Study in International Communication:Chapter -2 of Many Voices One World, also known as the MacBride report, was a UNESCO publication of 1980 but still relevant to understand contemporary communication issues. The publication is a classic in the study of communication. The commission was chaired by Irish Nobel laureate Seán MacBride. Among the problems the report identified were concentration of the media, commercialization of the media, and unequal access to information and communication. The commission called for democratization of communication and strengthening of national media to avoid dependence on external sources, among others. Subsequently, Internet-based technologies considered in the work of the Commission, served as a means for furthering MacBride’s visions
अगर संचार के बारे में व्यापक अर्थ में विचार किया जाए, उसे सिर्फ समाचारों और संदेशों का आदान-प्रदान न समझा जाए, बल्कि ऐसी व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधि माना जाए जो विचारों, तथ्यों और आंकड़ों के समस्त प्रसारण और साझेदारी को समाहित किए हुए है तो किसी भी सामाजिक व्यवस्था में उसके मुख्य प्रकार्यों को निम्नानुसार चिन्ह्ति किया जा सकता है-
सूचना- समाचारों, आंकड़ों, तस्वीरों, तथ्यों और संदेशों, मतों और टिप्पणियों का संग्रह, भंडारण, संसाधन और प्रचार-प्रसार ताकि व्यक्तिगत, पर्यावरणिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को समझा जा सके, इन पर प्रतिक्रिया की जा सके और इनके बारे में यथोचित निर्णय लिया जा सके।
सामाजीकरण – ज्ञान के साझा भंडार का निर्माण ताकि लोग जिस समाज में रहते हैं उसके प्रभावी सदस्यों के बतौर काम करने में सक्षम हों तथा ऐसी सामाजिक एकता और चेतना का विकास हो जो सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भागीदारी की ओर ले जाए।
प्ररेणा- प्रत्येक समाज के तात्कालिक उद्देश्यों को बढ़ावा देना तथा व्यक्तिगत पसंद और इच्छाओं को उत्प्रेरित करना, साझा लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर लक्षित व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों को प्रेरित करना।
बहस- मुबाहिसा- तथ्यों का आदान-प्रदान ताकि सार्वजनिक मुद्दों पर अलग-अलग दृष्टिïकोणों में सहमति या स्पष्टीकरण हो सके। सार्वजनिक चिंता के तमाम स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मामलों में रुचि और भागीदारी बढ़ाने के लिए उनसे सम्बद्ध तथ्यों की आपूर्ति।
शिक्षा- जीवन की सभी अवस्थाओं में कुशलता और क्षमता की प्राप्ति, चरित्र निर्माण और बौद्धिक विकास के लिए ज्ञान का प्रचार प्रसार।
सांस्कृतिक प्रोत्साहन – अतीत की विरासत के संरक्षण हेतु सांस्कृतिक और कलात्मक रचनाओं का प्रचार प्रसार, व्यक्ति के मानसिक क्षितिज के विस्तार, उसकी कल्पना के जागरण और उसकी कलात्मक तथा सृजनात्मक जरूरतों को प्रेरित करने के जरिए संस्कृति का विकास।
