं और इसे प्रिव्यू करना और हर फ्रेम देख पाना थोड़ा मुश्किल हो गया है।   इतना सब्र भी अब किसी के पास बचा नहीं। ऐसे में अच्छी स्क्रिप्ट के बारे में सोच पाना आसान नहीं है.. उस स्क्रिप्ट के बारे में जिसमें विजुअल्स बोलते हों और कम शब्दों और चंद वाक्यों में ही पूरी कहानी असरदार तरीके से बयान की जा सकती है। आज अगर आप ऐसी स्क्रिप्ट और ऐसी बेहतरीन विजुअल स्टोरी के बारे में बात करते हैं तो आपको कहा जाएगा.. हम कोई डॉक्यूमेंट्री तो बना नहीं रहे, खबरिया चैनल चला रहे हैं.. जल्दी से खबर दो। ऐसे में अगर कोई बेहतर और कल्पनाशील प्रोड्यूसर होगा भी तो वह न तो वो क्वालिटी दे पाएगा और न ही अच्छी स्क्रिप्ट लिख पाएगा। लेकिन अफ़सोस कि अब इंडस्ट्री कुछ इसी तरीके से चल रही है। पहले से तय कुछ स्पेशल प्रोग्राम्स में तो आपको थोड़ी बहुत स्क्रिप्टिंग और पैकेजिंग के अच्छे प्रयोग मिल जाएंगे लेकिन खबरों के ट्रीटमेंट में आपके पास गुंजाइश नहीं बच जाती।

लेकिन खबरों की इस आपाधापी में भी अच्छी स्क्रिप्टिंग कैसे हो, पैकेज को नए आयाम कैसे दिए जाएं और कुछ बेहतरीन शब्दों और एंबिएंस के इस्तेमाल से कैसे अपने भीतर की रचनात्मकता को बचाए रखा जाए, इसके कुछ तरीके हैं.. बशर्ते इसे लेकर आपके भीतर वो गंभीरता बची हो। निराशावाद, अपने वरिष्ठ सहकर्मियों के रवैये और अंदरूनी राजनीति से अगर आप खुद को बचाकर रख सकें तो कोई शक नहीं कि आप स्क्रिप्टिंग और पैकेजिंग में अपनी अलग छाप छोड़ सकते हैं। जाहिर है आपका एक अच्छा पैकेज आपकी पहचान बना सकता है, आपकी इज्जत अपनी टीम में बढ़ा सकता है और आपके भीतर की रचनात्मकता को बरकरार रख सकता है। (अगली किस्त में फटाफट स्क्रिप्टिंग और पैकेजिंग के कुछ तरीके)

अतुल सिन्हा पिछले करीब तीस वर्षों से प्रिंट और टीवी पत्रकारिता में सक्रिय। लगभग सभी राष्ट्रीय अखबारों में विभिन्न विषयों पर लेखन। अमर उजाला, स्वतंत्र भारत, चौथी दुनिया के अलावा टीवीआई, बीएजी फिल्म्स, आज तक, इंडिया टीवी, नेपाल वन और ज़ी मीडिया के विभिन्न चैनलों में काम। अमर उजाला के ब्यूरो में करीब दस वर्षों तक काम और विभिन्न विषयों पर रिपोर्टिंग। आकाशवाणी के कुछ समसामयिक कार्यक्रमों का प्रस्तुतिकरण। दैनिक जागरण के पत्रकारिता संस्थान में तकरीबन एक साल तक काम और गेस्ट फैकल्टी के तौर पर कई संस्थानों में काम। एनसीईआरटी के लिए संचार माध्यमों से जुड़ी एक पुस्तक के लेखक मंडल में शामिल और टीवी पत्रकारिता से जुड़े अध्याय का लेखन। हाल ही तक ज़ी मीडिया के राजस्थान चैनल में आउटपुट हेड। www.indianartforms.com

 

Tags: Atul SinhaScripting and Packaging
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