मनोरंजन – व्यक्तिगत और सामूहिक मनोरंजन और आनंद हेतु संकेतों, प्रतीकों, ध्वनियों और बिम्बों के जरिए नाटक, नृत्य, कला, साहित्य, संगीत, प्रहसन, खेल इत्यादि का प्रसारण।
एकरूपता – सभी व्यक्तियों, समूहों, राष्ट्रों की विभिन्न संदेशों तक पहुंच का प्रावधान ताकि वे एक दूसरे को जान सकें तथा अन्य लोगों की जीवन स्थितियों, विचारों और इच्छाओं का सम्मान कर सकें।
इन प्रकार्यों को व्यक्ति के दृष्टिकोण से देखा गया है लेकिन इसके अतिरिक्त एक नई और महत्त्वपूर्ण परिघटना पर भी बल दिया जाना चाहिए। सामूहिक अस्मिताओं और समुदायों के लिए संचार एक महत्त्वपूर्ण जरूरत बन गया है। सभी समाजों को अंतर्राष्ट्रीय और स्थानीय घटनाओं या मौसम इत्यादि के बारे में अगर ठीक से सूचना नहीं मिलती तो उनका जीना मुश्किल हो जाएगा। सरकारों को यदि भविष्य की योजनाएं बनानी हैं तो उन्हें अपने देश के सभी हिस्सों से और समूची दुनिया से जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्तियों, फसलों के उत्पादन, जलापूर्ति इत्यादि के बारे मे सूचनाएं चाहिए। दुनिया के माल और मुद्रा बाजार के बारे में पर्याप्त आंकड़ों के बगैर सरकारें अंतर्राष्टरीय गतिविधियों और वार्ताओं में अक्षम हो जाती हैं।
औद्योगिक निकायों को भी अपनी उत्पादकता बढ़ाने और उत्पादन प्रक्रियाओं के आधुनिकीकरण के लिए तेज सूचनाओं की जरूरत पड़ती है, मुद्रा के उतार चढ़ाव की जानकारी के लिए बैंक वैश्विक नेटवर्कों पर अधिकाधिक आश्रित हो रहे हैं। सैन्य सेवाएं, राजनैतिक पार्टियां, हवाई जहाज कंपनियां, विश्वविद्यालय, शोध संस्थान और तमाम अन्य निकाय आज नियमित औरसक्षम सूचना प्रवाह के बगैर काम नहीं कर सकते। बहरहाल कई मामलों में सामूहिक सूचना और आंकड़ों की व्यवस्था लोक प्राधिकरणों या निजी निकायों की जरूरतों के अनुसार काम नहीं कर पाती। सरकारी सेवाओं, बड़े-बड़े उद्योगों और बैंकों को तो आमतौर पर पर्याप्त सूचनाएं मिल जाती हैं लेकिन इनके अलावा अनके स्थानीय निकाय, उद्योग, फर्मों और एजेंसियों की पहुंच संगठित सूचना तंत्र तक नहीं हो पाती इसलिए अनेक मामलों में अब भी ऐसी सूचना व्यवस्था पर जोर दिया जाता है जो निजी संचार की जरूरतों को पूरा करे। इस स्थिति में तत्काल सुधार जरूरी है जो विकासशील देशों में लाखों लोगों के विकास की संभावना को उल्टे ढंग से प्रभावित कर रही है।
चूंकि संचार के प्रकार्य मनुष्य के सभी भौतिक और अभौतिक जरूरतों से जुड़े हुए हैं इसलिए यह अत्यंत जरूरी है। मनुष्य सिर्फ रोटी से जिंदा नहीं रहता, संचार की जरूरत उस आंतरिक इच्छा का प्रमाण है जो औरों के सहयोग से समृद्ध जीवन की ओर ले जाती है। लोग भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ समग्र मानव विकास की आकांक्षा भी करते हैं। आत्मनिर्भरता, सांस्कृतिक अस्मिता, स्वतंत्रता, स्वाधीनता, मानव गरिमा के प्रति सम्मान, आपसी सहयोग, पर्यावरण को रूपांतरित करने में भागीदारी आदि कुछ अभौतिक इच्छाएं हैं जो संचार की मांग करती हैं। उच्च उत्पादकता, बेहतर फसलें, बढ़ी हुई सक्षमता और प्रतियोगिता, स्वास्थ्य में सुधार, बाजार की अच्छी स्थिति, सिंचाई सुविधाओं का उचित इस्तेमाल आदि भी ऐसे लक्ष्य हैं जिन्हें अन्य अनेक लक्ष्यों की तरह ही भरपूर संचार और आवश्यक आंकड़ों के बगैर नहीं हासिल किया जा सकता।
यह भी मान लेना चाहिए कि इनमें से प्रत्येक प्रकार्य भिन्न-भिन्न स्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न या परस्पर विरोधी आचरण कर सकता है। आसानी से संचार अद्र्धसत्य या असत्य के प्रचार अनुनय जोड़-तोड़ या मिथ्या प्रचार में बदल सकता है। संस्थानीकृत संचार नागरिकों को सूचित, नियंत्रित या प्रभावित करने के काम आ सकता है। अंतर्वस्तु अक्सर व्यक्तिगत पहचान को बनाए रखती है, लेकिन यह प्रवृत्तियों और आकांक्षाओं का मानकीकरण भी कर सकती है। जो सूचना व्यवस्थाएं तरह-तरह के स्रोतों और संदेशों का इस्तेमाल करती हैं वे दिमागी खुलापन को बढ़ाती हैं, (अलबत्ता चरम मामलों में अलगाव का खतरा भी बना रहा है) जबकि जो व्यवस्थाएं इसको नजरअंदाज करती हैं वे दिमागी गुलामी या पालतूपन भी विकसित कर सकती हैं। अक्सर इस सहज सत्य की उपेक्षा कर दी जाती है कि संचार के प्रकार्य सापेक्षिक हैं तथा विभिन्न समुदायों और देशों की अलग-अलग जरूरतों से जुड़े हुए हैं, हालांकि इसे माने बगैर भिन्नीकृत, विभाजित लेकिन अन्योन्याश्रित विश्व में संचार की समस्याओं के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण नहीं अपनाया जा सकता है। हरेक समाज के स्वभाव के अनुसार संचार के प्रभाव अलग-अलग हो सकते हैं। दरअसल समकालीन समाज जैसी कोई एक चीज नहीं, बल्कि अनेक समकालीन समाज हैं।
संचार के प्रकार्यों के बारे में सोचते हुए अंतर्वस्तु, संदर्भ और माध्यम के अलग-अलग महत्त्व को लेकर चलने वाली बहस भी याद आती है। कुछ सिद्धांतकारों का कहना है कि संचार और खासकर जनसंचार के साधन अंतर्वस्तु के मुकाबले अधिक प्रभावकारी हैं, इनका कहना है कि दरअसल माध्यम ही संदेश है। अन्य लोग अंतर्वस्तु को सबसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं और माध्यम को हाशिए की ताकत मानते हैं। कुछ और लोग उस सामाजिक संदर्भ को निर्णायक मानते हैं जिसमें संदेश का प्रसारण होता है। यह दृष्टिकोण ज्यादा समाजशास्त्रीय है और संचार की भूमिका से संबंधित सवालों का जवाब देने में अधिक उपयोगी लगता है।
पहली नजर में लग सकता है कि ये मुद्दे मुख्यत: सिद्धांतकारों और शोधार्थियों के काम के हैं लेकिन समाज के व्यापक हिस्सों- राजनेताओं, निर्णयकर्ताओं, योजना निर्माताओं, पेशेवर लोगों और आम जनता को भी इन पर विचार करना चाहिए, समाधान की खोज में इन्हें भी सक्रिय रूप से शामिल होना चाहिए। ऐसी प्रवृत्ति प्रकट भी हो रही है। वर्तमान चिंतन का मुख्य केंद्र माध्यम या तकनीक का आधुनिकीकरण और अधिसंरचनात्मक ढांचे का विस्तार होने की बजाय सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वातावरण है। इसी के साथ संदेश की प्रकृति, भूमिका और अंतर्वस्तु, यह प्रत्यक्ष है या प्रच्छन्न, व्यक्त है अथवा अव्यक्त- इस पर भी विचार हो रहा है।
यही वह दिशा है जिसकी ओर चिंतन और बहस को ले चलना बेहतर होगा। इस रिपोर्ट का उद्देश्य भी यही है कि संचार के विकास से जुड़े हुए सभी लोगों को इसी दिशा में अपने प्रयासों को केंद्रित करने के लिए प्रेरित किया जाए।
सामाजिक आवश्यकता
पहले संचार को अक्सर समाज के भीतर एक ऐसी परिघटना के रूप में देखा जाता था जो मूलत: तकनीक से जुड़ी हुई है और समाज के अन्य पहलुओं से कमोबेश अलग है। राजनीतिक व्यवस्था में इसकी जगह, सामाजिक ढांचे से इसके संबंध और सांस्कृतिक जीवन पर इसकी निर्भरता के बारे में शायद ही कभी भरपूर विचार किया जाता था। इसी के कारण समाज गलत चुनाव कर लेते हैं, गलत प्राथमिकताएं तय कर लेते हैं, अनुचित अधिरचनाओं पर ध्यान देते हैं या ऐसी तकनीकी खोजों के पीछे पड़े रहते हैं जिनकी उन्हें कोई जरूरत नहीं होती। अब इसे आमतौर पर सामाजिक प्रक्रिया माना जाता है और इसका अध्ययन अलग-थलग चीज के रूप में नहीं बल्कि व्यापक सामाजिक संदर्भ के भीतर रहकर हरेक कोण से किया जाता है। आधुनिक दुनिया में लोग इन अंतर्संबंधों को लेकर काफी सचेत हुए हैं।
ऊपर वर्णित सिद्धांत से ही एक और विचार निकला है जिसने कई बार संचार को सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी चीज के रूप में देखा है। इस तरह के अतिसरलीकरण को आधुनिक शोधों ने गलत साबित कर दिया है। एक तरफ तो लोगों को सक्रिय करना, सामाजिक बनाना, उनमें एकरूपता विकसित करना और उन्हें अपनी ही संस्कृति में ढालने की संचार की क्षमता को बढ़ा-चढ़ाकर देखा गया है, दूसरी तरफ श्रव्य दृश्य माध्यकों के मानकीकरण और विकृतकारी परिणामों का अवमूल्यन किया गया है। कुछ पर्यवेक्षक इस बात को मानते हैं कि समाजीकरण के क्षेत्र में माध्यम इतना प्रभावी है कि वह अपने दर्शकों के चिंतन और आचरण को तय कर सकता है। बेशक जनसंचार माध्यम- प्रेस, रेडियो और टेलीविजन- जनमत को केवल प्रतिबिंबित नहीं करते बल्कि उसे आकार भी देते हैं और नई प्रवृत्तियों को जन्म भी दे सकते हैं। इसके खिलाफ कई पर्यवेक्षकों का सोचना है कि ये माध्यम व्यापक ज्ञान और चुनाव हेतु दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करने की बजाय वास्तविक दुनिया का काल्पनिक और भ्रामक बोध पैदा करते हैं। जाने अनजाने ये सांस्कृतिक अलगाव और सामाजिक समरूपता पैदा कर सकते हैं, दुनिया का कोई भी हिस्सा इन खतरों से अछूता नहीं है। खासकर एकरूपता का यह दबाव तब से और बढ़ गया है जब से संचार का चरित्र औद्योगिक हो गया है व्यापक बाजार तक पहुंचने और जनता जो चाहती है, या उसकी इच्छा की जो समझ है, उसे प्रदान करने की कोशिश हमेशा नहीं हो अक्सर प्रदान की जाने वाली सामग्री की खराब गुणवत्ता की ओर ले जाती है।
संचार माध्यम चाहे सरकारी हों या निजी विज्ञापनों पर उनकी बढ़ती हुई निर्भरता ऐसी व्यापारिक मानसिकता का निर्माण करती है जिसमें उपभोग ही साध्य बन जाता है। बहुत सारे लोगों का कहना है कि संचार माध्यम विचारों की बहुलता पर निर्भर संस्कृति का विकास करने और ज्ञान का प्रसार करने की बजाय दुनिया की मिथकीय तस्वीर पैदा करते हैं। संदेशों की समरूपता और मानकीकरण बाजार के नियमों को प्रतिबिंबित करते हैं। जहां सूचना की शक्ति मुट्ठी भर लोगों के हाथ में है जो आंकड़ों और सूचना स्रोतों के मालिक हैं और संचार उपकरणों को भी नियंत्रित करते हैं वहां भी ऐसे ही परिणाम दिखाई पड़ते हैं। दूसरे शब्दों में, राजनीतिक या प्रशासनिक कदम बौद्धिक बंजरपन पैदा कर सकते हैं जहां कहीं प्रवाह मुख्यत: ऊपर से नीचे की ओर है वहां संचार माध्यम स्वतंत्र चिंतन और आलोचनात्मक विवेक की बजाए मान्यता प्राप्त विचारों की स्वीकृति को प्रोत्साहित करते हैं। एकतरफा प्रवाह के बतौर काम करते हुए संचार माध्यम कभी-कभी जनता तक प्रभुत्वशाली समूहों की ऐसी मान्यताओं को प्रसारित करने में सफल हो जाते हैं जिनमें लोग अपनी जरूरी चिंताओं और आकांक्षाओं की कोई छाप नहीं देखते। लेकिन यह भी सही है कि संचार माध्यम खासकर टेलीविजन कभी-कभी लोगों को वैकल्पिक जीवन शैली और आकांक्षाओं के जीवंत चित्र दिखा देता है, हालांकि परिणामस्वरूप विक्षोभ, वैकल्पिक सांस्कृतिक मूल्यों और विरोध प्रदर्शन के विभिन्न तरीकों को वैधता प्राप्त हो जाती है। हालांकि ये तस्वीरें कुछ-कुछ सफेद-काली हैं। इनमें हाल के अध्ययनों के कारण बहुत सुधार आया है। इन अध्ययनों से पता चलता है कि अनेक कारक और अनेक प्रवृत्तियां परस्पर अंत:क्रिया करती हुई सक्रिय हैं। यह लगातार स्पष्ट होता जा रहा है कि संचार की खामियों की बात दरअसल समकालीन समाजों में निहित अंतविर्रोधों की बात है।
समाजीकरण की प्रक्रिया के अनेक परिणाम निकलते हैं। ये वास्तविक हों या सतही, गहरे हों या छिछले, दीर्घकालीन हों या क्षणभंगुर- ये कई प्रभावों के कारण हो सकते हैं जिनमें संचार केवल एक है। संचार माध्यमों के सतही मूल्य को मान लेना वास्तविकता की गलत तस्वीर खींचना है। यह सवाल पूछना चाहिए कि संचार और खासकर जनसंचार सामाजिक परिवर्तन के अभिकरण के बतौर कैसे और किन सीमाओं में रहते हुए काम कर रहा है। सभी लाभप्रद परिवर्तनों के जनक के बतौर संचार माध्यमों को प्रतिष्ठित करना या अपनी समस्त आकांक्षाओं के संरक्षक के बतौर पेश करना मामले को बढ़ा-चढ़ाकर देखना है, दूसरी तरफ जो लोग जीवन की गुणवत्ता खत्म करने, स्थानीय परंपराओं के विनाश और संस्कृति की अवनति का आरोप संचार माध्यमों पर लगाते हैं उनकी चीख पुकार को दोहराना भी अतिकथन ही लगता है। संचार के उल्लेखनीय प्रभाव के बावजूद जितने गुण, जितनी कमियां और जितनी शक्ति उसमें है उससे अधिक का आरोप गलत होगा।
इसलिए यह निष्कर्ष स्पष्ट रूप से सही नहीं है कि संचार अपने आप में अच्छा है या बुरा है। संचार के ढांचे भी निरपेक्ष नहीं हैं, न ही उनके द्वारा प्रसारित संदेश। प्रयोग में आने वाले ढांचों और तकनीकों के बारे में निर्णय, समाचार, आंकड़ों और कार्यक्रम की अंतर्वस्तु के चुनाव की तरह की मूल्यपरक निर्णय पर आधारित होते हैं। इसी तरह का एक भ्रम प्रसारित संदेशों को पूर्णत: निष्पक्ष समझना है, अधिकतर संदेश व्यक्तिगत निर्णयों से अनुकूलित या उत्पन्न होते हैं। ये निर्णय संदेशों को संप्रेषित करने के लिए प्रयुक्त शब्दों में अंतर्निहित होते हैं। जो लोग अपनी आत्मा या प्राथमिक विश्वास भी संचार माध्यमों को अर्पित कर देते हैं उनके द्वारा देखे गए यथार्थ की तस्वीर सही नहीं होती। यह भी याद रखना चाहिए कि संचार शक्तिशाली है लेकिन सर्वशक्तिमान नहीं है। यह अंतर्वैयक्तिक संबंधों की दिशा या सामाजिक जीवन के सार को नहीं बदल सकता। संचार का सबसे अधिक प्रभाव तभी पड़ता है जब अन्य सामाजिक कारक भी उसे मजबूत बनाएं या संप्रेषित संदेश उदीयमान जनमत या हितों में पहले ही मौजूद हों। जैसा ईसप ने जबान के बारे में कहा है, संचार की सभी सुविधाओं का सदुपयोग और दुरूपयोग दोनों संभव है। संचार के नीति नियंताओं और इसमें कार्यरत लोगों की यह जिम्मेदारी है कि वे इन खतरों को कम करने और विकृतियों को सुधारने पर ध्यान दें। लेकिन सभी समाजों में कुछ और भी शक्तियां हैं जो पूरी तरह निष्क्रिय नहीं हैं, इसलिए उन पर भी ध्यान देना चाहिए।
कई समाजों में ऐसी शक्तियां हैं जो खतरों के खिलाफ काम करती हैं और विकृतियेां को सुधारती हैं। कई सरकारें राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान सुरक्षित रखने के लिए नीतियां बनाती हैं। राजनीतिक चालबाजी के खतरों का प्रतिरोध जमीनी आंदोलन, संचार के ‘‘वैकल्पिक’’ रास्तों या केवल कान न देने के जरिए किया जाता है। प्रतिरोध और विरोध के साधन संचार की आधिकारिक व्यवस्था से बहुत ज्यादा हैं। इसका मतलब यह नहीं कि संचार के नीति नियंताओं और इसमें कार्यरत लोगों की कोई भूमिका ही नहीं होती। बहरहाल निर्णायक प्रभाव तो सामाजिक शक्तियों का ही पड़ता है अगर वे एक बार जाग जाएं और लाभबंद हो जाएं।
हमारा सोच विचार हमें इसी दिशा में ले जा रहा है। शुरू से ही दो मुख्य निष्कर्षों को दिमाग में रखना चाहिए। एक तो यह कि विविधता और बहुलता ऐसे मूल्य हैं जिन्हें हतोत्साहित करने की बजाए प्रोत्साहित करना चाहिए। क्षेत्रीय स्तर पर और विश्व स्तर पर कई तरह के सामाजिक ढांचे और सामाजिक आर्थिक व्यवस्थाएं हैं। देशों के भीतर और उनमें विकास के विभिन्न स्तर और अनेक रास्ते हैं। इसी तरह संचार संसाधनों की अवधारणा और उनके प्रयोग को लेकर भी मत भिन्नताएं हैं। दूसरे यह कि संचार के रूप और उसकी अंतर्वस्तु में सुधार के लिए उठाए गए कदमों की सफलता तमाम अन्य उपायों से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। किसी भी समाज को कम उत्पीडऩकारी और समतामूलक, न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक बनाने के लिए ये उपाय किए जाने चाहिए। इन बातों को छिपाने की बजाय इन पर जोर दिया जाना चाहिए। ( जारी: to be continued)